बुधवार, दिसंबर 31, 2008

वार्षिक संगीतमाला 2008 :पायदान संख्या 25 - पप्पू नाच नहीं सकता..Pappu Can't Dance Sala

२००८ खत्म होने की कगार पर है और साल को विदा करते समय वक़्त आ गया है वार्षिक संगीतमाला २००८ की उलटी गिनती शुरु करने का। संगीतमाला की २५ वीं पायदान यानि २५ वें नंबर पर गाना वो जिसका आरंभिक संगीत बजते ही बच्चे, बूढ़े और जवान एक साथ थिरकने लगते है्। ये गीत इस साल इतनी बार पार्टियों में बजा कि आप शायद सुन कर थोड़े बोर हो गए होंगे।


जी हाँ मैं उसी पप्पू की बात कर रहा हूँ जिसके पास वो सारी खूबियाँ हैं जिन्हें आज की पीढ़ी बेहद महत्त्व देती है पर जिसे कमबख्त नाचना ही नहीं आता। खैर नाचना तो मुझे भी नहीं आता पर अनुपमा देशपांडे, बेनी दयाल, सतीश सुब्रमनियम, तन्वी, दर्शना और असलम के सम्मिलित स्वर में गाए इस गीत ने कई बार मुझे बच्चों के साथ मुझे भी झूमने पर विवश किया है। जाने तू या जाने ना फिल्म के इस गीत को ए.आर रहमानऔरअब्बास टॉयरवाला अपने संगीत और गीत बदौलत साल का सबसे मस्ती भरा गीत बनाने में सफल रहे हैं।

इस गीत में 'साला'शब्द के प्रयोग पर बहस हो सकती है। अब्बास और रहमान साला की जगह 'बाबा' शब्द का प्रयोग कर सकते थे पर शायद गाने को एक मसालेद्वार स्वाद देने के लिए उन्होंने 'साला'शब्द चुना। वैसे छोड़िए इन बातों को, फिलहाल तो पिछले साल को खुशी खुशी अलविदा करना है इसलिए एक बार पप्पू के साथ और थिरक लें तो तैयार हैं ना आप....


और अगर तेज बैंडविड्थ आपके पास हो तो ये रहा यू ट्यूब पर इस फिल्म का वीडिओ



३१ दिसंबर की इस रात को मैं एक शाम मेरे नाम के तमाम पाठकों और अपने साथी चिट्ठाकारों को नए वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ। आशा है आप सब नए साल में भी इस चिट्ठे के साथी बने रहेंगे..........

मंगलवार, दिसंबर 23, 2008

तीन भूलें जिंदगी की (the 3 mistakes of my life) : चेतन भगत

जिंदगी में भूलें तो हम सभी करते है पर इन भूलों के बारे में कितनों से चर्चा की होगी आपने ? शायद अपने नजदीकियों से ! अब ये आइडिया तो कभी आपके मन में नहीं ही आया होगा कि अपनी गलतियों से तंग आकर आप आत्महत्या करने की सोचें और उसे कार्यान्वित करने से पहले एक बहुचर्चित उपन्यासकार के ई मेल कर दें। खैर मैं जानता हूँ इतना धाँसू आइडिया आपके मन में कभी नहीं आया, क्योंकि अगर ऍसा होता तो आप अपना वक़्त मेरी इस पोस्ट को पढ़ने में बर्बाद नहीं कर रहे होते। :)

अब देखिए अहमदाबाद के गोविंद पटेल ने यही किया और चेतन भगत की तीसरी किताब 'The 3 Mistakes of My Life' के नायक बन बैठे। गोविंद भाग्यशाली रहे कि वो बच गए और अपनी कहानी चेतन को सुना पाए। और परसों ही टीवी पर एक प्रोमो दिखा जिसमें हीरो कहता है कि मैं गोविंद हूँ तो तुरत समझ आ गया कि अब 'Hello' की तरह इस किताब पर भी फिल्म बनने जा रही है।

चेतन भगत की ये कहानी अहमदाबाद की है और गुजरात की तात्कालिक घटनाओं भूकंप, दंगों और भारत आस्ट्रेलिया क्रिकेट श्रृंखला आदि के बीच बनती पनपती है। पूरी कहानी उन तीन निम्न मध्यमवर्गीय दोस्तों के इर्द गिर्द घूमती है जिनकी रुचियाँ अलग अलग विषयों (धर्म, क्रिकेट और व्यापार) से जुड़ी हुई हैं। मैंने इससे पहले उनकी Five Point Someone और One Night at Call Centre पढ़ी थी और Five Point Someone को तो पढ़ने में बहुत मजा आया था। अगर किसी उपन्यासकार की पहली किताब बहुत पसंद की जाए तो वो एक मापदंड सी बन जाती है और अक्सर उसकी तुलना बाद की किताबों से होने लगती है।

और इस हिसाब से २५७ पृष्ठों की ये किताब मुझे उतनी पसंद नहीं आती। हालांकि चेतन की लेखन शैली हमेशा की तरह रोचक है। उनके चरित्रों से आम आदमी भी जल्द ही जुड़ा महसूस करता है। युवाओं के दिल में उठ रही बातों को बेबाकी से लिखने में चेतन माहिर हैं। उन्होंने गुजरातियों के व्यापार में Never Say Die वाली निष्ठा के साथ एक आम व्यापारी की सोच को भी टटोलने का काम किया है।

पर किताब से गुजरने के बाद आपको ये नहीं लगता कि आपने कुछ विशिष्ट पढ़ा। पूरी किताब एक व्यवसायिक हिंदी फिल्म की पटकथा ज्यादा नज़र आती है जिसमें राजनीति, धर्म, हिंसा, प्रेम, क्रिकेट का उचित अनुपातों में समावेश है और यही कारण है कि फिल्मवालों ने इस कहानी को जल्द ही झटक लिया।

अंततः यही कहना चाहूँगा कि अगर आपके पास कुछ और करने को ना हो तो ये किताब पढ़ सकते हैं जैसा मैंने अस्पताल में अपनी ड्यूटी निभाते वक्त किया और अगर किताब से ज्यादा फिल्मो का शौक रखते हों तो इस पर आधारित फिल्म देख लें ..

शुक्रवार, दिसंबर 19, 2008

बात अधूरे उदास चाँद की...हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद

बिछड़ के मुझसे कभी तू ने ये भी सोचा है
अधूरा चाँद भी कितना उदास लगता है


जिंदगी में कमोबेश आप सब ने एक बात तो अवश्य महसूस की होगी । वो ये, कि हम बड़ी सहजता से हर उस इंसान से जुड़ जाते हैं जो अपने जैसे हालातों से गुजर रहा हो ! और जब अपनी बॉलकोनी से तनहा चाँद को देख ते हैं तो अपनी जिंदगी की तनहाई मानो चाँद रूपी शीशे में रह-रह कर उभरने लगती है । इसीलिए तो कहा है किसी ने

चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले
कितने गम थे जो तेरे गम के बहाने निकले


अब चाँद की त्रासदी देखिये, जो सूरज अपने प्रकाश से चाँद को सुशोभित करता है, हमारा ये चाँद उसे छू भी नहीं पाता.....
अपनी इस विरह-वेदना को दिल में जब्त किये चलता जाता है..चलता जाता है...
बिना रुके, बिना थके...
और चाँद का यही एकाकीपन हमें बरबस अपनी ओर खींचता है, आकर्षित करता है...


इसीलिए तो...
कभी जब हम रोजमर्रा की जिंदगी से उब से गए हों...
जब जी बिलकुल कुछ करने को नहीं करता...
नींद भी आखों से कोसों दूर रहती है...
ऐसे में अनमने से , चुपचाप इक बंद कमरे में बैठे हों...
और सामने ये चाँद दिख जाए तो...
तो वो भी अनगिनत तारों के बीच अपने जैसा अकेला प्रतीत होता है !
दिल करता है घंटों उसके सामने बैठे रहें ...
उसे निहारते रहें... उससे बातें करते रहें

कुछ उसी तरह जैसे नूरजहाँ अपने गाए इस मशहूर नग्मे में कर रही हैं

चाँदनी रातें, चाँदनी रातें..
सब जग सोए हम जागें
तारों से करें बातें..
चाँदनी रातें, चाँदनी रातें..


और ऐतबार साजिद साहब घर की राह पर निकले तो थे पर चाँद देखा तो ख्याल बदल लिया, उतर लिये राह ए सफर में ये कहते हुए

वहाँ घर में कौन है मुन्तजिर कि हो फिक्र दर सवार की
बड़ी मुख्तसर सी ये रात है, इसे चाँदनी में गुजार दो


कोई बात करनी है चाँद से, किसी शाखसार की ओट में
मुझे रास्ते में यहीं कहीं, किसी कुंज -ए -गुल में उतार दो


जिस तरह चाँदनी समंदर की लहरों को अपनी ओर खींच लेती है उसी तरह वो हमारी खट्टी- मीठी यादों को भी बाहर ले आती है, चंद शेरों की बानगी लें !

तेरी आखों में किसी याद की लौ चमकी है
चाँद निकले तो समंदर पे जमाल आता है


आप की याद आती रही रात भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर


चाँद के इतने रूपों की मैंने बातें कीं । पूर्णिमा से अमावस्या तक ना जाने ये कितनी ही शक्लें बनाता है और अपने मूड, अपनी कैफियत के हिसाब से हम इसकी भाव-भंगिमाओं को महसूस करते हैं ।

इससे पहले कि इस कड़ी को समाप्त करूँ, उस गजल से आपको जरूर रूबरू कराना चाहूँगा जिसे सुनते और गुनगुनाते ही चाँद मेरे दिल के बेहद करीब आ जाता है । अगर आपने डॉ. राही मासूम रजा की लिखी और जगजीत सिंह की गाई ये भावभीनी गजल ना सुनी हो तो जरूर सुनिएगा । एक प्राकृतिक बिम्ब चाँद की सहायता से परदेस में रहने की व्यथा को रज़ा साहब ने इतनी सहजता से व्यक्त किया है कि आँखें बरबस नम हुए बिना नहीं रह पातीं।

ये परदेस हम सब के लिए कुछ भी हो सकता है...

स्कूल या कॉलेज से निकलने के बाद घर मे ममतामयी माँ के स्नेह से वंचित होकर एक नए शहर की जिंदगी में प्रवेश करने वाला नवयुवक या नवयुवती हो...

या परिवार से दूर रहकर विषम परिस्थितियों में सरहदों की रक्षा करने वाला जवान ...

या रोटी की तालाश में बेहतर जिंदगी की उम्मीद में देश की सरजमीं से दूर जा निकला अप्रवासी...

सभी को अपने वतन, अपनी मिट्टी की याद रह-रह कर तो सताती ही है।


तो चलते चलते चाँद से जुड़ी अपनी इस बेहद प्रिय ग़ज़ल को गुनगुनाकर आप तक पहुंचाना चाहूँगा...




हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चाँद

जिन आँखों में काजल बनकर तैरी काली रात
उन आँखों में आँसू का इक, कतरा होगा चाँद

रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर
आँगन वाले नीम पे जाकर अटका होगा चाँद

चाँद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद

हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद...


आशा है ये श्रृंखला आपको पसंद आई होगी। अपने विचारों से अवगत कराते रहिएगा।

....समाप्त

इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ

सोमवार, दिसंबर 15, 2008

चाँद और चाँदनी : मैं हूँ तेरा खयाल है और चाँद रात है...


