शुक्रवार, सितंबर 13, 2013

मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार : कैसे सचिन दा ने आत्मसात किया अपनी आवाज़ में भाटियाली लोक संगीत ?

ज़रा सोचिए एक ऐसे संगीतकार के बारे में जिसने हिंदी फिल्मों में बीस से भी कम गाने गाए हों पर उसके हर दूसरे गाए गीत में से एक कालजयी साबित हुआ हो। जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ पंचम के पिता और त्रिपुरा के राजसी ख़ानदान से ताल्लुक रखने वाले सचिन देव बर्मन की। सचिन दा के संगीतबद्ध गीतों से कहीं पहले उनकी आवाज़ का मैं कायल हुआ था। जब जब रेडियो पर उनकी आवाज़ सुनी उनके गाए शब्दों की दार्शनिकता और दर्द में अपने आपको डूबता पाया। बहुत दिनों से सोच रहा था कि सचिन दा के गाए गीतों के बारे में एक सिलसिला चलाया जाए जिसमें बातों का के्द्रबिंदु में उनके संगीत के साथ साथ उनकी बेमिसाल गायिकी भी हो।


इस श्रंखला में मैंने उनके उन पाँच गीतों का चयन किया है जो मेरे सर्वाधिक प्रिय रहे हैं।  तो आज इस श्रंखला की शुरुआत बंदिनी के गीत 'ओ रे माँझी, ओ रे माँझी, ओ मेरे माँझी...मेरे साजन हैं उस पार' से जो कहानी के निर्णायक मोड़ पर फिल्म समाप्त होने की ठीक पूर्व आता है। बंदिनी छुटपन में तब देखी थी जब दूरदर्शन श्वेत श्याम हुआ करता था। सच कहूँ तो आज फिल्म की कहानी भी ठीक से याद नहीं पर इस गीत और इसका हर एक शब्द दिमाग के कोने कोने में नक़्श है। कोरी भावुकता कह लीजिए या कुछ और, जब भी स्कूल और कॉलेज के ज़माने में इस गीत को सुनता था तो दिल इस क़दर बोझिल हो जाता कि मन अकेले कमरे में आँसू बहाने को करता। क्या बोल लिखे थे शैलेंद्र ने 

मन की किताब से तुम मेरा नाम ही मिटा देना..
गुण तो न था कोई भी.. अवगुण मेरे भुला देना।

नदी के जल से धुले सीधे सच्चे शब्द जो सचिन दा की आवाज़ के जादू से दिल में भावनाओं का सैलाब ले आते।

इस गीत को सुनते हुए क्या आपके मन में ये प्रश्न नहीं उठता कि एक नाविक द्वारा गाए जाने वाले गीतों को त्रिपुरा का ये राजकुमार अपनी गायिकी में इतनी अच्छी तरह कैसे समाहित कर पाया?

दरअसल असम, पश्चिम बंगाल, बाँग्लादेश से बहती ब्रह्मपुत्र नदी अपने चौड़े पाटों के बीच लोकसंगीत की एक अद्भुत धारा को पोषित पल्लवित करती है जिसे लोग भाटियाली लोक संगीत के नाम से जानते हैं। अविभाजित भारत में त्रिपुरा और आज का बाँग्लादेश का इलाका एक ही रियासत का हिस्सा रहे थे। 1922 में  इंटर पास करने के बाद सचिन दा बीए करने के लिए कलकत्ता जाना चाहते थे पर उनके पिता ने उन्हें कोमिला बुला लिया।  सत्तर के दशक में लोकप्रिय हिंदी पत्रिका धर्मयुग में दिए साक्षात्कार में सचिन देव बर्मन ने अपने उन दिनों के संस्मरण को बाँटते हुए लिखा था...

"जब एक वर्ष तक मैं पिताजी के पास रहा तब मैंने आसपास का सारा क्षेत्र घूम डाला। मैं मल्लाहों और कोलियों के बीच घूमता और उनसे लोकगीतों के बारे में जानकारी एकत्र करता जाता। मैं वैष्णव और फकीरों के बीच बैठता, उनसे गाने सुनता, उनके साथ हुक्का पीता। उन्हें पता भी नहीं चल पाया कि मैं एक राजकुमार हूँ। सारे नदी नाले जंगल तालाब मेरी पहचान के हो गए। उन दिनों मैंने इतने सारे गीत इकठ्ठा कर डाले कि मैं आज तक उनका उपयोग करता आ रहा हूँ पर भंडार कम ही नहीं होता। चालीस पचास वर्ष पूर्व के गीत आज भी मेरे गले से उसी सहजता से निकलते हैं।"

सो किशोरावस्था में अपने आस पास के संगीत से जुड़ने की वज़ह से सचिन दा के गले में जो सरस्वती विराजमान हुईं उसका रसपान कर आज कई दशकों बाद भी संगीतप्रेमी उसी तरह आनंदित हो रहे हैं जैसा पचास साठ साल पहले उन फिल्मों के प्रदर्शित होने पर हुए थे। तो आइए सचिन दा की करिश्माई आवाज़ के जादू में एक बार और डूबते हैं बंदिनी के इस अमर गीत के साथ...





ओ रे माँझी, ओ रे माँझी, ओ मेरे माँझी,
मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार हूँ इस पार
ओ मेरे माँझी अब की बार, ले चल पार, ले चल पार
मेरे साजन हैं उस पार..

मन की किताब से तुम मेरा नाम ही मिटा देना
गुण तो न था कोई भी अवगुण मेरे भुला देना
मुझे आज की विदा का, मर के भी रहता इंतज़ार
मेरे साजन हैं उस पार..

मत खेल जल जाएगी, कहती है आग मेरे मन की
मैं बंदिनी पिया की, मैं संगिनी हूँ साजन की
मेरा खींचती है आँचल, मनमीत तेरी, हर पुकार
मेरे साजन..ओ रे माँझी...

विमल राय ने इस गीत को जिस खूबसूरती से पर्दे पर उतारा था वो भी देखने के क़ाबिल है। अगर सचिन दा के गाए इस गीत के संगीत पक्ष की ओर ध्यान दें तो पाएँगे कि पूरे गीत में बाँसुरी की मधुर तान तबले की संगत के साथ चलती रहती है। गीत की परिस्थिति के अनुसार स्टीमर के हार्न और ट्रेन की सीटी को गीत में इतने सटीक ढंग से डाला गया है कि अपने साजन से बिछुड़ रही  नायिका के मन में उठ रहा झंझावात जीवंत हो उठता है।


सचिन दा की गायिकी से जुड़ी इस श्रंखला की अगली कड़ी में चर्चा होगी उनके गाए एक और बेमिसाल गीत की...

सचिन दा की गायिकी से जुड़ी इस श्रंखला की सारी कड़ियाँ...

गुरुवार, अगस्त 29, 2013

सोना महापात्रा @ MTV Coke Studio : 'दम दम अंदर' और 'मैं तो पिया से नैना लड़ा आई रे...'

कोक स्टूडिओ (Coke Studio) का भारतीय संस्करण अपने तीसरे साल मे है। विगत दो सालों में अपने अग्रज पाकिस्तानी कोक स्टूडिओ की तुलना में ये फीका ही रहा है। पर अपने शैशव काल से बाहर निकलता हुआ ये कार्यक्रम हर साल कुछ ऐसी प्रस्तुतियाँ जरूर दे जाता है जिससे इसके भविष्य के प्रति और उम्मीद जगती है। इस बार मुझे अपनी चहेती पार्श्व गायिका सोना महापात्रा को इस कार्यक्रम में सुनने का बेसब्री से इंतज़ार था। मुझे हमेशा से लगता रहा है कि सोना की आवाज़ की गुणवत्ता बेमिसाल है और उनकी गायिकी की विस्तृत सीमाओं का हिंदी फिल्म जगत सही ढंग से इस्तेमाल नहीं कर पाया है। संगीतकार राम संपत जिनसे सोना परिणय सूत्र में बँध चुकी हैं इस मामले में अपवाद जरूर हैं पर सोना को अपने हुनर के मुताबिक अन्य संगीतकारों का साथ मिलता रहे तो मेरे जैसे संगीतप्रेमी को ज्यादा खुशी होगी।

 MTV के इस कार्यक्रम में राम संपत ने सोना की आवाज़ का दो बार इस्तेमाल किया और दोनों बार नतीजा शानदार रहा। तो आइए सुनते हैं आज इन दोनों गीतों को ।

पहले गीत में ईश भक्ति का रंग सर चढ़कर बोलता है। गीत की शुरुआत होती है सामंथा एडवर्ड्स की गाई इन पंक्तियों से, जिसमें दुख और सुख दोनों परिस्थितियों में ईश्वर की अनुकंपा से गदगद भक्त के प्रेम को व्यक्त किया गया है। 

When I am weak,
You give me strength,
You give me hope,
When I am down,
In the face of darkness,
You are my guide,
You are my love,
My love divine.
Help me forgive,
When I am hurt,
Help me believe,
When I am lost,
In times of trouble,
You ease my weary mind,
You are my love,
My love divine.

सामंथा, राम सम्पत के शब्दों को पूरे हृदय से आत्मसात करती दिखती हैं। मुंबई की ये बहुमुखी प्रतिभा पश्चिमी जॉज़ संगीत के साथ साथ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में समान रूप से दक्ष हैं। पिछले दो दशकों में वो एक संगीत शिक्षक, संयोजक और गायिका की विविध भूमिकाओं को भली भांति निभाती आयी हैं। सामंथा की गायिकी और राम संपत के खूबसूरत इंटरल्यूड् से स्थिर हुए मन को बदलती रिदम के साथ सोना की आवाज़ नई उमंग का संचार करती है। गीतकार मुन्ना धीमन अपने  शब्दों की लौ से  भक्त को तरंगित अवस्था में ले आते हैं।




दम दम अंदर बोले यार
हरदम अंदर बोले यार
यार में मैं बोलूँ ना बोलूँ
मेरे अंदर बोले यार

घर के अंदर बोले यार
घर के बाहर बोले यार
छत के ऊपर नाचे यार
मंदिर मस्जिद बोले यार

हम ने यार दी नौकरी कर ली
कर ली प्यार दी नौकरी कर ली
उसके द्वार पर जा बैठे हैं
वो खोले ना खोले द्वार
लौ लागी ऐसी लौ लागी
फिरती हूँ मैं भागी भागी
मैं तुलने को राजी राजी
कोई तराजू तौले यार...

When I am weak...

