होमवर्क शब्द अंग्रेजी का भले हो पर आज के नौनिहालों के माता पिताओं के रोज़ के शब्दकोष का अहम हिस्सा जरूर है। बच्चों को इस होमवर्क नाम के असुर से जूझते अक़्सर देखा है पर मुसीबत ये है कि अक्सर वे इस युद्ध की कमान अपने माता पिता को सौंप देते हैं। वैसे और भी शब्द हैं इस स्कूली शब्दकोष में जिनसे अभिभावक बच्चों से ज्यादा घबराते हैं मसलन 'मंडे टेस्ट', 'प्रोजेक्ट वर्क', 'मॉडल प्रिपरेशन' वैगेरह वैगेरह। कारण ये कि ऐसे तथाकथित 'एसाइनमेंट' बच्चों की नहीं बल्कि आजकल अभिभावको की क्रियाशीलता को जाँचने परखने का माध्यम हो गए हैं।
इतना सब होते हुए भी अक्सर शिक्षकों से ये सुनने को मिल जाता है कि अभिभावक घर पर बच्चों को पढ़ाने में बिल्कुल ध्यान नहीं देते। ये आरोप आज के इस भागमभागी युग में काफी हद तक सही भी है। पर ये भी सही है कि स्कूल में पचास साठ या उससे भी अधिक बच्चों को एक कक्षा में रखकर शिक्षक ही व्यक्तिगत तौर पर एक बच्चे पर कितना ध्यान दे पाते हैं। बच्चों की परेशानी का अंत यही नहीं है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा विभिन्न कक्षाओं के लिए तैयार किया गया सिलेबस भी उनके सोचने समझने की अद्भुत ग्राह्य शक्ति का इस्तेमाल करने के बजाए रट्टा मारने की प्रवृति को ही आगे बढ़ाता है।
बाकी कक्षाओं की तो बात मुझे आगे पता लगेगी पर अभी तो आपको तीसरी कक्षा की बात बताता हूँ। मुझे अच्छी तरह याद है कि जो पाठ मैं अपनी अंग्रेजी की पाठ्य पुस्तक में कक्षा छः में पढ़ा करता था वो आजकल पहली या दूसरी में ही पढ़ा दिया जाता है। हालत ये है कि पिछले हफ़्ते अंग्रेजी में समूहवाचक संज्ञा के उदाहरण के तौर पर जो शब्द मेरे पुत्र को तीसरी कक्षा में याद करने को दिए थे वे इतने जटिल थे कि उनको देखने के लिए मुझे डिक्शनरी और नेट का सहारा लेना पड़ा।
बच्चों का शब्दज्ञान और वर्तनी जाँचने के लिए इतने कठिन शब्द दिए जाते हैं कि बच्चे के पास रटने के आलावा कोई और चारा नहीं रह जाता। सामाजिक विज्ञान पढ़ाते वक़्त जब बच्चों को राज्य के साथ केंद्र शासित राज्यों का उल्लेख देखता हूँ तो CBSE के शिक्षाविदों पर बहुत खीज़ होती है। क्या उन्हें ये समझ नहीं आता कि ये सारा ज्ञान ना केवल एक छोटे बच्चे को देना मुश्किल है बल्कि निहायत गैरजरूरी भी है।
इसीलिए पिछले हफ्ते जब बच्चों के स्कूल के प्राचार्य ने सारे अभिभावकों को बुला कर CBSE के कुछ साल पहले चालू किए गए Continuous Evaluation System को लागू करने की बात कही तो लगा कि चलो ये शिक्षा के क्षेत्र में देर से लिया गया सही कदम है।
अपने वक्तव्य में प्राचार्य महोदय ने जोर देकर कहा कि
लगता था जनाब बहुत अधीरता से अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। माइक लेते ही उन्होंने भाइयों और बहनों की तर्ज में भाषण शुरु करते हुए कहा कि मेरा पहला अनुरोध ये है कि बच्चों को रोज़गारोन्मुख शिक्षा देनी चाहिए। उन्हें ये बताना चाहिए कि सीमेंट में कितना बालू गारा और कितना पानी मिलाना जरूरी है। (मैंने मन ही मन सोचा हाँ अगर शहरों के स्कूल में तीन से पाँच के बच्चों को ये शिक्षा दी जाए तो उसी तरह ये भी बताया जाए कि दूध में कितना दूध और पानी मिलाया जाए।) हद तो तब हो गई जब उन महाशय ने इतिहास जैसे विषय को एक सिरे से ख़ारिज़ करते हुए ये कह दिया कि ये बताना कतई जरूरी नहीं कि गौतम बुद्ध कौन थे और कहाँ पैदा हुए थे? ख़ैर उन सज्जन को चुप कराने के लिए बाकी अभिभावकों को जबरिया ताली बजानी पड़ी और तब कहीं उनका भाषण खत्म हुआ।
इस वाक़ए से ये स्पष्ट हो जाता है कि हमारी मानसिकता किस हद तक दिग्भ्रमित हो गई है। ऊपर का वक़्तव्य उन सज्जन ने नवीं दसवीं के विद्यार्थियों के लिए दिया होता तो बात समझ में आती थी। सामाजिक विज्ञान की विषय वस्तु पर बहस हो सकती है पर उनका भी एक अहम महत्त्व हमारे चरित्र निर्माण में अवश्य है और इस बात को कोई भी सिलेबस अनदेखा नहीं कर सकता।हम आज अगर अपने बच्चों को एरोगेंट पाते हैं , बड़ों के प्रति उनके व्यवहार में शिष्टता में कमी देखते हैं, समूह में घुल मिलकर रहने में उन्हें असमर्थ देखते हैं, अपनी और अपने आस पास की साफ सफाई में उन्हें उदासीन देखते हैं तो उसकी वज़ह ये भी है कि प्राथमिक शिक्षा यानि प्राइमरी एडुकेशन में कहीं ना कहीं इन तत्त्वों की उपेक्षा हुई है। वहीं आगे की कक्षाओं में प्रतियोगिता परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करने का इतना दबाव है कि व्यक्तित्व निर्माण और सामाजिक व्यवहार के कई वांछित पहलुओं से मौज़ूदा शिक्षा प्रणाली में एक छात्र अछूता रह जाता है।