चाँद को देख के किसी के मन में क्या ख्याल आता है ये तो निर्भर करता है उस शख्स के मानसिक हालातों पर अब यही देखिये ना पंडित विनोद शर्मा की लिखी हुई ये पंक्तियाँ चाँदनी रात की रूमानियत का जादू सा जगा देती हैं मन में

एक नीली झील सा फैला अचल
आज ये आकाश है कितना सजल
चाँद जैसे रूप का उभरा कँवल
रात भर इस रूप का जादू जगाओ
प्राण तुम क्यूँ मौन हो कुछ गुनगुनाओ


सच ही तो हे कि जब दिल में प्यार का बीज अंकुरित हो जाए तो इस चाँद में ही हमें अपने प्रियतम की छवि नजर आने लगती है ।और अगर ना भी नजर आए तो उनसे निगाहें मिलाने की एक तरकीब है हमारे पास :)

मैं चाँद देखता हूँ
चाँद उन को देखता है
गर वो भी चाँद देखें
मिल जाए दो निगाहें


क्या कहा नहीं पसंद आया ये तरीका! हम्म.. चलिए कोई बात नहीं मेरी बात न सही तो कम से कम युवा शायर वासी शाह की बात तो आप जरूर मानेंगे । अपने महबूब से जुड़ी यादों को संजोए रखा था इन्होंने पर जब ये चाँद सामने आया तो दिल में छुपे हर गिले शिकवे की परत दर परत खुलती चली गई। और क्यूँ ना खुले भाई ? आखिर ये चाँद ही तो अपनी प्रेयसी के साथ बिताये हुए उन यादगार लमहों का राजदार है

मैं हूँ तेरा खयाल है और चाँद रात है
दिल दर्द से निढाल है और चाँद रात है

आखों में चुभ गयीं तेरे यादों की किरचियाँ*
कान्धों पर गम की शाल है और चाँद रात है
* छोटे टुकड़े

दिल तोड़ के खामोश नजारों को क्या मिला?
शबनम का ये सवाल है और चाँद रात है

फिर तितलियाँ सी उड़ने लगीं दश्त- ए- ख्वाब में
फिर ख्वाहिश- ए- विसाल* है और चाँद रात है

*मिलन

कैम्पस की नहर पर है तेरा हाथ, हाथ में
मौसम भी लाजवाल है और चाँद रात है

हर एक कली ने ओढ़ लिया मातमी लिबास
हर फूल पर मलाल है और चाँद रात है

मेरी तो पोर- पोर में खुशी सी बस गई
उस पर तेरा खयाल है और चाँद रात है

छलका सा पड़ रहा है वासी, वहशतों *का रंग
हर चीज पर जवाल** है और चाँद रात है

* डर, चिंता **उतार


पर ये भी गौर करने की बात है कि कभी तो हम अपनी बीती हुई यादों को चाँद के साथ बाँटते हैं तो चाँदनी रात की खूबसूरती में ही अपने महबूब का अक्स देखने लगते हैं जैसा कुछ साहिर साहब यहाँ देख रहे हैं

ये रात है या तुम्हारी जुल्फें खुली हुई हैं
है चाँदनी या तुम्हारी नजरों से मेरी रातें धुली हुई हैं
ये चाँद है या तुम्हारा कंगन
सितारे हैं या तुम्हारा आँचल.....

पर चाँद को लेकर सिर्फ प्यार मोहब्बत की बातें हों ऐसी भी बात नहीं, इसकी आड़ में उलाहने भी दिये जाते हैं । लता जी के गाए इस नग्मे की बानगी लें....नायिका को शिकायत है कि मुआ ये चाँद तो बिना कहे वक्त पर मिलने रोज चला आता है और एक तुम हो जो वादा कर के भी अपनी शक्ल नहीं दिखाते ।

चाँद फिर निकला
मगर तुम ना आए...
जला फिर मेरा दिल
करूँ क्या मैं हाए...


सच तो ये है कि जब चाँद अपने पूरे शबाब पर रहता है तो हमारे आँखे इसकी रंगत में कुछ इस क़दर घुल जाती हैं कि सपनों और वास्तविकता की लकीर ही धूमिल सी लगने लगती है इसीलिए तो किसी शायर ने कहा है

कहो वो चाँद कैसा था
फ़लक से जो उतर आया तुम्हारी आँख में बसने

कहा वो ख़्वाब जैसा था
नहीं ताबीर1 थी उसकी, उसे इक शब2 सुला आए


1.परिणाम, फल 2. रात्रि

आज के लिये तो बस इतना ही.. ! अगली बार बात करेंगे उस अधूरे उदास चाँद की......तब तक के लिये इजाजत !

अब तक इस श्रृंखला में

गुरुवार, दिसंबर 11, 2008

चाँद और चाँदनी : चाँदनी, रात के हाथों पे सवार उतरी है....

 
















अम्बर की इक पाक सुराही
बादल का इक जाम उठाकर
घूँट चाँदनी पी है हमने
बात कुफ्र की, की है हमने
अम्बर की इक पाक सुराही...


अमृता प्रीतम
 

तो दोस्तों मेरे चिट्ठे का ये हफ्ता चाँद और चाँदनी के नाम....
पर पहले इस आसान से सवाल का जवाब तो दे दें ! बताइए तो, चाँद से हम सबका पहला परिचय कब का है ?

शायद उन लोरियों से....जो बचपन में माँ हमें निद्रा देवी की गोद में जाने के पहले सुनाया करती थी ।

चंदा मामा दूर के
पूए पकायें भूर के
आप खायें थाली में
मुन्ने को दे प्याली में
 
तो बचपन के वो हमारे प्यारे से मामा कब जिंदगी की रहगुजर पर चलते चलते हमारे हमसफर बन जाएँगे भला ये कौन जानता था ? इसीलिए तो किसी शायर ने अर्ज किया है कि

ये चाँद भी क्या हसीं सितम ढाता है
बचपन में मामा और जवानी में सनम नजर आता है

क्या आपने कभी चाँद के साथ सफर किया है ?
मैंने तो कई बार किया है....
बस या ट्रेन की खिड़की से बाहर दूर क्षितिज में साथ साथ ही तो चलता रहा है वो
क्या ऐसे में कभी आपका मन नहीं हुआ कि काश ये चाँद धरती पर उतर आता!
ऐ चाँद खूबसूरत !
ऐ आसमां के तारे
तुम मेरे संग जमीं पर थोड़ी सी रात गुजारो
कुछ अपनी तुम कहो
कुछ लो मेरी खबर
हो जाए दोस्ती कट जाए ये सफर ...


और ये चाँद अगर नहीं भी उतरा तो क्या हर्ज है बकौल डा० शैल रस्तोगी
उगा जो चाँद
चुपके चुरा लाई
युवती झील।

और यहाँ देखिए हमारी सहयोगी चिट्ठाकार रचना बजाज को कैसे प्रेरित करता है चाँद
"हुई रात, अब चाँद फिर से है आया,
तभी मैने अपने मे, अपने को पाया!
उसी ने नये कल का सपना दिखाया,
उसी ने मुझे घट के बढना सिखाया!"


पर यही सफ़र अगर अधजगी रातों और भूखे पेट के साथ गुजरे तो सारा परिपेक्ष्य बदल सा जाता है


माँ ने जिस चाँद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने
रात भर रोटी नज़र आया है वो चाँद मुझे


चाँद की बात हो और उसकी चाँदनी की बात ना हो ऐसा कभी हो सकता है ! नहीं जी नहीं..हरगिज नहीं
जरा सोचिए तो ...
जब सूर्य देव अपना रौद्र रूप धारण कर लेते हैं ....
और अपनी किरणों के वार से हम सभी को झुलसा डालते हैं ....
तो शाम के साथ आई ये चाँदनी ही तो हमें अपनी मित्र सी दिखती है
जिसकी विशाल नर्म बाहों में सिर रखकर किसी अपने की याद बरबस ही आ जाती है

बिखरी हुई नर्म सी चाँदनी
लहरों के घर जा रही रोशनी
लमहा लमहा छू रही हैं सर्द हवायें
तनहा- तनहा लग रहे हैं अपने साये
याद आए कोई...


अरे ये क्या ! याद करते- करते चाँदनी के रथ से उतरती यादों की ये मीठी खुशबुएँ आखिर क्या कह उठीं?

चाँदनी रात के हाथों पे सवार उतरी है
कोई खुशबू मेरी दहलीज के पार उतरी है

इस में कुछ रंग भी हैं, ख्वाब भी, खुशबुएँ भी
झिलमिलाती हुई ख्वाहिश भी, आरजू भी
इसी खुशबू में कई दर्द भी, अफसाने भी
इसी खुशबू ने बनाए कई दीवाने भी
मेरे आँचल पे उम्मीदों की कतार उतरी है
कोई खुशबू मेरी दहलीज के पार उतरी है


चाँदनी रात में मधुर स्मृतियों का लुत्फ इन जनाब ने तो उठा लिया पर क़मर जलालवी साहब का क्या करें? सोचा था चाँदनी रात में उनसे कुछ गुफ्तगू कर लेंगे पर वो हैं कि आसमां पर चाँद देखा और घर को रुखसत हो लिये !

वो मेहमान रहे भी तो कब तक हमारे
हुई शमा गुल और टूटे सितारे
कमर इस कदर उन को जल्दी थी घर की
वो घर चल दिये चाँदनी ढलते-ढलते


कमर साहब की इन पंक्तियों के साथ फिलहाल मुझे इजाजत दीजिए । और हाँ चाँद के साथ का सफर तो बदस्तूर जारी रहेगा अगली किश्त में ...


(पूर्व में दिसंबर २००६ में प्रकाशित आलेख में कुछ बदलाव के साथ, चित्र इंटरनेट से)

रविवार, दिसंबर 07, 2008

मुंबई त्रासदी पर प्रसून जोशी की कविता : इस बार नहीं ...

प्रसून जोशी फिल्म जगत में एक उच्च कोटि के गीतकार का दर्जा रखते हैं। फिर मिलेंगे, रंग दे बसंती और फिर पिछले साल की बहुचर्चित फिल्म तारे जमीं पर के गीतों को उन्होंने ही लिखा था। इस प्रतिभाशाली गीतकार के पीछे छुपे संवेदनशील कवि को आप में से बहुतों ने शायद ना देखा हो। कुछ दिन पहले इस चिट्ठे पर आप सब के साथ उनकी एक कविता इंतज़ार आप सबके साथ बाँटी थी।

आज जबकि मुंबई में हाल की घटनाओं ने पूरे देश को ही झकझोर कर रख दिया है तो प्रसून इससे अछूते कैसे रहते ? तो आइए पढ़ें उनकी पीड़ा को व्यक्त करती ये कविता जिसके भावों को हम सब भारतवासी तहेदिल से महसूस कर रहे हैं..


इस बार नहीं

इस बार जब वह छोटी सी बच्ची
मेरे पास अपनी खरोंच लेकर आएगी
मैं उसे फू-फू करके नहीं बहलाऊँगा
पनपने दूँगा उसकी टीस को
इस बार नहीं

इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखूँगा
नहीं गाऊँगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूँगा
उतरने दूँगा गहरे
इस बार नहीं

इस बार मैं ना मरहम लगाऊँगा
ना ही उठाऊँगा रुई के फाहे
और ना ही कहूँगा कि तुम आंखे बंद कर लो,
गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगाता हूँ
देखने दूँगा सबको
हम सबको
खुले नंगे घाव
इस बार नहीं

इस बार जब उलझनें देखूँगा,
छटपटाहट देखूँगा
नहीं दौड़ूँगा उलझी डोर लपेटने
उलझने दूँगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं

इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊँगा औज़ार
नहीं करूँगा फिर से एक नई शुरुआत
नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूँगा ज़िंदगी को आसानी से पटरी पर
उतरने दूँगा उसे कीचड़ में, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पे
नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूँगा उसे इतना लाचार
की पान की पीक और खून का फ़र्क ही ख़त्म हो जाए

इस बार नहीं .....

इस बार घावों को देखना है
गौर से
थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फ़ैसले
और उसके बाद हौसले
कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है

रविवार, नवंबर 30, 2008

गिरती लाशें सुलगते प्रश्न : इक लौ इस तरह क्यूँ बुझी मेरे मौला?

पिछले तीन चार दिनों से पीसी की ओर देखने का ही दिल नहीं हो रहा। ब्लागिंग ही बेमानी लग रही है। कटक में भारत की जीत की खुशी को दिल में आत्मसात कर ही रहा था कि चैनल सर्फिंग के दौरान रिमोट का बटन हाथ से दब गया। और फिर रात के दस बजे से ढ़ाई बजे तक टीवी के पर्दे सड़क पर गिरती लाशों के मंज़र को देखता रहा। बहुत सी तसवीरें बिल्कुल दिल से नहीं निकाल पा रहा, कार्यालय यंत्रवत जा रहा हूँ पर ज़ेहन में वही बातें उमड़ घुमड़ रही हैं। कुछ प्रश्न हैं जिन्हें हर व्यक्ति पूछ रहा है, ये जानते हुए भी कि उसके प्रश्न का ईमानदारी से जवाब देने वाला यहाँ कोई नहीं...



