मंगलवार, दिसंबर 27, 2016

वार्षिक संगीतमाला 2016 वो गीत जो संगीतमाला में दस्तक देते देते रह गए Part II

साल की आख़िरी पोस्ट में हाज़िर हूँ छः और नग्मों के साथ जो मूल्यांकन की दृष्टि से अंतिम पाँच पॉयदानों के आसपास थे। इनमें से तीन शायद आपने ना सुने हों पर वक़्त मिले तो सुनिएगा।

आज का पहला गीत मैंने लिया है फिल्म Parched से जो Pink के आस पास ही प्रदर्शित हुई थी। अपने अंदर की आवाज़ को ढूँढती निम्न मध्यम वर्ग की महिलाओं से जुड़ी एक संवेदनशील फिल्म थी Parched ! इसी फिल्म का एक गीत है माई रे माई जिसे लिखा स्वानंद किरकिरे ने और धुन बनाई हितेश सोनिक ने। स्वानंद कोई गीत लिखें और उसमें काव्यात्मकता ना हो ऐसा हो सकता है भला.. गीत का मुखड़ा देखिए 

माई रे माई , मैं बादल की बिटिया.. 
माई रे माई , मैं सावन की नदिया 
दो पल का जोबन, दो पल ठिठोली, 
बूँदों सजी है ,चुनर मेरी चोली 

इस गीत को गाया है नीति मोहन और हर्षदीप कौर ने..

  

प्रकाश झा अपनी फिल्मों के संगीत रचने में संगीतकारों को अच्छी खासी आज़ादी देते हैं। ख़ुद तो संगीत के पारखी हैं ही। जय गंगाजल में सलीम सुलेमान का रचा संगीत वाकई विविधता लिए हुए है। फिल्म का एक गीत राग भैरवी पर आधारित है जिसे शब्द दिए हैं मनोज मुन्तसिर ने। मनोज की शब्द रचना जीवन के सत्य को  हमारे सामने कुछ यूँ खोलती है

मद माया में लुटा रे कबीरा
काँच को समझा कंचन हीरा
झर गए सपने पाती पाती
आँख खुली तो सब धन माटी

शायद नोटबंदी के बाद भी कुछ लोगों को ये गीत याद आया होगा। इस गीत को अरिजीत ने भी गाया है और दूसरे वर्जन में अमृता फणनवीस ने उनका साथ दिया है जो ज्यादा बेहतर बन पड़ा है।
  

ऊपर के दो गीतों जैसा ही तीसरा अनसुना गीत है फिल्म धनक से जिसे नागेश कुकनूर ने बनाया है। राजस्थान की पृष्ठभूमि में एक भाई बहन की कहानी कहती इस फिल्म में एक प्यारा सा गीत रचा है मीर अली हुसैन ने। देखिए इस  गीत में हुसैन  क्या हिदायत दे रहे हैं इन बच्चों को

ख़्वाबों में अपने तू घुल कर खो जा रे
पलकों पे सपने मल कर सो जा रे
होगी फिर महक तेरे हाथो में
और देखेगा तू धनक रातो में


तापस रेलिया के संगीत निर्देशन में इस गीत को अपनी आवाज़ से सँवारा है मोनाली ठाकुर ने.


तो ये थी अनसुने गीतों की बात। आगे के तीनों गीत इस साल खूब बजे हैं और इन्हें आपने टीवी या रेडियो पर बारहा सुना होगा। फिल्म वज़ीर में शान्तनु मोइत्रा ने बड़ी ही मधुर पर अपनी पुरानी धुनों से मिलती जुलती धुन रची। परिणिता के गीत याद हैं ना आपको।ये गीत उसी फिल्म के संगीत की याद दिलाता है। ख़ैर सोनू निगम और श्रेया ने इस गीत में जान फूँक दी वो भी विधु विनोद चोपड़ा के बोलों पर जो एक अंतरे से ज्यादा नहीं जा पाए।



सुल्तान बतौर एलबम साल के शानदार एलबम में रहा। विशाल शेखर का संगीत और इरशाद क़ामिल के बोलों ने खूब रंग ज़माया। अब उनकी इन पंक्तियों में पहलवान क्या आम आदमी का ख़ून भी गर्म हो उठेगा

ख़ून में तेरे मिट्टी, मिट्टी में तेरा ख़ून
ऊपर अल्लाह नीचे धरती, बीच में तेरा जूनून...ऐ सुल्तान..

सुखविंदर सिंह की सधी आवाज़ तन मन में जोश भर देती है..



वैसे तो इस साल के झूमने झुमाने वाले गीतों में काला चश्मा, बेबी को बेस पसंद है और ब्रेकअप सांग खूब चले पर मेरा मन जीता बागी फिल्म की इस छम छम ने। तो इस छम छम के साथ आप भी छम छम कीजिए और मुझे दीजिए विदा। अगले साल वार्षिक संगीतमाला 2016 के साथ पुनः प्रस्तुत हूँगा


शनिवार, दिसंबर 24, 2016

वार्षिक संगीतमाला 2016 वो गीत जो संगीतमाला में दस्तक देते देते रह गए Part I

वार्षिक संगीतमाला के प्रथम पच्चीस गीतों का सिलसिला तो जनवरी के पहले हफ्ते से शुरु हो ही जाएगा पर उसके पहले आपको मिलवाना चाहूँगा उन दर्जन भर गीतों से जो मधुर होते हुए भी संगीतमाला  से थोड़ा दूर रह गए। अब इसकी एक वज़ह तो ये है कि आजकल संगीतकार गीतकार लगभग एक ही जैसी धुनें और बोल थोड़ा जायक़ा बदल कर अलग अलग थालियों में परोस रहे हैं। लिहाज़ा मीठी चाशनी में सने इन गीतों में कई बार वो नयापन नहीं रह पाता जिसकी मेरे जैसे श्रोता को उम्मीद रहती है।

पर ऊपर वाली बात सारे गीतों पर लागू नहीं होती जिन्हें मैं सुनाने जा रहा हूँ। कुछ को तो मुझे संगीतमाला में जगह ना दे पाने का अफ़सोस हुआ पर कहीं तो लकीर खींचनी थी ना सो खींच दी।

तो सबसे पहले बात एयरलिफ्ट के इस गीत की जिसे लिखा गीतकार कुमार ने और धुन बनाई  अमल मलिक ने। सच कहूँ तो अमल की धुन बड़ी प्यारी है। रही कुमार साहब के बोलों की बात तो पंजाबी तड़का लगाने में वो हमेशा माहिर रहे हैं। बस अपने प्रियके बिन रहने में कुछ सोच ना सकूँ की बजाए कुछ गहरा सोच लेते तो मज़ा आ जाता। ख़ैर आप तो सुनिए इस गीत को..



पंजाबी माहौल दूर ही नहीं हो पा रहा क्यूँकि हम आ गए हैं कपूरों के खानदान में। कपूर एंड संस के इस गीत को सुन कर शायद आप भी बोल ही उठें, उनसे जिनसे नाराज़ चल रहे थे अब तक। कम से कम गीतकार देवेन्द्र क़ाफिर की तो यही कोशिश है। संगीतकार के रूप में यहाँ हैं पंचम के शैदाई युवा तनिष्क बागची। तनिष्क का सफ़र तो अभी शुरु ही हुआ है। आगे भी उम्मीद रहेगी उनसे। तो आइए सुनते हैं अरिजीत सिंह और असीस कौर के गाए इस युगल गीत को



जान एब्राहम गठे हुए शरीर के मालिक हैं। इस बात का इल्म उन्हें अच्छी तरह से है तभी तो अपनी फिल्म का नाम रॉकी हैंडसम रखवाना नहीं भूलते 😀। अगला गीत उनकी इसी फिल्म का है जिसमें वो रहनुमा बने हैं श्रुति हासन के। संगीतकार की कमान सँभाली है यहाँ इन्दर और सनी बावरा ने।। गीत को लिखा मनोज मुन्तसिर और सागर लाहौरी ने। ये साल श्रेया घोषाल के लिए उतना अच्छा नहीं रहा। बहुत सारे ऐसे गीत जो उनकी आवाज़ को फबते नयी गायिका पलक मुच्छल या फिर तुलसी कुमार की झोली में चले गए। ये उनकी निज़ी व्यस्तता का नतीज़ा था या फिर कुछ और ये तो वक़्त ही बताएगा। फिलहाल तो वो इस नग्मे में रूमानियत बिखेरती सुनी जा सकती हैं..



क्यूँ इतने में तुमको ही चुनता हूँ हर पल
क्यूँ तेरे ही ख़्वाब बुनता हूँ हर पल
तूने मुझको जीने का हुनर दिया
खामोशी से सहने का सबर दिया


संदीप नाथ ने एक बेहतरीन मुखड़ा दिया फिल्म दो लफ़्जों की कहानी के इस गीत में। यक़ीन मानिए अल्तमश फरीदी की गायिकी आपको अपनी ओर आकर्षित जरूर करेगी। बबली हक़ की अच्छी कम्पोजीशन जो गीतमाला से ज़रा ही दूर रह गई।


इस साल इश्क़ के नाम पर अच्छा कारोबर चलाया है मुंबई फिल्म जगत ने ने। अब ज़रा फिल्मों के नाम पर ही सरसरी निगाह डाल लीजिए लव गेम्स, वन नाइट स्टैंड, इश्क़ क्लिक, लव के फंडे, लव शगुन, इश्क़ फारएवर।  इनके गीतों को सुनकर माँ कसम लव का ओवरडोज़ हो गया इस बार तो। अब विषय मोहब्बत हो तो गीत भी कम नहीं पर गीत की मुलायमित के साथ ये गीत बालाओं की मुलायमियत भी बेचते नज़र आए। इन गीतों के दलदल से लव गेम्स का ये नग्मा कानों में थोड़ा सुकून जरूर पैदा कर गया।

क़ौसर मुनीर के शब्दों और हल्दीपुर बंधुओं संगीत और सिद्धार्थ की संगीत रचना से लव गेम्स का ये गीत निश्चय ही श्रवणीय बन पड़ा है। गीत में गायक संगीत हल्दीपुर का साथ दिया है उभरती हुई बाँसुरी वादिका रसिका शेखर ने। गीत की धुन प्यारी है और शब्द रचना भी। जरूर सुनिएगा इसे इक दफ़ा


इस साल हमारे खिलाड़ी भी अपने प्रेम प्रसंगों के साथ फिल्मों में नज़र आए। गनीमत ये रही कि धोनी और अज़हर जैसी फिल्मों के एलबम्स मेलोडी से भरपूर रहे। इन फिल्मों का एक एक गीत वार्षिक संगीतमाला का हिस्सा है। चलते चलते एम एस धोनी फिल्म का गीत आपको सुनवाता चलूँ जो गीतमाला से आख़िरी वक़्त बाहर हो गया। आवाज़ अरमान मलिक की और बोल एक बार फिर मनोज मुन्तसिर के...


साल के अंत में फिर बात करेंगे ऐसी ही और छः गीतों की जो अंतिम मुकाम से कुछ फासले पर रह गए.. क्रिसमस और शीतकालीन छुट्टियों की असीम शुभकामनाओं के साथ..

