रविवार, फ़रवरी 25, 2007

वार्षिक संगीतमाला गीत # 3 : ओ साथी रे दिन डूबे ना...

आपके सामने आज वक्त मिला है इस गीतमाला के शीर्ष के तीन गीतों में पहले पर से पर्दा उठाने का । ये गीत फिल्म ओंकारा से है और सागर भाई ने एक गेस भी किया था । अपनी ४ अक्टूबर की प्रविष्टि मैंने इसी गीत पर लिखी थी और तभी मैंने लिखा था...

"......गुलजार एक ऐसे गीतकार है जिनकी कल्पनाएँ पहले तो सुनने में अजीब लगती हैं पर ऐसा इसलिए होता है कि उनकी सोच के स्तर तक उतरने में थोड़ा वक्त लगता है । पर जब गीत सुनते सुनते मन उस विचार में डूबने लगता है तो वही अनगढ़ी कल्पनाएँ अद्भुत लगने लगती हैं।


इसलिये उनके गीत के लिये कुछ ऐसा संगीत होना चाहिए जो उन भावनाओं में डूबने में श्रोता की मदद कर सके । गुलजार के लिये पहले ये काम पंचम दा किया करते थे और इस चलचित्र में बखूबी ये काम विशाल कर रहे हैं। ....."

रातें कटतीं ना थीं या यूँ कहें रातों को कटने देना कोई चाहता ही नहीं था । पर भई प्रेमियों के लिये ये कोई नई बात तो रही नहीं सो अब उन्होंने दिन को अपना निशाना बनाया है । और क्या खूब बनाया है कि सूर्यदेव भी उनकी गिरफ्त में आ गए । अब चिंता किस बात की जब सूरज ही शिकंजे में हो । अब उनका हाथ अपने हाथ में ले कर धूप और छाँव के साथ जितना मर्जी कट्टी-पट्टी खेलो कौन रोकेगा भला ।

और जनवरी २००७ में दिये हुए अपने
साक्षात्कार में गुलजार साहब ने इस गीत के बारे में कहा

मैं सोचता हूँ कि संगीत की दृष्टि से ओंकारा में काफी विविधताएँ एवम् रंग हैं। इस फिल्म के गीत ओ साथी रे मैंने एक अलग तरह की काव्यात्मक सोच पर गीत बुनने की कोशिश की है । सूर्यास्त की बेला को मैंने यूँ वर्णित किया है मानो आकाश की फिसलन की वजह से सरकता डगमगाता सूरज नदी में डूबने वाला ही है ।और इसीलिए उसे रोकते प्रेमी युगल जाल डाल कर उसे पीठ पर ले जाने की तैयारी में हैं।

पार्श्व गायन की बात करें तो श्रेया घोषाल की मधुर आवाज में जो शोखी और चंचलता है वो इस गीत के रोमांटिक मूड को और प्रभावी बनाती है।वहीं विशाल भारद्वाज की ठहरी आवाज गीत के बहाव को एक स्थिरता सी देती है। कुल मिलाकर गीत, संगीत और गायन मिलकर मन में ऐसे उतरते हैं कि इस गीत के प्रभाव से उबरने का मन नहीं होता ।

ओऽऽ साथी रे दिन डूबे ना
आ चल दिन को रोकें
धूप के पीछे दौड़ें
छाँव छाँव छुए ना ऽऽ
ओऽऽ साथी रे ..दिन डूबेऽऽ ना


थका-थका सूरज जब, नदी से हो कर निकलेगा
हरी-हरी काई पे , पाँव पड़ा तो फिसलेगा
तुम रोक के रखना, मैं जाल गिराऊँ
तुम पीठ पे लेना मैं हाथ लगाऊँ
दिन डूबे ना हा ऽ ऽऽ
तेरी मेरी अट्टी पट्टी
दाँत से काटी कट्टी
रे जइयोऽ ना, ओ पीहू रे
ओ पीहू रे, ना जइयो ना