.......ताज और वीटी स्टेशन पर गोलीबारी शुरु हो गई है। शुरुआती रिपोर्ट में बताया जा रहा है शायद दो गुटों की आपसी रंजिश का नतीजा है। ताज के सामने अफरातफ़री का माहौल है। पुलिस का सिपाही हाथ में डंडा ले कर लोगों को हटा रहा है। पर लोगों को हटाते हटाते अनायास ही बगल की बेंच पर झुक गया है। एक गोली उसके पेट के पास लगी है। जिन लोगों को वो वहाँ से हटा रहा था वही उसे कंधे पर ले कर किसी गाड़ी से उसे हॉस्पिटल भिजवाने का इंतजाम कर रहे हैं। एक तरफ AK47 की अंधाधुंध फायरिंग है तो दूसरी ओर ये पुलिसिया डंडा ! क्या इस नाइंसाफ़ी का जवाब किसी के पास है?



......एक घंटा बीत चुका है। ताज पर पुलिस की और टुकड़ियाँ हथियारो समेत आ गई हैं। उन्हें बस इतना बताया गया है कि ताज में कुछ आतंकवादी घुसे हैं। आतंकवादी कितने हैं, कहाँ छुपे हैं पता नही? पर जैसे ही ये सिपाही अपनी पोजीशन लेने के लिए गाड़ी से उतरते हैं ऊपर से गोलियों की बौछार शुरु हो जाती है। हमारे सिपाहियों को अपने शत्रुओं के बारे में कुछ भी नहीं पता है पर वे संख्या में इतने कम होते हुए भी सारी गतिविधियाँ देख पा रहे हैं। अगले छः घंटों में जब तक NSG कमांडो को कमान सौंपी जाती है तो भी कोई रणनीति नहीं बन पाई है और ना आतंकियों की स्थिति के बारे में जानकारी में इजाफ़ा हुआ है। संभवतः यही वो समय रहा होगा जब गोलीबारी से घायल लोग दम तोड़ रहे होंगे। सहज प्रश्न उठता है कि क्या हमारी पुलिस जिस पर मुंबई की सुरक्षा की पहली जिम्मेदारी है, क्या इस तरह की स्थिति से निपटने के लिए प्रशिक्षित है?


.....वीटी पर तबाही मचाने के बाद आतंकी कामा हॉस्पिटल की ओर चल पड़े हैं। खबर मिलती है कि वहाँ से एक जिप्सी उड़ा ली गई है। मीडिया उस जिप्सी को आते हुए दिखा रहा है। कैमरामैन पुलिस की जिप्सी समझकर उस पर फोकस करता है। पर ये क्या उसकी खिड़कियों से गोलियाँ निकलती दिख रही हैं। जिप्सी कुछ देर में ओझल हो जाती है पर कैमरा जेसे ही अगल बगल घूमता है सड़क पर लाशें गिरी दिखती हैं। एक व्यक्ति सड़क पार से अपने मित्र को बुला रहा है,पर तभी वो खुद भी गोलियों का शिकार हो जाता है। ए टी एस प्रमुख हेमंत करकरे और उनके साथियों को इन्हीं भागते आतंकवादियों ने गोली से छलनी कर दिया है। रात के दो बज गए हैं पर इस खबर को सुन कर मन और बुझ सा गया है।


हेमंत करकरे वहीं हैं जो मालेगाँव के बम धमाकों की जाँच कर रहे थे। कैसी विडंबना और बेशर्मी है कि हमारा प्रमुख विपक्षी दल जो इस जाँच की सत्यता पर सवालिया निशान उठा रहा था आज इस वीर की विधवा को मुआवज़ा देने की बात कर रहा है। हाल के बम धमाकों के बाद मुठभेड़ में दिल्ली में भी जब हमारे जवान शहीद हुए थे तो दूसरे दल अपनी राजनीतिक गोटी सेंकने में पीछे नहीं रहे थे। और प्रदेश के गृह मंत्री की तो बात ही क्या कुछ ही दिनों पहले बिहार से गए एक दिग्भ्रमित छात्र को मारने के बाद उन्होंने बयान दिया था कि मु्बई में गोली का जवाब गोली से दिया जाएगा। आज जब असल के आतंकियों की गोलियों से लड़ने की उनकी तैयारी की पोल खुल गई है तो उनका बयान हे कि ऍसे छोटे मोटे हादसे तो होते ही रहते हैं। क्या कहा जाए ऍसे लोगों के बारे में जिनमें ना नेतृत्व की कूवत है ना किसी तरह की मानवीय संवेदनाओं की समझ। दरअसल, आज मुंबई सँभली है तो अपने जांबाज सिपाहियों की वज़ह से नहीं तो इससे भी बुरे परिणाम हमारे सामने रहते।

पक्ष और विपक्ष के नेताओं में इतनी गंभीर समस्याओं से लड़ने की ना इच्छा शक्ति है ना कोई सोची समझी रणनीति। मीडिया भी मूल प्रश्नों को पीछा करते रहने की जगह टीआरपी के चक्करों में उलझ जाता है। आम आदमी के पास मतदान एक हथियार है पर वो किसको वोट दे? दूर दूर तक कोई ऍसा नेतृत्व नज़र नहीं आता जिसके पास इन परिस्थितियों से निबटने के लिए कोई दिशा हो,कोई दूरदृष्टि हो।

पर हम दबाव जरूर डाल सकते हैं कि कम से कम सुरक्षा के सवाल पर हमारे नेता एक सुर में बात करें। जिस तरह हर प्रदेश के नेता विकास को मुद्दा बनाने पर मज़बूर हुए हैं उसी तरह सुरक्षा भी एक मुद्दा बने। आतंकवाद से निबटने के लिए पुलिस और सुरक्षा बलों के हाथ खोलने होंगे,राजनैतिक दबावों से मुक्त कर उन्हें काम करने देना होगा, उनका संख्या बल बढ़ाना होगा,उन्हें हथियार देने होंगे और प्रशिक्षित करना होगा। पर इतना करने से बात बन जाएगी ये भी नहीं है। हमें अपना घर भी सँभालना होगा, भारत के सारे लोगों को एक जुट करना होगा। और ये हम आप कर सकते हैं। सांप्रादायिकता, क्षेत्रीयता और जातीयता से नफ़रत फैलाने वाले नेताओं का बहिष्कार कीजिए। इन नेताओं के बहकावे में आने से पहले हमें ये सोचना होगा कि ये जो कह रहे हैं वो सारे देश के लिए सही है या नहीं। हमारे वीर शहीदों की कुर्बानी हम यूँ नहीं भूल सकते, हमें आपने आप से हमेशा ये पूछते रहना होगा।
इक लौ इस तरह क्यूँ बुझी मेरे मौला ?
इक लौ जिंदगी की मौला
?



वक़्त के साथ ये प्रश्न मेरे ज़ेहन से दूर ना हो इसलिए इसे मैंने 'आमिर' फिल्म के इस गीत को अपनी रिंग टोन बना लिया है। क्या आप भी इस प्रश्न को अपने दिलो दिमाग के करीब रखना नहीं चाहेंगे?

शुक्रवार, नवंबर 28, 2008

जल्लाद की डॉयरी : जनार्दन पिल्लै की आपबीती को कहता शशि वारियर का एक उपन्यास

पिछली पोस्ट में आपने जाना फाँसी की प्रक्रिया और उसे देने वाले जल्लाद की मानसिक वेदना के बारे में जो तथाकथित पाप की भागीदारी की वज़ह से उसके हृदय को व्यथित करती रहती थी। जैसा कि पूनम जी ने पूछा हे कि
क्या जल्लाद ने ऍसी फाँसी के बारे में भी लिखा है जहाँ उसे पता हो कि व्यक्ति निर्दोष था?

नहीं...नहीं लिखा, अगर कोई व्यक्ति निर्दोष रहा भी हो तो उसका पता जनार्दन को कैसे चलता? जनार्दन पिल्लै के सामने जो भी क़ैदी लाए गए उनके अपराधों की फेरहिस्त जेलर द्वारा जल्लाद को बताई जाती थी और यही उसकी जानकारी का एकमात्र ज़रिया होता। पर जनार्दन जानता था कि इनमें से कई क़ैदी ये मानते थे कि जिनकी उन्होंने हत्या की वो वास्तव में उसी लायक थे।

हाँ, एक बात और थी जो जल्लाद को अपराध बोध से ग्रसित कर देती थी।
और वो थी लीवर घुमाने के बाद भी देर तक काँपती रस्सी.....।

रस्सी जितनी देर काँपती रहती है उतनी देर फाँसी दिया आदमी जिंदगी और मौत के बीच झूलता रहता था। कई बार इस अंतराल का ज्यादा होना जल्लाद द्वारा रस्सी की गाँठ को ठीक जगह पर नहीं लगा पाने का द्योतक होता और इस भूल के लिए जल्लाद को अपना कोई प्रायश्चित पूर्ण नहीं लगता। आखिर उसे मृत्यु को सहज बनाने के लिए ही पैसे मिलते हैं ना?

अपनी कहानी लिखते समय जनार्दन याद करते हैं कि जब जब वो फाँसी लगाने के बाद इस मनोदशा से व्यथित हुए दो लोगों ने उन्हें काफी संबल दिया। एक तो उनके स्कूल के शिक्षक 'माष' और दूसरे मंदित के हम उम्र पुजारी 'रामय्यन'। इन दोनों ने जनार्दन को बौद्धिक और धार्मिक तर्कों से जल्लाद के दर्द को कम करने की सफल कोशिश की।
माष कहा करते - तुम तो मानव पीड़ा को कम करने के बारे में सोचते हो, पर वहीं हमारे पूर्वज पीड़ा पहुँचाने में हद तक आविष्कारी थे। उस काल की सबसे वीभत्स प्रथा का जिक्र करते हुए शशि वारियर लिखते हैं हैं।

"....लगभग एक इंच के अंतर वाली लोहे की सलाखों का बना हुआ बदनाम कषुवनतूक्कु पिंजरा था। क़ैदी को इस संकरे पिंजरे में बंद कर देते थे और उसे धूप में छोड़ देते जहाँ गिद्ध आते। गिद्ध हरकत का इंतज़ार करते पर कुछ देख ना पाते, क्योंकि पिंजरे के भीतर आदमी हरकत नहीं कर सकता था। वह चीख़ भी नहीं सकता था , क्योंकि वो उसका मुँह बाँध देते थे। जब वे उसे धूप में छोड़ देते थे, तो जल्द ही गिद्ध मँडराने लगते। वे झिरी के बीच से भारी चोंच डालकर उसे नोचते और उसके मांस के रेशे फाड़ते जाते। तब तक, जब तक वह मर नहीं जाता।...."

मूल विषय के समानांतर ही लेखक और जनार्दन के बीच पुस्तक को लिखने के दौरान आपसी वार्त्तालाप का क्रम चलता रहता है जो बेहद दिलचस्प है। लेखन उनकी भूली हुई यादों को लौटाता तो है पर उन स्मृतियों के साथ ही दर्द का पुलिंदा भी हृदय पर डाल देता है। जनार्दन को ये भार बेहद परेशान करता है। पर जब वो अपने अपराध बोध को सारी बातों के परिपेक्ष्य में ध्यान में रखकर सोचते हैं तो उन्हें अंततः एक रास्ता खुलता सा दिखाई देता है, जिसे व्यक्त कर वो अपने आपको और हल्का महसूस करते हैं।

अपनी कहानी पूरी करने पर वो पाते हैं कि इस किताब ने उनके व्यक्तित्व को ही बदल कर रख दिया। अब वे दोस्तों के साथ व्यर्थ की गपशप में आनंद नहीं पाते और ना ही दारू के अड्डे में उनकी दिलचस्पी रह जाती है। कुल मिलाकर लेखक से उनका जुड़ाव उनमें धनात्मक उर्जा का संचार करता है। इसलिए पुस्तक खत्म करने के बाद अपने आखिरी पत्र में बड़ी साफगोई से लेखक के बारे में वे लिखते हैं

"...मैं नहीं जानता कि आपसे और क्या कहूँ? गुस्से और झगड़ों के बावजूद आपका पास रहना मुझे अच्छा लगता था। इसे स्वीकार करना मेरे लिए बहुत कठिन है, यद्यपि आप मुझसे आधी उम्र के हैं और आपका दिमाग बेकार के किताबी ज्ञान से भरा है, फिर भी मैंने आपसे कुछ सीखा है। मैं आशा करता हूँ कि आप वह सब पाएँ जिसकी आपको तालाश है और जब आप उसे प्राप्त कर लें तो यह भी पाएँ कि वह उतना ही अच्छा है जितनी आपने आशा की थी। आप बुरे आदमी नहीं हैं, यद्यपि आपको बहुत कुछ सीखना है।

आपका मित्र और सहयोगी मूर्ख लेखक
जनार्दन पिल्लै, आराच्चार ....."