बुधवार, दिसंबर 14, 2016

एक फूल की चाह ... सियाराम शरण गुप्त Ek Phool Ki Chaah

छुआछूत की समस्या ने एक समय इस देश में विकराल रूप धारण किया हुआ था। आज़ादी के सात दशकों बाद हमारे समाज की रुढ़ियाँ ढीली तो हो गयी हैं पर फिर भी गाहे बगाहे देश के सुदूर इलाकों से मंदिर में प्रवेश से ले कर पानी के इस्तेमाल पर रोक जैसी घटनाएँ सामने आती ही रहती हैं। यानि कहीं ना कहीं आज भी सबको समान अधिकार देने के फलसफ़े को हममें से कई लोग दिल से स्वीकार नहीं कर पाए हैं। अगर ऐसा ना होता तो ना ये छिटपुट  घटनाएँ होती और ना ही स्त्रियों को आज भी मंदिर या दरगाह के हर हिस्से में जाने के अपने अधिकार के लिए लड़ना पड़ रहा होता।

किसी आस्थावान व्यक्ति से भगवान का आशीर्वाद पाने का अधिकार छीन लेना कितना घृणित लगता है ना? बरसों पहले इसी समस्या पर सियाराम शरण गुप्त ने एक लंबी सी कविता लिखी थी। कविता क्या कविता के रूप में एक कहानी ही तो थी उनकी ये रचना। वैसे भी सियाराम शरण जी अपनी कविताओं की कथात्मकता के लिए जाने जाते थे। कविता का शीर्षक था एक फूल की चाह जो आजकल NCERT की नवीं कक्षा में अपने संक्षिप्त रूप में पढ़ाई जाती है।


झांसी से ताल्लुक रखने वाले सियाराम शरण गुप्त, हिंदी के प्रखर कवि मैथिली शरण गुप्त के अनुज थे। गाँधी और विनोबा के विचारों से प्रभावित सियाराम शरण गुप्त ने अपनी कविताओं में तात्कालीन सामाजिक कुरीतियों पर जबरदस्त कुठाराघात किया है। अछूतों से सामाजिक भेदभाव को दर्शाती ये कविता एक छोटी बच्ची सुखिया और उसके पिता के इर्द गिर्द घूमती है।

महामारी में ज्वर से पीड़ित सुखिया  मंदिर से देवी के आशीर्वाद स्वरूप पूजा के एक फूल की कामना रखती थी पर तमाम कोशिशों के बावज़ूद उसका  पिता अपनी बेटी की ये अंतिम  इच्छा पूरी नहीं कर पाता क्यूंकि समाज के ठेकेदारों ने उसे अछूत का तमगा दे रखा है। सियारामशरण जी ने इस घटना का कविता में मार्मिकता से चित्रण किया है।

भगवान के घर के रखवालों की ऐसी छोटी सोच पर प्रभावशाली ढंग  से तंज़ कसते हुए कवि सुखिया के पिता की तरफ़ से सवाल दागते हुए कहते हैं कि

ऐ, क्या मेरा कलुष बड़ा है, देवी की गरिमा से भी
किसी बात में हूँ मैं आगे, माता की महिमा से भी?
माँ के भक्त हुए तुम कैसे, करके यह विचार खोटा
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम, गौरव करते हो छोटा!


इस कविता को अंत तक पढ़ते हुए गला रूँध सा जाता है और आवाज़ जवाब दे जाती है। फिर भी मैंने एक कोशिश की है सुनियेगा और बताइएगा कि क्या ये कविता आपके दिल को झकझोरने में सफल हुई?  कम से कम मुझे तो ऐसा ही महसूस हुआ इसे पढ़ते हुए..




उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ, हृदय-चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचण्ड हो, फैल रही थी इधर उधर।
क्षीण-कण्ठ मृतवत्साओं का, करुण-रुदन दुर्दान्त नितान्त,
भरे हुए था निज कृश रव में, हाहाकार अपार अशान्त।

बहुत रोकता था सुखिया को, ‘न जा खेलने को बाहर’,
नहीं खेलना रुकता उसका, नहीं ठहरती वह पल भर।
मेरा हृदय काँप उठता था, बाहर गई निहार उसे;
यही मानता था कि बचा लूँ, किसी भांति इस बार उसे।

भीतर जो डर रहा छिपाये, हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को, ताप-तप्त मैंने पाया।
ज्वर से विह्वल हो बोली वह, क्या जानूँ किस डर से डर -
मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल ही दो लाकर।

बेटी, बतला तो तू मुझको, किसने तुझे बताया यह
किसके द्वारा, कैसे तूने. भाव अचानक पाया यह?
मैं अछूत हूँ, मुझे कौन हा! मन्दिर में जाने देगा
देवी का प्रसाद ही मुझको, कौन यहाँ लाने देगा?


बार बार, फिर फिर, तेरा हठ!, पूरा इसे करूँ कैसे;
किससे कहे कौन बतलावे, धीरज हाय! धरूँ कैसे?
कोमल कुसुम समान देह हा!, हुई तप्त अंगार-मयी
प्रति पल बढ़ती ही जाती है, विपुल वेदना, व्यथा नई।


मैंने कई फूल ला लाकर, रक्खे उसकी खटिया पर
सोचा - शान्त करूँ मैं उसको, किसी तरह तो बहला कर।
तोड़-मोड़ वे फूल फेंक सब, बोल उठी वह चिल्ला कर -
मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल ही दो लाकर!

क्रमश: कण्ठ क्षीण हो आया, शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की, चिन्ता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से, हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण-घनों में कब रवि डूबा, कब आई सन्ध्या गहरी।

सभी ओर दिखलाई दी बस, अन्धकार की ही छाया
छोटी-सी बच्ची को ग्रसने, कितना बड़ा तिमिर आया!
ऊपर विस्तृत महाकाश में, जलते-से अंगारों से,
झुलसी-सी जाती थी आँखें, जगमग जगते तारों से।

देख रहा था - जो सुस्थिर हो, नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! बही चुपचाप पड़ी थी, अटल शान्ति-सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं, उसे स्वयं ही उकसा कर -
मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल ही दो लाकर!

हे माते:, हे शिवे, अम्बिके, तप्त ताप यह शान्त करो;
निरपराध छोटी बच्ची यह, हाय! न मुझसे इसे हरो!
काली कान्ति पड़ गई इसकी, हँसी न जाने गई कहाँ,
अटक रहे हैं प्राण क्षीण तर, साँसों में ही हाय यहाँ!

अरी निष्ठुरे, बढ़ी हुई ही, है यदि तेरी तृषा नितान्त,
तो कर ले तू उसे इसी क्षण, मेरे इस जीवन से शान्त!
मैं अछूत हूँ तो क्या मेरी, विनती भी है हाय! अपूत,
उससे भी क्या लग जाएगी, तेरे श्री-मन्दिर को छूत?

किसे ज्ञात, मेरी विनती वह, पहुँची अथवा नहीं वहाँ,
उस अपार सागर का दीखा, पार न मुझको कहीं वहाँ।
अरी रात, क्या अक्ष्यता का, पट्टा लेकर आई तू,
आकर अखिल विश्व के ऊपर, प्रलय-घटा सी छाई तू!

पग भर भी न बढ़ी आगे तू, डट कर बैठ गई ऐसी,
क्या न अरुण-आभा जागेगी, सहसा आज विकृति कैसी!
युग के युग-से बीत गये हैं, तू ज्यों की त्यों है लेटी,
पड़ी एक करवट कब से तू, बोल, बोल, कुछ तो बेटी!

वह चुप थी, पर गूँज रही थी, उसकी गिरा गगन-भर भर
‘मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल तुम दो लाकर!’
“कुछ हो देवी के प्रसाद का, एक फूल तो लाऊँगा
हो तो प्रात:काल, शीघ्र ही, मन्दिर को मैं जाऊँगा।

तुझ पर देवी की छाया है, और इष्ट है यही तुझे;
देखूँ देवी के मन्दिर में, रोक सकेगा कौन मुझे।”
मेरे इस निश्चल निश्चय ने, झट-से हृदय किया हलका;
ऊपर देखा - अरुण राग से, रंजित भाल नभस्थल का!

झड़-सी गई तारकावलि थी, म्लान और निष्प्रभ होकर
निकल पड़े थे खग नीड़ों से, मानों सुध-बुध सी खो कर।
रस्सी डोल हाथ में लेकर, निकट कुएँ पर जा जल खींच,
मैंने स्नान किया शीतल हो, सलिल-सुधा से तनु को सींच।

उज्वल वस्र पहन घर आकर, अशुचि ग्लानि सब धो डाली।
चन्दन-पुष्प-कपूर-धूप से, सजली पूजा की थाली।
सुखिया  के सिरहाने जाकर, मैं धीरे से खड़ा हुआ।
आँखें झँपी हुई थीं, मुख भी, मुरझा-सा था पड़ा हुआ।

मैंने चाहा - उसे चूम लें, किन्तु अशुचिता से डर कर
अपने वस्त्र सँभाल, सिकुड़कर, खड़ा रहा कुछ दूरी पर।
वह कुछ कुछ मुसकाई सहसा, जाने किन स्वप्नों में लग्न,
उसकी वह मुसकाहट भी हा! कर न सकी मुझको मुद-मग्न।

अक्षम मुझे समझकर क्या तू, हँसी कर रही है मेरी?
बेटी, जाता हूँ मन्दिर में, आज्ञा यही समझ तेरी।
उसने नहीं कहा कुछ, मैं ही, बोल उठा तब धीरज धर
तुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल तो दूँ लाकर!

ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर, मन्दिर था विस्तीर्ण विशाल
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे, पाकर समुदित रवि-कर-जाल।
परिक्रमा-सी कर मन्दिर की, ऊपर से आकर झर झर,
वहाँ एक झरना झरता था, कल-कल मधुर गान कर-कर।

पुष्प-हार-सा जँचता था वह, मन्दिर के श्री चरणों में,
त्रुटि न दिखती थी भीतर भी, पूजा के उपकरणों में।
दीप-दूध से आमोदित था, मन्दिर का आंगन सारा
गूँज रही थी भीतर-बाहर, मुखरित उत्सव की धारा।

भक्त-वृन्द मृदु-मधुर कण्ठ से, गाते थे सभक्ति मुद-मय -
“पतित-तारिणि पाप-हारिणी, माता, तेरी जय-जय-जय!”
“पतित-तारिणी, तेरी जय-जय” -मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को, जानें किस बल से ढिकला!

माता, तू इतनी सुन्दर है, नहीं जानता था मैं यह;
माँ के पास रोक बच्चों की, कैसी विधि यह तू ही कह?
आज स्वयं अपने निदेश से, तूने मुझे बुलाया है;
तभी आज पापी अछूत यह, श्री-चरणों तक आया है।

मेरे दीप-फूल लेकर वे, अम्बा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब, आगे को अंजलि भरके
भूल गया उसका लेना झट, परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा - बेटी को माँ के ये, पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।

सिंह पौर तक भी आंगन से, नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि - “कैसे, यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो, देखो भाग न जावे, बना धूर्त यह है कैसा;
साफ-स्वच्छ परिधान किए है, भले मानुषों जैसा!