कभी कभी यूँ करना, मैं डाँटू और तुम डरना
उबल पड़े आँखों से मीठे पानी का झरना
हम्म, तेरे दोहरे बदन में, सिल जाऊँगी रे
जब करवट लेगा, छिल जाऊँगी रे
संग लेऽ जाऊँऽगाऽ

तेरी मेरी अंगनी मंगनी
अंग संग लागी सजनी
संग लेऽऽ जाऊँऽ

ओऽऽ साथी रे दिन डूबे ना
आ चल दिन को रोकें
धूप के पीछे दौड़ें
छाँव छुए नाऽऽ
ओऽऽ साथी रे ..दिन डूबेऽऽ ना




बुधवार, फ़रवरी 21, 2007

वार्षिक गीतमाला पायदान # 4: रात, नींद, ख्वाब और गुलजार !

देवियों और सज्जनों, एक बार फिर आपका ये सीरियल मेकर :) हाजिर है अपनी इस गीतमाला के चौथे नंबर के गीत को लेकर । अगर आपकी शिकायत ये है कि इस गीतमाला की रफ्तार इन दिनों पैसेंजर की माफिक क्यूँ हो गई है तो उसका जवाब यही है कि पिछले १२ दिनों में मैं सिर्फ तीन दिन ही घर पर बिता पाया हूँ और आगे भी हालात कुछ ऐसे ही नजर आ रहे हैं। खैर, इस बार हम लौटे हैं कानपुर की निम्मी -निम्मी ठंड का मजा लेते हुए । नींद, ख्वाब और रात के बारे में मैं सोचूँ तो अभी तो मुझे सफर में अपने डिब्बे की थोड़ी सी खुली खिड़की से आती सर्द हवा की याद आती है जिसने हमारी कच्ची नींद में जब तब सेंध लगाई ,पर गुलजार की रात में जागती आँखें तो कोई और फसाना बयां करती हैं ।

आखिर कौन है इन जागती आँखों का कुसूरवार?

अरे वही मुए ख्वाब जो उनकी नींद के साथ एक अर्से से कबड्डी खेलते आए हैं। याद है आपको घर फिल्म का किशोर दा का गाया वो गीत जिसने हॉस्टल के बन्द कमरे में हमारी कितनी ही रातों की नींद चुराई थीं ।

फिर वही रात है...
फिर वही रात है, ख्वाबों की
रात भर ख्वाब में, देखा करेंगे तुम्हें...
मासूम सी नींद में, जब कोई सपना चले
हमको बुला लेना तुम पलकों के पर्दे तले
ये रात है ख्वाब की, ख्वाब की रात है...


और फिर इंतजार की उन घड़ियों को गिनती ( फिल्म -खामोशी) की पुकार तो कभी मंद नहीं पड़ी..

ख्वाब चुन रही है रात बेकरार है, तुम्हारा इंतजार है....पुकार लो..!

या फिर जीवा में आशा जी का गाया ये गीत हो

रोज-रोज आँखों तले, एक ही सपना चले
रात भर काजल जले, आँख मे जिस तरह
ख्वाब का दीया जले...


नींद..रात ..ख्वाब..चाँद गुलजार के प्रिय विषय रहे हैं। शायद ये उनकी निजी जिंदगी में भी कुछ खास मायने रखते हों । यही वजह है कि इन शब्दों को पिरोकर निकला उनका हर गीत एक नए आयाम देता प्रतीत हुआ है । चौथी पायदान की ये छोटी सी नज्म इन शब्दों को जोड़ती हुई दिल को करीब से छूते हुए गुजर जाती हैं । गुरु फिल्म में इस नज्म की आरंभिक चार पंक्तियों का प्रयोग हुआ है क्योंकि वो कथानक पर दुरुस्त बैठती हैं।

जागे हैं देर तक हमें कुछ देर सोने दो
थोड़ी सी रात और है सुबह तो होने दो
आधे अधूरे ख्वाब जो पूरे ना हो सके
इक बार फिर से नींद में वो ख्वाब बोने दो

और अगर कोई ख्बाब देखते-देखते आपकी नींद टूट जाए तो भी हिम्मत ना हारें क्योंकि

इक ख्वाब टूट जाने का अहसास ही तो है
थोड़ी सी रात और सहर पास ही तो है !