हिंदी और अंग्रेजी शब्दों के मेल कर से बना ये गीत अपने बेहतरीन संगीत संयोजन दिल को सुकून पहुँचाता है।

इसी कार्यक्रम के अंत में सोना महापात्रा  ने अमीर ख़ुसरो साहब की लिखी एक और रचना को पेश किया जिसे खुसरो साहब ने अपने गुरु निजामुद्दिन औलिया के लिए लिखा था। सोना की आवाज़ में जो उर्जा है वो अमीर खुसरों की भावनाओं और गीत के चुलबुलेपन से पूरा न्याय करती दिखती है..

मैं तो पिया से नैना लड़ा आई रे
घर नारी कँवारी कहे सो कहे
मैं तो पिया से नैना लड़ा आई रे
सोहनी सुरतिया मोहनी मुरतिया..
मैं तो हृदय के पीछे समा आई रे..
मैं तो पिया से..
खुसरो निज़ाम के बली बली जैये
मैं तो अनमोल चेली कहा आई रे

सोना इस गीत के बारे में कहती हैं
इस गीत में गिनती गिन कर ऊपर के सुरों तक पहुँचने के बजाए मैंने पूरी तरह गीत के उन्माद में अपने आप को झोंक दिया। अगर मैं ऐसा नहीं करती तो शायद गीत की भावनाओं से मेरा तारतम्य टूट जाता। 
दोनों ही गीतों में कोरस का राम संपत ने बड़ा प्यारा इस्तेमाल किया है।



तो बताइए सोना महापात्रा की गायिकी से सजी जनमाष्टमी की ये भक्तिमय सुबह आपको कैसी लगी?

एक शाम मेरे नाम पर सोना महापात्रा

रविवार, अगस्त 18, 2013

'एक शाम मेरे नाम' ने जीता इंडीब्लॉगर 'Indian Blogger Awards 2013' में सर्वश्रेष्ठ हिंदी ब्लॉग का खिताब !

परसों शाम को  भारतीय ब्लॉगरों के सबसे बड़े समूह  इंडीब्लॉगर ने अपने द्वारा संचालित The Indian Blogger Award 2013 की घोषणा की। अपने ब्लॉग पाठकों को बताते हुए अत्यंत हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ कि जो प्रेम आप पिछले सात वर्ष से इस ब्लॉग को देते रहे हैं उसी प्यार की बदौलत 'एक शाम मेरे नाम' को हिंदी के सर्वश्रष्ठ ब्लॉग के पुरस्कार से नवाज़ा गया है। 



वैसे आप जरूर जानना चाहेंगे कि इंडीब्लॉगर पुरस्कारों में चुनाव का मापदंड क्या था ? इंडीब्लॉगर ने इस पुरस्कार के लिए विभिन्न श्रेणियों की घोषणा की थी। किसी ब्लॉग के लिए उसकी विषयवस्तु पर 34%, मौलिकता पर 32 % अपने पाठकों से विचार विमर्श पर 18 % और ब्लॉग को इस्तेमाल करने की सहूलियत पर 16 % अंक रखे गए थे। विभिन्न श्रेणियों में बँटे ब्लॉगों के मूल्यांकन करने के लिए अपनी अपनी विधा में महारत हासिल कर चुके इन सोलह जूरी मेम्बरान को रखा गया था। इनमें से कुछ को तो आप चेहरे से पहचानते होंगे । वैसे बाकियों के बारे में जानना हो तो यहाँ देखें। 


हिंदी ब्लागिंग के नारद युग से आज तक इसके उतार चढ़ाव का साक्षी रहा हूँ। पिछले कुछ सालों में अंग्रेजी ब्लॉगरों के साथ भी एक मंच पर भाग लेने का मौका मिला है। वैसे तो हिंदी ब्लॉगिंग ने मुझे कई अभिन्न ब्लॉगर मित्र दिए हैं पर जब पूरे हिंदी ब्लॉगर समुदाय के सामूहिक क्रियाकलापों पर नज़र दौड़ाता हूँ तो निराशा ही हाथ लगती है। ब्लॉगिंग के शुरुआती दिनों में मैंने कई ब्लॉगर मीट्स में हिस्सा लिया जहाँ भी गया वहाँ के ब्लॉगरों से मिलने की कोशिश की और सच बहुत मजा भी आया। मुंबई और दिल्ली में ब्लागरों के सानिध्य में बिताई गई वो रातें आज भी दिलो दिमाग में नक़्श हैं। पर वक़्त के साथ हिंदी ब्लागिंग के तथाकथित महामहिमों ने ऐसा माहौल रच दिया कि ब्लागिंग सम्मेलन और पुरस्कार समारोह  एक दूसरे को नीचा दिखाने के अखाड़े बन गए और नतीजन मैं अपने आपको ऐसे क्रियाकलापों से दूर करता गया। इससे उलट जब भी मैंने अंग्रेजी ब्लॉगरों के साथ किसी कार्यक्रम में हिस्सा लिया माहौल को खुला और बेहद प्रोफेशनल पाया।

हिंदी ब्लॉगिंग के प्रति मेरी आस्था शुरु से रही है और इस पुरस्कार ने उस आस्था को और मजबूत किया है। हिंदी ब्लॉगर अक्सर इस समस्या का जिक्र करते हैं कि उनके ज्यादातर पाठक हिंदी ब्लॉगर हैं। पर जहाँ तक 'एक शाम मेरे नाम' का सवाल है, इस ब्लॉग के अधिकांश पाठक हिंदी संगीत और साहित्य में रुचि रखने वाले वे पाठक हैं जिनका ब्लॉगिंग से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है।  इसीलिए ये पुरस्कार मैं सबसे पहले उन पाठकों को समर्पित करना चाहता हूँ जो हिंदी ब्लागिंग का हिस्सा ना रह कर भी बतौर ई मेल सब्सक्राइबर, फेसबुक पेज और नेटवर्क ब्लॉग के ज़रिए मेरा उत्साहवर्धन करते रहे। यकीन मानिए आप ही मेरी सच्ची शक्ति हैं, क्यूँकि मैं जानता हूँ कि आप यहाँ किसी प्रत्याशा से नहीं आते। आप यहाँ तभी आएँगे जब मैं आपको आपकी दौड़ती भागती ज़िंदगी में सुकून के कुछ पल मुहैया करा सकूँ। सच मानिए मेरी कोशिश यही रहती है कि मुझे संगीत और साहित्य से जुड़ा कुछ भी अच्छा दिखे तो उसे मैं आपको अपने तरीके से उन्हें विश्लेषित कर पेश कर सकूँ ।

'एक शाम मेरे नाम' के पाठकों की पसंद अलग अलग है कुछ लोग इसे नए संगीत के बारे में ख़बर रखने के लिए पढ़ते हैं तो कुछ को शायर और शायरी से जुड़ी प्रविष्टियों को पढ़ने में ज्यादा आनंद आता है। कुछ मुझसे पुस्तकों की चर्चा बड़े अंतराल करने की शिकायत करते हैं तो कुछ संगीत के स्वर्णिम युग के अज़ीम फ़नकारों के बारे में लिखने की दरख़ास्त करते हैं। यूँ तो मेरी कोशिश रहती है कि इन सारे विषयो के सामंजस्य बैठा कर चलूँ पर कभी समयाभाव और कभी उस विषय पर नया कुछ ना कह पाने की स्थिति में मैं उस पर कुछ लिख नहीं पाता।

इंडीब्लॉगर के आलावा मैं एक बार उन सभी प्रशंसकों का धन्यवाद देना चाहता हूँ जिन्होंने  नामंकन प्रक्रिया के दौरान इस ब्लॉग की अनुशंसा की और साथ ही अपने विचार भी दिए कि ये उन्हें ये ब्लॉग क्यूँ पसंद है? फेसबुक पर आपने जो शुभकामना संदेश लिखे हैं उनसे मै अभिभूत हूँ और आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आगे भी आपकी आशाओं पर ख़रा उतरने की कोशिश करता रहूँगा। बस यूँ ही आपका साथ मिलता रहे तो ये शामें यूँ ही गुलज़ार होती रहेंगी। वैसे 'गुलज़ार' होने की बात से याद आया कि आज इस हरदिलअजीज़ शायर का 79 वाँ जन्मदिन है। तो चलते चलते उनकी ये प्यारी सी ग़ज़ल आपके सुपुर्द करता चलूँ।

कहीं तो गर्द उड़े ,या कहीं गुबार दिखे
कहीं से आता हुआ कोई शहसवार दिखे

खफा थी शाख से शायद, के जब हवा गुजरी
ज़मीन पे गिरते हुए फूल बेशुमार दिखे

रवाँ हैं फिर भी रुके है वहीं पे सदियों से
बड़े उदास दिखे जब भी आबशार दिखे

कभी तो चौंक के देखें कोई हमारी तरफ
किसी की आँख में हम को भी इंतज़ार दिखे

कोई तिलिस्मी सिफत थी जो इस हुजूम में वों
हुए जो आँख से ओझल तो बार बार दिखे

बुधवार, अगस्त 07, 2013

हरिवंशराय बच्चन और सतरंगिनी : इसीलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

हरिवंशराय बच्चन की लिखी अनेकानेक पुस्तकों में सतरंगिनी  (Satrangini) का मेरे दिल में विशेष स्थान है। स्कूल जीवन में बच्चन जी के व्यक्तित्व के प्रति पहला आकर्षण उनकी कविता जो बीत गई वो बात गई से पैदा हुआ। स्कूल की किताबों में प्रत्येक वर्ष किसी कवि की अमूमन एक ही रचना होती थी। इसलिए हर साल जब नई 'भाषा सरिता' हाथ में होती तो ये जरूर देख लेता था कि इसमें बच्चन और दिनकर की कोई कविता है या नहीं। कॉलेज के ज़माने में बच्चन जी की कविताओं से सामना होता रहा और उनकी लिखी पसंदीदा कविताओं की सूची में जो बीत गई के बाद, नीड़ का निर्माण फिर फिर, अँधेरे का दीपक और नई झनकार  शामिल हो गयीं। बाद में पता चला कि ये सारी कविताएँ उनके काव्य संकलन सतरंगिनी का हिस्सा थीं।

बाद में जब उनकी आत्मकथा पढ़ते हुए क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी से जुड़ी घटना को पढ़ा तो इन कविताओं को उनकी पहली पत्नी श्यामा के निधन और उनकी ज़िंदगी में तेजी के आगमन से जोड़ कर देख सका। हरिवंश राय बच्चन हमेशा अपने पाठकों से उनकी रचनाओं को उनके जीवन की परिस्थिति और मनःस्थिति के आलोक में समझने की अपेक्षा रखते रहे हैं। संतरंगिनी के चौथे संस्करण की शुरुआत में अपने पाठकों से ये विनम्र निवेदन करते हुए वे कहते हैं..