सच कहूँ तो ये साफगोई ही इस पुस्तक को और अधिक दिल के करीब ले आती है। लेखक ने उपन्यास की भाषा को सहज और सपाट रखा है और जहाँ तो हो सके एक आम कम पढ़े लिखे व्यक्ति की कथा को उसी के शब्दों में रहने दिया है। २४८ पृष्ठों और १७५ रु मूल्य की इस किताब से एक बार गुजरना आपके लिए एक अलग से अहसास से पूर्ण रहेगा ऍसा मेरा विश्वास है।

इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं

असंतोष के दिन, गुनाहों का देवता, कसप, गोरा, महाभोज, क्याप, एक इंच मुस्कान, लीला चिरंतन, क्षमा करना जीजी, मर्डरर की माँ, दो खिड़कियाँ, हमारा हिस्सा, मधुशाला,
मुझे चाँद चाहिए, कहानी एक परिवार की

सोमवार, नवंबर 24, 2008

जल्लाद की डॉयरी : फाँसी लगाने वाले की मनःस्थिति को व्यक्त करता एक अनूठा उपन्यास


आपने मृत्यु को क्या बिल्कुल नजदीक से देखा है? या कभी ये सोचा है कि जब आप किसी को बिना विद्वेष के मार दें तो उसके बाद आपकी क्या मनःस्थिति होगी। कैसा लगता है जब आम जिंदगी में लोग आपको और आपके पेशे को एक तरह के खौफ़ से देखते हैं। एक आम जन के लिए ये सवाल बेतुके और बेमानी से लगेंगे। पर जब बात एक पेशेवर जल्लाद की हो तो ये प्रश्न बेहद प्रासंगिक हो उठते हैं।
इन्ही प्रश्नों को लेकर केरल के एंग्लोइंडियन उपन्यासकार शशि वारियर पहुँच जाते हैं जनार्दन पिल्लै के पास, जिन्होंने त्रावणकोर के राजा के शासन काल और उसके उपरांत में तीन दशकों में ११७ फाँसियाँ दीं थीं। लेखक ने इस उपन्यास में उन सारी बातों को बिना लाग लपेट पाठकों तक पहुँचाने की कोशिश की है जिसे जनार्दन ने अपनी सोच और समझ के हिसाब से लेखक द्वारा दी गई कापियों में लिखा और अपने मरने के पहले लेखक को सौगात के रूप में छोड़ गया।

ये पुस्तक सबसे पहले १९९० में Hangman's Journal के नाम से अंग्रेजी में प्रकाशित हुई और इसका हिंदी संस्करण पहली बार पेंगुइन बुक्स ने यात्रा बुक्स के सहयोग से २००६ में निकला। इस संस्करण का अंग्रेजी से अनुवाद कुमुदनि पति ने किया है। इस उपन्यास का विषय कुछ ऍसा है जो ना चाहते हुए भी आपको ये सोचने के लिए मजबूर कर देता है कि फाँसी के समय जान जाने वाले और लेने वाले की क्या दशा होती है। पर उस बारे में बाद में बात करते हैं पहले ये बताइए कि फाँसी लगने की बात कहते हुए क्या आपने कभी सोचा है कि वास्तव में ये प्रक्रिया है क्या? पर लेखक पाठक को इस दुविधा में ज्यादा देर नहीं रखते और उपन्यास का आगाज़ कुछ यूं करते हैं...

"......इसे पतन कहते हैं
इसके लिए जेलरों के पास एक लघु तालिका होती है, यह बताने के लिए कि अपराधी व्यक्ति गर्दन में लगे फंदे सहित कितनी दूरी तक गिरे जिसे उसका काम सफाई से तमाम हो। विशेषज्ञों का कहना है कि उसे उतना ही गिरना चाहिए कि उसके वेग से रस्सी उसकी गर्दन तोड़ दे। यदि शरीर अधिक दूर गिरता है तो रस्सी उसकी गर्दन में धँस जाती है और बहुत संभव है कि सिर को अलग कर दे। यदि शरीर पर्याप्त दूरी पर नहीं गिरता है तो गर्दन नहीं टूटेगी और व्यक्ति को दम घुटकर मिटने में कुछ मिनट लगेंगे।..."
जनार्दन अपने संस्मरण में कई बार फाँसी देने के पहले होने वाली क़वायद का जिक्र करते हैं। फाँसी के तख्ते का परीक्षण पहले बिना वज़न के और फिर वज़न के साथ किया जाता है। जल्लाद का सबसे प्रमुख कार्य होता है रस्सी की गाँठ को सही जगह लगाना। गाँठ सही जगह लगी तो गर्दन तुरंत टूटती है वर्ना क़ैदी की दम घुटकर धीरे धीरे मौत होती है। पुराने ज़माने में रस्सी खुद जल्लाद तैयार करता था। रस्सी का उस हिस्से को चिकना रखने के लिए जो गर्दन को छूता है, मक्खन या रिफांइड तेल का इस तरह इस्तेमाल होता था कि मक्खन रस्सी के रेशों में पूरी तरह समा जाए। अब तो नर्म कपास का प्रयोग होने लगा है।

तख्ता, लीवर, रस्सी की जाँच के बाद लीवर छोड़ा जाता है तो तख्ता नीचे दीवार से लगी पैडिंग से टकराता है जो आवाज़ को कम करने के लिए लगाया गया होता है। परीक्षण हो चुका है। सब कुछ सहजता से सम्पन्न होने के बाद भी जनार्दन असहज महसूस कर रहे हैं। वे जानते हैं कि आज की रात फाँसी लगने के पहले वाली रात कोई क़ैदी उनसे आँखें नहीं मिलाएगा। उस रात जनार्दन खुद से सवाल पूछते हैं

"..मौत को जीवन से सहज बनाने के लिए हम अपने जीवन का इतना समय क्यूँ लगा देते हैं? .."

पर ये किताब फाँसी की प्रक्रिया से कहीं ज्यादा फाँसी देने वाले के अन्तर्मन में झाँकती है और यही इस उपन्यास का सबसे सशक्त पहलू भी है। किसी को मारना चाहे वो आपकी ड्यूटी का हिस्सा क्यों ना हो मानसिक रूप से बेहद यंत्रणा देने वाला होता है। और जनार्दन इस यंत्रणा से हर फाँसी के बाद डूबते उतराते हैं। क्यों ये पेशा चुना उन्होंने? पेट पालने के लिए इसके आलावा कोई चारा भी तो नहीं था। मन को समझाते हैं। आखिरकार वे राजा के निर्णय का पालन भर कर रहे हैं। वो राजा जिसे धरती पर भगवान का दूत बनाकर भेजा गया है। पर कुछ सालों के बाद जब जनार्दन स्कूल के समय के अपने पुराने शिक्षक से मिलते हैं तो वे राजा के भी एक सामान्य इंसान होने की असलियत से वाकिफ़ होते हैं और उनके दिल पर हत्या का बोझ हर फाँसी के बाद बढ़ता चला जाता है।

पर किसी की जान लेने के पाप से बचने का डर सिर्फ जल्लाद की परेशानी का सबब नहीं था,. खुद राजा भी इस पाप के भागीदार नहीं बनने के लिए एक अलग तरह की नौटंकी को अंजाम देते थे। लेखक ने इस दिलचस्प प्रकरण का खुलासा अपनी पुस्तक में किया है।
हर मृत्युदंड के ठीक पहले वाले दिन दोपहर तक उसकी क्षमा याचना की अर्जी राजा के पास पेश की जाती थी। राजा शाम को फाँसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल देते पर उनके इस निर्णय को अमल में लाने के लिए उनका हरकारा सूर्योदय के बाद निकलता ताकि जब तक वो जेल तक पहुँचे, फाँसी लग चुकी हो। पता नहीं राजा ऍसा करके किसको छलावा देते थे पर बेचारा जल्लाद क्या करता उसके पास तो इन छलावों की ढाल भी नहीं थी। इसलिए तो उन दी गई फाँसियों के बारे में जनार्दन सोचना नहीं चाहता। उसे लेखक पर क्रोध आता है कि क्यों उनके चक्कर में पड़ा। पर सोचना पड़ता है चेतन मन में ना सही तो अचेतन स्वप्निल मन से....

".मैं पहले सीढ़ियाँ देखता हूँ, बेतरतीब पत्थर की सीढ़ियाँ, जो फाँसी के तख्ते के नीचे बने अँधेरे कुएँ की ओर जाती हैं। .............फाँसी के तख़्ते पर, फंदे के ठीक नीचे नकाब पहने आदमी खड़ा है। उसकी धारीदार पोशाक कड़क ओर ताजा है। वह नक़ाब कुछ अज़ीब सा है।........ सुदूर ढोल की आवाज़ तेज होती है और मैं समझ जाता हूँ कि क्या गड़बड़ी है। नक़ाब अधिक चपटा सा है। कम से कम वो उठा हुआ हिस्सा होना चाहिए , जहाँ आदमी की नाक उठती है। ....अंतरदृष्टि से एक पल में जान लेता हूँ कि नकाब के पीछे कोई चेहरा नहीं है। नक़ाब ही चेहरा है। भय गहरा होता जाता है . मुझे यहाँ से किसी तरह बच निकलना है। वह लोहे का दरवाज़ा मुझसे लगभग तीस फुट दूर है पर मैं दौड़ नहीं पा रहा हूँ। मैं बहुत तकलीफ़ के साथ धीरे धीरे दरवाज़े तक पहुँचता हूँ, पर यह क्या? दरवाज़े पर भारी ताला पड़ा है जिसे मैं हिला नहीं सकता।
किसी पूर्वाभास के चलते मुड़ता हूँ। वहाँ चपटे नक़ाब वाला आदमी दिखता है, उसके हाथ पैर पूरी तरह मुक्त हैं। मैं अपनी गर्दन के इर्द गिर्द उसके मज़बूत हाथों को कसता हुआ महसूस करता हूँ। मैं सांस नहीं ले पा रहा
... मैं आँखें बंद करने की कोशिश करता हूँ ताकि उसका चपटा सा नक़ाब मेरी आँखों से ओझल हो जाए, पर लाख चाहकर भी ये संभव नहीं हो पाता। जैसे जैसे अपने घुटनों पर धसकता जाता हूँ मुझे मालूम होता है कि मेरी छाती के भीतर दिल फट जाएगा।..."

जनार्दन ऍसे स्वप्न से अचानक जाग उठे हैं। पर अपनी पुरानी यादों को ताज़ा करने के क्रम में ये स्वप्न और भयावह होते जाते हैं। आखिर कौन सा अपराध बोध उन्हें सालता है और उससे निकलने के लिए वे किस तरह अपने आपको मानसिक रूप से तैयार करते हैं ? इन बातों से जुड़ी इस रोचक और एक अलग तरह के उपन्यास की चर्चा जारी रहेगी अगली कड़ी में ...
इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं

बुधवार, नवंबर 19, 2008

सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने : फिल्म 'ज़ुबैदा' का एक संवेदनशील गीत

सन २००० में एक फिल्म आई थी ज़ुबैदा जिसमें करिश्मा कपूर का अभिनय श्याम बेनेगल के निर्देशन में निखर कर सामने आया था। पर इस फिल्म की एक और खासियत थी और वो थी जावेद अख्तर के खूबसूरत बोलों पर दिया गया ए आर रहमान का बेहतरीन संगीत। यूँ तो इस फिल्म के तमाम गीत बेहतरीन थे पर एक नग्मा जरूर अपने मूड में बाकी गीतों से अलहदा सा था। वैसे भी उदास नग्मे, दिल के कोनों में अक्सर ज्यादा दिन तक कब्जा जमा लेते हैं इसलिए ज़ुबैदा के गीतों को जब याद करता हूँ तो यही गीत मन में सबसे पहले उभरता है....

ख्वाहिशों की चिता में अगर आग लग जाए तो क्या होगा ? सारे अरमान राख ही तो हो जाएँगे । पर उस राख के बीच सुलगती हल्की सी चिंगारी को कोई नाउम्मीद कैसे करे ? उसे तो हमेशा ही आशा रहती है हवा के एक झोंके की जो शायद कभी उस चिंगारी को धधकती ज्वाला का रूप दे जाए।

कुछ ऍसे ही अहसास जगा जाता है लता जी का गाया ये गीत ...