गुरु की इस नज्म को अपना स्वर दिया है के. एस. चित्रा और ए.आर. रहमान ने । वैसे रहमान ने किसी दूसरे गायक को मौका दिया होता तो नतीजा और बेहतर होता ।

शनिवार, फ़रवरी 17, 2007

पायदान # 5 : तेरे बिन मैं यूँ कैसे जिया...

पिछला हफ्ता कार्यालय के दौरों में बीता । नतीजा ये कि इस गीतमाला की गाड़ी वहीं की वहीं रुक गई । अब इससे पहले कि फिर बाहर निकलूँ अपनी गाड़ी को ५ वीं सीढ़ी तक पहुँचा ही देता हूँ। आज का ये गीत यहाँ इसलिए है क्योंकि इसे जिस अंदाज में गाया गया है वो अपनेआप में काबिले तारीफ है ।
'बस एक पल' के इस गीत के असली हीरो आतिफ असलम हैं। स्कूल के दिनों में आतिफ पढ़ाई के बाद अपना सारा समय क्रिकेट के अभ्यास में लगाते थे। उनका ख्वाब था पाकिस्तान की टीम में एक तेज गेंदबाज की हैसियत से दाखिल होना । अपनी लगन से वो कॉलेज टीम में भी आ गए । कॉलेज के जमाने में ही दोस्तों के सामने ये राज खुला कि उनकी आवाज भी उनकी गेंदबाजी की तरह धारदार है । सो फिर क्या था दोस्तों ने उनका नाम एक संगीत प्रतियोगिता में डलवा दिया । फिर तो जो हुआ वो अब इतिहास है। उसके बाद काँलेज की हर संगीत प्रतियोगिता वो जीतते रहे ।
फिर जल , आदत आदि एलबमों की सफलता के बाद वो संगीत से पूरी तरह जुड़ गए । फिर जहर के लोकप्रिय ट्रैक ने उन्हें भारत में भी प्रसिद्धि दिला दी । आतिफ की गायिकी में सबसे खास बात ये है कि ये ऊपर के सुर सहजता से लगा लेते हैं । सईद कादरी ने प्रेम और फिर विरह की भावना को केन्द्र बिन्दु रख कर ये गीत लिखा है और आतिफ ने अपनी आवाज द्वारा उस विरह वेदना को बखूबी उभारा है ।

तेरे बिन मैं यूँ कैसे जिया
कैसे जिया तेरे बिन
लेकर याद तेरी, रातें मेरी कटीं
मुझसे बातें तेरी करती है चाँदनी
तनहा है तुझ बिन रातें मेरी
दिन मेरे दिन के जैसे नहीं
तनहा बदन, तनहा है रुह, नम मेरी आँखें रहें
आजा मेरे अब रूबरू
जीना नहीं बिन तेरे
तेरे बिन ....

कबसे आँखें मेरी, राह में तेरे बिछीं
भूले से ही कहीं, तू मिल जाए कहीं
भूले ना.., मुझसे बातें तेरी
भींगी है हर पल आखें मेरी
क्यूँ साँस लूँ, क्यूँ मैं जियूँ
जीना बुरा सा लगे
क्यूँ हो गया तू बेवफा, मुझको बता दे वजह
तेरे बिन....

मिथुन द्वारा संगीतबद्ध इस गीत को आप यहाँ और यहाँ सुन सकते हैं ।

रविवार, फ़रवरी 11, 2007

वार्षिक संगीतमाला गीत # 6 : जब जलती है 'बीड़ी' गाँव की नौटंकी में !