आप ‘सतरंगिनी’ पढ़ने के पूर्व ‘मधुशाला’, मधुबाला’, ‘मधु कलश’ और ‘निशा निमन्त्रण’, ‘एकान्त संगीत’, ‘आकुल अन्तर’ पढ़ लें; यदि आप अधिक सचेत पाठक हों तो मैं कहूँगा कि आप मेरी ‘प्रारम्भिक रचनाएँ’ और ‘खैयाम की मधुशाला’ भी पढ़ लें। रचना-क्रम में पढ़ने से रचयिता के विकास का आभास होता चलता है, साथ ही प्रत्येक रचना उसके बाद आने वाली रचना की पूर्वपीठिका बनती जाती है और उसे ठीक समझने में सहायक सिद्ध होती हैं; यों मैं जानता हूँ कि साधारण पाठक के मन में किसी लेखक की रचनाओं को किसी विशेष क्रम में पढ़ने का आग्रह नहीं होता। मान लीजिए, ‘सतरंगिनी’ मेरी पहली रचना है जो आपके हाथों में आती है, तो आपको यह कल्पना तो करनी ही होगी कि वह जीवन की किस स्थिति, किन मनःस्थिति में है जो ऐसी कविताएँ लिख रहा है। कविताओं की साधारण समझ-बूझ के लिए इससे अधिक आवश्यक नहीं, पर उनका मर्म वही हृदयंगम कर सकेगा जो पूर्व रचनाओं की अनुभूतियों को अपनी सहानुभूति देता हुआ आएगा।

सतरंगिनी में बच्चन साहब की कुल 49 कविताएँ और एक शीर्षक गीत है। इन 49 कविताओं को पुस्तक में सात अलग रंगों में बाँटा गया है और प्रत्येक रंग में उनकी सात रचनाओं का समावेश है। 


ख़ुद बच्चन साहब के शब्दों में सतरंगिनी तम भरे, ग़म भरे बादलों में इन्द्रधनुष रचने का प्रयास है। जिन कविताओं का मैंने ऊपर जिक्र किया है वे सभी उनके जीवन में तेजी जी के रूप में फूटी आशा की किरणों की अभिव्यक्ति मात्र हैं। पर बच्चन के अनुसार ये कोई सस्ता आशावाद नहीं , इसे अपने 'अश्रु स्वेद रक्त' का मूल्य चुकाकर प्राप्त किया गया है। आज की इस प्रविष्टि में सतरंगिनी की एक और आशावादी रचना आपको पढ़ाने और सुनाने जा रहा हूँ। सुनाना इस लिए की बच्चन की कविता को बोलकर पढ़ने से दिल में जो भावनाएँ उमड़ती घुमड़ती हैं उनकी अनुभूति इतनी आनंदमयी है कि मैं उसका रस लिए बिना कविता को आप तक नहीं पहुँचाना चाहता।



इसीलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

जमीन है न बोलती न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे नहीं जबान खोलता,
        नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी गिना गया,
        कहाँ-कहाँ न फिर चुका दिमाग-दिल टटोलता,
कहाँ मनुष्य है कि जो उमीद छोडकर जिया,
इसीलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो

इसीलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

तिमिर - समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी,
विनिष्ट स्वप्न से लदी, विषाद याद से भरी,
        न कूल भुमि का मिला, न कोर भोर की मिली,
        न कट सकी, न घट सकी विरह - घिरी विभावरी,
कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की,
इसीलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

इसीलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

उजाड से लगा चुका उमीद मैं बहार की,
निदाघ से उमीद की बसंत के बयार की,
        मरुस्थली मरिचिका सुधामयी मुझे लगी,
        अंगार से लगा चुका उमीद मैं तुषार की,
कहाँ मनुष्य है जिसे न भूल शूल-सी गडी,
इसीलिए खडा रहा कि भूल तुम सुधार लो!

इसीलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
पुकार लो दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!

(निदाघ : ग्रीष्म लहरॆ लू , तिमिर : अंधकार, विषाद : दुख, शूल ‍: काँटा,  कूल : किनारा, विभावरी : रात,  तुषार : बर्फ, हिम)

इसीलिए जीवन में कभी उम्मीद ना छोड़िए, ना जाने कब कोई सदा आपको अकेलेपन के अंधकार से मुक्त कर जाए....

गुरुवार, अगस्त 01, 2013

कितने दफ़े दिल ने कहा, दिल की सुनी कितने दफ़े : क्या आप 'शर्मा जी' जैसा बनना नहीं चाहेंगे?

पिछले हफ्ते टीवी पर तनु वेड्स मनु दोबारा देखी। फिल्म तो ख़ैर दोबारा देखने पर भी उतनी ही मजेदार लगी जितनी पहली बार लगी थी पर 'शर्मा जी (माधवन)' का चरित्र इस बार दिल में कुछ और गहरे बैठ गया। कितनी दुत्कार, कितनी झिड़कियाँ सहते रहे पर हिम्मत नहीं हारी उन्होंने।  कोशिश करते रहे, नाकामयाबी हाथ लगी तो उसे ही समय का तकाज़ा मान कर ना केवल स्वीकार कर लिया पर अपने रकीब की सहायता करने को भी तैयार हो गए। मन के अंदर हाहाकार मचता रहा पर प्रकट रूप में अपने आप को विचलित ना होने दिया। पर शर्मा जी एकदम से दूध के धुले भी नहीं हैं वक़्त आया तो कलम देने से कन्नी काट गए।  आखिर शर्मा जी इंसान ही थे, धर्मराज युधिष्ठिर तक अश्वथामा का इतिहास भूगोल बताए बगैर उसे दुनिया जहान से टपका गए थे। अब इतना तो बनता है ना 'इसक' में ।


दिक्कत यही है कि आज कल की ज़िदगी में 'शर्मा जी' जैसे चरित्र मिलते कहाँ हैं? आज की पीढ़ी प्यार में या परीक्षा में नकारे जाने को खुशी खुशी स्वीकार करने को तैयार दिखती ही नहीं है। अब आज के अख़बार की सुर्खियाँ देखिए। प्रेम में निराशा क्या हाथ लगी  चल दिए हाथ में कुल्हाड़ी लेकर वो भी जे एन यू जैसे भद्र कॉलेज में। इंतज़ाम भी तिहरा था। कुल्हाड़ी से काम ना बना तो पिस्तौल और छुरी तो है ही।

आजकल हो क्या रहा है इस समाज को? जब मर्जी आई एसिड फेका, वो भी नहीं तो अगवा कर लिया। क्या इसे प्रेम कहेंगे ? इस समाज को जरूरत है शर्मा जी जैसी सोच की। उनके जैसे संस्कार की। नहीं तो वक़्त दूर नहीं जब प्रेम कोमल भावनाओं का प्रतीक ना रह कर घिन्न और वहशत का पर्यायी बन जाएगा।

दरअसल 'शर्मा जी' का जिक्र छेड़ने के पीछे  मेरा एक और प्रयोजन था। आपको तनु वेड्स मनु के उस खूबसूरत गीत को सुनवाने का जिसे मेरे पसंदीदा गीतकार राजशेखर ने लिखा था। लिखा क्या था 'शर्मा जी' के दिल के मनोभावों को हू बहू काग़ज़ पर उतार दिया था।

संगीतकार कृष्णा जिन्हें 'क्रस्ना' के नाम से भी जाना जाता है और राजशेखर की जोड़ी के बारे में तो आपको यहाँ बता ही चुका हूँ। सनद रहे कि ये वही राजशेखर हैं जो आजकल फिल्म 'इसक' में ऐनिया ओनिया रहे हैं यानि सब एन्ने ओन्ने कर रहे हैं। 

गीत में क्रस्ना बाँसुरी का इंटरल्यूड्स में बेहतरीन इस्तेमाल करते हैं। मोहित चौहान रूमानी गीतों को निभाने में वैसे ही माहिर माने जाते हैं पर यहाँ तो एकतरफा प्रेम के दर्द को भी वो बड़े सलीके से अपनी आवाज़ में उतार लेते हैं। 


कितने दफ़े दिल ने कहा, दिल की सुनी कितने दफ़े
वैसे तो तेरी ना में भी मैंने ढूँढ़ ली अपनी ख़ुशी
तू जो गर हाँ कहे तो बात होगी और ही
दिल ही रखने को कभी, ऊपर-ऊपर से सही, कह दे ना हाँ
कह दे ना हाँ, यूँ ही
कितने दफ़े दिल ने कहा, दिल की सुनी कितने दफ़े

कितने दफ़े हैराँ हुआ मैं ये सोचके
उठती हैं इबादत की ख़ुशबुएँ क्यूँ मेरे इश्क़ से
जैसे ही मेरे होंठ ये छू लेते हैं तेरे नाम को
लगे कि सजदा किया कहके तुझे शबद के बोल दो
ये ख़ुदाई छोड़ के फिर आजा तू ज़मीं पे
और जा ना कहीं, तू साथ रह जा मेरे
कितने दफ़े दिल ने कहा, दिल की सुनी कितने दफ़े

कितने दफ़े मुझको लगा, तेरे साथ उड़ते हुए
आसमानी दुकानों से ढूँढ़ के पिघला दूँ मैं चाँद ये
तुम्हारे इन कानों में पहना भी दूँ बूँदे बना
फिर ये मैं सोच लूँ समझेगी तू, जो मैं न कह सका
पर डरता हूँ अभी, न ये तू पूछे कहीं, क्यूँ लाए हो ये
क्यूँ लाए हो ये, यूँ ही
कितने दफ़े दिल ने कहा, दिल की सुनी कितने दफ़े

वैसे भी ये गीत उन सबको अच्छा लगेगा जिनमें शर्मा जी के चरित्र का अक़्स है। मुझमें तो है और आपमें?

