तो पिछली बार बातें हुई आपसे बटालवी साहब की दो प्रेम कथाओं की। पहली मीना और दूरी अनुसूया जो लंदन जाकर गुम हो गयी । बटालवी की ज़िंदगी के प्रेम मंदिर में इन गुम हुई लड़कियों का कोई वारिस नहीं था। पटवारी की नौकरी करते हुए ज़मीन की नाप जोखी करने में तो बटालवी का मन नहीं लगा पर इसी दौरान उन्होंने पंजाब की लोक कथाओं में मशहूर पूरन भगत की कहानी को एक नारी की दृष्टि से देखते हुए उसे अपने नज़रिए से पेश किया ।
आख़िर क्या थी ये लोककथा? लोक कथाओं के अनुसार पूरन सियालकोट के राजा के बेटे थे। उनके पिता ने अपने से काफी उम्र की लड़की लूना से विवाह किया। लूना का दिल मगर अपने हमउम्र पूरन पर आ गया जो राजा की पहली पत्नी के बेटे थे। पूरन ने जब लूना का प्रेम स्वीकार नहीं किया तो उसने उसकी शिकायत राजा से की। राजा ने मार पीट कर पूरन को कुएँ में फिकवा दिया। पर उसे एक संत ने बचा लिया। उनके सानिध्य में पूरन ख़ुद एक साधू बन गया। बरसों बाद निःसंतान लूना जब अपनी कोख भरने की गुहार लगाने इस साधू के पास आई तो उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। पूरन ने लूना और अपने पिता को क्षमा कर दिया और लूना को संतान का सुख भी मिल गया।
बटालवी ने इसी लूना को केंद्र बनाकर अपनी काव्य नाटिका का सृजन किया। उनकी लूना एक नीची जाति की एक कोमल व सुंदर लड़की थी जिसे अपनी इच्छा के विरुद्ध एक अधेड़ राजा से विवाह करना पड़ा। बटालवी ने प्रश्न ये किया कि अगर लूना को अपने हमउम्र लड़के से प्रेम हुआ तो इसमें उसका क्या दोष था? लूना पुरानी मान्यतओं को चोट करती हुई एक स्त्री की व्यथा का चित्रण करती है। बटालवी ने 1965 में लूना लिखी और इसी पुस्तक के लिए 28 वर्ष की छोटी उम्र में साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले पहले व्यक्ति बने। दरअसल बटालवी ने अपनी पीड़ा को कविता में ऐसे बिम्बों व चरित्रों में व्यक्त किया जो सहज होने के साथ लोक जीवन के बेहद करीब थे।
बटालवी ने इसी लूना को केंद्र बनाकर अपनी काव्य नाटिका का सृजन किया। उनकी लूना एक नीची जाति की एक कोमल व सुंदर लड़की थी जिसे अपनी इच्छा के विरुद्ध एक अधेड़ राजा से विवाह करना पड़ा। बटालवी ने प्रश्न ये किया कि अगर लूना को अपने हमउम्र लड़के से प्रेम हुआ तो इसमें उसका क्या दोष था? लूना पुरानी मान्यतओं को चोट करती हुई एक स्त्री की व्यथा का चित्रण करती है। बटालवी ने 1965 में लूना लिखी और इसी पुस्तक के लिए 28 वर्ष की छोटी उम्र में साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले पहले व्यक्ति बने। दरअसल बटालवी ने अपनी पीड़ा को कविता में ऐसे बिम्बों व चरित्रों में व्यक्त किया जो सहज होने के साथ लोक जीवन के बेहद करीब थे।
तो गुम हुई लड़की पर लिखी इस लंबी कविता के द्वारा बटालवी के दिल के कष्ट को समझने की कोशिश करते हैं वहाँ से जहाँ से मैंने पिछली पोस्ट में इसे छोड़ा था ..