मुखड़े के पहले रहमान जिस धुन से इस गीत का आगाज़ करते हैं वो पूरे गीत की उदासी को अपने में समाहित करती सी चलती है। और इंटरल्यूड्स में दिया गया संगीत इस मायूसी को हम तक बहा कर ले आता है।

वहीं दमित संकुचित इच्छाओं को जावेद अख्तर जब इस ढ़ंग से उभारते हैं

दिल में इक परछाई है लहराई सी
आरज़ू मेरी है इक अंगड़ाई सी
इक तमन्ना है कहीं शरमाई सी


तो मन वाह वाह किए बिना नही रह पाता !

तो आइए सुनें रहमान, जावेद और लता जी का ये सम्मिलित शानदार प्रयास



सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने
सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने
कोई तो आता फिर से कभी इनको जगाने

सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने
सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने

साँस भी लेती हैं जो कठपुतलियाँ
उनकी भी थामें हैं कोई डोरियाँ
आँसुओं में भीगी ये खामोशियाँ

सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने
सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने

दिल में इक परछाई है लहराई सी
आरज़ू मेरी है इक अंगड़ाई सी
इक तमन्ना है कहीं शरमाई सी

सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने
सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने


शुक्रवार, नवंबर 14, 2008

मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था, सर ए बज़्म रात ये क्या हुआ : नैयरा नूर / इकबाल अज़ीम

बहुत दिनों पहले एक ग़ज़ल पढ़ी थी और उसे उतारा था अपनी डॉयरी में। पर इसके शायर का नाम पता नहीं था। पर कुछ ही दिन पहले कहीं पड़ा कि इसे लिखा है पाकिस्तान के मक़बूल शायर इकबाल अज़ीम साहब ने। साथ ही ये भी जानकारी मिली कि इसके के कुछ हिस्से को गाया है पाकिस्तान की मशहूर ग़ज़ल गायिका नैयरा नूर ने। अब इकबाल अज़ीम के बारे में तो मुझे भी ज्यादा मालूम नहीं पर उनकी पढ़ी इस ग़ज़ल का ये वीडिओ मिला तो सोचा शायर की पहचान के लिए इस ग़ज़ल को सुनाने के पहले ये वीडियो दिखाना मुनासिब रहेगा



वैसे बड़े कमाल के अशआर हैं इस ग़जल के। अब मतले पर गौर करें तो आप पाएँगे कि कितनी बार आपके साथ खुद ऍसा हो चुका होगा कि लाख आपने अपनी भावनाओं पर काबू करने की कोशिश की होगी, पर ना चाहते हुए भी किसी के सामने आँसुओं का सैलाब बह निकला होगा। इसी बात को शायर किस खूबसूरती से कहते हैं

मुझे अपने ज़ब्त पे नाज था, सर ए बज़्म रात ये क्या हुआ
मेरी आँख कैसे छलक गई, मुझे रंज है ये बुरा हुआ

बाकी की ग़ज़ल को पढ़ें और फिर सुनें नैयरा नूर की खूबसूरत अदाएगी, खुद बा खुद इस ग़ज़ल के रंग में रंग जाएँगे

मेरी जिंदगी के चराग का ये मिज़ाज कोई नया नहीं
अभी रोशनी, अभी तीरगी1, ना जला हुआ ना बुझा हुआ
1.अँधेरा

मुझे जो भी दुश्मन ए जाँ मिला वही पुख्ता कार जफ़ा 2 मिला
ना किसी की ज़र्ब हलक पड़ी 3 ना किसी का तीर खता हुआ
2. क्रूरता की हद, 3. वार गलत होना

मुझे आप क्यूँ ना समझ सके कभी अपने दिल से पूछिए
मेरी दास्तान ए हयात4 का है वर्क5 वर्क खुला हुआ

4.जिंदगी की किताब, 5. पन्ना,

जो नज़र बचा के गुजर गए मेरे सामने से अभी अभी
ये मेरे ही शहर के लोग थे, मेरे घर से घर है मिला हुआ

हमें इस का कोई हक़ नहीं कि शरीक ए बज्म खुलूस हों
ना हमारे पास नक़ाब है, ना कुछ आस्तीं में छुपा हुआ

मेरे एक गोशा ए फिक्र 6 में मेरी जिंदगी से अज़ीज़ तर
मेरा एक ऍसा भी दोस्त है, जो कभी मिला ना जुदा हुआ

6.दिमाग एक कोने में

मुझे एक गली में पड़ा हुआ, किसी बदनसीब का खत मिला
कहीं खून ए दिल से लिखा हुआ, कहीं आँसुओं से मिटा हुआ

मुझे हमसफ़र भी मिला कोई तू शिकस्ता हाल मेरी तरह
कई मंजिलों का थका हुआ, कहीं रास्ते में लुटा हुआ

हमें अपने घर से चले हुए सर ए राह उम्र गुजर गई
कोई जुस्तज़ू का सिला मिला, ना सफ़र का हक़ अदा हुआ



शनिवार, नवंबर 08, 2008

रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम : सुनिए हसरत मोहानी की ये दिलकश ग़ज़ल


'कहकशाँ' में जगजीत सिंह ने तमाम शायरों की बेमिसाल ग़ज़लों को बड़े दिल से अपनी आवाज़ से सँवारा है। इसमें एक ग़ज़ल थी उन्नाव के पास 'मोहान' में जन्में सैयद फ़ज़ल उल हसन साहब की जिन्हें ये दुनिया मौलाना हसरत मोहानी साहब के नाम से ज्यादा जानती है। मौलाना विभाजन के बाद में भी भारत में ही रहे और मई १९५१ में लखनऊ में उनका इंतकाल हुआ


तो आइए देखें क्या कहना चाहा है शायर ने अपनी इस रूमानी सी ग़ज़ल में

रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम


हैरत ग़ुरूर-ए-हुस्न से शोखी से इज़्तराब
दिल ने भी तेरे सीख लिये हैं चलन तमाम


तुम्हारे इस रूप से पूरी महफिल गुलशन हो गई है ठीक वैसे ही जैसे सुर्ख दहकते फूल पूरे बगीचे को रौशन कर देते हैं। पर मुझे हैरत होती है तेरे हुस्न का गुरूर देख...घबरा जाता हूँ तेरी इस मदमस्त चंचलता से। अब तो लगता है कि ज़माने के रंग ढंग देख तूने भी अपने सलीके बदल लिए हैं।

अल्लाह रे जिस्म-ए-यार की खूबी के ख़ुद-ब-ख़ुद
रंगीनियों में ड़ूब गया पैरहन तमाम


देखो तो चश्म-ए-यार की जादू निगाहियाँ
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम


और तेरी खूबसूरती के बारे में क्या कहूँ तुम्हारे शरीर से लिपटकर सारे लिबास और भी दिलकश लगने लगते हैं। रही बात तुम्हारी आँखों की, तो तुम्हारी हसीन नज़र के एक वार से तो पूरी महफ़िल ही बेहोश हो जाए

शिरीनी-ए-नसीम है सोज़-ओ-ग़ुदाज़-ए-मीर,
‘हसरत’ तेरे सुख़न पे है लुत्फ़-ए-सुख़न तमाम


और मक़्ते में तो मौलाना हसरत मोहानी अपनी पीठ ठोकने का लोभ संवरण नहीं कर पाते। पहले तो मीर की शायरी में वो हवा की सी मिठास, दर्द और कोमलता का जिक्र करते हैं और फिर ये कहने से भी नहीं चूकते कि मेरी शायरी सुने बिना शायरी का पूरी तरह लुत्फ़ उठाना संभव नहीं है।

जगजीत ने इस ग़ज़ल के सिर्फ तीन अशआरों को इस एलबम में इस्तेमाल किया है। वहीं प्रसिद्ध सूफी गायिका आबिदा परवीन ने अपने अलग निराले अंदाज में अपने एलबम रक़्स ए बिस्मिल में इस ग़ज़ल को अपना स्वर दिया है तो आइए पहले सुने जगजीत सिंह को



और ये रहा आबिदा परवीन वाला वर्सन


एक शाम मेरे नाम पर जगजीत सिंह और कहकशाँ 

सोमवार, नवंबर 03, 2008

अनिल कुंबले - क्रिकेट के प्रति पूर्णतः कटिबद्ध इस जीवट खिलाड़ी के खेल जीवन से जुड़े वो यादगार पल...

अनिल कुंबले ने कल दिल्ली टेस्ट के आखिरी दिन प्रथम श्रेणी क्रिकेट से संन्यास ले लिया। नब्बे के दशक से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले अनिल के १८ वर्षों के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के सफ़र का मैं साक्षी रहा हूँ। इस दौरान भारत ले लिए दिया गया उनका योगदान किसी भी हिसाब से सुनील गावस्कर और कपिल देव से कमतर नहीं है, ऐसा मेरा मानना है।


कुंबले का नाम आते ही एक ऐसे खिलाड़ी की शक्ल ज़ेहन में उभर कर आती है जिसने हमेशा टीम के हित को सर्वोपरि रखा। ये खिलाड़ी जब भी मैदान में उतरा अपना सर्वस्व झोंक कर आया। इसलिए अंतिम टेस्ट के लिए जैसे ही कुंबले को ये लगा कि शारीरिक रूप से वो पूर्णतः सक्षम नहीं हैं, उसने इस श्रृंखला के बीच में ही ये निर्णय ले लिया कि अलविदा कहने का वक़्त आ गया है।


अनिल को 'जंबो' की उपमा उनकी तेज गति से फेकी जाने वाली फ्लिपर (Flipper) की वज़ह से ही नहीं मिली बल्कि इसमें उनके जंबो साइज पाँवों का भी हाथ रहा :)। अनिल मेरे हमउम्र तो हैं ही, साथ ही वो हमारी जात बिरादिरी वाले भी हैं। चौंक गए ! अरे जनाब मेरे कहने का मतलब ये था कि वो भी एक यांत्रिकी यानि मेकेनिकल इंजीनियर (वो भी Distinction Holder) हैं। अब ये अलग बात है कि अपने चुस्त दिमाग का प्रयोग उन्होने क्रिकेट के मैदान में अपनी गेंदों की लेंथ, गति और फ्लाइट के बदलाव में दे डाला और तभी तो १३२ टेस्ट में ६१९ विकेट झटक डाले।

जितने मैचों में उन्होंने भारत को अपनी गेंदबाजी के बल पर जिताया है वो उनसे ज्यादा नामी खिलाड़ियो से कहीं अधिक है। वैसे तो कितने ही मौके हैं जो कुंबले ने तमाम भारतीयों के लिए यादगार बना दिए पर आज इस महान खिलाड़ी की विदाई के समय उनमें से कुछ पलों को आपसे फिर बाँटना चाहूँगा जिसे याद कर मन आज भी बेहद रोमांचित हो उठता है।


फरवरी १९९९, फिरोजशाह कोटला, दिल्ली

पाकिस्तान की टीम को जीतने के लिए अंतिम पारी में ४०० से ऊपर रन बनाने हैं। जीत असंभव है बस मैच बचाने की जुगत है। पहले स्पेल में अनिल भी कुछ खास नहीं कर पाते हैं। स्कोर १०१ तक जा पहुँचता है वो भी बिना कोई विकट खोए। पर अनिल का दूसरा स्पेल पाकिस्तानी बल्लेबाजों के लिए प्राणघातक साबित होता है। अफ़रीदी, सईद अनवर , इज़ाज अहमद, सलीम मलिक, इंजमाम जैसे धुरंधर बल्लेबाज कुंबले के शिकार बनते चले जाते हैं। हालत ये है कि सक़लीन मुश्ताक का जब नौवाँ विकेट गिरता है तो श्रीनाथ कोशिश करते हैं कि वो गलती से आखिरी विकेट ना ले जाएँ। वसीम अकरम के आउट होते ही भारत को मिलती है एक जबरदस्त जीत और कुंबले को एक ऍसा व्यक्तिगत मुकाम जिसे क्रिकेट इतिहास में सिर्फ एक और बार ही संपादित किया गया हो। तो आइए फिर से महसूस करें खुशी के उन पलों को और देखें कुंबले ने कैसे किए थे अपने ये दस शिकार


जब मैं बंगलोर गया था तो एम जी रोड के पास अनिल कुंबले के नाम का वो चौक भी दिखाई पड़ा था जो कर्नाटक सरकार ने उनकी इस उपलब्धि के उपहार स्वरूप दिया था।