शनिवार, जुलाई 27, 2013

मिल मिल के बिछड़ने का मज़ा क्यों नहीं देते : क्या आपको याद हैं घनशाम वासवानी ? (Ghansham Vaswani)

घनशाम वासवानी.. अस्सी के दशक में  इस नाम को मैंने पहली बार सुना था विविध भारती के रंग तरंग कार्यक्रम में। उस ज़माने में जगजीत सिंह, पंकज उधास, अनूप जलोटा, चंदन दास और पीनाज़ मसानी की ग़ज़ल गायिकी में तूती बोलती थी। इनके आलावा जो ग़ज़ल गायक इस दशक में उभरे उन्हें श्रोताओं के सामने लाने में जगजीत सिंह का बड़ा हाथ था। तलत अजीज़ , घनशाम वासवानी, अशोक खोसला, विनोद सहगल कुछ ऐसे ही नाम हैं जो जगजीत के प्रोत्साहन से ग़जल गायिकी के सीमित क्षितिज में चमके। 

पर मैं तो आपसे बात घनशाम वासवानी की कर रहा था जिन्हें जगजीत और चित्रा ने अंतर महाविद्यालय संगीत प्रतियोगिता में पहली बार सुना था और उनकी गायिकी से खासे प्रभावित भी हुए थे। घनशाम वासवानी एक सांगीतिक परिवार से ताल्लुक रखते हैं। उनके पिता संतू वासवानी सिंधी के जाने माने सूफ़ी गायक थे। विज्ञान में स्नातक और कानून की पढ़ाई पढ़ने वाले घनश्याम वासवानी का झुकाव शुरु से संगीत की ओर रहा। उस्ताद आफताब अहमद खाँ, पंडित अजय पोहनकर और पंडित राजाराम शु्क्ल से उन्होंने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली और उसके बाद जगजीत के मार्गदर्शन में वो एक ग़ज़ल गायक बन गए।

अस्सी के ही दशक में ही जगजीत सिंह के संगीत निर्देशन में घनशाम वासवानी का एक एलबम HMV पर आया । एलबम का नाम था Jagjit Singh presents Ghansham Vaswani..। जैसा कि मैंने पहले उल्लेख किया था कि इसी एलबम की एक ग़ज़ल विविधभारती पर उन दिनों खूब बजा करती थी। ग़ज़ल का मतला था मिल मिल के बिछड़ने का मज़ा क्यों नहीं देते..हर बार कोई ज़ख़्म नया क्यों नहीं देते.............। जख़्म खाने की उम्र थी सो उस ग़ज़ल के पहले श्रवण के पश्चात ही मैं घायल हो गया था। लिहाजा स्कूल की एक कॉपी में वो ग़ज़ल सहेज कर रख ली गई थी। पर वक्त के साथ पिताजी के तबादले हुए और वो कॉपी कब रद्दी वाले की भेंट चढ़ गई पता ही नहीं चला। उस ज़माने में ना कंप्यूटर था और ना ही इंटरनेट, इसलिए अपनी इस प्रिय ग़ज़ल को अपने मस्तिष्क के कोने की 'मेमोरी' में डालने के आलावा मेरे पास कोई चारा भी नहीं था। दशक बीतते गए और साथ ही ग़ज़ल के शेर होठो पर गाहे बगाहे दस्तक देते रहे।

कुछ ही दिनों पहले फेसबुक पर घनशाम वासवानी का नाम दिखा तो वो ग़ज़ल फिर से याद आ गई।  ग़ज़ल को सुना गया और खूब खूब सुना गया। आप में से जो पुराने ग़ज़ल प्रेमी होंगे उन्होंने जरूर कभी ना कभी ये ग़ज़ल सुनी होगी। इस ग़ज़ल के शायर का नाम तो मुझे नहीं मालूम पर इसके सादगी से कहे अशआरों में अपने मीत को दी जाने वाली जो मीठी उलाहनाएँ हैं वो आपका मन जीत लेती हैं। तो आइए सुनें घनशाम वासवानी की आवाज़ में ये दिलकश ग़ज़ल..



मिल मिल के बिछड़ने का मज़ा क्यों नहीं देते?
हर बार कोई ज़ख़्म नया क्यों नहीं देते?

ये रात, ये तनहाई, ये सुनसान दरीचे
चुपके से मुझे आके सदा क्यों नहीं देते?

है जान से प्यारा मुझे ये दर्द-ए-मोहब्बत
कब मैंने कहा तुमसे दवा क्यों नहीं देते?

गर अपना समझते हो तो फिर दिल में जगह दो
हूँ ग़ैर तो महफ़िल से उठा क्यों नहीं देते

क्या आपको पता है कि जिस तरह के जगजीत के संगीत निर्देशन में घनशाम वासवानी ने ग़ज़ले गायी हैं वैसे ही घनशाम जी ने भी जगजीत सिंह की एलबम फॉरगेट मी नॉट (Forget Me Not) में अपना संगीत दिया है।

घनशाम वासवानी और उनके समकालीन गायकों को अपना हुनर दिखाने के मौके कम ही मिल पाए। ग़ज़लों की लोकप्रियता अस्सी के दशक में शीर्ष पर पहुँचने के बाद नब्बे में फिल्म संगीत के स्तर में सुधार के कारण गिरने लगी। इस दौरान वे रेडिओ और दूरदर्शन के कार्यक्रमों और देश विदेश की ग़ज़ल की महफिलो में शरीक होते रहे और ये सिलसिला आज भी बदस्तूर ज़ारी है। वैसे क्या आप नहीं जानना चाहेंगे कि साठ वर्ष की आयु में घनश्याम आजकल क्या कर रहे हैं? हाल ही में अपने एक लाइव कान्सर्ट में उन्होंने जगजीत जी की याद में हो रहे एक कार्यक्रम ये ग़जल सुनाई तो श्रोतागण खुशी से झूम उठे।  इस ग़जल को सुनने के बाद तो मुझे यही लगा कि  आज भी उनकी आवाज़ में वही आकर्षण है जो दशकों पहले होता आया था।

बरसात के इस मौसम में वासवानी जी के रससिक्त स्वरों में गाई ये ग़ज़ल आपको यक़ीनन पसंद आएगी। ज़रा सुन के तो देखिए जनाब..

चोट वो खाई है इस दिल पे कि बस अबके बरस
ग़म को भी आया मेरे दिल पे तरस, अबके बरस

उनको नादों पे भी होने लगा नग्मों का गुमाँ
किस क़दर है मेरी फ़रियाद में रस, अबके बरस

हम मसर्रत* से बहुत दूर रहे तेरे बगैर
ग़म में डूबा रहा एक एक नफ़स**, अबके बरस
*खुशी, **साँस

 
मुझसे रूठी हुई तक़दीर ये कहती है 'सबा'
फूल तो फूल हैं काँटों को तरस, अबके बरस


आशा है वे इसी तरह ग़ज़ल साधना में लीन होकर हमारे जैसे ग़ज़ल प्रेमियों को आनंदित करते रहेंगे।

सोमवार, जुलाई 15, 2013

यादें पंचम की : क्या जादू था मेरे जीवन साथी के संगीत में ? ( The magic of Pancham in 'Mere Jeewan Sathi' !)

पंचम और किशोर दा कॉलेज के ज़माने में हमारे कानों लिए वो खुराक हुआ करते थे जिसके बिना नींद हमारी आँखों से कोसों दूर भागती थी। बात नब्बे के दशक के शुरुआती दिनों की है। तब कैसेट्स बेचने वाली दुकानों में अपनी पसंद के गानों की सूची ले जाने और फिर उसे एक खाली कैसेट में रिकार्ड करने का चलन शुरु ही हुआ था। किशोर कुमार की ऐसी ही एक कैसेट मैंने भी तब बनवाई थी। उस सूची में किशोर के सदाबहार नग्मों के आलावा एक ही फिल्म के तीन गाने थे।  

पंचम द्वारा संगीत निर्देशित ये फिल्म थी मेरे जीवनसाथी जिसे मैंने उस वक़्त क्या, आज तक नहीं देखा है। पर इस फिल्म के तीन गीतों दीवाना ले के आया है...., ओ मेरे दिल के चैन......... और चला जाता हूँ किसी की धुन में........ को  कॉलेज से निकलने के बाद भी मैंने इतना सुना कि वो कैसेट बुरी तरह घिस गई। आज भी जब इन गीतों को सुनता हूँ तो सोचता हूँ कि आख़िर क्या था इन गीतों में जो अपने आने के इतने दशकों बाद भी ये उसी चाव से सुने जा रहे हैं?


सत्तर का दशक पंचम का उद्भव काल था। पंचम ने इस दौरान जितनी फिल्मों का संगीत निर्देशन किया उसमें ज्यादातर का संगीत सफल रहा। यहाँ तक वैसी फिल्मों का संगीत भी जो अपेक्षा के अनुरूप नहीं चल पायीं। 'मेरे जीवन साथी' इसका जीता जागता उदाहरण है। फिल्म के गाने फिल्म प्रदर्शित होने के कुछ महिने पहले से ही धूम मचाने लगे थे पर गानों ने दर्शकों को जो उम्मीद बँधाई , वो फिल्म में नज़र नहीं आई। नतीजन मेरे जीवन साथी चली नहीं पर इसके गाने चलते रहे और आज तक चल रहे हैं।

फिल्म निर्माता हरीश शाह और राजेश खन्ना ने इस फिल्म के लिए पंचम की बनाई पहली धुन अस्वीकृत कर दी थी और फिर उसके बाद पंचम ने रची ओ मेरे दिल के चैन... । इसके मुखड़े के पहले की धुन पूरे फिल्म की ट्रेडमार्क धुन बन गई और उसका इस्तेमाल अन्य गीतों में भी हुआ। फिल्मफेयर में सितंबर 1973 में छपे आलेख में वी श्रीधर ने जब इस गीत के बारे में पंचम से बात की तो उन्होंने कहा था कि
"इसकी धुन जब अचानक से दिमाग में आई तो मन बेचैन हो उठा। उद्विग्नता इतनी बढ़ गई कि चार बजे सुबह उठकर मैंने उसे गुनगुनाते हुए कैसेट रिकार्डर में टेप किया और फिर अपने संगीत कक्ष में चला गया । इस तरह गीत की पूरी धुन तैयार हुई। उसी शाम ये धुन मैंने मजरूह को थमाई और मिनटों में पूरा गीत बन कर तैयार हो गया।"



मेरे जीवन साथी का दूसरा चर्चित नग्मा दीवाना ले के आया है दिल का तराना... था। संगीत संयोजन में आपको इस गीत में ओ मेरे दिल के चैन से कई समानताएँ सुनाई देंगी। खासकर गीत के पीछे बजने वाला तालवाद्य और इंटरल्यूडस। मजरूह के लिखे इस गीत में बीते हुए कल के लिए हताशा भी है और आने वाले कल के लिए धनात्मक सोच भी। पहले अंतरे के बाद पंचम फिर अपनी सिगनेचर धुन का इस्तेमाल करते है जिसका जिक्र मैंने ऊपर भी किया है। उत्तम सिंह के बजाए वायलिन के खूबसूरत टुकड़े से ये इंटरल्यूड समाप्त होता है।



अगर लोगों की जुबाँ पर ये गाने चढ़े तो उसमें पंचम की कर्णप्रिय धुन, मजरूह के सहज सपाट बोल और किशोर की बेमिसाल आवाज़ का बड़ा हाथ था। साथ ही ऊँचे सुरों का ना इस्तेमाल होने की वजह से पंचम के इन गीतों को गुनगुनाना एक आम संगीत प्रेमी के लिए बेहद आसान रहा।