पापी ने मन्दिर में घुसकर, किया अनर्थ बड़ा भारी
कुलषित कर दी है मन्दिर की, चिरकालिक शुचिता सारी।”
ऐ, क्या मेरा कलुष बड़ा है, देवी की गरिमा से भी
किसी बात में हूँ मैं आगे, माता की महिमा से भी?

माँ के भक्त हुए तुम कैसे, करके यह विचार खोटा
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम, गौरव करते हो छोटा!

कुछ न सुना भक्तों ने, झट से, मुझे घेर कर पकड़ लिया;
मार-मार कर मुक्के-घूँसे, धम-से नीचे गिरा दिया!

मेरे हाथों से प्रसाद भी, बिखर गया हा! सब का सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक, कैसे पहुँच सके यह अब।
मैंने उनसे कहा - दण्ड दो, मुझे मार कर, ठुकरा कर,
बस, यह एक फूल कोई भी, दो बच्ची को ले जाकर।

न्यायालय ले गए मुझे वे, सात दिवस का दण्ड-विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे, देवी का महान अपमान!
मैंने स्वीकृत किया दण्ड वह, शीश झुकाकर चुप ही रह
उस असीम अभियोग, दोष का, क्या उत्तर देता; क्या कह?

सात रोज ही रहा जेल में, या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविस्श्रान्त बरसा करके भी, आँखें तनिक नहीं रीतीं।
कैदी कहते - “अरे मूर्ख, क्यों ममता थी मन्दिर पर ही?
पास वहाँ मसजिद भी तो थी, दूर न था गिरजाघर भी।”

कैसे उनको समझाता मैं, वहाँ गया था क्या सुख से
देवी का प्रसाद चाहा था, बेटी ने अपने मुख से।
दण्ड भोग कर जब मैं छूटा, पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई, भय-जर्जर तनु पंजर को।

पहले की-सी लेने मुझको, नहीं दौड़ कर आई वह
उलझी हुई खेल में ही हा! अबकी दी न दिखाई वह।
उसे देखने मरघट को ही, गया दौड़ता हुआ वहाँ
मेरे परिचित बन्धु प्रथम ही, फूँक चुके थे उसे जहाँ।

बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर, छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची, हुई राख की थी ढेरी!
अन्तिम बार गोद में बेटी, तुझको ले न सका मैं हाय!
एक फूल माँ का प्रसाद भी, तुझको दे न सका मैं हा!

वह प्रसाद देकर ही तुझको, जेल न जा सकता था क्या?
तनिक ठहर ही सब जन्मों के, दण्ड न पा सकता था क्या?
बेटी की छोटी इच्छा वह, कहीं पूर्ण मैं कर देता
तो क्या अरे दैव, त्रिभुवन का, सभी विभव  मैं हर लेता?

यहीं चिता पर धर दूँगा मैं, - कोई अरे सुनो, वर दो -
मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल ही लाकर दो!


(मृतवत्सा – जिस माँ की संतान मर गई हो, दुर्दांत – जिसे दबाना या वश में करना करना हो, कॄश – कमज़ोर, रव – शोर , तनु - शरीर• स्वर्ण घन - सुनहले बादल,  तिमिर – अंधकार, विस्तीर्ण – फैला हुआ, रविकर जाल - सूर्य किरणों का समूह, अमोदित - आनंदपूर्ण, ढिकला - ठेला गया, सिंह पौर - मंदिर का मुख्य द्वार, परिधान - वस्त्र,• शुचिता – पवित्रता, सरसिज – कमल , अविश्रांत – बिना थके हुए , प्रभात सजग - हलचल भरी सुबह।)

गुरुवार, दिसंबर 01, 2016

ऐ ज़िंदगी गले लगा ले : क्यूँ तकलीफ़ हुई थी गुलज़ार को ये गीत रचने में? Aye Zindagi Gale Laga Le...

पुरानी फिल्मों के गीतों को नए मर्तबान में लाकर फिर पेश करने का चलन बॉलीवुड में कोई नया नहीं है। मूल गीतों की गुणवत्ता से अगर इन नए गीतों की तुलना की जाए तो ये उनके सामने कहीं नहीं ठहरते। पर नए लिबासों में इन गीत ग़ज़लों के आने से एक फ़ायदा ये जरूर रहता है कि हर दौर के संगीतप्रेमी उन पुराने गीतों से फिर से रूबरू हो जाते हैं। अब कुछ साल पहले की तो बात है। मेहदी हसन साहब की ग़ज़ल गुलो में रंग भरे को हैदर में अरिजीत ने गाकर उसमें लोगों की दिलचस्पी जगा दी थी। 


फिलहाल तो "वज़ह तुम हो" की वज़ह से हमें किशोर दा का सदाबहार नग्मा पल पल दिल के पास तुम रहती हो बारहा सुनाई दे रहा है तो वहीं "डियर ज़िंदगी" हमें इलयराजा, गुलज़ार और सुरेश वाडकर के कालजयी गीत ऐ ज़िंदगी गले लगा ले......  की याद दिला रही है।

गुलज़ार और इलयराजा
क्या प्रील्यूड्स और इंटरल्यूड्स रचे थे इस गीत के इलयराजा ने। पश्चिमी वाद्य के साथ सितार का बेहतरीन मिश्रण किया था उन्होंने संगीत संयोजन में । सदमा तो 1983 में पर्दे पर आई थी पर इसके एक साल पहले निर्देशक बालू महेन्द्रू इसका तमिल रूप मूंदरम पिरई ला चुके थे। पर आश्चर्य की बात ये है कि तमिल वर्सन में इस धुन का आपको कोई गीत नहीं मिलेगा। 

ऍसा कहा जाता है कि मूल तमिल गीत Poongatru Puthidanadhu के लिए जब हिंदी अनुवाद की बात आई तो गुलज़ार को उसके मीटर पर गीत लिखने में मुश्किल हुई। फिर निर्णय लिया गया कि इसके लिए एक नई धुन बनेगी। इलयराजा की धुन कमाल की थी पर गुलज़ार को इसके लिए ख़ुद काफी पापड़ बेलने पड़े थे। ख़ुद उनके शब्दों में..
"बड़ी इन्ट्रिकेट थी इस गीत की स्कैनिंग। मूल तमिल गीत के मीटर को पकड़ना था। गाने के म्यूजिक में टिउऊँ सा आता था  ऐ ज़िंदगी गले लगा ले..टिउऊँ 😆😆 । उसके नोट्स कुछ वैसे थे। मुझे कुछ नहीं सूझा तो वहाँ पर मैंने लफ़्ज़ "है ना" डाल  दिया। अब मुझे लगा पता नहीं इलयराजा को वो पसंद आएगा या नहीं पर उन्होंने दो मिनटों में ऊपर का म्यूजिक बदल कर है ना को अपनी धुन के मुताबिक कर लिया।"

बड़ी संवेदनशील फिल्म थी सदमा और उसके गीत भी। मुझे लगता है कि आज इस गीत को एक क्लासिक का दर्जा मिला है तो वो इसके मुखड़े की वज़ह से। इंसानों से भरी इस दुनिया भी हमें कभी बेगानियत का अहसास दिला जाती है। बड़े अकेले अलग थलग पड़ जाते हैं हम और तब लगता है कि ये ज़िंदगी हमें थोड़ी पुचकार तो ले। कोई राह ही दिखा दे, किसी रिश्ते का किनारा दिला दे...

ऐ ज़िंदगी गले लगा ले
हमने भी तेरे हर इक ग़म को
गले से लगाया है......  है ना

हमने बहाने से, छुपके ज़माने से
पलकों के परदे में, घर भर लिया 
तेरा सहारा मिल गया है ज़िंदगी

छोटा सा साया था,  आँखों में आया था
हमने दो बूंदो से मन भर लिया 
हमको किनारा मिल गया है ज़िंदगी


तो आइए सुनें ये गीत सुरेश वाडकर की आवाज़ में. 



डियर ज़िंदगी में इस गीत के मुखड़े और पहले अंतरे का इस्तेमाल किया है अमित त्रिवेदी ने। पर अरिजीत की आवाज़ में ये गीत भला ही लगता है अगर आप इंटरल्यूड्स में ड्रम और स्ट्रिंग के शोर को नज़रअंदाज़ कर दें तो। वैसे इस गीत को अमित ने अलिया भट्ट से भी गवाया है। तो आपको मैं अरिजीत का वो वर्सन सुनवा रहा हूँ जिसमें इंटरल्यूड्स हटा दिए गए हैं। ये रूप शायद मेरी तरह आपको भी अच्छा लगे।

सोमवार, नवंबर 14, 2016

अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा Arz e niyaz e ishq ... Ghalib

चचा ग़ालिब की शायरी से सबसे पहले गुलज़ार के उन पर बनाए गए धारावाहिक के ज़रिए ही मेरा परिचय हुआ था। हाईस्कूल का वक़्त था वो! किशोरावस्था के उन दिनों में चचा की ग़ज़लें आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक..., हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले...., दिल ही तो है ना संगो ख़िश्त ...और कोई दिन गर जिंदगानी और है ... अक्सर जुबां पर होती थी। जगजीत चित्रा की आवाज़ का जादू तब सिर चढ़कर बोलता था।


पर ग़ालिब की शायरी में उपजी ये उत्सुकता ज़्यादा दिन नहीं रह पाई। जब भी उनका दीवान हाथ लगा उनकी ग़ज़लों को समझने की कोशिश की पर अरबी फ़ारसी के शब्दों के भारी भरकम प्रयोग की वज़ह से वो दिलचस्पी भी जाती रही। मिर्जा के समकालीन साहित्यकार फ़ारसी में ही कविता करने और यहाँ तक की पत्र व्यवहार करने में ही अपना बड़प्पन समझते थे और ख़ुद मिर्जा ग़ालिब का भी ऐसा ही ख़्याल था। पचास की उम्र पार करने के बाद उन्होंने उर्दू में दिलचस्पी लेनी शुरु की। पर शायरी कहने का उनका अंदाज़ भाषा के मामले में पेचीदा ही रहा।

मरने के सालों बाद ग़ालिब को जो लोकप्रियता मिली उसका नतीजा ये हुआ कि अपनी शायरी चमकाने के लिए बहुतेरे कलमकारों ने अपने हल्के फुल्के अशआरों में मक़्ते के तौर पर ग़ालिब का नाम जोड़ दिया। चचा के नाम पर इतने शेर कहे गए कि उन्हें  देखकर उनका अपनी कब्र से निकलने कर जूतमपाज़ी करने  का जी चाहता होगा। इंटरनेट पर ग़ालिब के नाम से इकलौते शेरों को जमा कर दिया जाए तो उसका एक अलग ही दीवान बन जाएगा। ये दीगर बात है कि उसमें से दस से बीस फीसदी शेर चचा के होंगे।

बहरहाल एक बात मैंने गौर की कि चचा ग़ालिब की ग़ज़लों को जब जब गाया गया वो सुनने में बड़ी सुकूनदेह रहीं। उनकी ऐसी ही एक ग़ज़ल मैंने पिछले दिनों सुनी पहले जनाब मेहदी हसन और फिर जगजीत सिंह की आवाज़ों में। अब ये फ़नकार ऐसे हैं कि किसी ग़ज़ल में जान डाल दें और ये ग़ज़ल तो चचा की है।