शहर की चमक दमक से दूर गाँव की दुपहरी और शामें अपनी एकरूपता लिये होती हैं। अँधेरे का आगमन हुआ नहीं कि घर के बाहर की सारी गतिविधियाँ ठप्प । यानि महानगरीय माहौल से एकदम उलट जहाँ अँधेरे के साथ रात जवाँ होती है। पर मनोरंजन की जरूरत तो सब को है। और इसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए सामाजिक उत्सवों पर नौटंकी और नाच का आयोजन गाँवों की परम्परा रही है ।

ऐसा ही माहौल दिया विशाल भारद्वाज ने गुलजार को अपनी फिल्म ओंकारा में और फिर गंवई मिट्टी की सुगंध ले कर जो गीत निकला उसका जाएका भारत के आम जनमानस की जिह्वा पर बहुत दिनों तक चढ़ा रहा ।

विशाल भारद्वाज ने ओंकारा के इस गीत को अपने जबरदस्त संगीत से जो उर्जा दी है, उसे सुखविंदर सिंह और सुनिधि चौहान की मस्त गायिकी ने और उभारा है। हालांकि इस गीत के लिए स्क्रीन संगीत अवार्ड में श्रेष्ठ गीतकार चुने जाने से गुलजार बहुत खुश नहीं थे। कारण ये नहीं कि उन्हें अपना ये गीत पसंद नहीं बल्कि ये कि इस गीत को रचने से ज्यादा संतोष उन्हें इस फिल्म के अन्य गीतों को लिखने में हुआ है । गुलजार की राय से मैं पूरी तरह सहमत हूँ । इसी फिल्म का एक और गीत इसी कारण से मैंने भी ऊपर की एक सीढ़ी के लिए सुरक्षित रखा है ।

पर जब मूड धमाल और मौज मस्ती करने का हो तो ये गीत एक जबरदस्त उत्प्रेरक का काम करता हे और इसी वजह से ये यहाँ विराजमान है । तो दोस्तों चलें ६ ठी पायदान के इस गीत के साथ थिरकने ।

ना गिलाफ, ना लिहाफ
ठंडी हवा भी खिलाफ ससुरी
इतनी सर्दी है किसी का लिहाफ लइ ले
ओ जा पड़ोसी के चूल्हे से आग लइ ले
बीड़ी जलइ ले, जिगर से पिया
जिगर मा बड़ी आग है...

धुआँ ना निकारी ओ लब से पिया, अह्हा
धुआँ ना निकारी ओ लब से पिया
ये दुनिया बड़ी घाघ है
बीड़ी जलइ ले, जिगर से पिया
जिगर मा बड़ी आग है...

ना कसूर, ना फतूर
बिना जुलुम के हुजूर
मर गई, हो मर गई,
ऐसे इक दिन दुपहरी बुलाई लियो रे
बाँध घुंघरू कचहरी लगाइ लियो रे
बुलाई लियो रे बुलाई लियो रे
लगाई लियो रे कचहरी
अंगीठी जरई ले, जिगर से पिया
जिगर मा बड़ी आग है....

ना तो चक्कुओं की धार
ना दराती ना कटार
ऐसा काटे कि दाँत का निशान छोड़ दे
जे कटाई तो कोई भी किसान छोड़ दे
ओ ऐसे जालिम का छोड़ दे मकान छोड़ दे
रे बिल्लो, जालिम का छोड़ दे मकान छोड़ दे

ना बुलाया, ना बताया
मारे नींद से जगाया हाए रे
ऐसा चौंकी की हाथ में नसीब आ गया
वो इलयची खिलई के करीब आ गया

कोयला जलइ ले, जिगर से पिया
जिगर मा बड़ी आग है





पिछले साल इसी जगह पर था बंटी और बबली का प्यारा सा नग्मा
छुप चुप के..चोरी पे चोरी।

बुधवार, फ़रवरी 07, 2007

7 वीं पायदान : अजनबी शहर है, अजनबी शाम है...