पर आज की तारीख़ में मेरे जीवन साथी के जिस गीत को मैं बारहा सुनना पसंद करता हूँ वो है किशोर कुमार का गाया चला जाता हूँ ...किसी की धुन में ..धड़कते दिल के ..तराने लिए..। कोई भी सफ़र हो, कैसी भी डगर हो जब भी मन प्रफुल्लित होता है गीत की धुन चुपचाप कब होठों पर रेंगने लगती है पता ही नहीं चलता। किसी गीत के सफल होने में संगीतकार और गीतकार का जबरदस्त योगदान होता है क्यूँकि कोई भी गीत उनके मातृत्व में ही कोख से निकल कर पल बढ़कर तैयार होता है। पर कुछ गीत ऐसे होते हैं जिनकी सफलता की कल्पना, उन्हें हम तक पहुँचाने वाले गायकों के बिना करना मुश्किल हो जाता है। चला जाता हूँ ....को मैं ऐसे ही गीतों की श्रेणी में रखता हूँ। किशोर कुमार इस गीत में अपनी बेमिसाल यूडलिंग से मस्ती और उमंग का जो माहौल रचते हैं उससे मन तो क्या पूरा शरीर ही तरंगित हो जाता है।



आज पंचम हमारे बीच नहीं हैं पर उनके रचे संगीत की लोकप्रियता दशकों बाद भी कम नहीं हुई है। पचास और साठ का दौर हिंदी फिल्म संगीत का स्वर्णिम दौर कहा जाता है। इस दौर में हिंदी फिल्म संगीत के महानतम संगीतकारों का काम श्रोताओं तक पहुँचा। पंचम इस दौर के आखिरी चरण में आए पर जब उनके संगीत की उनके पूर्ववर्ती संगीतकारों से तुलना करता हूँ तो जावेद अख्तर की वो बात याद आ जाती है जो उन्होंने किताब R D Burman The Man, The Music के प्राक्कथन में कही हैं..

"..पंचम के बारे में मैं क्या कहूँ? कुछ लोग एक विशेष कालखंड में सफल होते हैं। जैसे जैसे वक़्त बीतता है, तौर तरीके और शैलियाँ बदलती हैं। पुराने लोग गुजर जाते हैं या स्मृतियों के धुंधलके में खो जाते हैं। उनकी जगह नए लोग ले लेते हैं। हम सिर्फ उन लोगों को याद रख पाते हैं जो ना सिर्फ सफल हुए बल्कि जिन्होंने ऐसा कुछ अभूतपूर्व किया जिससे उनकी कला एक नए स्तर तक पहुँची और जिससे आने वाली पीढ़ियों को अपने हुनर को और तराशने के लिए नई सोच मिली। पंचम ने एक नई आवाज़ और बीट्स से सबका परिचय कराया। पुराने साजों के अलग तरीके से इस्तेमाल के साथ साथ उन्होंने कई नए वाद्य यंत्रों का भी प्रचलन किया। आज हम संगीत में जिन तकनीकी सुविधाओं को  सामान्य मानते हैं वो साठ या सत्तर के दशक में थी ही नहीं। ये पंचम की विलक्षणता ही है कि तब भी उनका संगीत ताजा और आज के युग का लगता है।.."

मंगलवार, जुलाई 09, 2013

कैसे देखते हैं गुलज़ार 'बारिश' को अपनी नज़्मों में... (Barish aur Gulzar)

बारिश का मौसम हो तो औरों को कुछ हो ना हो शायरों को बहुत कुछ हो जाता है और अगर बात गुलज़ार की हो रही हो तब तो क्या कहने ! कुछ साल पहले बारिशों के मौसम में परवीन शाकिर पर बात करते हुए उनकी उससे जुड़ी नज़्मों की चर्चा हुई थी। कुछ दिनों पहले ही एक गुलज़ार प्रेमी मित्र ने  इस ब्लॉग पर कई दिनों से उनकी नज़्मों का ज़िक्र ना होने की बात कही थी। तो मैंने सोचा क्यूँ ना बारिश के इस मौसम को इस बार गुलज़ार साहब की आँखो से देखने का प्रयास किया जाए उनकी चार अलग अलग नज़्मों के माध्यम से..


 (1)

सच पूछिए तो कुछ घंटों की बारिश से हमारे शहरों और कस्बों का हाल बेहाल हो जाता है। नालियों का काम सड़के खुद सँभाल लेती हैं। कीचड़ पानी में रोज़ आते जाते कोफ्त होने लगती है। पर जब गुलज़ार जैसा शायर इन बातों को देखता है तो इसमें से भी मन को छू जाने वाली पंक्तियाँ का सृजन कर देता है। बारिश के मौसम में साइकिल को गड्ढ़े भर पानी में उतारते वक़्त अपना संतुलन ना खोने और कपड़े मैले हो जाने के ख़ौफ के आलावा तो मुआ कोई और ख़्याल मेरे मन में नहीं आया। पर गुलज़ार की साइकिल का पहिया पानी की कुल्लियाँ भी करता है और उनकी छतरी आकाश को टेक बनाकर बारिश की टपटपाहट का आनंद भी उठाती है।

बारिश आती है तो मेरे शहर को कुछ हो जाता है
टीन की छत, तर्पाल का छज्जा, पीपल, पत्ते, पर्नाला
सब बजने लगते हैं

तंग गली में जाते-जाते,
साइकल का पहिया पानी की कुल्लियाँ करता है
बारिश में कुछ लम्बे हो जाते हैं क़द भी लोगों के
जितने ऊपर हैं, उतने ही पैरों के नीचे पानी में
ऊपर वाला तैरता है तो नीचे वाला डूब के चलता है

ख़ुश्क था तो रस्ते में टिक टिक छतरी टेक के चलते थे
बारिश में आकाश पे छतरी टेक के टप टप चलते हैं !


 (2)
गुलज़ार की इस दूसरी नज़्म में बारिश काव्य का विषय नहीं बल्कि सिर्फ एक बिंब है । एक ऐसा बिंब जिसकी मदद से वो दिल के जख्मों को कुरेदते चलते हैं। गुलज़ार की इस भीगी नज़्म को पढ़ते हुए सच में इक अफ़सोस का अहसास मन में तारी होने लगता है...



मुझे अफ़सोस है सोनां....

कि मेरी नज़्म से हो कर गुज़रते वक्त बारिश में,
परेशानी हुई तुम को ...
बड़े बेवक्त आते हैं यहाँ सावन,
मेरी नज़्मों की गलियाँ यूँ ही अक्सर भीगी रहती हैं।
कई गड्ढों में पानी जमा रहता है,
अगर पाँव पड़े तो मोच आ जाने का ख़तरा है
मुझे अफ़सोस है लेकिन...

परेशानी हुई तुम को....
कि मेरी नज़्म में कुछ रौशनी कम है
गुज़रते वक्त दहलीज़ों के पत्थर भी नहीं दिखते
कि मेरे पैरों के नाखून कितनी बार टूटे हैं...
हुई मुद्दत कि चौराहे पे अब बिजली का खम्बा भी नहीं जलता
परेशानी हुई तुम को...
मुझे अफ़सोस है सचमुच!!

 (3)
यूँ तो गर्मी से जलते दिनों के बाद बारिश की फुहार मन और तन दोनों को शीतल करती है। पर जैसा कि आपने पिछली नज़्म में देखा गुलज़ार की नज़्में बारिश को याद कर हमेशा उदासी की चादर ओढ़ लिया करती हैं। याद है ना आपको फिल्म इजाजत के लिए गुलज़ार का लिखा वो नग्मा जिसमें वो कहते हैं "छोटी सी कहानी से ,बारिशों के पानी से, सारी वादी भर गई, ना जाने क्यूँ दिल भर गया ....ना जाने क्यूँ आँख भर गई...."

ऐसी ही एक नज़्म  है बस एक ही सुर में ..जिसमें गुलज़ार मूसलाधार बारिश की गिरती लड़ियों को अपने हृदय में रिसते जख़्म से एकाकार पाते हैं।  देखिए तो नज़्म की पहली पंक्ति लगातार हो रही वर्षा को कितनी खूबसूरती से परिभाषित करती है..

बस एक ही सुर में, एक ही लय पे
सुबह से देख
देख कैसे बरस रहा
है उदास पानी
फुहार के मलमली दुपट्टे से
उड़ रहे हैं
तमाम मौसम टपक रहा है

पलक-पलक रिस रही है ये
कायनात सारी
हर एक शय भीग-भीग कर
देख कैसी बोझल सी हो गयी है

दिमाग की गीली-गीली सोचों से
भीगी-भीगी उदास यादें
टपक रही हैं

थके-थके से बदन में
बस धीरे-धीरे साँसों का
गरम लोबान जल रहा है...


(4)

बारिश से जुड़ी गुलज़ार की नज्मों में ये मेरी पसंदीदा है और शायद आपकी हो। इंसान बरसों के बने बनाए रिश्ते से जब निकलता है तो उससे उपजी पीड़ा असहनीय होती है। टूटे हुए दिल का खालीपन काटने को दौड़ता है। गुलज़ार की ये नज़्म वैसे ही कठिन क्षणों को अपने शब्दों में आत्मसात कर लेती है। जब भी इसे सुनता हूँ मन इस नज़्म में व्यक्त भावनाओं से निकलना अस्वीकार कर देता है। गुलज़ार की आवाज़ में खुद महसूस कीजिए इस नज़्म की विकलता को..

किसी मौसम का झोंका था....
जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है
गए सावन में ये दीवारें यूँ सिली नहीं थी
न जाने इस दफा क्यूँ इनमे सीलन आ गयी है ,
दरारे पड़ गयी हैं
और सीलन इस तरह बहती है जैसे खुश्क रुखसारों पे गीले आँसू चलते हैं

ये बारिश गुनगुनाती थी इसी छत की मुंडेरों पर
ये घर की खिडकियों के काँच पर ऊँगली से लिख जाती थी संदेशे...
बिलखती रहती है बैठी हुई अब बंद रोशनदानो के पीछे
दुपहरें ऐसी लगती हैं बिना मुहरों के खाली खाने रखे हैं
न कोई खेलने वाला है बाज़ी और न कोई चाल चलता है
ना दिन होता है अब न रात होती है
सभी कुछ रुक गया है
वो क्या मौसम का झोंका था जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है


वैसे बारिश से जुड़ी गुलज़ार की लिखी और किन नज़्मों को आप पसंद करते हैं?