आपकी सहूलियत के लिए चचा ग़ालिब की इस ग़ज़ल का अनुवाद भी साथ किए दे रहा हूँ।

अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा

हालात ये हैं कि अब ये दिल प्रेम की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के भी लायक नहीं रहा। अब तो इस जिस्म में वो दिल ही नहीं रहा जिस पर कभी गुरूर हुआ करता था।

जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती लिये हुए
हूँ शमआ़-ए-कुश्ता दरख़ुर-ए-महफ़िल नहीं रहा

कितनी तो ख़्वाहिशें थीं! कहाँ पूरी होनी थीं? जीवन की उन अपूर्ण ख़्वाहिशों का दाग़ मन में लिए रुख़सत ले रहा हूँ  मैं। मैं तो वो बुझा हुआ दीया हूँ जो किसी महफिल की रौनक नहीं बन पाया।

मरने की ऐ दिल और ही तदबीर कर कि मैं
शायाने-दस्त-ओ-बाज़ू-ए-कातिल नहीं रहा

अब तो लगता है कि इस दिल को लुटाने का कुछ और बंदोबस्त करना होगा। अब तो मैं अपने क़ातिल के कंधों और बाहों में क़ैद होकर मृत्यु का आलिंगन कर सकने वाला भी नहीं रहा।

वा कर दिये हैं शौक़ ने बन्द-ए-नक़ाब-ए-हुस्न
ग़ैर अज़ निगाह अब कोई हाइल नहीं रहा

अब कहाँ मेरा हक़ उन पर सो मेरी चाहत ने भी स्वीकार कर लिया है उन पर्दों को खोलना जिनमें उनकी खूबसूरती छिपी थी। अब उन पर गैरों की निगाह पड़ने की रुकावट भी नहीं रही।

गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हाए-रोज़गार
लेकिन तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा

यूँ तो ज़िदगी ही दुनिया के अत्याचारों से पटी रही मगर फिर भी तुम्हारी यादें मेरे दामन  से कभी अलग नहीं हुईं ।

दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा मिट गया कि वां
हासिल सिवाये हसरत-ए-हासिल नहीं रहा

दिल की ज़ानिब आती वो हवा जो हमारी वफ़ाओं की नाव को किनारे लगाने वाली थी वही  रुक सी गयी जैसे । ठीक वैसे ही जैसे तुम तक पहुँचने की वो हसरत, वो तड़प ना रही बस तुम रह गई ख़यालों में ।

बेदाद-ए-इश्क़ से नहीं डरता मगर 'असद'
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा

प्यार का ग़म झेलने सेे कभी डरा नहीं मैं पर अब तो प्यार करने का वो जिगर ही नहीं रहा जिस पर कभी मुझे नाज़ था।

ग़ालिब की ये ग़ज़ल मायूस करने वाली है। सोचिए तो जिसे हम दिलों जाँ से चाहें और फिर कुछ ऐसा हो कि वो चाहत ही मर जाए तो फिर दिल उस शख़्स के बारे में सोचकर कैसा खाली खाली सा हो जाता है। भावनाएँ मर सी जाती हैं, कुछ ऐसी ही कैफ़ियत , कुछ ऐसे ही अहसास दे जाती है ये ग़ज़ल... इस ग़ज़ल को मेहदी हसन साहब की आवाज़ में सुनने में बड़ा सुकून मिलता है।

 

शुक्रवार, नवंबर 04, 2016

पहिले पहिल हम कइलीं, छठी मइया व्रत तोहार : शारदा सिन्हा का गाया मधुर छठ गीत Pahele Pahil Hum Kaili

चार दिन चलने वाले छठ पर्व का शुभांरभ हो चुका है और छठ के आगमन के पहले ही छठ मइया के पारम्परिक गीतों से बिहार, झारखंड, नेपाल के तराई और पूर्वी उत्तरप्रदेश के इलाके गुंजायमान हैं। बचपन में पटना में रहते हुए इस पर्व को अपने चारों ओर मनते हुए एक बाहरी दर्शक के तौर पर देखा है। सारे पर्व त्योहारों में मुझे यही एक पर्व ऐसा दिखता है जिसमें आस्था की पवित्रता किसी दिखावे से ज्यादा प्रगाढ़ता से दिखाई देती है।
कामकाजी बहू की भूमिका में Kristine Zedek
छठ के गीत बिहार के सबसे लोकप्रिय लोकगीतों में अपना स्थान रखते हैं। एक ही मूल धुन में गाए जाने वाले आस्था के इन सरल गीतों में एक करुणा है, एक मिठास है, जिससे हर कोई जुड़ता चला जाता है। यूँ तो छठ के गीतों को अनुराधा पोडवाल से लेकर कल्पना पोटवारी और देवी जैसे कलाकारों ने अपनी आवाज़ दी है पर छठ गीतों में जान फूँकने में लोक गायिका व पद्मश्री से सम्मानित शारदा सिन्हा का अभूतपूर्व योगदान है।
शारदा सिन्हा Sharda Sinha
उत्तर बिहार में जन्मी 63 वर्षीय शारदा सिन्हा ने संगीत की आरंभिक शिक्षा रघु झा, सीताराम हरि डांडेकर और पन्ना देवी से ली थी। शारदा जी की आवाज़ में जो ठसक है वो लोक गीतों के सोंधेपन को सहज ही श्रोताओं के करीब ले आती है। बिहार की आंचलिक भाषाओं भोजपुरी, मगही व मैथिली तीनों में उनके कई एलबम बाजार में आते रहे हैं। हिंदी फिल्मों में भी उनकी आवाज़ का इस्तेमाल किया गया है और कई बार ये गीत खासे लोकप्रिय भी रहे हैं। मैंने प्यार किया काकहे तोसे सजना, ये तोहरी सजनियापग पग लिये जाऊँ, तोहरी बलइयाँहम आपके हैं कौन का बाबुल जो तुमने सिखाया, जो तुमसे पाया और हाल फिलहाल में गैंग आफ वासीपुर 2  में तार बिजली से पतले हमारे पिया ने खूब धूम मचाई थी। पर छठ के मौके पर आज मैं आपसे उनके उस छठ गीत की बात करने जा रहा हूँ जो पिछले हफ्ते यू ट्यूब पर रिलीज़ किया गया है और खूब पसंद भी किया जा रहा है।

पर इससे पहले कि इस गीत की बात करूँ इस पर्व की जटिलताओं से आपका परिचय करा दूँ। सूर्य की अराधना में चार दिन चलने वाले इस पर्व की शुरुआत दीपावली के ठीक चार दिन बाद से होती है। पर्व का पहला दिन नहाए खाए कहलाता है यानि इस दिन व्रती नहा धो और पूजा कर चावल और लौकी मिश्रित चना दाल का भोजन करता है। पर्व के दौरान शुद्धता का विशेष ख्याल रखा जाता है। व्रती बाकी लोगों से अलग सोता है। अगली शाम रत रोटी व गुड़ की खीर के भोजन से टूटता है और इसे खरना कहा जाता है। इसे मिट्टी की चूल्हे और आम की लकड़ी में पकाया जाता है। इसके बाद का निर्जला व्रत 36 घंटे का होता है। दीपावली के छठे दिन यानि इस त्योहार के तीसरे दिन डूबते हुए सूरज को अर्घ्य दिया जाता है और फिर अगली सुबह उगते हुए सूर्य को। इस अर्घ्य के बाद ही व्रती अपना व्रत तोड़ पाता है।
छठ के दौरान पूजा की तैयारी 
त्योहार में नारियल, केले के घौद, ईख  का चढ़ावा चढ़ता है, इसलिए छठ के हर गीत में आप इसका जिक्र जरूर पाएँगे। ये व्रत इतना कठिन है कि इसे लगातार कर पाना कामकाजी महिला तो छोड़िए घर में रहने वाली महिला के लिए आसान नहीं है। पर पूरा परिवार घुल मिलकर ये पर्व मनाता है तो व्रतियों में वो शक्ति आ ही जाती है। एकल परिवारों में छठ मनाने की घटती परंपरा को ध्यान में रखते हुए शारदा जी ने एक खूबसूरत गीत रचा है जिसके बोल हैं हृदय मोहन झा के और संगीत है आदित्य देव  का। गीत के बोल कुछ यूँ हैं

पहिले पहिल हम कइलीं , छठी मइया व्रत तोहार
करिह क्षमा छठी मइया, भूल-चूक गलती हमार
गोदी के बलकवा के दीह, छठी मइया ममता-दुलार
पिया के सनेहिया बनइह, मइया
दीह सुख-सार.
नारियल-केरवा घउदवा, साजल नदिया किनार.
सुनिहा अरज छठी मइया, बढ़े कुल-परिवार.
घाट सजेवली मनोहर, मइया तोरा भगती अपार.
लिहिना अरगिया हे मइया, दीहीं आशीष हजार.
पहिले पहिल हम
कइलीं , छठी मइया व्रत तोहार
करिहा क्षमा छठी मइया, भूल-चूक गलती हमार


वैसे तो भोजपुरी हिंदी से काफी मिलती जुलती है पर जो लोग इस भाषा से परिचित नहीं है उन्हें इस गीत के मायने बता देता हूँ

छठी मैया मैं पहली बार आपकी उपासना में व्रत कर रही हूँ। अगर कोई भूल हो जाए तो मुझे माफ कर देना। ये जो मेरी गोद में नन्हा-मुन्हा खेल रहा है, माँ तुम उसे अपनी ममता देना। माँ तुम्हारे आशीर्वाद से पति का मेरे प्रति स्नेह और मेरे जीवन की खुशियाँ बनी रहें। तुम्हारी आराधना के लिए नारियल व केले के घौद को सूप में सुंदरता से सजाकर मैं नदी घाट किनारे आ चुकी हूँ। मेर विनती सुनना मैया और मेरे घर परिवार को फलने फूलने का आशीष देना। (यहाँ छठी मैया से तात्पर्य सूर्य की पत्नी उषा से है।)

वीडियो में एक जगह घर की बहू इस बात को कहती है कि घर में जो छठ मनाने की परंपरा है उसे मैं खत्म नहीं होने दूँगी। अच्छा होता कि पति पत्नी दोनों मिलकर यही बात कहते क्यूँकि छठ एक ऐसा पर्व है जिसे पुरुष भी करते हैं। आख़िर परंपरा तो पूरे परिवार के लिए हैं ना,  तो उसके निर्वहन की जिम्मेवारी भी पूरे परिवार की है।



इस वीडियो में नज़र आए हैं भोजपुरी फिल्मों के नायक क्रांति प्रकाश झा और दक्षिण भारतीय फिल्मों और टीवी पर नज़र आने वाली अभिनेत्री क्रिस्टीन जेडक। संगीतकार आदित्य देव का गीत में बाँसुरी का प्रयोग मन को सोहता है। तो बताइए कैसा लगा आपको ये छठ गीत ?