सातवीं पायदान पर का गीत मुझे क्यूँ प्रिय है मुझे पता नहीं ! पर इतना जानता हूँ कि जैसे ही इसका मुखड़ा कानों में गूंजता है मन डूब सा जाता है एक अलग अहसास से... जिसे शब्दों में बाँधना मेरे लिए इस वक्त कठिन हो रहा है ।

सोनू निगम ने बड़ी खूबसूरती से गाया है इस गीत को खासकर शुरु की पंक्तियाँ में जब वो ऊपर की ओर अपनी सुरीली तान को खींचते हैं । और इसे अपनी मधुर धुन से संवारा है पहली बार इस गीतमाला में दाखिला ले रहे अनु मलिक ने । गीत के बीच में उन्होंने एक यूरोपीय नृत्य धुन का इस्तेमाल भी किया है ।

और इस तरह की पंक्तियाँ तो इस गीतमाला पर छाये गीतकार की तो खासियत ही हैं

बात है ये इक रात की, आप बादलों पे लेटे थे..
...सर्दी लग रही थी आपको,पतली चाँदनी लपेटे थे
और शाल में ख्वाब के सुलाया था

तो इस गुल को गुलशन करते गुलजार का फिल्म जानेमन के लिए लिखा गीत कुछ यूँ है ।
अजनबी शहर है, अजनबी शाम है
जिंदगीऽऽ अजनबीऽऽऽऽ, क्या तेराऽऽऽ नाम है ?
अजीब है ये जिंदगी ये जिंदगी अजीब है
ये मिलती है बिछड़ती है, बिछड़ के फिर से मिलती है
अजनबी शहर है, अजनबी शाम है

आप के बगैर भी हमें, मीठी लगें उदासियाँ
क्या, ये आपका, आपका कमाल है
शायद आपको खबर नहीं ,
हिल रही है पाँव की जमीं
क्या, ये आपका, आपका ख्याल है
अजनबीऽऽऽऽ शहर मेंऽऽ जिंदगी मिल गई
अजीब है ये जिंदगी, ये जिंदगी अजीब है
मैं समझा था करीब है, ये औरों का नसीब है

अजनबी शहर है, अजनबी शाम है
बात है ये इक रात की, आप बादलों पे लेटे थे
हुं वो याद है आपने बुलाया था
सर्दी लग रही थी आपको,पतली चाँदनी लपेटे थे
और शाल में ख्वाब के सुलाया था
अजनबी ही सही, सांस में सिल गई
अजीब है ये जिंदगी ये जिंदगी अजीब है
मेरी नहीं ये जिंदगी रकीब का नसीब है ।


सोमवार, फ़रवरी 05, 2007

पायदान # 8: गुरु गुलजार की बेसुवादी रतिया में रहमान चिन्मयी की बतिया !

बीते ना बिताई रैना, बिरहा की जाई रैना
भीगी हुई अखियों ने लाख बुझाई रैना....
....चाँद की बिन्दी वाली, बिन्दी वाली रतियाँ
जागी हुई अखियों में रात ना आई रैना


रात का ये तनहा सफर गुलजार के लिए नया नहीं । परिचय के इस गीत की तरह कई बार इन मनोभावों को उभारा है उन्होंने ।
अब वैसे भी मन का मीत ही साथ ना हो तो शीतल, सलोनी , चाँदनी रात में इश्क का तड़का लगाएगा कौन ! फिर तो वो रात भी फीकी-फीकी बेस्वादी ही होगी ना !
इसी मुखड़े को सजाया है अपनी धुन से संगीतकार ए. आर. रहमान ने । और इसे गाया है रहमान के साथ युवा नवोदित गायिका चिन्मयी श्रीपदा ने । चिन्मयी बहुभाषाविद हैं, मनोविज्ञान की छात्रा हैं, बचपन से शास्त्रीय संगीत सीख रही हैं और खुशी की बात ये कि वो हमारी और आपकी तरह एक ब्लॉगर भी हैं । देखिये तो खुद क्या कहती हैं अपने चिट्ठे पर गुरु के गीतों की उनकी अदायगी के बारे में ।

