आजकल तो जबसे स्वतंत्र संगीत का चलन शुरू हुआ है रोज़ रोज़ नए गीत बन रहे हैं पर उनमें से ज्यादातर आपके दिलों में सेंध नहीं लगा पाते क्योंकि कहीं धुन तो कहीं शब्दों के लिहाज़ से मामला अधपका सा ही रह जाता है।
पर गीतों की इस भीड़ में भी कई बार ऐसे सुरीले नग्मे सुनने को मिल जाते हैं जो एक बार में ही दिल की कोठरी में ऐसे आसन जमा लेते हैं कि फिर वहां से निकलने के लिए जल्दी तैयार ही नहीं होते। स्वानंद किरकिरे और उज्ज्वल कश्यप द्वारा रचित शोर-ग़ुल एक ऐसा ही गीत है जिसे एक बार सुनने के बाद बार बार सुनने का दिल करता है और इसीलिए ये गीत विराजमान है संगीतमाला की 12 वीं सीढ़ी पर।
ख़ुद इस गीत के पीछे की सोच और उसके इस रूप में आने के बारे में स्वानंद कहते हैं
"मेरा पहला गाना था बावरा मन..यही होता था कि हम बावरा मन गाते थे और लोग हाथ पकड़ के निकल जाते थे। शोर गुल भी वैसा ही गाना है। मैं चाहता हूं कि इसे सुनने के बाद कुछ लोग हाथ पकड़ कर निकलें। एक प्यार वाली फीलिंग है इसमें।फिल्म उद्योग में गाने लिखने की दौड़ धूप में हम हिट होगा फ्लॉप होगा के चक्कर में ही पड़े रहते हैं। इसके बीच में आप खुद कोई गाना बना रहे होते हो जिसके लिए किसी ने आपको कुछ बताया नहीं। जिसका कोई brief नहीं है। इस तरह के गीत अपने आप ऑर्गेनिक रूप से बाहर आते हैं। जब गीत लिखा तो फिर मैंने इसे उज्ज्वल को सुनाया कि क्या ये गाना लोगों को प्रभावित कर पाएगा। "
कितने प्यारे अंतरे लिखे हैं स्वानंद भाई ने इस गीत के लिए और उतना ही सुकून देने वाला संगीत है उज्ज्वल का जो गीत में इस कदर घुल मिल जाता है कि बोलों के साथ बजते तार वाद्यों रबाब और गिटार की टुनटुनाहट भी याद रह जाती है।
आखिर एकांत की तलाश हम क्यों करते हैं? ख़ुद से बातें करने के लिए या फिर किसी प्रिय के साथ को संपूर्णता से महसूस करने के लिए। स्वानंद भी अपने लिखे इस गीत में आपको शोर-ग़ुल से परे प्रकृति की गोद में पलते प्रेम से आपको जोड़ना चाहते हैं। उनका मानना है कि प्रकृति के साथ जब आपका मन एकाकार होने लगता है तो उसके स्वर आपको अपने से लगने लगते हैं। नदी की कलकल भी आपको ऐसी जान पड़ेगी जैसे कोई आपके कानों में आकर फुसफुसाया हो 😊। बहती हवा की सनसनाहट कोई ऐसा राग छेड़ेगी मानो कोई गुनगुना रहा हो और इसीलिए स्वानंद लिखते हैं
मन ही मन में बुदबुदाती एक नदी सी बहा करेगी
अनजानी धुन गुनगुनाती आती जाती हवा रहेगी
दूसरे अंतरे में भी उनका गेसुओं से ढककर रात करने और एक दूसरे के हाथों में उंगलियां फंसाने का भाव भी बड़ा प्यारा लगता है।
इस गीत के बोल एक नायिका के लिए लिखे गए हैं और इसीलिए स्वानंद ने शुरुआत में ऐसा सोचा था कि इसे किसी गायिका से गवाएंगे पर फिर उन्हें ये महसूस हुआ कि उनकी आवाज़ इस गीत को उनके शब्दों में और इंटरेस्टिंग बना देगी।
स्वानंद की आवाज़ तो मुझे बेहद पसंद है पर मुझे लगता है कि इस गीत के दूसरे अंतरे की जो प्यारी सी सोच है उसे एक नारी स्वर का साथ मिला होता तो इस गीत को एक दूसरे नज़रिए से देखने में मदद मिलती। मैंने नेट पर इस गीत को किसी गायिका की आवाज़ में ढूंढने की कोशिश की और मुझे विधि त्यागी का गाया हुआ गीत का ये प्यारा टुकड़ा मिला। हालाँकि उन्होंने अंतरों के बोलों को ऊपर नीचे बदल दिया है फिर भी उनकी आवाज़ में ये गीत सुनना अच्छा लगा ।
शोर - गुल नहीं होगा नहीं होगा नहीं होगा मेरी जान
मैं हूंगी तू होगा और होगा खामोश आसमान
मैं हूंगी तू होगा और होगा खामोश आसमान
मैं हूंगी तू होगा और होगा खामोश आसमान
शोर - गुल नहीं होगा नहीं होगा नहीं होगा मेरी जान
मन ही मन में बुदबुदाती एक नदी सी बहा करेगीअनजानी धुन गुनगुनाती आती जाती हवा रहेगीतेरी धड़कन क्या कहती है सुनूंगीतेरे सीने पे रख के कानमैं हूंगी तू होगा.....शोर - गुल नहीं होगा
तेरी उंगलियों में गूंथ लूंगी उंगलियां मेरी
तुझे गेसुओं में ढक कर के मैं कर लूंगी रात गहरी
फिर सर को झुका के हौले से, मैं चूम लूंगी चांद
मैं हूंगी तू होगा.....शोर - गुल नहीं होगा
फिर सर को झुका के हौले से, मैं चूम लूंगी चांद
मैं हूंगी तू होगा.....शोर - गुल नहीं होगा
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