शनिवार, अक्तूबर 22, 2016

सतपुड़ा के घने जंगल, नींद मे डूबे हुए से ऊँघते अनमने जंगल

कविताएँ तो स्कूल के ज़माने में खूब पढ़ीं। कुछ खूब पसंद आतीं तो कुछ पल्ले ही नहीं पड़तीं। सतपुड़ा के घने जंगल भी पसंद ना आने वाली कविताओं में ही एक थी। एक तो थी भी इतनी लंबी। दूसरे तब ये समझ के बाहर होता था कि किसी जंगल पर भी इतनी लंबी कविता लिखी जा सकती है। किसी जंगल में घूमना विचरना ही उस छोटी उम्र में  हुआ ही कहाँ था? फिर भी परीक्षा के ख़्याल से ही कुछ रट रटा के ये पाठ निकालने की फिराक़ में थे कि घास पागल, कास पागल, शाल और पलाश पागल, लता पागल, वात पागल, डाल पागल, पात पागल पढ़कर हमने ये निष्कर्ष निकाल लिया था कि या तो ये कवि पागल था या इस कविता का मर्म समझते समझते हम ही पागल हो जाएँगे।


आज से ठीक दस साल पहले मुझे पचमढ़ी जाने का मौका मिला और वहाँ सतपुड़ा के घने जंगलों से पहली बार आमना सामना हुआ। अप्सरा, डचेस और बी जैसे जलप्रपातों तक पहुँचने के लिए हमें वहाँ के जंगलों के बीच अच्छी खासी पैदल यात्रा करनी पड़ी। सच कहूँ तब मुझे पग पग पर भवानी प्रसाद मिश्र की ये कविता याद आई और तब जाकर बुद्धि खुली कि कवि ने क्या महसूस कर ये सब रचा होगा। सतपुड़ा के जंगल के बीच बसे पचमढ़ी से जुड़े यात्रा वृत्तांत में मैंने जगह जगह इस कविता के विभिन्न छंदो को अपने आस पास सजीव होता पाया... 
"सतपुड़ा के हरे भरे जंगलों में एक अजीब सी गहन निस्तब्धता है। ना तो हवा में कोई सरसराहट, ना ही पंछियों की कोई कलरव ध्वनि। सब कुछ अलसाया सा, अनमना सा। पत्थरों का रास्ता काटती पतली लताएँ जगह जगह हमें अवलम्ब देने के लिये हमेशा तत्पर दिखती थीं। पेड़ कहीं आसमान को छूते दिखाई देते थे तो कहीं आड़े तिरछे बेतरतीबी से फैल कर पगडंडियों के बिलकुल करीब आ बैठते थे।.."

अगर इन जंगलों की प्रकृति के बारे में आपकी उत्सुकता हो तो आप उस आलेख को यहाँ पढ़ सकते हैं।

भवानी प्रसाद मिश्र जी मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले से ताल्लुक रखते थे। गाँधीवादी थे सो कविताओं के साथ आजादी की लड़ाई में भी अपना योगदान निभाते रहे। कविताएँ तो हाईस्कूल से ही लिखनी शुरु कर चुके थे।  गीत फरोश, चकित है दुख, गान्धी पंचशती, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल सन्ध्या जैसे कई काव्य संग्रह उनकी लेखनी के नाम है। बुनी हुई रस्सी के लिए वो 1972 में साहित्य अकादमी पुरस्कार  से सम्मानित हुए उनकी कविताएं भाषा की सहजता और गेयता के लिए जानी जाती थीं। कविताओं में सहज भाषा के प्रयोग की हिमायत करती उनकी ये उक्ति बार बार याद की जाती है....

जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हम से बड़ा तू दिख।

है ना पते की बात। वही कविता जिसका सिर पैर मुझे समझ नहीं आता था, अब मेरी प्रिय हो गई है। इसीलिए आज मैंने इस कविता को अपनी आवाज़ में रिकार्ड किया है। आशा है आप इसे सुनकर मुझे बताएँगे कि मेरा ये प्रयास आपको कैसा लगा?



सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल
झाड़ ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मींचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।
सतपुड़ा के घने जंगल पचमढ़ी शहर के करीब

सड़े पत्ते, गले पत्ते,
हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढक रहे-से
पंक-दल मे पले पत्ते।
चलो इन पर चल सको तो,
दलो इनको दल सको तो,
ये घिनौने-घने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।

अटपटी-उलझी लताएँ,
डालियों को खींच खाएँ,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाएँ।
सांप सी काली लताएँ
बला की पाली लताएँ
लताओं के बने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।
सतपुड़ा के जंगल डचेस फॉल ले रास्ते में

मकड़ियों के जाल मुँह पर,
और सर के बाल मुँह पर
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात- झन्झा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल,
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल|

अजगरों से भरे जंगल  
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े-छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,
कम्प से कनकने जंगल,
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।

इन वनों के खूब भीतर,
चार मुर्गे, चार तीतर
पाल कर निश्चिन्त बैठे,
विजनवन के बीच बैठे,
झोंपडी पर फूस डाले
गोंड तगड़े और काले।
जब कि होली पास आती,
सरसराती घास गाती,
और महुए से लपकती,
मत्त करती बास आती,
गूँज उठते ढोल इनके,
गीत इनके, बोल इनके
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।
हांडी खोह, पचमढ़ी

जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्गे और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर।

क्षितिज तक फैला हुआ-सा,
मृत्यु तक मैला हुआ-सा,
क्षुब्ध, काली लहर वाला
मथित, उत्थित जहर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भु और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल,
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल|

धँसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
उतर कर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी, निर्झर और नाले,
इन वनों ने गोद पाले।
लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फूल, फलियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय
सतपुड़ा के घने जंगल,
लताओं के बने जंगल।

मंगलवार, अक्तूबर 18, 2016

जॉन डेनवर का एक प्यारा सा नग्मा Annie's Song : You fill up my senses...

कॉलेज के ज़माने के बाद अंग्रेजी  गीतों को सुनना थम सा ही गया है। पहले भी दोस्तों की सिफ़ारिश पर ही पॉप या रॉक सुनना हो पाता था। मज़ा ही आता था खासकर अगर बोल भी अच्छे हों। अब तो अंग्रेजी सुनने वाले दोस्त आस पास रहे नहीं तो पाश्चात्य संगीत सुन भी कम पाता हूँ। अब देखिए ना इन जॉन डेनवर को मैं कहाँ जान पाता गर मेरे एक मित्र ने इनका ये बेहद प्यारा सा नग्मा मुझे ना सुनाया  होता।

चालीस के दशक में अमेरिका के न्यू मेक्सिको में जन्मे जॉन डेनवर, बॉब डिलन के समकालीन थे। वही बॉब डिलन जिन्हें बतौर गीतकार इस साल के नोबल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। डिलन की तरह जॉन कभी समीक्षकों के चहेते नहीं रहे पर सत्तर के दशक में लिखे और गाए उनके गीत अमेरिका में खासे लोकप्रिय हुए।

सेना के बड़े ओहदे पर काम करने वाले अक्खड़ पिता से जॉन को वो प्यार नहीं मिल पाया जिनकी उन्हें उम्मीद थी। पिता के निरंतर होते तबादले से उन्हें कोई स्थायी मित्र मंडली भी नहीं मिली। दादी ने ग्यारह साल की उम्र में गिटार थमा कर उनकी जैसे तैसे चल रही पढ़ाई में एक जान सी फूँक दी। सत्तर की शुरुआत में उनके गीत Take Me Home, Country Roads से सफलता का पहला स्वाद उन्होंने चखा। फिर तो   Sunshine on My Shoulders", "Annie's Song", "Thank God I'm a Country Boy", और "I'm Sorry जैसे हिट गीतों की बदौलत वो सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ते चले गए।

जॉन डेनवर और एनी
मैं आपको उनके इन चर्चित गीतों में से आज वो नग्मा सुनाने जा रहा हूँ जिसे Annie's Song के नाम से जाना जाता  है।  ये एक बेहद रोमांटिक गीत है जिसे उन्होंने अपनी  पहली पत्नी एनी मार्टेल डेनवर के लिए लिखा था । ये गीत तुरत फुरत में तब लिखा गया था जब कोलेरेडो के एक पहाड़ पर स्काई लिफ्ट से जाते हुए उनका अपनी पत्नी से झगड़ा हुआ था। बाद में जब उनके मित्र ने इस गीत की एक दूसरी सिम्फनी से समानता की बात डेनवर को  बताई तो उन्होंने शुरू के पांच सुर वही रखते हुए पियानो पर घंटे भर में पूरी धुन ही बदल दी।  तो आइये रूबरू हो लें पहले गीत की  शब्द रचना से

You fill up my senses like a night in the forest,
like the mountains in springtime, like a walk in the rain,
like a storm in the desert, like a sleepy blue ocean.
You fill up my senses, come fill me again.

Come let me love you, let me give my life to you,
let me drown in your laughter, let me die in your arms,
let me lay down beside you, let me always be with you.
Come let me love you, come love me again.

You fill up my senses like a night in the forest,
like the mountains in springtime, like a walk in the rain,
like a storm in the desert, like a sleepy blue ocean.
You fill up my senses, come fill me again. 



तुम इस तरह मेरी चेतना में समा जाते हो जैसे कोई जंगल हो रात के आगोश में
जैसे वसंत में खिले हुए पहाड़, जैसे बारिश की गिरती बूँदो को चलते हुए महसूस करना
रेगिस्तान में कोई तूफ़ान हो जैसे या जैसे उनींदा सा नीला समन्दर
मेरी  चेतना में समाने वाले, एक बार फिर तुम मुझे उसी अहसास से भर दो

मेरे करीब आओ ज़रा तुम्हें प्यार तो कर लूँ, ख़ुद को न्योछावर कर दूँ तुम पर
तुम्हारी हँसी की खनक मेरे कानों में बजती रहे, ज़िंदगी का आख़िरी लमहा तुम्हारी बाहों में बीते
अपनी बगल में लेटने दो ना मुझे, मेरी तो बस यही तमन्ना है कि हमेशा तुम्हारे साथ रहूँ
पास आओ मुझे प्यार तो करने दो, या तुम्हीं मुझे प्यार करो.. फिर से...


ये गीत तो खूब चला पर गीतकार और उनकी प्रेरणा ज्यादा दिन इकठ्ठे नहीं रहे। बड़ी तिक्तता रही उनके रिश्तों में तलाक के पहले। कभी कभी लगता है कि प्रेम लमहों में ही हो के रह जाता है और लमहा जिंदगी से कब निकल जाता है पता ही नहीं लगता। बहुत कुछ गुलज़ार के उस गीत की तरह जहाँ वो कहते हैं इक बार वक़्त से लमहा गिरा कहीं, वहाँ दास्ताँ मिली लमहा कहीं  नहीं..