"मुझे बस इतना याद है कि रहमान सर ने कहा कि अपनी आवाज को पूरी तरह बहने दो और गाओ । चाहे ऐसा करने पर तुम्हें ये क्यूँ ना लगे कि तुम अव्वल दर्जे की मूर्ख हो । वैसे तो मन का संकोच ना जाना था ना गया, पर ये जरूर हुआ कि दिमाग में कोई दीपक उस वक्त जरूर जल उठा और उसकी वजह से अपनी कम काबिलियत का अहसास जाता रहा । पर रिकार्डिंग के बाद अपनी गायिकी पर सवाल रह रह कर मन में फिर से उठने लगे । यहाँ तक की गीत सुनकर मुझे आपनी आवाज ही पहचान में नहीं आई । "

ये तो हुई गायिका की बात पर इस गीत का सबसे सशक्त पहलू इसकी धुन है जो धीरे धीरे दिलो दिमाग में चढ़ती है और फिर उसके बाद उतरने का नाम नहीं लेती ।गीत के बीच की बंदिश और भारतीय वाद्य यंत्रों का प्रयोग मन को खुश कर देने वाला है । रहमान ने इस गीत को नुसरत फतेह अली खाँ को अपनी ओर से श्रृद्धांजलि बताया है । तो चलिए आप सब भी ८ वीं पायदान की इस मधुर तान का आनंद उठायें ।

दम दारा दम दारा मस्त मस्त
दारा दम दारा दम दारा मस्त मस्त
दारा दम दारा दम दम
ओ हमदम बिन तेरे क्या जीना!
तेरे बिना बेसुवादी बेसुवादी रतिया, ओ सजना !
हो, रूखी रे ओ रूखी रे
काटू रे काटे कटे ना
तेरे बिना बेसुवादी बेसुवादी रतिया, ओ सजना !

ना जा, चाकरी के मारे
ना जा, सौतन पुकारे
सावन आएगा तो पूछेगा, ना जा रे
फीकी फीकी बेसुवादी ये रतिया
काटू रे कटे ना कटे ना
अब तेरे बिन सजना सजना, काटे कटे ना..
काटे ना.. काटे ना..तेरे बिना
तेरे बिना बेसुवादी बेसुवादी रतिया, ओ सजना !


तेरे बिनाऽऽऽ चाँद का सोना खोटा रे
पीली पीली धूल उड़ावे, झूठा रेऽऽऽ
तेरे बिन सोना पीतल, तेरे संग कीकर पीपल
आ जा कटे ना रतियाऽऽ
तेरे बिना बेसुवादी बेसुवादी रतिया, ओ सजना....




शनिवार, फ़रवरी 03, 2007

9 वीं पायदान : एक बार फिर अभिजीत की 'आवाज' के नाम...

जिंदगी में नाम की क्या अहमियत है..
शायद कुछ भी नहीं...
बस पुकारने का इक जरिया..
नाम बदल जाते हैं ...
चेहरे भी वक्त के साथ बदल जाते हैं..
पर दिल से निकली आवाज क्या बदल सकती है
नहीं कभी नहीं..क्योंकि वो तो दिल का आईना है..
और आईने कभी धोखा नहीं देते...