एक शाम मेरे नाम पर गुलज़ार की पसंदीदा नज़्में

रविवार, जून 30, 2013

किताबों से कभी गुजरो तो यूँ किरदार मिलते हैं...

किताब पढ़ने का शौक मुझे अपने माता पिता से मिला है। बचपन में वे अक्सर कहा करते थे कि किताबें हमारी भाषा को समृद्ध करती हैं, हमारे विचारों को विस्तार देती हैं और हमें दूसरे नज़रिए से सोचने को मजबूर करती हैं। उनकी बातों ने पुस्तकें पढ़ने की आदत डलवा दी। हाँ ये जरुर हुआ कि पढ़ाई लिखाई, नौकरी की भाग दौड़ में पुस्तकें पढ़ने की बारम्बारता कम ज्यादा होती रही।



आजकल तो पुस्तकें पढ़ना और वो भी हिंदी पुस्तकों को पढ़ना प्रचलन में नहीं रह गया है या यूँ कहूँ कि आउट आफ फैशन हो गया है। ऍसे में पुस्तक ना पढ़ने वालों को गुलज़ार साहब की ये पंक्तियाँ याद दिलाना चाहता हूँ

किताबों से कभी गुजरो तो यूँ किरदार मिलते हैं
गये वक्तों की ड्योढ़ी पर खड़े कुछ यार मिलते हैं
जिसे हम दिल का वीराना समझ छोड़ आए थे
वहीं उजड़े हुए शहरों के कुछ आसार मिलते हैं
 

पर मैंने अपने में ये प्रवृति बनाई रखी है और जब कार्यालयी दौरों में रहता हूँ तो यात्रा के दौरान अपने साथ किताब जरूर रखता हूँ। जब से चिट्ठाकारी शुरु की है समय समय पर आपको उन किताबों के बारे में अपनी राय से अवगत कराता रहा हूँ।

पिछले सालों से इस पृष्ठ को बार बार अपडेट करता रहा हूँ। आज इस साल पढ़ी गई पुस्तकों की लिंक भी इसमें जोड़ दी है...

इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं
  1. असंतोष के दिन o
    Asantosh Ke Din by Dr. Rahi Masoom Raza 
  2. टोपी शु्क्ला**
    Topi Shukla by Dr. Rahi Masoom Raza 
  3. पीली छतरी वाली लड़की**
    Peeli Chhatri Wali Ladki by Uday Prakash
  4. और एक युधिष्ठिर o
    Aur Ek Yudhisthir by Bimal Mitra
  5. उर्दू की आख़िरी किताब     भाग :1    भाग :2 ***1/2
    Urdu Ki Aakhri Kitaab by Ibne Insha
  6. मैं बोरिशाइल्ला **
    Main Borishailla by Mahua Maji
  7. जल्लाद की डॉयरी **
    Jallad Ki Diary by Shashi Warior
  8. गुनाहों का देवता ****
    Gunahon Ka Devta by Dharmveer Bharti
  9. जालियाँवाला बाग त्रासदी **
    Massacre at Jallianwala Bagh by Stanley Wolpert
  10. कसप ****
    Kasap by Manohar Shyam Joshi
  11. गोरा ***
    Gora by Ravindra Nath Tagore
  12. महाभोज ***
    Mahabhoj by Mannu Bhandari
  13. क्याप  o
    Kyap by Manohar Shyam Joshi
  14. एक इंच मुस्कान, *
    Ek Inch Muskaan by Rajendra Yadav and Mannu Bhandari
  15. लीला चिरंतन, *
    Leela Chirantan by Ashapoorna Devi
  16. क्षमा करना जीजी **
    Kshama Karna Jiji by Narendra Kohli
  17. मर्डरर की माँ *
    Murderer ki Maan by Mahashweta Devi
  18. दो खिड़कियाँ ***
    Do Khidkiyan by Amrita Preetam
  19. हमारा हिस्सा **1/2
    Stories on Women Empowerment
  20. मधुशाला ****
    Madhushala by Harivansh Rai Bachchan
  21. मुझे चाँद चाहिए  ***
    Mujhe Chand Chahiye by Surendra Verma
  22. कहानी एक परिवार की
    Kahani Ek Pariwaar Kee by Gurucharan Das
  23. सूरज का सातवाँ घोड़ा 1/2*
    Suraj Ka Saatvan Ghoda by Dharamveer Bharti
  24. दौरान -ए- तफ़तीश भाग १ भाग २ भाग ३ ***
    Douran - E - Tafteesh by Satish Chandra Pandey
  25. तस्वीर जिंदगी के (भोजपुरी ग़ज़ल संग्रह) भाग १ भाग २ ***
    Tasweer Zindagi Ke... (Bhojpuri Ghazal Collection) by Manoj Bhawuk
  26. ज़िंदगीनामा **
    Zindaginama by Krishna Sobti
  27. तीन भूलें जिंदगी की *
    Three Mistakes of My Life by Chetan Bhagat
  28.  शादीशुदा मगर उपलब्ध o
    Married but Available by Abhijit Bhaduri
  29. मित्रो मरजानी ***
    Mitro Marjani by Krishna Sobti
  30. वरुण के बेटे **
    Varun Ke Bete by Nagarjun
  31. घर अकेला हो गया, भाग १ , भाग २ ***
    Ghar Akela Ho Gaya by Munnawar Rana
  32. तुम्हारे लिए *
    Tumhare Liye by Himanshu Joshi
  33.  जाने भी दो यारों ***
    Jaane Do Bhi Yaaro
    by Jai Arjun Singh
  34. कविताएँ बच्चन की चयन अमिताभ बच्चन का  ***
  35. Poetry of Harivansh Rai Bachchan
  36. हज़ार शानदार सूर्यों वाला काबुल !   
  37. A Thousand Splendid Suns.. by Khalid Hossainie
  38. एक नौकरानी की डॉयरी Ek Naukarani ki Diary by Krishna Baldev Vaid
  39. सारा आकाशSara Aakash by Rajendra Yadav
  40. शांताराम  Shantaram by Gregory David Roberts
  41. उत्तर कोरिया में कोई भगवान नहीं है 1/2*   There are no Gods in North Korea!
  42. विश्व के अलग अलग कोने में उदास मानव हृदयों को जोड़ती दस कहानियाँ ! The Sacred Sorrow of Sparrows by Siddharth Dasgupta **
  43. पाजी नज़्में  Paaji Nazmein by Gulzar **
  44. सतरंगिनी Satrangini by Harivansh Rai Bachchan
  45. निठल्ले की डायरी Nithalle Ki diary by Harishankar Parsai ***

वैसे बहुत सारी किताबें ऐसी हैं जिन्हैं मैंने अपने स्कूल या कॉलेज के दिनों में पढ़ा था और उस वक़्त उनकी सूची भी बनाई थी। उनमें से अपनी पसंदीदा किताबों की फेरहिस्त भी यहाँ डाल रहा हूँ ताकि पुस्तक प्रेमियों को सहूलियत रहे। कभी वक़्त मिला तो इनके बारे में अलग से लिखने का प्रयास जरूर करूँगा।


मेरी पसंदीदा किताबें

  1. सुवर्णलता ***** Suwarnlata by Ashapurna Devi
  2. बकुल कथा **** Bakul Katha by Ashapurna Devi
  3. प्रथम प्रतिश्रुति *** Pratham Pratishruti by Ashapurna Devi
  4. आपका बंटी ****  Aapka Bunty by Mannu Bhandari
  5. राग दरबारी **** Rag Darbari by Srilal Shukla
  6. सुरसतिया *** Sursatiya by Bimal Mitra
  7. अग्निगर्भा *** Agnigarbha by Amritlal Nagar
  8. झरोखे **** Jharokhe by Bhishma Sahni
  9. घातक *** Ghatak by Baren Gangopadhyay
  10. मिट्टी की कसम ***  Mitti Ki Kasam by Manhar Chouhan
  11. किसका अपराध ? *** कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी  Kiska Apradh by K.M. Munshi
  12.  मेरे यादों के चिनार*** Meri Yadon ke Chinar by Krishna Chander
  13. रथचक्र *** Rathchakra by Narayan Pendse
  14. प्रारब्ध*** Prarabdha by Ashapoorna Devi
  15. मैला आँचल *** Maila Aanchal by Phaneeswar Nath Renu
  16.  दृश्य से दृश्यांतर *** Drishya Se Drishyantar by Ashapurna Devi
  17. आधा गाँव *** Adha Gaanv by Dr. Rahi Masoom Raza
  18.  Freedom at Midnight by Larry Collins & Dominique Lapierre*****
  19. Great Expectation by Charles Dickens ***
  20. Between the Lines by Kuldeep Nayyar ***
  21. Where Angels Fear to Tread by E.M. Forester *** 
  22. Mrs Craddock by W.Somerset Maugham ***
  23. Lolita by Vladimir Nabokov ***
  24. An English August : An Indian Story by Upmanyu Chatterji****
  25. The Pakistani Bride by Bapsi Sidhwa ***
  26. Call the Next Witness by Philip Mason ***
  27. City of Joy by Dominique Lapierre   ****
  28. Midnight Children by Salman Rushdie ***
  29. The Far Pavilions by M. M.Kaye ***
  30. God of Small Things by Arundhati Roy ***  
  31. Five Point Someone by Chetan Bhagat ***
  32. Jaane Do Bhi Yaaro by Jai Arjun Singh ***