डेनवर का संगीत सहज था, लोगों के दिल में आसानी से जगह बनाने वाला। पर समीक्षकों ने उन्हें कभी वो सम्मान नहीं दिया इसीलिए वो साक्षात्कारों से बचते रहे। अपने एक दुर्लभ इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि मैं कोई बॉब डिलन नहीं हूँ। मैं उस तरह के गीत नहीं लिखता। पर पच्चीस साल बाद भले लोग मेरे नाम याद ना रखें मेरे गीतों को जरूर याद रखेंगे।

डेनवर का कहना था कि मैं लोगों को बताना चाहता हूँ कि दुनिया के इस पागलपन, आतंक और समस्याओ् के बीच में भी ये ज़िदगी जीने लायक है। मुझे ज़िदगी से प्यार है। तमाम दुखों के बीच मैं प्रेम और इस जीवन के बारे में जो महसूस करता हूँ उसे लोगों से बाँटना चाहता हूँ। तिरपन साल की उम्र में डेनवर एक विमान दुर्घटना में चल बसे। चलते चलते उनके इसी गीत की बाँसुरी पर बजाई गई धुन जरूर सुनिएगा। फिर आप शायद ही इस गीत को भूल  पाएँ...
 

गुरुवार, अक्तूबर 06, 2016

हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये... घुम भूलेछी Hum Bekhudi mein tumko .. Ghum bhulechhi nijhum

सन 1958 में इक फिल्म आई थी काला पानी। नवकेतन का बैनर था और फिल्म के संगीतकार थे, देव आनंद के दिलअजीज़ सचिन देव बर्मन। बतौर नायक देव आनंद ने इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता था। फिल्म का संगीत भी काफी मशहूर हुआ था। ये वो दौर था जब सचिन दा और लता दी के बीच की अनबन ज़ारी थी। यही वज़ह थी  कि फिल्म में नायिका के सभी गीत आशा जी ने गाए थे। देव आनंद और मधुबाला की मीठी नोंक झोंक से भरा  गीत अच्छा जी मैं हारी चलो मान जाओ ना को तो लोग आज भी याद करते हैं। वहीं नज़र लागी राजा तोरे बँगले पर..होठों पर एक मुस्कुराहट जरूर ले आता है। पर इस फिल्म का सबसे शानदार नग्मा था मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में। याद आया ना आपको हाँ वही हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये


पर जानते हैं इस गीत की धुन सचिन दा ने कब रची थी? फिल्म के रिलीज़ होने के करीब एक साल पहले। दरअसल बंगाल में ये परंपरा रही है कि वहाँ के संगीतकार हर साल दुर्गा पूजा के समय अपनी नई धुनों के साथ एक एलबम जरूर निकालते थे। सन 1957 के दशहरे में रिलीज़  किये गए एलबम के  एक गीत के बोल थे ..घुम भूलेची निझुम इ निशिथे जेगे थाकी और इन्हें लिखा था गौरीप्रसाद मजुमदार ने।सचिन दा ने अपनी इस  संगीतबद्ध रचना को खुद ही आवाज़ दी थी । तो सचिन दा की आवाज़ में इस गीत  को सुनने के पहले क्यूँ ना इस गीत के भावों से आपका परिचय करा दिया जाए?

घुम भूलेछी  निझुम इ निशिथे.. जेगे थाकी
आर आमरी मोतोन, जागे नींदे, दूती पाखी, घुम्म....


पिछले कई दिनों से मैं नींद को भूल सा गया हूँ, रात भर जागता रहता हूँ ठीक उसी तरह जिस तरह प्यार में डूबे ये दो पंक्षी सूने आकाश को ताकते हुए जग रहे हैं।

कोथा दिये चिले, आसिबे गो फीरे
चाँद जाबे दूरे, आकाशरो तीरे
ताय, तोमारे आमि, बारे बारे पीछू डाकी
घुम भूलेची..घुम्म...


तुम कहाँ चले गए लौटने का वादा करके! देखो अब तो चाँद भी खिसकता हुआ आकाश के कोने में जा चुका है और उसके साथ भटकता मेरा मन तुम्हें बार बार पुकार रहा है

ऐके ऐके ओइ डूबे गेलो तारा
तबू तूमी ओगो दिले ना तो शारा
हाय एलेया जेनो, आलो होए, दिलो फांकी
घुम भूलेची..घुम्म...


एक एक कर सारे तारे डूबने लगे हैं और सुबह के धुँधलके में मैं तुम्हें ढूँढ रहा हूँ। रात के इस अंतिम प्रहर में मृगतृष्णा सी तुम्हारी झलक का छलावा रोशनी के आने के बाद टूट चुका है।

  

काला पानी के गीत में सचिन दा ने इसी धुन का इस्तेमाल किया। अपनी किताब सरगमेर निखद में वे कहते हैं "मैंने इस गीत का मुखड़ा ग़ज़ल की तरह और अंतरा गीत की तरह रचा। मैं जैसा चाहता था रफ़ी ने इस गीत को वैसा ही निभाया।"

सच, रफ़ी साहब ने मजरूह सुल्तानपुरी के बोलों पर जिस तरह इस गीत की अदायगी की उसके लिए प्रशंसा के जितने भी शब्द लिखे जाएँ, कम होंगे। नशे में अपना ग़म गलत करते देव आनंद के दिल की करुण पुकार को पर्दे पर रफ़ी ने अपनी आवाज़ से जीवंत कर दिया था। सचिन दा ने बंगाली गीत में शुरुआत सरोद से की थी पर काला पानी में रफ़ी की आवाज़ के साथ नाममात्र का संगीत रखा। सचिन दा के "घुम्म.." के बाद की कलाकारी को रफ़ी आलाप के साथ "हम.." के बाद ले आए। "चले गए" को वो दुबारा जिस तरह गाते हैं तो कलेजा मुँह को आ जाता है। मजरूह का लिखा दूसरे अंतरा मुझे गीत की जान लगता है खासकर तब जब वो कहते हैं डूबे नहीं हमीं यूँ, नशे में अकेले...शीशे में आपको भी उतारे चले गये

हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये
साग़र में ज़िन्दगी को उतारे चले गये

देखा किये तुम्हें हम, बनके दीवाना
उतरा जो नशा तो, हमने ये जाना
सारे वो ज़िन्दगी के सहारे चले गये
हम बेखुदी में...

तुम तो ना कहो हम, खुद ही से खेलें
डूबे नहीं हमीं यूँ, नशे में अकेले
शीशे में आपको भी उतारे चले गये
हम बेखुदी में...

 तो आइए एक बार फिर सुनते हैं रफ़ी साहब के इस गीत को..

गुरुवार, सितंबर 22, 2016

पिंक : तू ख़ुद की खोज में निकल, तू किस लिये हताश है Why everyone should see Pink ?

कुछ दिनों पहले पिंक देखी। एक जरूरी विषय पर ईमानदारी से बनाई गई बेहद कसी हुई फिल्म है पिंक। सबको देखनी चाहिए, कम से कम लड़कों को तो जरूर ही।  लड़कियों के प्रति लड़कों की सोच को ये समाज किस तरह परिभाषित करने में मदद करता है या यूँ कहें कि भ्रमित करता है, उससे आप सब वाकिफ़ ही  होंगे। पिंक ने इस कहानी के माध्यम से इसी सोच की बखिया उधेड़ने का काम किया है। 


दशकों बीत गए और लड़कियों  के प्रति हमारी सोच आज भी वहीं की वहीं है।  समाज के निचले तबकों में मुखर है तो मध्यम वर्ग में अंदर ही दबी हुई है जो वक़्त आने पर अपने सही रंग दिखाने लगती है। फिर तो  लगने लगता है कि इस सोच का पढ़ाई लिखाई से लेना देना है भी या नहीं?

आज वो दिन याद आ रहे हैं जब मैंने इंटर में एक कोचिंग में दाखिला लिया था। जैसा अमूमन होता है, अक्सर ब्रेक  में लड़के पढ़ाई के आलावा लड़कियों की भी बाते किया करते थे। किसी भी लड़की का चरित्र चुटकियों में तय कर दिया जाता था और वो भी किस बिना पर?  देखिये तो  ज़रा ..

जानते हैं इ जो नई वाली आई है ना, एकदमे करप्ट है जी
क्यूँ क्या हुआ?
देखते नहीं है कइसे सबसे हँस हँस के बात करती है
अरे आप भी तो सबसे हँस मुस्कुराकर बात करते हैं ?
अरे छोड़िए महाराज है तो उ लइकिए नू..


मतलब ख़ुद करें तो सही और लड़की करे तो लाहौल विला कूवत। मुझे बड़ी कोफ्त होती थी इस दोहरी सोच पर तब भी और आज इतने सालों के बाद भी मुझे नहीं लगता कि कमोबेश स्थिति बदली है। किसी का सबके साथ हँसना मुस्कुराना, हाथ पकड़ लेना, साथ घूमना, खाना  पीना  सो कॉल्ड हिंट मान लिया जाताा है।

ख़ैर इन्हें तो छोड़िए, अकेली सुनसान सड़कों पर चलना भी कोई हिंट है क्या? आफिस से रात में देर से लौटना कोई हिंट है क्या? मेरी एक सहकर्मी ने बहुत पहले अपने से जुड़ी एक घटना बताई थी जिसमें सुबह की एक प्यारी मार्निंग वॉक, एक कुत्सित दिमाग के व्यक्ति की वहशियाना नज़रों और भद्दी फब्तियों के बीच अपनी हिम्मत बनाए रखते हुए अपना आत्मसम्मान बचा पाने की जद्दोजहद हो गई थी। बिना किसी गलती के ऐसी यंत्रणा क्यूँ झेलनी पड़ती हैं लड़कियों को? डर  के साये में क्यूँ छीन लेना चाहते हैं हम उनका मुक्त व्यक्तित्व?

रही बात वैसे पुरुषों के अहम की जो ना सुनने का आदी ही नहीं है। दिल्ली में जिस तरह कुछ दिनों पहले शादी के लिए मना करने की वजह से सरे आम एक महिला की चाकू से गोद गोद कर नृशंस हत्या की गई उसे आप क्या कहेंगे? प्यार ! ऐसा ही प्यार करने वाले बड़ी खुशी से उन चेहरों पर तेजाब फेंक देखते हैं जिसे वो अपना बनाने चाहते थे। ये सब सुन और देख कर क्या आपको नहीं लगता है कि मनुष्य जानवरों से भी बदतर और कुटिल जीव है? क्या हमारे अंदर व्याप्त ये दरिंदगी कभी खत्म होगी?   पिंक के गाने के वो बोल याद आ रहे हैं

कारी कारी रैना सारी,  सौ अँधेरे क्यूँ लाई, क्यूँ लाई
रोशनी के पाँव में ये बेड़ियाँ सी क्यूँ लाई, क्यूँ लाई
उजियारे कैसे अंगारे जैसे, छाँव छैली धूप मैली, क्यूँ है री

 बस मन में सवाल ही हैं जवाब कोई नहीं......

आज जब की लड़कियाँ पढ़ लिख कर हर क्षेत्र में अपनी काबिलयित का लोहा मनवा रही हैं तो फिर उनसे अपनी हीनता का बोध हटाएँ कैसे? बस  जोर आजमाइश से आसान और क्या है। आबरू तो सिर्फ लड़कियों की ही जाती है ना इस दुनिया में। यही वो तरीका है जिसमें बिना मेहनत के किसी स्वाभिमानी स्त्री को अंदर तक तोड़ दिया जाए।  

मेरा मानना है कि आप प्रेम उसी से करते हैं, कर सकते हैं जिनकी मन से इज़्ज़त करते हैं।  अगर मान लें कि ये प्रेम एकतरफा है तो भी आप उस शख़्स की बेइज़्ज़ती होते कैसे देख सकते हैं। उससे झगड़ा कर सकते हैं, नाराज़ हो सकते हैं पर उसे शारीरिक क्षति कैसे पहुँचा सकते हैं?