सत्तर के दशक की फिल्म 'किनारा' में यही बात गुलजार कह गए हैं
नाम गुम जाएगा , चेहरा ये बदल जाएगा
मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे



और इतने सालों बाद उसी सरसता से यही बात कही है गीतकार शाहीन इकबाल ने अभिजीत के इस एलबम लमहे में । कानपुर के इस गायक की इस गीतमाला में तीसरी और आखिरी पेशकश है । मैं नहीं जानता कि ये गीत आपको कितना पसंद आएगा पर मुझे इस गीत के बोल और अभिजीत की गायिकी दोनों पसंद हैं । तो पेश है नवीं पायदान का ये नग्मा




मैं रहूँ ना रहूँ मेरी आवाज...मैं रहूँ ना रहूँ मेरी आवाज..
तुम गूंजती हर जगह हर कदम पाओगे
मैं मिलूँ ना मिलूँ मेरे गीतों को तुम
जिंदगी की तरह हर कदम पाओगे...



मैं था जहाँ, हूँ मैं वहीं
बीता हुआ कल मैं नहीं
हर मोड़ पर, हर राह में
हर दर्द में , हर आह में
गुनगुनाऊँगा मैं, मुस्कुराऊँगा मैं
दिल की आबो हवा में याद आऊँगा मैं
याद आऊँगा मैं...
कुछ कहूँ, ना कहूँ मेरे गीतों को तुम
रोशनी की तरह , हर तरफ पाओगे
.
मैं आज हूँ, मैं कल भी हूँ
सदियाँ हूँ मैं, मैं पल भी हूँ
हर रंग में, हर रूप में
हर छांव में , हर धूप में
झिलमिलाऊँगा मैं, जगमगाऊँगा मैं
मौसमों की अदा में , याद आऊँगा मैं
मैं दिखूँ ना दिखूँ
मेरे अंदाज तुम, वक्त ही की तरह
हर तरफ पाओगे
मैं रहूँ ना रहूँ मेरी आवाज...मैं रहूँ ना रहूँ मेरी आवाज..
तुम गूंजती हर जगह हर कदम पाओगे


पिछले साल इसी जगह पर था यू बोमसी एंड मी के लिए नीरज श्रीधर का ये गीत कहाँ हो तुम मुझे बताओ ?

गुरुवार, फ़रवरी 01, 2007

वार्षिक संगीतमाला गीत # 10 : लमहा - लमहा दूरी यूँ पिघलती है ...

तो दोस्तों पिछले महिने में आखिरी की १५ सीढ़ियाँ चढ़कर हम आ पहुँचे हैं पायदान संख्या १० पर । इस सीढ़ी पर गीत वो जिसके बारे में पहले भी इस चिट्ठे पर यहाँ लिख चुका हूँ गीत के बोल के साथ । दुख की बात ये कि ये इस गीतमाला का दूसरा ऍसा गीत है जिसकी धुन चुराने का इलजाम संगीतकार प्रीतम के सिर है । अंतरजाल पर खोज करने से पता चला कि इसकी धुन पाकिस्तानी गायक वारिस बेग के गीत 'कल शब देखा मैंने...' से ली गई है । बेग साहब का गीत यहाँ उपलब्ध है। वैसे जब मैंने आरिजिनल गीत सुना तो प्रीतम का प्रस्तुतिकरण काफी बेहतर लगा। बस उन्हें खुद इस गीत के कॉपीराइट खरीदने चाहिए थे ।


खैर चोरी की ही सही, पर मुझे इस धुन से खासा लगाव है । और फिर अभिजीत की आवाज में ये गीत सुनकर जी हल्का सा हो जाता है और बरबस ही गीत को गुनगुनाने लगता हूँ। नीलेश मिश्र ने गीत को एक काव्यात्मक जामा पहनाने की कोशिश की है ।

गैंगस्टर के इस गीत को आप
यहाँ भी सुन सकते हैं ।

अब चूंकि अंतिम दस का सिलसिला शुरु हो चुका है तो ये भी जानते चलें कि पिछले साल इस सीढ़ी पर कौन सा नग्मा पदस्थापित था ?

पिछले साल इस पायदान पर थे रब्बी शेरगिल बुल्ला कि जाणा मैं कौन ? के साथ !
 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
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English, August: An Indian Story
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Jharokhe
Mailaa Aanchal
Mrs Craddock
Mahabhoj
मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


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स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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