शुक्रवार, मार्च 13, 2009

दुष्यंत कुमार की एक ग़ज़ल : दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है, आजकल नेपथ्य में संभावना है

पिछले साल दिसंबर के पुस्तक मेले में दुष्यंत कुमार जी के बेहद प्रसिद्ध ग़ज़ल संग्रह साये में धूप खरीदने का मौका मिला था। अब पुस्तक तो ले ली पर जैसा कि प्रायः होता है पढ़ने का वक़्त नहीं मिला। होली के पूर्व जब अचानक राउरकेला जाना पड़ा तो रास्ते में दुष्यंत जी कई ग़ज़लें पढ़ीं। वैसे तो पूरी पुस्तक ही नायाब ग़ज़लों से अटी पड़ी है पर आज आप सब के साथ उनकी व्यंग्यात्मक लहजे में लिखी गई ये ग़ज़ल बाँटना चाहता हूँ जो हिंदी में ग़ज़ल लेखन का एक उत्कृष्ट नमूना है।

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है


इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है


पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है


दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है


निश्चय ही ये ग़ज़ल हमारे और आपके आसपास के सामाजिक और राजनीतिक हालातों की प्रतिध्वनि करती दिखती है। कितने सहज शब्द और सच्चाई की ओट से चलते ऍसे तीखे व्यंग्य बाण कि मन बस वाह वाह कर उठता है।
इस चिट्ठे पर प्रस्तुत कविताओं की सूची आप यहाँ देख सकते हैं।
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16 टिप्पणियाँ:

L.Goswami on मार्च 13, 2009 ने कहा…

बिलकुल !! यह आज के हमारे समाज का ही सच है .

निशाचर on मार्च 13, 2009 ने कहा…

दोस्तों! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में सम्भावना है.

कहीं आप अमर सिंह, अहमद पटेल आदि की बात तो नहीं कर रहे.

रंजू भाटिया on मार्च 13, 2009 ने कहा…

दुष्यंत जी की गजले आज के सच को उजागर करती है

Udan Tashtari on मार्च 13, 2009 ने कहा…

यूँ तो साये में धूप की कोई सी भी गज़ल उठा लें..आनन्द आ जाता है किन्तु इसकी बाद भी निश्चित ही जुदा है:

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

समयचक्र on मार्च 13, 2009 ने कहा…

बढ़िया गजल प्रस्तुति के लिए धन्यवाद

दिलीप कवठेकर on मार्च 13, 2009 ने कहा…

दुष्यंत जी से तब मिलना होता था जब हम बच्चे थे और उनकी विदुषी पत्नी से पढते थे. तब ये पता नही था कि हम इस युग के एक आला दर्ज़े के शायर से मुखातिब थे. अब उनकी गज़लें पढने और समझने का शऊर हमें भगवान नें दिया तो ये बात कचोटती है.

बेनामी ने कहा…

शुक्रिया!! आपके सौजन्य से एक और उम्दा गजल हम तक पहुंची...
और आपने उपलब्ध कराई कविता की सूची भी जब तब देखती रहती हूं.. :)

बेनामी ने कहा…

बिल्कुल मन वाह!वाह! कर उठता है!

Yunus Khan on मार्च 14, 2009 ने कहा…

हाईस्‍कूल के ज़माने में 'साये में धूप' ख़रीदी थी । उसके बाद कई बार खरीदनी पड़ी । हर बार कोई उठाईगीर मित्र ले गया ।
एक ग़ज़ल बेहद पसंद है ।
एक जंगल है तेरी आंखों में जिसमें मैं गुम हो जाता हूं ।
तू किसी रेल सी गुजरती है मैं किसी पुल सा थरथराता हूं ।
शायद मीनू पुरूषोत्‍तम ने गाई भी है ।
अब याद आया है तो खोजते हैं और सुनवाते हैं मनीष ।

bhuvnesh sharma on मार्च 14, 2009 ने कहा…

दुष्‍यंत कुमार के तो अपन भी फैन हैं...पर अब तक उन्‍हें इंटरनेट पर ही पढ़ रहे थे...अब खरीदकर पढ़ना शुरू करते हैं...

बेनामी ने कहा…

jaisa Yunusji ne kaha, kai baar kharidani pari ye kitab. kisi mitra ne lautai nahi.
thanks for giving an opportunity to remember dushyant

कंचन सिंह चौहान on मार्च 16, 2009 ने कहा…

इस गज़ल का पहला शेर एक अलग तरह से आकर्षित करता है.....! दुष्यंत जी ने जो भी लिखा , वो अपनी ओर खींचता है...!

अनूप भार्गव on मार्च 19, 2009 ने कहा…

’साये मे धूप’ एक ऐसी किताब है जिस की कोई गज़ल तो क्या , कोई एक ’शेर’ भी हल्का या भरती का नहीं है ।

दुष्यन्त जी नें अपने युग की पीड़ा को पूरी शिद्दत के साथ महसूस किया है और उसे पूरी इमानदारी के साथ कागज़ पर उतारा है ।
युनुस भाई ! आप की जानकारी के लिये मीनू पुरुषोत्तम जी आजकल यहां (अमेरिका में) बस गई हैं , कुछ ही दिन पहले उन से मिलना हुआ था । अगली बार मिला तो उन से पूछूँगा दुष्यन्त जी की गज़ल के बारे में ।

वैसे दुष्यन्त जी की एक गज़ल (कहां तो तय था ....) नीना मेहता’ जी ने गाई है, वह मेरे पास है ।

वीनस केसरी on जून 04, 2009 ने कहा…

साये में धूप मेरी प्रिय पुस्तक है
गजल पढ़वाने के लिए धन्यवाद
वीनस केसरी

RAJURKAR RAJ ने कहा…

yadi aap Dushyant Kumar aur hindi sahitya ke kaaljayee sahityakaron ki hastlikhit dharohar ka avalokan karna chahte hai to BHOPAL k DUSHYANT KUMAR SMARAK PANDULIPI SANGRAHALAY aaiye.

Mob 9425007710

sube singh sujan on अगस्त 09, 2019 ने कहा…

मुझे बहुत पसंद है हर ग़ज़ल कामयाब ग़ज़ल है समाज का,देशकाल का हर आईना स्पष्ट है

 

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