आज फिल्मों में ही सही इन बातों को बेबाकी से उठाया तो जा रहा है। लोगों की मानसिकता को बदलने के लिए ये एक अच्छी पहल है और इसलिए मैंने शुरुआत में कहा कि ये फिल्म सबको देखनी चाहिए कम से कम लड़कों को तो जरूर ही। पर ये लड़ाई लंबी है और इसकी शुरुआत हर परिवार से की जानी चाहिए। अपने लड़कों को पालते वक़्त उनमें लड़कियों के प्रति एक स्वच्छ सोच को अंकुरित करना माता पिता का ही तो काम है। परिवार बदलेंगे तभी तो समाज बदलेगा, सोचने का नज़रिया बदलेगा। 

अभी तो समाज का पढ़ा लिखा तबका इस पर बहस कर रहा है। पर बदलाव तो उस वर्ग तक पहुँचना चाहिए जो समाज के हाशिये पर है और जिसकी आवाज़ इस देश के हृदय तक जल्दी नहीं पहुँच पाती। 

हताशा के इस माहौल में तनवीर गाजी की लिखी ये कविता एक नई उम्मीद जगाती है। मुझे यकीन है की अवसाद के क्षणों में अमिताभ की आवाज़ में आशा के ये स्वर लड़कियों के मन में आत्मविश्वास के साथ जोश की नई लहर जरूर पैदा करेंगे

तू ख़ुद की खोज में निकल, तू किस लिये हताश है
तू चल तेरे वजूद की, समय को भी तलाश है

जो तुझ से लिपटी बेड़ियाँ, समझ न इन को वस्त्र तू
यॆ बेड़ियाँ पिघला के, बना ले इन को शस्त्र तू

चरित्र जब पवित्र है, तो क्यूँ है यॆ दशा तेरी
यॆ पापियों को हक़ नहीं, कि ले परीक्षा तेरी

जला के भस्म कर उसे, जो क्रूरता का जाल है
तू आरती की लौ नहीं, तू क्रोध की मशाल है

चूनर उड़ा के ध्वज बना, गगन भी कँपकपाएगा
अगर तेरी चूनर गिरी, तो एक भूकम्प आएगा ।

तू ख़ुद की खोज में निकल ...

रविवार, सितंबर 11, 2016

तुझमें खोया रहूँ मैं , मुझमें खोयी रहे तू... खुद को ढूँढ लेंगे फिर कभी : मधुर है M S Dhoni The Untold Story का संगीत

जिस दो किमी के रास्ते से आप सुबह शाम आफिस जाते हों। जहाँ के मैदानों में घूमते टहलते या खेल का आनंद लेने के लिए कई हँसती मुस्कुराती सुबहें आपने फुर्सत में गुजारी हों। जिस मोहल्ले में आपके साथी सहकर्मी रहते हों उन्हें सिनेमा के रूपहले पर्दे पर देखना कितना रोमांचक होगा। धोनी अपने जीवन पर बनी फिल्म M S Dhoni The Untold Story की बदौलत हमारे चौक चौबारों को आपके ड्राइंगरूम तक ले आए हैं। फिल्म के रिलीज़ होने में अभी भी लगभग तीन हफ्तों का समय शेष है पर पिछले महीने से इसके गाने पहले आडियो और फिर वीडियो के रूप में रिलीज़ हो रहे हैं। फिल्म ने आशाएँ तो जगा दी हैं पर फिलहाल तो इसका संगीत हमारे सामने है तो क्यूँ ना उसके बारे में थोड़ी बातें कर लें।

M S Dhoni The Untold Story नीरज पांडे द्वारा निर्देशित फिल्म हैं। ये वहीं नीरज पांडे हैं जिन्होंने A Wednesday, Special 26, Baby और हाल फिलहाल में रुस्तम जैसी सफल फिल्म का निर्देशन किया है। फिल्म का संगीत निर्देशन किया है उभरते हुए संगीतकार गीतकार अमाल मलिक ने व  किरदारों की भावनाओं को शब्द दिए हैं गीतकार  मनोज मुन्तशिर ने।



फिल्म में यूँ तो कुल छः गाने हैं। अगर आप पूरा एलबम सुनेंगे तो आप समझ लेंगे कि हर गीत धोनी की ज़िदगी के विभिन्न हिस्सों से जुड़ा हुआ है।  फुटबाल से क्रिकेट का खिलाड़ी बनना, बतौर क्रिकेटर स्कूल व फिर झारखंड की रणजी टीम में चयनित होना। पिता के दबाव में क्रिकेट के साथ टीटी की नौकरी करना और फिर झारखंड जैसी अपेक्षाकृत कमजोर टीम से भारत के लिए चयनित होना। बेसब्रियाँ, धोनी की इन छोटे छोटे सपनों को पूरा कर एक बड़े स्वप्न की ओर कदम बढ़ाने की इसी ज़द्दोज़हद को व्यक्त करता है। 

कौन तुझे गर उनके पहले प्रेम की आवाज़ है तो फिर कभी उसी प्रेम में रचता बसता उस रिश्ते को बड़े प्यारे तरीके से आगे बढ़ाता है। वक़्त के हाथ कैसे इस रिश्ते को अनायास ही तोड़ देते हैं वो तो आप फिल्म में ही देखियेगा। फिल्म का अगला गीत जब तक उनकी ज़िदगी में नए शख़्स के आने की बात करता है। परवाह नहीं में जीवन की राह में लड़ते हुए आगे बढ़ने का संदेश है तो पढ़ोगे लिखोगे बनोगे खराब खेलोगे कूदेगे बनोगे नवाब दशकों से घर घर में कही जा रही है हमारी कहावत को उल्टा कर माता पिता के परम्परागत दृष्टिकोण को बदलने की चुटीली कोशिश करता है।


अमाल मलिक का संगीत कुछ अलग सा भले नहीं हो पर उसमें मधुरता पूरी है। परवाह नहीं छोड़ दें जिसकी प्रकृति भिन्न है तो बाकी गीत  हवा के नरम फाहों की तरह कानों को सुकून देते हुए कब खत्म हो जाते हैं पता ही नहीं लगता। गिटार और पियानो का जैसा प्रयोग उन्होंने किया है वो मन को सोहता है। गीत के बोलों पर वे संगीत को हावी नहीं होने देते। बेसब्रियाँ में उनका संगीत संयोजन अमित त्रिवेदी की फिल्म उड़ान की याद दिलाता है तो फिर कभी के इंटरल्यूड्स प्रीतम के गीत जाने क्या चाहे मन बावरा से प्रभावित दिखते हैं।



मनोज मुन्तशिर की शब्द रचना नीरज पांडे की फिल्म बेबी में उनके गीत मैं तुझसे प्यार नहीं करती में मुझे बहुत प्यारी लगी थी। रही इस फिल्म की बात तो उन्होंने इस एलबम के हर गीत में कुछ पंक्तियाँ ऍसी दी हैं जो आपके ज़ेहन से जल्दी नहीं जाएँगी। "बेसब्रियाँ " के इन प्रेरणादायक बोलों पर गौर करें

क्या ये उजाले, क्या ये अँधेरे....दोनों से आगे हैं मंज़र तेरे
क्यूँ रोशनी तू बाहर तलाशे.. तेरी मशाले हैं अंदर तेरे

"जब तक" में उनका ये रूमानी अंदाज़ भी खूब भाने वाला है युवाओं को

जब तक मेरी उँगलियाँ तेरे बालों से कुछ कह ना लें
जब तक तेरी लहर में ख्वाहिशें मेरी बह ना लें
हाँ मेरे पास तुम रहो जाने की बात ना करो..

या फिर पलक की मिश्री सी आवाज़ में गाए हुए गीत "कौन तुझे" की इन पंक्तियों को लें।

तू जो मुझे आ मिला सपने हुए सरफिरे
हाथों में आते नहीं, उड़ते हैं लम्हे मेरे

पर मनोज की जो पंक्तियाँ फिलहाल मेरे होठों पर हैं वो है गीत फिर कभी से जिसे अरिजीत सिंह ने अपनी आवाज़ दी है..

तुझमें खोया रहूँ मैं , मुझमें खोयी रहे तू
खुद को ढूँढ लेंगे फिर कभी
तुझसे मिलता रहूँ मैं, मुझसे मिलती रहे तू
ख़ुद से हम मिलेंगे फिर कभी, हाँ फिर कभी


बेहद सहजता व आसान लफ़्जों में प्रभावी ढंग से आम लोगों की मोहब्बत की कहानी कह दी है मनोज मुन्तशिर ने। तो सुनिए ये पूरा एलबम और बताइए कौन सा गाना आपको सबसे ज्यादा पसंद आया इस एलबम का...

रविवार, सितंबर 04, 2016

तुम मेरे पास रहो .. फ़ैज़ की दिलकश नज़्म नैयरा नूर की आवाज़ में Tum Mere Paas Raho : Nayyara Noor

आज से दस बारह साल पहले इंटरनेट में कविता ग़ज़लों को पसंद करने वाले कई समूह सक्रिय थे। प्रचलित भाषा में इन्हें बुलेटिन बोर्ड कहा जाता था। वैसे तो आज भी ये समूह हैं पर सोशल मीडिया के अन्य माध्यमों ने उनकी प्रासंगिकता खत्म कर दी है। ऐसी ही उर्दू कविता के समूह में फ़ैज़ की गज़लों पर चली एक कड़ी में मैंने "हम तो ठहरे अजनबी इतनी मदारातों के बाद... पहले पढ़ी और फिर सुनी थी। इस ग़ज़ल की वज़ह से ही मेरी पहचान नैयरा नूर की खूबसूरत गायिकी से हुई थी। फिर तो उनकी आवाज़ मुझे इतनी प्यारी लगी कि उनकी गायी कई अन्य मशहूर ग़ज़लें व नज़्में मुझे अपने दिल पे नाज़ था..., ऐ जज़्बा दिल गर मैं चाहूँ... , रात यूँ दिल में.... , कभी मैं खूबसूरत हूँ ... खोज खोज कर सुनी।

वैसे क्या आप जानते हैं कि लाहौर में पली बढ़ी नैयरा की पैदाइश भारत के शहर गुवहाटी में हुई थी। उनका परिवार अमृतसर से रोज़ी रोटी की तलाश में गुवाहाटी में बस गया था। जब भी उनसे अपने बचपन के दिनों के बारे में पूछा जाता वे गुवाहाटी की हरी भरी खूबसूरत पहाड़ियों के बीच बसे अपने घर  की बात जरूर बतातीं और साथ ही ये भी कि रात में उनके उस घर के बाहर सैकड़ों की तादाद में पतंगे  कैसे उमड़ पड़ते थे। पर उनके जन्म के छः सात साल  बाद उनका परिवार 1957 के करीब लाहौर चला गया। 