मई २००२, एंटीगुआ
भारत और वेस्ट इंडीज के बीच एंटीगुआ में चौथा टेस्ट मैच चल रहा है। वेस्ट इंडीज के तेज गेंदबाज मरविन डिल्लन एक बाउंसर फेंकते हैं। अनिल इससे पहले कि गेंद की लाइन से अपने आप को हटा पाएँ गेंद उनके गाल पर जा लगती है। शुरु में तो ऍसा लगता है कि सिर्फ बाहरी कटाव है पर जब रात में दर्द बढ़ता है तो पता लगता है कि जबड़े में ही क्रैक है। पर जुझारुपन और जीवटता की मिसाल देखिए, चौथे दिन के खेल में सिर पर बैंडेज बाँधे ये खिलाड़ी मैदान पर उतरता है और लारा जैसे महान बल्लेबाज को आउट करने में सफल हो जाता है।


अगस्त २००७, क्वीन्स पार्क, ओवल

ओवल में दूसरा टेस्ट इंग्लैंड और भारत के बीच खेला जा रहा है। रनो का अंबार लग रहा है। धोनी की आतिशी पारी का अनायास अंत हुआ है और मैदान में कुंबले हैं। लग रहा है भारत की पारी जल्दी ही सिमट जाएगी क्यूंकि दूसरे छोर पर श्री संत हैं जिनका टेंपरामेंट जगजाहिर है। पर अपनी टेस्ट जीवन की १५१ वीं पारी में कुंबले पूरे फार्म में हैं। तेंदुलकर की तरह ही कवर ड्राइव लगा रहे हैं। और ये क्या अब तो वो अपने पहले शतक के पास भी पहुँच गए हैं।
हमारे दिल की धड़कने बढ़ गई हैं। निचले क्रम के बल्लेबाज का शतक, ऊपरी क्रम के बल्लेबाज की तुलना में हमारे लिए हजार गुना ज्यादा महत्त्व रखता है। शतक से अब एक शाट की दूरी है पर ये गेंद तो बल्ले के निचले किनारे से निकल कर विकेट की बगल से होती हुई सीमारेखा की ओर जा रही है । वहीं कुंबले पहला रन पूरा कर दूसरे के लिए भाग रहे हैं और अब तो गिर भी पड़े हैं पर शतक पूरा हो गया है। हमारी आँखे खुशी के अतिरेक से सजल हो उठीं हैं और उधर ड्रेसिंग रूम में तो जश्न का माहौल है ही।

नवंबर २००८ फिरोजशाह कोटला, दिल्ली
कुंबले कैच लेते वक़्त फिर घायल हैं। बायें हाथ में फिर 11 टाँकें पड़े हैं फिर भी आस्ट्रेलियाई टीम को आल आउट भी करना है। हरभजन नहीं है तो मैदान में उनकी जरूरत है। इंशांत शर्मा और अमित मिश्रा जैसे युवा खिलाड़ियों से लेकर लक्ष्मण तक आसान कैच नहीं ले पा रहे। कुंबले क्षेत्ररक्षण से खुश नहीं। मिशेल जानसन सीधा कुंबले के सिर के ऊपर से गेंद को उठाते हैं। पर कुंबले ने कॉल कर दिया है कि पीछे दौड़ते हुए भी वे ही कैच लेंगे और वो चोटिल हाथ से भी कैच पकड़ लेते हैं। हमें नहीं पता कि ये उनका अंतिम शिकार है क्यूँकि उनकी आँखों में विकेट लेने की भूख अब भी दिखती है पर ३८ साल की उम्र में शायद शरीर और साथ नहीं दे रहा।


आज ये दुख नहीं बल्कि खुशी का मौका है एक महान खिलाड़ी की विदाई का जिसने अपने विनम्र स्वभाव और खेल के प्रति अटूट कटिबद्धता से इस देश में ही नहीं बल्कि विदेशी खिलाड़ियों के बीच एक सम्मान का स्थान बनाया। आशा है अंतिम टेस्ट में भारतीय टीम कुंबले को सीरीज जीतने का तोहफा जरूर देगी।
आज इस देश को अनिल जैसे जीवट खिलाड़ियों की जरूरत है जिन्हें ना केवल अपनी काबिलियत पर भरोसा है पर अपनी प्रतिभा को तराशते रहने के लिए निरंतर मेहनत करने की इच्छा शक्ति भी है।

अनिल, अपनी पत्नी और बच्चों के साथ जीवन में खुशियाँ बटोरें ये मेरी और तमाम भारतवासियों की शुभकामना है।

गुरुवार, अक्तूबर 30, 2008

अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन : इलाही कोई हवा का झोंका, दिखा दे चेहरा उड़ा के आँचल..

एक ज़माना वो था जब आँखों की देखा देखी के लिए शापिंग मॉल और मल्टीप्लेक्स की जगह छत और घर की छोटी सी बॉलकोनी युवाओं के लिए आदर्श स्थल हुआ करती थी। मोबाइल, चैट और ई मेल की कौन कहे तब तो पत्थर से बाँध कर पड़ोसिनों की छत पर पैगाम पहुँचाए जाते थे। हाथों का हल्का इशारा, झरोखों के पर्दों से दिखती बेचैन निगाहें या फिर एक खूबसूरत सी मुस्कान सालों चलते सो कॉल्ड चक्कर की कुल जमा पूँजी हुआ करतीं थी। पर मैं इन बातों को आपको क्यों याद दिला रहा हूँ ? शायद इसलिए कि अहमद और मोहम्मद हुसैन का गाया ये नग्मा भी वैसे ही किसी ज़माने में लिखा गया होगा।

पर इससे पहले कि हुसैन बंधुओं के इस नटखट और गुदगुदाते से नग्मे को सुना जाए समय की परिधि को १४ वर्ष पहले तक समेटने का मन हो रहा है।

बात १९९४ की है....
हम तीन मित्र जो उस वक़्त एस्कार्ट्स,फरीदाबाद में कार्यरत थे एक परीक्षा देने दिल्ली में आए। परीक्षा केंद्र था IIT दिल्ली। साथ वालों में एक बंदा दिल्ली का था और दूजा मेरठ का। परीक्षा के बाद बस से हम हॉज खास (Hauz Khas) से लाजपत नगर तक आ गए थे। अब हमें वहाँ से आश्रम के रास्ते फरीदाबाद जाने वाली बस पकड़नी थी।

अब जो भी बस जा रही थीं वो पूरी तरह ठसाठस भरी हुईं।
सो करे तो क्या करें हम ?
कभी उस तेज धूप तो कभी DTC को कोस रहे थे..

कि इत्ते में दूर से एक चार्टर्ड बस आती दिखाई दी। अमूमन ऍसी बस सिर्फ अपने रोज़ के मुसाफ़िरों को ही बैठाती हैं सो उसके वहाँ रुकने की कोई आशा नहीं थी। पर बस ज्योंही पास आई कि हम सबकी नज़र उस खूबसूरत मुखड़े पर जा अटकी जो खिड़की से हम सभी की ओर ही देख रही थी। बस फिर क्या था हम सभी के मन में शरारत सूझी और सब समवेत स्वर में उसकी ओर देख के एक साथ चिल्ला उठे...

रोको! रोको! हमें इसी बस में चढ़ना है !

अब दिल्ली के बस कंडक्टर तो ऍसे ही इतने ही कठोर हृदय वाले ठहरे सो भला बस क्यूँ रुकती पर हम भी जान लगाकर बस के साथ ऍसे दौड़े कि आज तो बस में इन्ट्री ले ही लेंगे। पर दौड़ना तो एक बहाना था, बस मोहतरमा का ध्यान अपनी ओर खींचना था।

और हमारा दौड़ना व्यर्थ नहीं गया क्योंकि तोहफे में मिली हमें एक उनमुक्त सी खिलखिलाती हँसी जिसे देख कर हम निहाल हो गए :)।

जिंदगी की यादों में क़ैद ये लमहे जब भी ज़ेहन की वादियों में उभरते हैं, मन में खुशमिज़ाजी आ जाती है। और ये नग्मा जिसे अस्सी के दशक में पहली बार सुना था, बहुत कुछ ऍसा ही अह्सास दिला जाता है



वो जिंदगी में क़मर की तरह से रौशन हैं
कि उसी के अक़्स से शफ्फाक़ दिल का दर्पण है
हसीं शरीक ए सफ़र है बहुत मुबारक है
उसी के साथ तो मेरा जनम का बंधन है

इलाही कोई हवा का झोंका
दिखा दे चेहरा उड़ा के आँचल
जो झाँकता है भी वो सितमगर
वो खिड़कियों में लगा के आँचल


सुनी जो कदमों के मेरे आहट
तो जा के चुपके से सो गए वो
सो गए वो...
जो मैंने तलवों में गुदगुदाया
पलट दिया मुसकुराकर आँचल
इलाही कोई हवा का झोंका......


गुरूर ढाएगा कोई कितना
गुरूर महशत बपा करेगा
गुरूर ढाएगा ...
ये तेरा आठखेलियों से चलना
झुका के गर्दन गिरा के आँचल

इलाही कोई हवा का झोंका......

जुरूर है माज़रा ये कोई
वो रहते हैं दूर दूर हमसे
दूर दूर................
जो पास आकर भी बैठते हैं
तो हर तरफ से दबा का आँचल

इलाही कोई हवा का झोंका......

शनिवार, अक्तूबर 25, 2008

सुनो अच्छा नहीं लगता कि कोई दूसरा देखे ..क्या आप भी Possessive हैं ?

क्या आप अपने किसी प्रिय के प्रति Possessive हैं?
वैसे तो हम सभी होते हैं कभी छोटी सी किसी वस्तु के लिए तो कभी अपने किसी खास के लिए। पर ये Possessiveness कुछ ज्यादा हो जाए तो वही हाल होता है जो इस शायर का हो रहा है.... दिल की मजबूरियों को भला कौन लगाम दे सकता है।
पर ऍसा रोग ना ही लगे तो बेहतर वर्ना Possessiveness का ये कीड़ा दुख भी बहुत देता है।

इस रचना का एक हिस्सा बहुत पहले मुझे अपनी एक पोस्ट पर टिप्पणी के रूप में मिला था। जब पूरा पढ़ा तो लगा कि है तो सादी सी नज़्म पर दिल को छूती हुई इसीलिए इसे आज आप सब के साथ बाँट रहा हूँ

सुनो अच्छा नहीं लगता
कि कोई दूसरा देखे
तुम्हारी शरबती आँखें
लब ओ रुखसार1 और पलकें
सियाह लंबी घनी जुल्फें
सराहे दूसरा कोई
मुझे अच्छा नहीं लगता

सुनो अच्छा नहीं लगता
करे जब तज़किरा2 कोई
करे जब तबसरा3 कोई
तुम्हारी जात को खोजे
तुम्हारी बात को सोचे
मुझे अच्छा नहीं लगता

सुनो अच्छा नहीं लगता
तुम्हारी मुस्कराहट पर
हजारों लोग मरते हों
तुम्हारी एक आहट पर
हजारों दिल धड़कते हों
किसी का तुम पे यूँ मरना
मुझे अच्छा नहीं लगता

सुनो अच्छा नहीं लगता
हवा गुजरे तुम्हें छू कर
ना होगा ज़ब्त4 ये मुझसे
करे कोई ये गुस्ताखी
तुम्हारी जुल्फ़ें बिखर जाएँ
तुम्हारा लम्स5 पा जाएँ
मुझे अच्छा नहीं लगता

सुनो अच्छा नहीं लगता
कि तुमको फूल भी देखें
तुम्हारे पास से महकें
या चंदा की गुजारिश हो
कि अपनी रोशनी बख्शूँ
रुख ए जानां कोई देखे
मुझे अच्छा नहीं लगता

1. गाल, 2. चर्चा, 3. विस्तार से घटना का विवरण देना, 4. बर्दाश्त, 5. स्पर्श

इस नज़्म की भावनाओं को अपनी आवाज में उतारने की कोशिश की है। पढ़ते वक़्त दो जगह भूलें हुई हैं क्योंकि रिकार्डिंग के समय सही बोल मेरे पास नहीं थे बाद में जब नज़्म उतारने बैठा तो देखा कि तज़करा की जगह तज़किरा और तुम्हारे लम्स पे जाएँ की जगह अर्थ के हिसाब से तुम्हारा लम्स पा जाएँ होना चाहिए। आशा है आप इसे नज़रअंदाज कर देंगे।

गुरुवार, अक्तूबर 16, 2008

कविराजा कविता के मत अब कान मरोड़ो, धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो

फिल्मों में हास्य कविता का प्रयोग होते मैंने बहुत कम ही देखा है। एक ऍसी ही कविता पर मेरी नज़र तब पड़ी, जब इससे संबंधित जानकारी इस चिट्ठे की पाठिका अंबिका पंत जी ने अपनी टिप्पणी के माध्यम से माँगी। अंतरजाल पर खोजने पर पता चला कि ये कविता तो वी शांताराम की १९५९ में प्रदर्शित हुई मशहूर फिल्म नवरंग का हिस्सा थी।

मैंने ये फिल्म दूरदर्शन पर अस्सी के दशक में देखी थी। भरत व्यास के लिखे आधा है चंद्रमा रात आधी... और जा रे जा नटखट.... जैसे नायाब गीतों के बीच कोई कविता भी फिल्माई गई थी, इसका ख्याल तो मुझे बिल्कुल नहीं था। एक रोचक तथ्य ये भी है कि रचनाकार भरत व्यास ने खुद इस हास्य कविता के लिए स्वर दिया था ।

तो देखिए भरत व्यास जी कवियों को किस तरह धन संग्रह करने के लिए उद्यत कर रहे हैं।

कविराजा कविता के मत अब कान मरोड़ो
धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो

शेर शायरी कविराजा ना काम आयेगी
कविता की पोथी को दीमक खा जायेगी
भाव चढ़ रहे अनाज हो रहा मँहगा दिन दिन
भूखे मरोगे रात कटेगी तारे गिन गिन
इसी लिये कहता हूँ भैय्या ये सब छोड़ो
धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो

अरे छोड़ो कलम चलाओ मत कविता की चाकी
घर की रोकड़ देखो कितने पैसे बाकी
अरे कितना घर में घी है कितना गरम मसाला
कितने पापड़, बड़ी, मंगोड़ी, मिर्च मसाला
कितना तेल नोन, मिर्ची, हल्दी और धनिया
कविराजा चुपके से तुम बन जाओ बनिया

अरे! पैसे पर रच काव्य भूख पर गीत बनाओ
पैसे,अरे पैसे पर रच काव्य भूख पर गीत बनाओ
गेहूँ पर हो ग़ज़ल, धान के शेर सुनाओ
नोन मिर्च पर चौपाई, चावल पर दोहे
सुकवि कोयले पर कविता लिखो तो सोहे

कम भाड़े की
अरे! कम भाड़े की खोली पर लिखो क़व्वाली
झन झन करती कहो रुबाई पैसे वाली
शब्दों का जंजाल बड़ा लफ़ड़ा होता है
कवि सम्मेलन दोस्त बड़ा झगड़ा होता है
मुशायरों के शेरों पर रगड़ा होता है
पैसे वाला शेर बड़ा तगड़ा होता है


इसी लिये कहता हूँ मत इस से सर फोड़ो
धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो




अगर आप हास्य कविता के शौकीन हैं तो इसे भी पढ़ना पसंद करेंगे..

सोमवार, अक्तूबर 13, 2008

इतनी मुद्दत बाद मिले हो, किन सोचों में गुम रहते हो : दिलराज कौर और गुलाम अली की आवाज़ों में

पिछले हफ़्ते भर मैं अपने चिट्ठे से दूर उड़ीसा के कस्बों और जंगलों में यायावरी करता रहा । सफ़र के दौरान नौका पर लेटे लेटे आसमान की ओर नज़रें डालीं तो ये आधा अधूरा चाँद मुझको ताकता दिखा और बरबस जनाब मोहसीन नक़वी की ये पंक्तियाँ याद आ गईं

बिछुड़ के मुझ से कभी तूने ये भी सोचा है
अधूरा चाँद भी कितना उदास लगता है

चिट्ठे से अपना विरह आज समाप्त हुआ तो दिल हुआ कि क्यूँ ना मोहसीन नक़वी साहब की ये प्यारी ग़ज़ल आप सबको सुनवाई जाए। ये ग़ज़ल गुलाम अली साहब की उस एलबम का हिस्सा थी जिसने उन्हें भारत में ग़ज़ल गायिकी के क्षेत्र में मकबूलियत दिलवाई। अब हंगामा है क्यूँ बरपा, आवारगी और इतनी मुद्दत बाद मिले हो जैसी मशहूर ग़ज़लों को कौन भूल सकता है। 'आवारगी' लिखने वाले भी मोहसीन ही थे।

पर कभी-कभी सीधे सहज शब्द ज्यादा तेजी से असर करते हैं। शायद यही वज़ह रही कि बीस बाईस साल पहले गुलाम अली की ये ग़ज़ल ऐसी दिल में बसी कि फिर कभी नहीं निकल सकी।
इतनी मुद्दत बाद मिले हो
किन सोचों में गुम रहते हो

तेज़ हवा ने मुझसे पूछा,
रेत पे क्या लिखते रहते हो

हमसे न पूछो हिज्र के किस्से
अपनी कहो, अब तुम कैसे हो

कौन सी बात है तुम में ऐसी
इतने अच्छे क्यों लगते हो


पर आज इसे मैं आपको गुलाम अली साहब की आवाज़ के साथ साथ दिलराज कौर की आवाज में भी सुना रहा हूँ। जहाँ गुलाम अली ने इस ग़ज़ल में शब्दों के उतार चढ़ाव को अपनी गायिकी के हुनर के ज़रिए कई नमूनों में पेश किया है वहीं दिलराज कौर ने सीधे तरीके से इस ग़ज़ल को अपनी खूबसूरत आवाज़ से सँवारा है। तो पहले सुनिए दिलराज कौर की दिलकश अदाएगी..

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गुलाम अली इस ग़ज़ल को गाते समय कहते हैं जैसे लफ्ज़ इज़ाजत दें वैसे ही सुर लगाने की कोशिश कर रहा हूँ तो सुनिए उनका अपना अलग सा अंदाज़...


वैसे आप बताएँ कि इनमें से ग़ज़ल गायिकी का कौन सा तरीका आपको ज्यादा पसंद आया ?

सोमवार, अक्तूबर 06, 2008

महेंद्र कपूर की याद मे : मेरा प्यार वो है के, मर कर भी तुम को...

महेंद्र कपूर पिछले हफ्ते इस दुनिया से रुखसत कर गए। अभी कुछ दिन पहले ही महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें इस साल का लता मंगेशकर पुरस्कार देने की घोषणा की थी। पार्श्व गायन तो उन्होंने छोड़ ही रखा था पर सत्तर से ऊपर होने के बावजूद अभी भी वो सांगीतिक गतिविधियों से अलग नहीं हुए थे। भारत के बाहर उनके कानसर्ट हर साल हुआ करते थे और अभी हाल में ये भी पढ़ा था कि गायन की सभी विधाओं में अपनी प्रतिभा दिखाने के बाद वो एक सूफी एलबम की तैयारी में जुटे थे।

महेंद्र कपूर के मशहूर गीतों से हम सब वाकिफ़ हैं। मनोज कुमार और बी आर चोपड़ा के बैनर तले बनी फिल्मों के अधिकतर गीत उन्होंने ही गाए। देशभक्ति गीतों का खयाल आते ही आज भी जनता को पहले उन्हीं का चेहरा ज़ेहन में आता है पर मैंने तो अन्य कोटि के गीतों में भी कपूर साहब की गायिकी को बेहतरीन पाया है। आज मैं वो गीत आपके सामने पेश कर रहा हूँ वो मुझे बेहद पसंद रहा है। जब भी इसे गुनगुनाता हूँ, मन पूरी तरह इसके भावों में डूब जाता है।


ओ पी नैयर के संगीत निर्देशन में 'ये रात फिर ना आएगी' फिल्म के इस गीत को लिखा था शमसुल हूदा 'बिहारी' यानि एस.एच.'बिहारी' साहब ने। अब उनका जिक्र आया है तो ये बताना मुनासिब होगा कि अपने नाम के अनुरूप बिहारी साहब बिहार के एक नगर आरा के निवासी थे। यूँ तो उन्होंने ज्यादा फिल्मों के लिए गीत नहीं लिखे पर जिनके लिए भी लिखा कमाल लिखा। प्रेम की भावनाओं को व्यक्त करने का उनका तरीका ही अलहदा था। क्या आपको नहीं लगता कि प्रेम को शिद्दत से महसूस करने वाला ही ये लिख सकता है

खुदा भी अगर तुमसे आ के मिले तो
तुम्हारी क़सम है मेरा दिल जलेगा

इसी फिल्म के लिए आशा जी का अमर गीत यही वो जगह है भी बिहारी साहब की लेखनी की उपज था।

बिहारी के इस इस गीत को महेंद्र जी ने इस भाव प्रवणता से गाया है कि ये गीत आपके मूड को संजीदा करने की ताकत रखता है... तो आइए सुनें ये गीत



और ये रहा विश्वजीत पर फिल्माए इस गीत का वीडिओ



मेरा प्यार वो है के, मर कर भी तुम को
जुदा अपनी बाहों से होने न देगा
मिली मुझको जन्नत तो जन्नत के बदले
खुदा से मेरी जाँ तुम्हें माँग लेगा
मेरा प्यार वो है ........

ज़माना तो करवट बदलता रहेगा
नए ज़िन्दगी के तराने बनेंगे
मिटेगी न लेकिन मुहब्बत हमारी
मिटाने के सौ सौ बहाने बनेंगे
हक़ीकत हमेशा हक़ीकत रहेगी
कभी भी न इसका फ़साना बनेगा
मेरा प्यार वो है ... ...

तुम्हें छीन ले मेरी बाहों से कोई
मेरा प्यार यूँ बेसहारा नहीं है
तुम्हारा बदन चाँदनी आके छू ले
मेरे दिल को ये भी गवारा नहीं है
खुदा भी अगर तुमसे आ के मिले तो
तुम्हारी क़सम है मेरा दिल जलेगा
मेरा प्यार वो है के ... .....

महेंद्र कपूर ने उस काल खंड में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई जब रफी, किशोर और मुकेश जैसे महान गायक अपनी चोटी पर थे। ये भी एक कारण रहा कि जिस शोहरत और सम्मान के वो हक़दार थे वो पूरी तरह उन्हें नहीं मिल पाया। इस बात का मुगालता कपूर साहब को भी रहा। एक पत्रिका को दिए अपने साक्षात्कार में एक बार उन्होंने बड़ी विनम्रता से पूछा था

".....मेरे बारे में इतना कम लिखा जाता है। मुझे समझ नही आता क्यूँ ? क्या मैंने कोई गलती की है? ....."


महेंद्र कपूर तो नहीं रहे पर उनके गाए गीत आने वाली पीढ़ियों के दिलों को भी जीतते रहेंगे ऍसी आशा है।

गुरुवार, अक्तूबर 02, 2008

गाँधी जयन्ती : सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्‍ही जी

आज गाँधी जयन्ती तो है ही साथ साथ शास्त्री जी के जन्मदिन का खुशनुमा मौका भी है।

आज इस पवित्र दिन अखबार उठाता हूँ और अगरतला में बम कांड से घायल महिला और उड़ीसा के कांधमाल में जले हुए घरों की तसवीरें देखता हूँ तो कैलाश गौतम की ये कविता जो पिछले साल आजादी की साठवीं वर्षगाँठ पर आप सबके साथ बाँटी थी, पुनः याद आ जाती है।


सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्‍ही जी
देस बंटत हौ, जइसे हरदी धान बंटत हौ, गान्‍ही जी


इसलिए ये समय विचार करने का है, कि हम इतने असहिष्णु, इतने जल्लाद , इतने संवेदनाशून्य क्यूँ होते जा रहे हैं? कैसे हम समझ लेते हैं कि ऐसी जलील हरकतों को करने से हमारा भगवान, हमारा परवरदिगार हमारी पीठ ठोंकेगा?