किताबें जो टुकड़ों में पसंद आईं

  1. आधे सफ़र की पूरी कहानी ** Aadhe Safar ki Poori Kahani by Krishna Chander
  2. सीमाबद्ध ** Seemabadh by Shankar
  3. कृष्णकली** Krishnakali by Shivani
  4. करवट ** Karvat by Amritlal Nagar
  5. चतुरंग ** Chaturang by Bimal Mitra
  6. सीमाएँ टूटती हैं ** Seemayein Tootti Hain by Srilal Shukla
  7. पचपन खंभे लाल दीवारें ** Pachpan Khambhe Laal Deewarein by Usha Priyambda
  8. और मौत मर गई ** Aur Maut Mar Gayi by Usha Seth
  9. अभिषेक ** Abhishek by Krishna Agnihotri
  10. आज़ादी **  Azaadi by Chaman Nahal
  11. महाश्वेता * Mahashweta by Tarashankar Bandopadhyay
  12. बड़ी बड़ी आँखें* Badi Badi Aankhein by Upendra Nath Ashq
  13. चॉकलेट * Chocolate by Pandit Bechan Sharma Ugra
  14. पाहीघर * Pahighar by Kamalkant Tripathi
  15. एक गधे की वापसी* Ek Gadhe ki Wapsi by Krishna Chander
  16. गरम राख * Garam Rakh by Upendra Nath Ashq
  17. एक सड़क सत्तावन गलियाँ * Ek Sadak Sattavan Galiyan by Kamleshwar
  18. जुलूस* Juloos by Phaneeswar Nath Renu
  19. ना जुनूँ रहा ना परी रही * Na Junoon Raha Na Pari Rahi by Zahida Hina
  20. प्रोफेसर ता ता * Professor Ta Ta by Manohar Shyam Joshi
  21. किशनुली * Kishnuli by Shivani
  22. तीसरा आदमी * Teesra Aadmi by Kamleshwar
  23. अमरबेल * Amarbel by Vrindavan Lal Verma
  24. शेष संवाद * Shesh Samvad by Sumati Aiyar
  25. राहु केतु * Rahu Ketu by Shravan Kumar Goswami
  26. A Passage to India ** by E. M. Forester
  27. Anna Karenina** by Leo Tolestoy
  28. The Romantics ** by Pankaj Mishra
  29. The Other Side of Midnight** by Sidney Sheldon
  30. Spouse the Truth About Marriage ** by Shobha De
  31. Guide** by R.K. Narayan
  32. Emma* by Jane Austen
  33. First Lady Chatterley * by D.H. Lawrence
  34. The Heart of India * by Mark Tully
  35. Difficult Daughters * by Manju Kapoor
  36. Inside Haveli* by Rama Mehta 
  37. Distant Drum* by Manohar Malgonkar
  38. A Train to Pakistan * by Khushwant Singh
  39. Love Story* bi Eric Seigal
  40. Once is Not Enough* by Jacqueline Susanne
  41. My Story * by Kamla Das
  42. The Man Who was Magic* by P Galico
  43. Confession of an Indian Woman Eater* by Shasthi Brata
  44. Interpreter of Maladies * by Jhumpa Lahiri

किताबें जो मुझे रास नहीं आईं 

  1. जब प्रकाश ही ना हो 1/2* Jab Prakash Hi Na Ho by Ashapurna Devi
  2. कड़ियाँ  1/2* Kadiyan by Bhishma Sahani
  3.  अनित्य   1/2*Anitya by Mridula Garg
  4. आजीवन कारावास 1/2*   Aajeewan Karawas
  5. काग़ज़ की नाव,  1/2* Kagaz ki Naav by Krishna Chander
  6. कितने चौराहे, 1/2* Kitne Chourahe by Phaneeswar Nath Renu
  7. गूँगे सुर बाँसुरी के, 1/2* Goonge Sur Bansuri Ke by Pannalal Patel
  8. लज्जा, 1/2*  Lajja by Tasleema Nasreen
  9. आदमखोर, 1/2* Adamkhor by Shravan Kumar Goswami
  10. भूत का भविष्य o  Bhoot ka Bhavishya by Ilachandra Joshi
  11. सोने का मृग  o Sone Ka Mrig by Bhikhu
  12. नरमेध o  Narmedh by Achaya Chatursen
  13. कुरु कुरु स्वाहा o Kuru Kuru Swaha by Manohar Shyam Joshi
  14. वो अपना चेहरा o Woh Apna Chehra by Govind Miishra
  15. रेत की इक मुठ्ठी o  Ret ki Ek Muththi by Gurudayal Singh
  16. फ़ागुन के दिन चार o Phagun ke Din Chaar by pandey Bechan Sharma Ugra
  17. एक करोड़ की बोतल o , Ek Crore Ki Botal by Krishna Chander
  18. प्रोफेसर o Professor by Rangey Raghav
  19. नया इंसान o Naya Insan by Himanshu Srivastava
  20. धरती मेरा घर o Dharti Mera Ghar by Rangey Raghav
  21.  Disgrace 1/2* by J M Coetzee
  22. India's Carrebian Adventure 1/2* by Kishore Bhimani
  23. I Shall Not Hear the Nightangle 1/2* by Khushwant Singh

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बुधवार, जून 26, 2013

जलते हैं जिस के लिए, तेरी आँखों के दीये..

कुछ गीत ज़िंदगी में कभी भी सुने जाएँ, कितनी बार भी सुने जाएँ वही तासीर छोड़ते हैं। कुछ दिनों से ऐसा ही एक सदाबहार नग्मा होठों पर जमा हुआ है। 1959 में आई फिल्म सुजाता के इस गीत को गाया था तलत महमूद ने। 

हिंदी फिल्म जगत में तलत महमूद एक ऐसे गायक थे जो फिल्म संगीत में छाने के पहले ही ग़ज़लों की दुनिया में अपना एक अलग नाम बना चुके थे। मात्र सोलह साल की उम्र में आकाशवाणी लखनऊ से दाग़, मीर, ज़िगर मुरादाबादी जैसे नामचीन शायरों की ग़ज़लों को गाकर तलत ने श्रोताओं का दिल जीत लिया था। सन 1944 में उनका गैर फिल्मी गीत तसवीर तेरी दिल मेरा बहला ना सकेगी इतना लोकप्रिय हुआ कि उन्हें बंगाल की फिल्मों में काम करने के लिए कोलकाता में बुलाया गया। पर मुंबई फिल्म जगत में उनका पदार्पण 1949 में फिल्म आरजू के लिए गाए गीत ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल.... से हुआ। पचास और साठ के दशक में तलत ने ऐसे बेशुमार नग्मे दिये जिन्हें संगीतप्रेमी शायद कभी ना भूल पाएँ।
 
तलत एक आकर्षक नौजवान थे। इसी वज़ह से वो गायिकी के साथ अभिनय में भी कूद पड़े। तलत महमूद को अगर फिल्मों में पार्श्व गायन के साथ साथ हीरो बनने का चस्का नहीं लगा होता तो शायद पचास और साठ के दशक में गाए उनके गीतों की सूची और लंबी होती। वैसे तलत महमूद द्वारा की गई गलती बाद में तलत अजीज़ और सोनू निगम ने भी दोहराई और उसका ख़ामियाजा भुगता। साठ के दशक के बाद फिल्म संगीत में आया बदलाव ग़ज़लों के इस बादशाह को नागवार गुजरा और तलत ने फिल्मों में गाना लगभग छोड़ ही दिया।

यूँ तो उनके सदाबहार गीतों की फेरहिस्त में में तुमसे आया ना गया..., शाम - ए - ग़म की कसम..., तसवीर बनाता हूँ..., जाएँ तो जाएँ कहाँ...., दिल ए नादाँ तुझे हुआ क्या है... आदि का अक्सर जिक्र आता है पर अगर अपनी पसंद की बात करूँ तो मुझे मेरी याद में तुम ना आँसू बहाना..., इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा.., फिर वही शाम वही ग़म वही तनहाई है...को  गुनगुनाना बेहद पसंद है। पर इनसे भी अच्छा मुझे उनका वो गीत लगता है जिसकी बात मैं आज करने जा रहा हूँ।

फिल्म सुजाता का ये गीत अपने लाजवाब बोलों की वज़ह से दिल से कभी दूर नहीं होता। क्या मुखड़ा और अंतरा लिखा था मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने। एक ऐसे गीत की कल्पना जिसकी भावनाओं की उष्मा से प्रियतमा की आँखे जल उठें। भई वाह ! एक ऐसा नग्मा जो दो दिलों की बेचैनी को इतने बेहतरीन अंदाज़ में परिभाषित करता है  
दर्द बन के जो मेरे दिल में रहा ढल ना सका..
जादू बन के तेरी आँखों में रुका चल ना सका 
.....जिसे महसूस कर सुनने वालों की आँखें नम हो जाएँ। सचिन देव बर्मन की बाँसुरी और तलत की थरथराती आवाज़ के साथ मज़रूह के शब्द जब कानों में पड़ते हैं तो मन इस गीत में बहुत देर यूँ ही डूबा रह जाता है।

फिल्म सुजाता में सुनील दत्त और नूतन पर ये गीत फिल्माया था। नूतन के चेहरे की सजीव भाव भंगिमाओं इस गीत की खूबसूरती को बयाँ कर देती हैं..


जलते हैं जिस के लिए, तेरी आँखों के दीये
ढूँढ लाया हूँ वही, गीत मैं तेरे लिए

दर्द बन के जो मेरे दिल में रहा ढल ना सका
जादू बन के तेरी आँखों में रुका चल ना सका
आज लाया हूँ वही गीत मैं तेरे लिए

दिल में रख लेना इसे हाथों से ये छूटे ना कही
गीत नाजुक हैं मेरा शीशे से भी टूटे ना कही
गुनागुनाऊँगा यही गीत मैं तेरे लिए

जब तलक ना ये तेरे रस के भरे होठों से मिले
यूँ ही आवारा फिरेगा ये तेरी जुल्फों के तले
गाये जाऊँगा यही गीत मैं तेरे लिए..

नई आवाजें  जब हिंदी फिल्म संगीत के इन अनमोल गीतों को आगे ले जाती हैं यो मन में बेहद खुशी होती है। स्निति मिश्रा की गायिकी से  करीब एक दशक पहले आपका परिचय कराया था जब वो सा रे गा मा पा में प्रतिभागी के तौर पर हम सबके सामने आयी थीं। देखिए उन्होंने तलत महमूद के इस कालजयी गीत को अपने अंदाज में किस तरह निभाया है?


वैसे तलत महमूद के गाए गीतों में अगर एक गीत का चुनाव करना हो तो आपकी वो पसंद क्या होगी?