लाहौर में उनकी शिक्षा नेशनल आर्ट्स कॉलेज में हुई। कॉलेज के ज़माने में वे संगीत की हर प्रतियोगिता में हिस्सा लेतीं। ऐसी ही प्रतियोगिताओं में उनकी मुलाकात शहरयार ज़ैदी से हुई जो ख़ुद एक उभरते गायक थे। नैयरा ने संगीत का कोई प्रथम पुरस्कार भले ही शहरयार को लेने ना दिया हो पर अपना दिल वे  उनसे जरूर हार बैठीं।

नैयरा नूर  और फ़ैज़ , सामने हैं फैज़ की बेटी सलीमा हाशमी
सत्तर के दशक की शुरुआत में कॉलेज के कार्यक्रम में जब वो लता का गाया भजन जो तुम तोड़ो पिया ... गा रही थीं तब उनकी आवाज़ पर प्रोफेसर असरार का ध्यान गया। असरार संगीतविद्य होने के साथ एक कम्पोजर भी थे। असरार ने ना केवल नैयरा नूर को गाने के लिए प्रोत्साहन दिया बल्कि अपने संगीतबद्ध नग्मे भी उनसे गवाए। नैयरा ने अगले कुछ सालों में पाकिस्तान टेलीविजन के ड्रामों में अपनी आवाज़ दी पर उनकी आवाज़ को लोगों ने पहचानना तब शुरु किया जब फ़ैज साहब की ग़ज़लों के एक एलबम में उनके दामाद शोएब हाशमी ने नैयरा को मौका दिया।

नैयरा ने शास्त्रीय संगीत की बक़ायदा शिक्षा नहीं ली पर ऐसा उन्हें  सुनने से महसूस नहीं होता। नैयरा की गाई जिस नज़्म को आज मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ वो इसी एलबम की है। ग़ज़ब सी कशिश है इस नज़्म में जो हाशमी साहब के दावतखाने में एक टेपरिकार्डर सरीखे यंत्र पर रिकार्ड की गई थी।

रात के गहराते सायों में एकाकी मन जब काटने को दौड़ता है और धड़कता दिल गुजारिश करता है  उनके पास रहने की.. तो इस नज़्म की वादियों में मन ख़ुद ही भटक जाता है। आइए देखते हैं कि क्या कहते हैं फ़ैज़ इस नज़्म में..

तुम मेरे पास रहो
तुम मेरे पास रहो

तुम मेरे पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी रात चले
आसमानों का लहू पी के स्याह रात चले
मरहम-ए-मुश्क लिए नश्तर-ए-अल्मास लिए
बैन करती हुई, हँसती हुई, गाती निकले
दर्द के कासनी, पाज़ेब बजाती निकले


मुझे पूरी तरह चेतना शून्य करने वाले मेरे प्रिय मेरे पास रहो। जब आस्मां का  नीला लहू पी के ये रात स्याह हो जाती है, तो हीरे के नश्तर सी ये दिल में  चुभती है। इसकी नीली पायल मेरे  दर्द की आवाज़ बन जाती है। कभी विलाप करती, कभी हँसती, कभी गाती तो कभी अपनी सुगंध से दिल को मरहम लगाती इस रात में मैं तुम्हारी कमी महसूस करता हूँ। ऐसी रातों में तुम मेरे पास रहो।

जिस घड़ी सीनों में डूबे हुए दिल
आस्तीनों में निहाँ हाथों की,
राह तकने लगे, आस लिये
और बच्चों के बिलखने की तरह, क़ुल-क़ुल-ए-मय
बहर-ए-नासूदगी मचले तो मनाये न मने

जब कोई बात बनाये न बने
जब न कोई... बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी, सुन-सान, स्याह रात चले
पास रहो

तुम मेरे पास रहो
तुम मेरे पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो


जब तेरी यादों में दिल डूबता है, तब आस्तीनों में छुपे तुम्हारे बाहुपाश की आस दिल को बेचैन करती है। इस बेचैनी में गिलास में गिरती शराब का स्वर भी बच्चों के बिलखने जैसा लगता है।  किसी तरह भी मन इस नैराश्य से निकल नहीं पाता। ना कोई बात सूझती है ना दोस्तों से बात करने का मन करता है। और तुम हो कि ऐसी दुखभरी सुनसान अँधेरी रात में भी पास नहीं रहती । अब तो रहोगी ना?



नैयरा फ़ैज़ से जुड़ी अपनी यादों के बारे में कहती हैं कि जब मैं अपने सहगायकों के साथ रिकार्डिंग के लिए हाशमी साहब के घर पर होती तो फ़ैज़ साहब भी दूर बैठ कर हमें सुनते रहते। वैसे भी फ़ैज़ साहब को महफिलों में शिरक़त करना और दूसरों को सुनना पसंद था। उनकी चुप्पी तभी टूटती जब उनसे कोई राय माँगी जाती। जब भी हम कोई कठिन सुर लगाते तो कनखियों से फ़ैज़ साहब की ओर देखते और हमेशा हमें प्रोत्साहित करती मुस्कान उनके चेहरे पर होती। उन्हें देखकर हमें यही लगता कि वो भी हमारी गायिकी का पूरा आनंद उठा रहे  हैं ।

शहरयार से शादी के बाद अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से नय्यारा ने अपने आप को घर परिवार तक सीमित कर दिया। वो कहती हैं कि पारिवारिक जिम्मेदारियों को वहन करते हुए संगीत से जुड़े अपने पेशे को ठहराव देने का उन्हें कोई मलाल नहीं है।   अपनी पोतियों से दादी का शब्द सुनना ही आज उनके लिए संगीत है।

गुरुवार, अगस्त 25, 2016

कृष्ण की चेतावनी : रामधारी सिंह दिनकर Krishna ki Chetavani by Dinkar

रामधारी सिंह 'दिनकर' की कविताएँ बचपन से मन को उद्वेलित करती रही हैं। पर स्कूल की पुस्तकों में उनके लिखे महाकाव्य कुरुक्षेत्र व रश्मिरथी के कुछ बेहद लोकप्रिय अंश ही रहा करते थे । स्कूल के दिनों में उनकी   दो लोकप्रिय कविताएँ शक्ति और क्षमाहिमालय हमने नवीं  और दसवीं में पढ़ी थीं जो कुरुक्षेत्र का ही हिस्सा थीं। कुरुक्षेत्र तो महाभारत के शांति पर्व पर आधारित थी वहीं रश्मिरथी दानवीर कर्ण पर ! रश्मिरथी का शाब्दिक अर्थ वैसे व्यक्ति से है जिसका जीवन रथ किरणों का बना हो। किरणें तो ख़ुद ही सुनहरी व उज्ज्वल होती हैं। कर्ण के लिए ऐसे उपाधि का चयन दिनकर ने संभवतः उनके सूर्यपुत्र और पुण्यात्मा होने की वज़ह से किया हो।


रश्मिरथी के अंशों को मैंने शुरुआत में टुकड़ों में पढ़ा इस बात से अनजान कि ये पुस्तक बचपन से ही घर में मौज़ूद रही। रश्मिरथी यूँ तो 1952 में प्रकाशित हुई पर 1980 में जब करीब सवा सौ पन्नों की ये पुस्तक मेरे घर आई तो जानते हैं इसका मूल्य कितना था? मात्र ढाई रुपये!

जब किताब हाथ में आई तो समझ आया कि ये काव्य तो एक ऐसी रोचक कथा की तरह चलता है जिसे एक बार पढ़ना शुरु किया तो फिर बीच में इसे छोड़ना संभव नहीं। दिनकर, महाभारत के पात्र कर्ण की ये गाथा सात सर्गों यानि खंडों में कहते हैं। दिनकर की भाषा इतनी ओजमयी है कि शायद ही कोई उनके इस काव्य को बिना बोले हुए पढ़ सके।  आज जन्माष्टमी के अवसर पर मैं आपको इस महाकाव्य के तीसरे सर्ग का वो हिस्सा सुनाने जा रहा हूँ जिसमें बारह वर्ष के वनवास और एक साल के अज्ञातवास को काटने के बाद पांडवों ने कौरवों से सुलह के लिए भगवान कृष्ण को हस्तिनापुर भेजा जो कौरवों की राजधानी हुआ करती थी। इस अंश को कई जगह कृष्ण की चेतावनी के रूप में किताबों में प्रस्तुत किया गया।


वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रखो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशीष समाज की ले न सका,
उलटे हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

 हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान कुपित होकर बोले
जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।


 यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

उदयाचल मेरा दीप्त भाल, भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
परिधि-बन्ध :  क्षितिज , मैनाक-मेरु : दो पौराणिक पर्वत

दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग क्षर-अक्षर, नश्वर मनुष्य, सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
दृग : आँख,  शत कोटि : सौ करोड़

शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
जिष्णु : विष्णु के अवतार

भूलोक अटल पाताल देख, गत और अनागत काल देख
यह देख जगत का आदि सृजन, यह देख महाभारत का रण 
मृतकों से पटी हुई भू है
पहचान,  कहाँ इसमें तू है

अंबर में  कुंतल जाल देख, पद के नीचे पाताल देख
मुट्ठी में तीनो काल देख, मेरा स्वरूप विकराल देख
सब जन्म मुझी से पाते हैं
फिर लौट मुझी में आते हैं
कुंतल :केश 

जिह्वा से कढ़ती ज्वाला सघन, साँसों से पाता जन्म पवन
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, हँसने लगती है सृष्टि उधर
मैं जभी मूँदता  हूँ लोचन
छा जाता चारो ओर  मरण
लोचन : आँख

बाँधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन, पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

हित-वचन नहीं तूने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा, विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
 वह्नि : अग्निपुंज

भाई पर भाई टूटेंगे, विष-बाण बँद से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।
 वायस : कौआ,  श्रृगाल : सियार

थी सभा सन्न, सब लोग डरे, चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर न अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!

विदुर तो पहले से ही कृष्ण भक्त थे इसलिए उन्हें प्रभु के विकराल रूप के दर्शन हुए। पर ऐसी कथा है कि विदुर ने जब धृतराष्ट्र से कहा कि आश्चर्य है कि भगवान अपने विराट रूप में विराज रहे हैं। इसपर धृतराष्ट्र ने अपने अंधे होने का पश्चाताप किया। पश्चाताप करते ही भगवन के इस विराट रूप देखने तक के लिए उनको दृष्टि मिल गयी।

मुझे तो इस कविता को पढ़ना और अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड करना आनंदित कर गया। रश्मिरथी का ये अंश और पूरी किताब आपको कैसी लगती है ये जरूर बताएँ। तीसरे सर्ग के इस अंश का कुछ हिस्सा अनुराग कश्यप ने अपनी फिल्म गुलाल में भी इस्तेमाल किया था। उन अंशों को अपनी आवाज़ से सँवारा था पीयूष मिश्रा ने।
 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
Freedom at Midnight
Aapka Bunti
Madhushala
कसप Kasap
Great Expectations
उर्दू की आख़िरी किताब
Shatranj Ke Khiladi
Bakul Katha
Raag Darbari
English, August: An Indian Story
Five Point Someone: What Not to Do at IIT
Mitro Marjani
Jharokhe
Mailaa Aanchal
Mrs Craddock
Mahabhoj
मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


Manish Kumar's favorite books »

स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

एक शाम मेरे नाम Copyright © 2009 Designed by Bie