देश के इन हालातों में कैलाश जी की ये कविता कितनी सार्थक है ये इसे पढ़ कर आप महसूस कर सकते हैं। और जैसा अविनाश जी ने अपनी पिछली टिप्पणी में कहा था

"...60 साल की आज़ादी का सार है ये कविता। बार-बार पढ़ें, पढ़ाएं इसे। अपनी हक़ीक़त का पता चलता है। "



सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्‍ही जी
देस बंटत हौ, जइसे हरदी धान बंटत हौ, गान्‍ही जी

बेर बिसवतै ररूवा चिरई रोज ररत हौ, गान्‍ही जी
तोहरे घर क' रामै मालिक सबै कहत हौ, गान्‍ही जी

हिंसा राहजनी हौ बापू, हौ गुंडई, डकैती, हउवै
देसी खाली बम बनूक हौ, कपड़ा घड़ी बिलैती, हउवै
छुआछूत हौ, ऊंच नीच हौ, जात-पांत पंचइती हउवै
भाय भतीया, भूल भुलइया, भाषण भीड़ भंड़इती हउवै


का बतलाई कहै सुनै मे सरम लगत हौ, गान्‍ही जी
केहुक नांही चित्त ठेकाने बरम लगत हौ, गान्‍ही जी
अइसन तारू चटकल अबकी गरम लगत हौ, गान्‍ही जी
गाभिन हो कि ठांठ मरकहीं भरम लगत हौ, गान्‍ही जी

जे अललै बेइमान इहां ऊ डकरै किरिया खाला
लम्‍बा टीका, मधुरी बानी, पंच बनावल जाला
चाम सोहारी, काम सरौता, पेटैपेट घोटाला
एक्‍को करम न छूटल लेकिन, चउचक कंठी माला

नोना लगत भीत हौ सगरों गिरत परत हौ गान्‍ही जी
हाड़ परल हौ अंगनै अंगना, मार टरत हौ गान्‍ही जी
झगरा क' जर अनखुन खोजै जहां लहत हौ गान्‍ही जी
खसम मार के धूम धाम से गया करत हौ गान्‍ही जी

उहै अमीरी उहै गरीबी उहै जमाना अब्‍बौ हौ
कब्‍बौ गयल न जाई जड़ से रोग पुराना अब्‍बौ हौ
दूसर के कब्‍जा में आपन पानी दाना अब्‍बौ हौ
जहां खजाना रहल हमेसा उहै खजाना अब्‍बौ हौ


कथा कीर्तन बाहर, भीतर जुआ चलत हौ, गान्‍ही जी
माल गलत हौ दुई नंबर क, दाल गलत हौ, गान्‍ही जी
चाल गलत, चउपाल गलत, हर फाल गलत हौ, गान्‍ही जी
ताल गलत, हड़ताल गलत, पड़ताल गलत हौ, गान्‍ही जी

घूस पैरवी जोर सिफारिश झूठ नकल मक्‍कारी वाले
देखतै देखत चार दिन में भइलैं महल अटारी वाले
इनके आगे भकुआ जइसे फरसा अउर कुदारी वाले
देहलैं खून पसीना देहलैं तब्‍बौ बहिन मतारी वाले

तोहरै नाम बिकत हो सगरो मांस बिकत हौ गान्‍ही जी
ताली पीट रहल हौ दुनिया खूब हंसत हौ गान्‍ही जी
केहु कान भरत हौ केहू मूंग दरत हौ गान्‍ही जी
कहई के हौ सोर धोवाइल पाप फरत हौ गान्‍ही जी


जनता बदे जयंती बाबू नेता बदे निसाना हउवै
पिछला साल हवाला वाला अगिला साल बहाना हउवै
आजादी के माने खाली राजघाट तक जाना हउवै
साल भरे में एक बेर बस रघुपति राघव गाना हउवै

अइसन चढ़ल भवानी सीरे ना उतरत हौ गान्‍ही जी
आग लगत हौ, धुवां उठत हौ, नाक बजत हौ गान्‍ही जी
करिया अच्‍छर भंइस बराबर बेद लिखत हौ गान्‍ही जी
एक समय क' बागड़ बिल्‍ला आज भगत हौ गान्‍ही जी

मंगलवार, सितंबर 30, 2008

चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल : सुनिए हुसैन बंधुओं की आवाज़ में ये दिलकश ग़ज़ल

शास्त्रीय संगीत में जुगलबंदी का अपना ही मजा होता है। वैसा ही कुछ अहसास तब होता है जब हुसैन बंधु एक साथ मिलकर ग़ज़ल के तार छेड़ते हैं। जी हाँ मैं उस्ताद अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन की बात कर रहा हूँ। हुसैन बंधुओं को संगीत का फ़न विरासत में ही मिला था। इनके पिता उस्ताद अफज़ल हुसैन जयपुरी खुद एक चर्चित ठुमरी और ग़ज़ल गायक रह चुके हैं।

हुसैन बंधुओं की गायिकी से पहला परिचय अस्सी के दशक में म्यूजिक इंडिया नाम की कंपनी की कैसेट के तहत हुआ था। पर इनकी ज्यादातर ग़ज़लों को सुनना और पसंद करना संभव हुआ विविध भारती के कार्यक्रम रंग तरंग की वजह से। जाने क्या मोहब्बत थी विविध भारती वालों की इनसे कि हर दूसरे दिन इनकी ग़ज़लें सुनने को मिल ही जाया करती थीं। एक ग़ज़ल जो बार-बार बजा करती थी और जो मुझे उन दिनों पूरी याद हो गई थी, वो थी

दो जवाँ दिलों का गम दूरियाँ समझती हैं
कौन याद करता है हिचकियाँ समझती है...

जिसने कर लिया दिल में पहली बार घर 'दानिश'
उसको मेरी आँखों की पुतलियाँ समझती हैं


पर जिस ग़जल की बात आज मैं कर रहा हूँ उसकी तासीर ही दिल पर कुछ अलग सी होती है। ये उन ग़ज़लों मे से है जो जिंदगी के हर पड़ाव पर मेरे साथ रही है एक हौसला देती हुई सी। जब भी मन परेशान हो और अपना लक्ष्य धुँधला सा हो तो ये ग़ज़ल रास्ता दिखलाती सी महसूस हुई। 'राग यमन' पर आधारित इस ग़ज़ल को लिखा था, हुसैन बंधुओ के चहेते, मशहूर गीतकार हसरत जयपुरी साहब ने।

कुछ महिनों पहले डा. अजित कुमार ने भी इस ग़जल की चर्चा करते हुए इसे अपना पसंदीदा माना था। तो आइए सुनते हैं हुसैन बंधुओं की दिलकश आवाज़ में ये ग़ज़ल



चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल
इन समाजों के बनाये हुये बंधन से निकल, चल

हम वहाँ जाएँ जहाँ प्यार पे पहरे न लगें
दिल की दौलत पे जहाँ कोई लुटेरे न लगें
कब है बदला ये ज़माना, तू ज़माने को बदल, चल

प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं
बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं
तू भी बिजली की तरह ग़म के अँधेरों से निकल, चल

अपने मिलने पे जहाँ कोई भी उँगली न उठे
अपनी चाहत पे जहाँ कोई भी दुश्मन न हँसे
छेड़ दे प्यार से तू साज़-ए-मोहब्बत पे ग़ज़ल, चल

पीछे मत देख न शामिल हो गुनाहगारों में
सामने देख कि मंज़िल है तेरी तारों में
बात बनती है अगर दिल में इरादे हों अटल, चल



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गुरुवार, सितंबर 25, 2008

रुड़की से दिल्ली की बस यात्रा : कैसे बच पाए भूत और उन आखिरी के धमाकों से..

पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि किस तरह रुड़की से दिल्ली जा रही बस में एक युवती की आवाज एक दम से मर्दाना हो गयी और उसके मुँह से चीखें और फिर रुदन का भारी स्वर गूँज उठा.... अब आगे पढ़ें

तीन चार हट्टे कट्टे पुरुषों को उस युवती को सँभालने में सात-आठ मिनट का समय लगा। फिर अचानक से उसका तेवर बदला जैसे कि वो लंबी तंद्रा से जागी हो। वो उसकी बाहों को पकड़े पुरुषों को धकियाती सी बोली ...
"छोड़िए इस तरह हाथ क्यूँ पकड़ रखा है? "
लोग बाग हतप्रध से रह गए और समझ गए कि वो जो कुछ भी था उसका असर जाता रहा है। पर पूरे घटनाक्रम से जितने सहयात्री हक्के बक्के थे, उसका लेशमात्र भी वो अधेड़ शख्स नहीं था जो उसकी बगल में बैठा था।

पूछने पर पता चला कि वो गाँव के किसी स्कूल का मास्टर था और अपने युवा बेटे, जिसकी असमय मृत्यु हो गई थी, का पिंडदान करके हरिद्वार से लौट रहा था। बगल में बैठी युवती उसकी बहू थी जिसकी शादी हुए डेढ वर्ष ही बीता था। ये मृत्यु कैसे हुई ये हम जान नहीं पाए इसलिए किसी साजिश वाली बात का सत्य उद्घाटित नहीं हो पाया।

मेरा मित्र अगले एक घंटे तक उस युवती की आवाज़ पर कान लगाए रहा। बाद में उसने कहा कि उस स्त्री की वास्तविक आवाज़ भी थोड़ी भारी सी थी। अपने दो घंटों के आकलन के बाद उसका मत था कि शायद नवविवाहिता के मन में भय समा गया होगा कि अब उसकी गुजर बसर कैसे होगी? वापस अपने घरवाले तो बुलाएँगे नहीं और ऍसी हालत में कहीं ससुराल वाले उसे निकाल ना दें, इसलिए वो ये स्वांग भर कर अपने ससुर के मन में भयारोपण कर रही हो।

मैं पूरी तरह नहीं कह सकता कि मेरे दोस्त की थ्योरी सत्य थी या नहीं पर जैसी सामाजिक स्थिति राजस्थान और हरियाणा के पिछड़े इलाकों की महिलाओं की है, उसके हिसाब से ऐसे तर्क को एकदम से ख़ारिज़ भी नही किया जा सकता। पर चाहे कुछ भी हो उस आठ मिनटों में एकबारगी मेरा भी इन प्रेतात्माओं के प्रति मेरा अविश्वास हिल सा गया। बहुत देर तक चाह कर भी मैं उस भयावह आवाज़ के दायरे से अपने मन को बाहर ना ला सका । अचानक कंडक्टर की आवाज़ सुनकर मेरा ध्यान बँटा। देखा मेरठ आ गया था।

कंडक्टर ठेठ लहजे में चिल्ला रहा था
जिसको जे करना है कल्ले अब सीधे बस ISBT (Inter State Bus Terminal) पे ही रुकोगी।

अब किसने कितना सुना ये तो पता नहीं पर मेरठ से निकलने के बीस मिनट बाद ही एक यात्री ने लघुशंका निवारण हेतु बस रुकवा दी। बस फिर आगे बढ़ी। दिल्ली अभी २० किमी दूर थी जब एक पगड़ी लगाए वृद्ध सज्जन ने कंडक्टर से फिर बस रुकवाने की विनती की। इस बार कंडक्टर अड़ गया । महाशय ने कहा मामला गंभीर है पर कंडक्टर ने एक ना सुनी। अपनी स्तिथि से हताश वो सज्जन ठीक गेट के सामने वाली सीढ़ी पर बैठ गए।

अब तक हम गाजियाबाद बाद पार कर शाहदरा के इलाके में आ गए थे। वो व्यक्ति हर पाँच मिनट पर कंडक्टर से बस रुकवाने की मिन्नत करता पर कोई असर ना चालक पर था ना परिचालक पर। पीछे से कुछ सहयात्री भी कहने लगे थे "थोड़ा सब्र करले ताउ"

हमें ISBT के ठीक पहले 'आश्रम' जाने वाली 'मुद्रिका' पकड़नी थी। हम पहले उतरने के लिए उन सज्जन के ठीक पीछे आ कर खड़े हुए। ISBT की ओर मुड़ने के ठीक फ्लाईओवर पर जैसे ही बस धीमी हुई, मेरा मित्र उन सज्जन के ठीक बगल से लंबी कूद मारता नीचे भागा। मैंने बस के और धीमे होने का इंतजार किया फिर बाहर की ओर कूदा जैसे ही पहला पैर सड़क पर पड़ा ठीक पीछे से दो धमाके सुनाई दिए। ये धमाके कैसे थे ये तो आप समझ ही गए होंगे।

वस्तुस्थिति समझते ही मैंने दूसरे पैर को जितनी आगे लाया जा सकता था, लाया और धमाकों के अवशेषों से बमुश्किल अपने आप को बचा पाया।

मेरा मित्र सड़क के किनारे खड़ा हँस रहा था। शायद उसे ऐसी घटना की प्रत्याशा थी।
और मैं भगवान को धन्यवाद दे रहा था कि एक सेकेंड की देरी से जो फज़ीहत मेरी हो सकती थी वो नहीं हुई।

आज जबकि इस घटना को बारह साल बीत चुके हैं उस यात्रा को याद कर रुह भी काँपती है और उसके समापन के घटनाक्रम पर हँसी भी आती है।
 

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