हर छिन मैंनू यूँ लगदा है, हर दिन मैंनू यूँ लगदा है
जूड़े जशन ते भीड़ा विचों, जूड़ी महक दे झुरमट विचों
ओ मैनूँ आवाज़ दवेगी, मैं ओहनू पहचान लवाँगा
ओ मैनू पहचान लवेगी, पर इस रौले दे हद विच्चों
कोई मैंनू आवाज़ ना देंदा, कोई वी मेरे वल ना वेंहदा
हर पल, हर दिन मुझे ऐसा लगता है कि इस भागती दौड़ती भीड़ के बीच से, इन महकती खुशबुओं के बीच से वो मुझे आवाज़ लगाएगी। मै उसे पहचान लूँगा, वो भी मुझे पहचान लेगी। लेकिन सच तो ये है कि इन तमाम आवाज़ों के बीच से कोई मुझे नहीं पुकारता। कोई नज़र मुझ तक नहीं टकराती।
पर ख़ौरे क्यूँ तपला लगदा, पर खौरे क्यूँ झोल्ला पैंदा
हर दिन हर इक भीड़ जुड़ी चों, बुत ओहदा ज्यूँ लंघ के जांदा
पर मैंनू ही नज़र ना ओंदा,
गुम गया मैं उस कुड़ी दे, चेहरे दे विच गुमया रंहदा,
ओस दे ग़म विच घुलदा रंहदा, ओस दे ग़म विच खुरदा जांदा
पर पता नहीं क्यूँ मुझे लगता है, मुझे पूरा यकीं तो नहीं है पर हर दिन इस भीड़ भड़क्के के बीच उसका साया लहराता हुआ मेरी बगल से गुजरता है पर उसे मैं देख ही नहीं पाता। मैं तो उसके चेहरे में ही गुम हो गया हूँ और उस खूबसूरत जाल से बाहर निकलना भी नहीं चाहता। बस उसके ग़म में घुलता रहता हूँ , पिघलता रहता हूँ।
ओस कुड़ी नूं मेरी सौंह है, ओस कुड़ी नूं आपणी सौंह है
ओस कुड़ी नूं सब दी सौंह है, ओस कुड़ी नूं रब्ब दी सौंह है
जे किते पढ़दी सुणदी होवे, जिउंदी जां उह मर रही होवे
इक वारी आ के मिल जावे, वफ़ा मेरी नूं दाग़ न लावे
नई तां मैथों जिया न जांदा, गीत कोई लिखिया न जांदा
इक कुड़ी जिहदा नाम मोहब्बत गुम है गुम है गुम है
साद मुरादी सोहणी फब्बत गुम है गुम है गुम है।
मैं तो बस याचना ही कर सकता हूँ कि ऐ लड़की गर मेरे लिए नहीं तो अपने आप के लिए , हम सब के लिए या भगवान के लिए ही सही अगर तुम कहीं भी इसे पढ़ या सुन रही होगी, जी रही या मरती होगी.... बस एक बार आकर मुझसे मिल लो । तुमने जो अपनी वफ़ा पर दाग लगाया है उसे आकर धो जाओ। नहीं तो मैं जिंदा नहीं रह पाऊँगा। कोई नया गीत नहीं लिख पाऊँगा।
और बटालवी अपने अंतिम दिनों में अपनी इन्हीं भावनाओं को चरितार्थ कर गए। पटवारी की नौकड़ी छोड़ कर अब वो स्टेट बैंक बटाला में काम करने लगे। इसी बीच करुणा बटालवी से उनकी शादी हुई और कुछ ही सालों में वो दो बच्चों के पिता भी बन गए। बटाला उन्हें खास पसंद नहीं था सो उन्होंने चंडीगढ़ में नौकरी शुरू की । ये वो दौर था जब वे हर साहित्यिक संस्था से पुरस्कार बटोर रहे थे। कॉलेज के समय से उनके प्रशंसकों ने उन्हें सॉफ्ट ड्रिंक व सिगरेट की तलब लगा दी थी । वो गाते और उनके प्रशंसक उन्हें पिलाते।
साफ्ट ड्रिंक से हुए इस शगल ने उन्हें शराब की ओर खींचा। लोग को जब भी उन्हें गवाना होता मुफ्त की शराब पिलाते। लिहाज़ उनके फेफड़े की हालत खराब होने लगी। ऐसी हालत में सन 1972 में उन्हें इग्लैंड जाने का न्योता मिला। अनुसूया को बटालवी भुला नहीं पाए थे। उनका दिल तो न जाने कितनी बार लंदन की उड़ान भर चुका था फिर ऐसे मौके को वो कैसे जाने देते ?
बटालवी 1972 में लंदन गए। उनकी ख्याति पंजाबी समुदाय में पहले से ही फैली हुई थी। सब लोग उन्हें अपने घर बुलाते। खातिरदारी का मतलब होता लजीज़ खाना और ढेर सारी शराब। पता नहीं उनके मेजबानों को उनकी गिरती तबियत का अंदाज़ा था या नहीं या फिर अच्छा सुनने की फ़िराक़ में उन्होंने अपनी इंसानियत दाँव पर लगा दी थी। बटालवी अनुसूया से तो नहीं मिल पाए पर लंदन से लौटते लौटते अपने शरीर का बेड़ा गर्क जरूर कर लिया। वापस आ कर अस्पताल में भर्ती हुए पर उन्हें ये इल्म था कि ज़िंदगी उन्हें अब ज्यादा मोहलत नहीं देगी। इंग्लैंड जाने के एक साल बाद ही पठानकोट के किर मंगयाल गाँव में उन्होंने अपने जीवन की अंतिम साँसें लीं।
तो चलते चलते सुनिए इस पूरी कविता को शिव कुमार बतालवी की तड़प भरी आवाज़ में जो एक टूटे दिल से ही निकल सकती है..