नब्बे से सन दो हजार के दशक में जगजीत सिंह के कई एलबम आए। इनमें से कुछ की बातें तो मैं पहले भी इस श्रृंखला में कर चुका हूँ। अगर सज़दा, कहकशाँ, विज़न्स, इनसाइट, मरासिम और सिलसिले जैसे शानदार एलबमों को छोड़ दें तो जगजीत जी के नब्बे के दशकों के बाकी एलबम शुरु से अंत तक एक सा प्रभाव छोड़ने में असफल रहे थे। पर फिर भी मुझे याद है कि इस दशक में मैंने शायद ही उनका कोई एलबम ना खरीदा हो। दरअसल उस वक़्त जगजीत की आवाज़ में कुछ भी सुनना अमृत पान करने जैसा था। नब्बे के दशक के अच्छे एलबमों की बात तो आगे भी होती रहेगी। आज रुख करते हैं एक ऍसे एलबमों का जो उतने लोकप्रिय नहीं हुए। फिर भी उनकी कुछ ग़ज़लें या कुछ अशआर हमेशा दिल की ज़मीं के करीब रहे।
Love is Blind नाम का एलबम वेनस ने 1998 में बाजार में उतारा था। एलबम की साइड A में एक ग़ज़ल थी शाहिद कबीर की। ग़जल का मतला तो जानलेवा था ही बाद के शेर भी कम खूबसूरत नहीं थे..
कभी खामोश बैठोगे कभी कुछ गुनगुनाओगे,
साइड B की शुरुआत निदा फाज़ली की ग़ज़ल की इन पंक्तियाँ से होती थी...कोई आँखों के पर्दों से दूर जा सकता है पर मन के पर्दों से,,,
पर अगर कोई पूछे कि Love is Blind की सबसे उम्दा ग़ज़ल कौन थी तो मुझे जनाब वाली असी की ये ग़ज़ल ही दिमाग में आती है। वली असी का ताल्लुक तो मेरठ से था पर बतौर शायर उनकी पहचान लखनऊ आने पर ही हुई। कानों पे झूलते सफेद बालों से पहचाने जाने वाले वाली बेहद धार्मिक प्रवृति के थे। लखनऊ में कहने को उनकी एक दुकान थी मकतब- ए- दीन-ओ- अदब पर वास्तव में वो दुकान से ज्यादा साहित्यकारों, उर्दू सीखने वाले छात्रों के लिए एक क्लब का काम करती थी। हृदय गति रुकने की वज़ह से जब वली इस दुनिया को छोड़ गए तो भी वो एक मुशाएरे में शिरक़त कर रहे थे।
जगजीत की आवाज़ का दर्द और वाली साहब के अशआर मुझे इतने सालों बाद भी इस ग़ज़ल को सुनने को मज़बूर कर देते हैं। आशा है आपको भी करेंगे...
Love is Blind नाम का एलबम वेनस ने 1998 में बाजार में उतारा था। एलबम की साइड A में एक ग़ज़ल थी शाहिद कबीर की। ग़जल का मतला तो जानलेवा था ही बाद के शेर भी कम खूबसूरत नहीं थे..
आज हम बिछड़े हैं तो कितने रंगीले हो गए
मेरी आँखें सुर्ख तेरे हाथ पीले हो गए
कब की पत्थर हो चुकी थी मुन्तज़िर आँखें मगर
छू के जब देखा तो मेरे हाथ गीले हो गए
एक और ग़जल थी जिसे लिखा था जनाब नज़ीर बनारसी साहब ने। ग़जल के बोल सहज थे और उनमें कहीं बातें किसी भी प्रेमी के दिल को भला बिना छुए कैसे निकल सकती थीं।
कभी खामोश बैठोगे कभी कुछ गुनगुनाओगे,
मैं उतना याद आऊँगा मुझे जितना भुलाओगे।
कभी दुनिया मुक्क़मल बन के आएगी निगाहों में,
कभी मेरे कमी दुनिया की हर इक शय में पाओगे
साइड B की शुरुआत निदा फाज़ली की ग़ज़ल की इन पंक्तियाँ से होती थी...कोई आँखों के पर्दों से दूर जा सकता है पर मन के पर्दों से,,,
तुम ये कैसे जुदा हो गए
हर तरफ हर जगह हो गए
अपना चेहरा ना देखा गया
आईने से ख़फ़ा हो गए
पर अगर कोई पूछे कि Love is Blind की सबसे उम्दा ग़ज़ल कौन थी तो मुझे जनाब वाली असी की ये ग़ज़ल ही दिमाग में आती है। वली असी का ताल्लुक तो मेरठ से था पर बतौर शायर उनकी पहचान लखनऊ आने पर ही हुई। कानों पे झूलते सफेद बालों से पहचाने जाने वाले वाली बेहद धार्मिक प्रवृति के थे। लखनऊ में कहने को उनकी एक दुकान थी मकतब- ए- दीन-ओ- अदब पर वास्तव में वो दुकान से ज्यादा साहित्यकारों, उर्दू सीखने वाले छात्रों के लिए एक क्लब का काम करती थी। हृदय गति रुकने की वज़ह से जब वली इस दुनिया को छोड़ गए तो भी वो एक मुशाएरे में शिरक़त कर रहे थे।
जगजीत की आवाज़ का दर्द और वाली साहब के अशआर मुझे इतने सालों बाद भी इस ग़ज़ल को सुनने को मज़बूर कर देते हैं। आशा है आपको भी करेंगे...
समझते थे, मगर फिर भी न रखी दूरियाँ हमने
चरागों को जलाने में जला ली उंगलियाँ हमने
कोई तितली हमारे पास आती भी तो क्या आती
सजाये उम्र भर कागज़ के फूल और पत्तियाँ हमने
यूं ही घुट घुट के मर जाना हमें मंज़ूर था लेकिन
किसी कमज़र्फ पर ज़ाहिर ना की मजबूरियाँ हमने
हम उस महफिल में बस इक बार सच बोले थे ए वाली
ज़ुबान पर उम्र भर महसूस की चिंगारियाँ हमने
इस श्रृंखला में अब तक
- जगजीत सिंह : वो याद आए जनाब बरसों में...
- Visions (विज़न्स) भाग I : एक कमी थी ताज महल में, हमने तेरी तस्वीर लगा दी !
- Visions (विज़न्स) भाग II :कौन आया रास्ते आईनेखाने हो गए?
- Forget Me Not (फॉरगेट मी नॉट) : जगजीत और जनाब कुँवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर' की शायरी
- जगजीत का आरंभिक दौर, The Unforgettables (दि अनफॉरगेटेबल्स) और अमीर मीनाई की वो यादगार ग़ज़ल ...
- जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 1
- जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 2
- अस्सी के दशक के आरंभिक एलबम्स..बातें Ecstasies , A Sound Affair, A Milestone और The Latest की