मंगलवार, जून 18, 2013

खड़ीबोली के सरदार : अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की कविताओं से मेरा पहला परिचय बोर्ड की हिंदी पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से हुआ था। छायावादी कवियों की तुलना में हरिऔध मुझे ज्यादा भाते थे। अपने सहज शब्द चयन के बावज़ूद उनकी कविताएँ मानव जीवन के गूढ़ सत्यों को यूँ बाहर निकाल लाती थीं कि मन अचंभित हो जाता था। उनके व्यक्तित्व की एक बात और थी जो उन्हें अन्य कवियों से अलग करती थी और वो थी उनकी छवि । यूँ तो उनके नाम के आगे 'उपाध्याय' लगा हुआ था पर उनके चित्रों में उन्हें पगड़ी लगाए देख मैं असमंजस में पड़ जाता था कि वे सरदार थे या ब्राह्मण ? स्कूल के दिनों में अपने शिक्षकों से ना ये मैं पूछ पाया और ना ही उन्होंने इस बारे में कुछ बताया। बाद में द्विवेदी युग के कवियों के बारे में पढ़ते हुए मुझे पता चला कि हरिऔध वैसे तो ब्राह्मण खानदान से थे पर उनके पुरखों ने सिक्ख धर्म स्वीकार कर लिया था।


सिपाही विद्रोह के ठीक आठ साल बाद जन्मे हरिऔध आजमगढ़ जिले के निजामाबाद से ताल्लुक रखते थे। मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद सरकार में कानूनगो के पद पर रहे। सेवा मुक्त होने के बाद 1923 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में गए और वहाँ दो दशकों तक हिंदी पढ़ाते रहे। हरिऔध ने कविता ब्रजभाषा के कवि बाबा सुमेर सिंह की छत्रछाया में शुरु की थी। ब्रजभाषा से शुरु हुई उनकी काव्य साधना उन्हें कुछ वर्षों में खड़ी बोली के शुरुआती कवियों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर देगी ये किसे पता था। हरिऔध ने अपने जीवन काल में पैंतालीस किताबें लिखी जिनमें उनका महाकाव्य 'प्रिय प्रवास' और खंड काव्य 'वैदही वनवास' सबसे प्रसिद्ध है।

पर आज मैं उनके भारी भरकम ग्रंथों की चर्चा करने नहीं आया बल्कि उनकी उन दो कविताओं को आपके सम्मुख लाना चाहता हूँ जिन्हें बार बार बोल कर पढ़ने के आनंद से अपने आप को दो चार करता आया हूँ। 

जीवन में बदलाव हममें से कितनों को अच्छा लगता है? अपना शहर, मोहल्ला, घर, स्कूल, कॉलेज और यहाँ तक बँधी बंधाई नौकरी को छोड़ने का विचार ही हमारे मन में तनाव ले आ देता है। जीवन की हर अनिश्चितता हमारे मन में संदेह के बीज बोती चली जाती है। पर उन से गुजर कर ही हमें पता चलता है कि हम ने अपनी ज़िदगी में क्या नया सीखा और पाया। तो चलिए मन में बैठी जड़ता को दूर भगाते हैं हरिऔध की इस आशावादी रचना के साथ..


ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?

देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।



बूँद की कहानी तो आपने सुन ली और ये समझ भी लिया कि जीवन में एक जगह बँध कर हम अपने भविष्य के कई स्वर्णिम द्वारों को खोलने से वंचित रह जाते हैं। पर चलते चलते हरिऔध की एक और छोटी पर बेहद असरदार रचना सुनते जाइए जिसमें वो अहंकार में डूबे व्यक्तियों को एक तिनके के माध्यम से वास्तविकता का ज्ञान कराते हैं...

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ
एक दिन जब था मुँडेरे पर खड़ा
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन सा
लाल होकर आँख भी दुखने लगी
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी

जब किसी ढब से निकल तिनका गया
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिये
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा
एक तिनका है बहुत तेरे लिए


 वैसे आप हरिऔध की कविताएँ कितनी पसंद करते हैं?

बुधवार, जून 05, 2013

उर्दू की आखिरी किताब : इंशा जी की नज़रों से देखिए भारत का इतिहास और सुनिए एक मज़ेदार कहानी !

पिछली पोस्ट में मैंने आपसे इब्ने इंशा के व्यंग्य संग्रह 'उर्दू की आख़िरी किताब' के कुछ पहलुओं पर चर्चा की थी। आज इस सिलसिले को ज़ारी रखते हुए  बात करेंगे इतिहास, गणित, विज्ञान, व्याकरण और नीति शिक्षा से जुड़ी इब्ने इंशा की कुछ दिलचस्प व्यंग्यात्मक टिप्पणियों पर। इंशा जी ने 154 पृष्ठों की किताब के करीब एक तिहाई हिस्से में भारत के इतिहास और उसके अहम किरदारों और उनसे जुड़ी घटनाओं को एक अलग दृष्टिकोण देने की कोशिश की है। जरूरी नहीं कि पाठक उनके व्यंग्य से हमेशा सहमत हो पर उनका अंदाजे बयाँ कुछ ऐसा है जो आपको इतिहास के उस चरित्र या घटना पर दोबारा सोचने पर मज़बूर करता है।   


अब शहंशाह अकबर के क़सीदे तो पढ़ पढ़ कर ही आपने हाई स्कूल की परीक्षा पास की होगी। इसी सम्राट अकबर का परिचय इंशा जी कुछ यूँ देते हैं।

आपने बीरबल के मलफ़ूतात (लतीफ़ों) में इस बादशाह का नाम सुना होगा। राजपूत मुसव्वरी (चित्रकला) के शाहकारों में इसकी तसवीर देखी होगी। इन तहरीरों और तसवीरों से ये गुमान होता है कि ये बादशाह सारा वक़्त दाढ़ी घुटवाए, मूँछें तरशवाए उकड़ूँ बैठा फूल सूँघता रहता था, या लतीफ़े सुनता रहता था।.......ये बात नहीं, और काम भी करता था।

अकबर और उनके नवरत्नों के बारे में तो हम सब जानते हैं। इंशा नवरत्नों और अकबर के संबंधों को आज के राजनीतिज्ञों और अफ़सरों के कामकाज़ से जोड़ते हुए एक बेहद उम्दा बात कह जाते हैं

अकबर अनपढ़ था । बाज़ लोगों को गुमान है कि अनपढ़ होने की वज़ह से इतनी हुकूमत कर गया। उसके दरबार में पढ़े लिखे नौकर थे। नवरत्न कहलाते थे। यह रिवायत उस ज़माने से आज तक चली आती है कि अनपढ़ लोग पढ़े लिखों को  नौकर रखते हैं और पढ़े लिखे इस पर फख्र करते हैं।

अब मुगलिया खानदान का जिक्र हो और औरंगजेब का उल्लेख ना हो ये कैसे हो सकता है! किसी की तारीफ़ करते हुए कैसे चुपके से चपत जड़ी जाती है इसका हुनर कोई इंशा जी से सीखे...

शाह औरंगजेब आलमगीर बहुत ही लायक और मुतदय्यन (धार्मिक) बादशाह था। दीन और दुनिया दोनों पर नज़र रखता था। उसने कभी कोई नमाज कज़ा नहीं की और किसी भाई को ज़िंदा नहीं छोड़ा। हालांकि ये जरूरी था। उसके सब भाई नालायक थे, जैसे कि हर बादशाह के होते हैं। नालायक ना हों तो खुद पहल करके बादशाह को कत्ल ना कर दें।

मुसलमान शासकों का जिक्र करते समय उनसे जुड़ी घटनाओं को आज के परिदृश्य से जोड़ने का काम, एक कुशल व्यंग्यकार के नाते इंशा सहजता से करते हैं। देखिए इन पंक्तियों में किस तरह महमूद गजनवी का जिक्र करते हुए आज के प्रकाशकों को उन्होंने आड़े हाथों लिया है

महमूद पर इलजाम लगाया जाता है कि उसने फिरदौसी से शाहनामा लिखवाया और उसकी साठ हजार अशर्फियाँ नहीं दी बल्कि साठ हजार रुपये देकर टालना चाहा। भला एक किताब की साठ हजार अशर्फियाँ कैसे दी जा सकती हैं? बजट भी तो देखना पड़ता है। महमूद की हम इस बात की तारीफ़ करेंगे कि फिर भी साठ हजार की रकम फिरदौसी को भिजवाई। ख्वाह उसके मरने के बाद ही भिजवाई। आजकल के प्रकाशक तो मरने के बाद भी लेखक को कुछ नहीं देते। साठ हजार तो बड़ी चीज हैं उनसे साठ  रुपये ही वसूल हो जाएँ तो लेखक अपने आप को खुशकिस्मत समझते हैं।
व्याकरण की बातें करते हुए इंशा जी की लेखनी आज के उन तमाम कवियों और शायरों को अपनी चपेट में ले लेती है जो छन्दशास्त्र के ज्ञान के बिना ही छंद पर छंद रचते जाते हैं
लफ़्ज़ों के उलट फेर को ग्रामर कहते हैं। शायरी की ग्रामर को 'अरूज़' (छन्दशास्त्र) कहते हैं। पुराने लोग अरूज़ के बगैर शायरी नहीं किया करते थे। आजकल किसी शायर के सामने अरूज़ का नाम लीजिए तो पूछता है, "वह क्या चीज होती है"? हमने एक शायर के सामने इज़ाफ़ात (कारकों) का नाम लिया, बोले खुराफ़ात? खुराफ़ात मुझे पसंद नहीं। बस मेरी ग़ज़ल सुनिए और जाइए।

इंशा जी ने गणित के मोलिक सिद्धान्तों यानि जोड़, घटाव, गुणा और भाग के माध्यम से समाज की थोथी नैतिकता और भ्रष्ट अलगाववादी राजनिति पर निशाना साधा है। वहीं विज्ञान के पाठ में गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांतों की विवेचना इंशा कुछ यूँ करते हैं..

यह न्यूटन ने दरयाफ़्त की थी। ग़ालेबन उससे पहले नहीं होती थी। न्यूटन उससे दरख़्तों से सेब गिराया करता था। आजकल सीढ़ी पर चढ़कर तोड़ लेते हैं। आपने देखा होगा कि कोई शख़्स हुकूमत की कुर्सी पर बैठ जाए तो उसके लिए उठना मुश्किल हो जाता है। लोग जबरदस्ती उठाते हैं। यह भी कशिशे सिक़्ल के बाइस  (गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का उदाहरण) है

किताब के हर पाठ के बाद इंशा जी पाठ्यपुस्तक शैली में विद्यार्थियों से सवाल पूछते हैं जो पाठ से कम दिलचस्प नहीं हैं।  भाषिक व्यंग्य सौंदर्य बाधित ना हो इसलिए अनुवादक अब्दुल बिस्मिल्लाह ने इंशा की किताब का लिप्यांतरण भर किया है। एक तरह से ये सही है पर सारे कठिन उर्दू शब्दों के मायने नहीं दिये जाने की वज़ह से उर्दू में उतना दखल ना रखने वाले पाठकों को बार बार शब्दकोश का सहारा लेना पड़ सकता है।

किताब के आख़िरी हिस्से में इंशा जी ने नीति शिक्षा के दौरान बचपन में पढ़ाई गई कहानियों मसलन चिड़े और चिड़िया, कछुआ और ख़रगोश, एकता ही बल है को एक अलग ही अंदाज़ में पेश किया है जिसे पढ़कर आप आनंदित हुए बिना नहीं रहेंगे। यकीन नहीं आ रहा तो सुनिए इंशा जी की एक कहानी मेरी जुबानी..
एक शाम मेरे नाम पर इब्ने इंशा
 

मेरी पसंदीदा किताबें...

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उर्दू की आख़िरी किताब
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Lolita
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स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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