आज जोर इस बात पर होना चाहिए की निचली कक्षाओं में सिर्फ वही पढ़ाया और सिखाया जाए जो बच्चा अपने आसपास की जिंदगी से जुड़ा पाए और जिसे सीखते वक़्त वो खुशी का अनुभव करे। बच्चे के चरित्र निर्माण के लिए आवश्यक रुझान प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के दौरान ही करना चाहिए और साथ ही विषयों के साथ उसके व्यवहार का मूल्यांकन करने से वो इनके महत्त्व को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। हाई स्कूल और उसके ऊपर की शिक्षा निश्चय ही रोज़गारोन्मुख होनी चाहिए। पर इस तरह कि पद्धति तभी सफल हो सकती है जब शिक्षक छात्र का अनुपात कम हो, शिक्षक का मूल्यांकन बिना किसी पूर्वाग्रह के हो और अभिभावक भी भेड़ चाल वाली प्रवृति से निकल कर अपने बच्चों को वो करने दें जिसके वो सर्वथा योग्य हैं।
चलते चलते समाजवादी कार्यकर्ता और कवि श्याम बहादुर नम्र की ये कविता आपसे साझा करना चाहूँगा जो वर्तमान शिक्षा पद्धति की कमियों को सहज शब्दों में बखूबी उजागर करती है...
एक बच्ची स्कूल नहीं जाती, बकरी चराती है
वह लकड़ियाँ बटोर कर घर लाती है,
फिर माँ के साथ भात पकाती है।
एक बच्ची किताब का बोझ लादे स्कूल जाती है,
शाम को थकी माँदी घर आती है।
वह स्कूल से मिला होमवर्क, माँ बाप से करवाती है।
बोझ किताब का हो या लकड़ियों का दोनों बच्चियाँ ढोती हैं,
लेकिन लकड़ी से चूल्हा जलेगा, तब पेट भरेगा,
लकड़ी लाने वाली बच्ची यह जानती है।
वह लकड़ी की उपयोगिता पहचानती है।
किताब की बातें कब किस काम आती हैं?
स्कूल जाने वाली बच्ची बिना समझे रट जाती है।
लकड़ी बटोरना, बकरी चराना और माँ के साथ भात पकाना,
जो सचमुच गृहकार्य हैं, होमवर्क नहीं कहे जाते हैं।
लेकिन स्कूल से मिले पाठों के अभ्यास,
भले ही घरेलू काम ना हों, होमवर्क कहलाते हैं
ऐसा कब होगा
जब किताबें सचमुच के 'होमवर्क' से जुड़ेंगी
और लकड़ी बटोरने वाली बच्चियाँ भी ऐसी किताबें पढ़ेंगी।
इतना सब होते हुए भी अक्सर शिक्षकों से ये सुनने को मिल जाता है कि अभिभावक घर पर बच्चों को पढ़ाने में बिल्कुल ध्यान नहीं देते। ये आरोप आज के इस भागमभागी युग में काफी हद तक सही भी है। पर ये भी सही है कि स्कूल में पचास साठ या उससे भी अधिक बच्चों को एक कक्षा में रखकर शिक्षक ही व्यक्तिगत तौर पर एक बच्चे पर कितना ध्यान दे पाते हैं। बच्चों की परेशानी का अंत यही नहीं है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा विभिन्न कक्षाओं के लिए तैयार किया गया सिलेबस भी उनके सोचने समझने की अद्भुत ग्राह्य शक्ति का इस्तेमाल करने के बजाए रट्टा मारने की प्रवृति को ही आगे बढ़ाता है।
बाकी कक्षाओं की तो बात मुझे आगे पता लगेगी पर अभी तो आपको तीसरी कक्षा की बात बताता हूँ। मुझे अच्छी तरह याद है कि जो पाठ मैं अपनी अंग्रेजी की पाठ्य पुस्तक में कक्षा छः में पढ़ा करता था वो आजकल पहली या दूसरी में ही पढ़ा दिया जाता है। हालत ये है कि पिछले हफ़्ते अंग्रेजी में समूहवाचक संज्ञा के उदाहरण के तौर पर जो शब्द मेरे पुत्र को तीसरी कक्षा में याद करने को दिए थे वे इतने जटिल थे कि उनको देखने के लिए मुझे डिक्शनरी और नेट का सहारा लेना पड़ा।
बच्चों का शब्दज्ञान और वर्तनी जाँचने के लिए इतने कठिन शब्द दिए जाते हैं कि बच्चे के पास रटने के आलावा कोई और चारा नहीं रह जाता। सामाजिक विज्ञान पढ़ाते वक़्त जब बच्चों को राज्य के साथ केंद्र शासित राज्यों का उल्लेख देखता हूँ तो CBSE के शिक्षाविदों पर बहुत खीज़ होती है। क्या उन्हें ये समझ नहीं आता कि ये सारा ज्ञान ना केवल एक छोटे बच्चे को देना मुश्किल है बल्कि निहायत गैरजरूरी भी है।
इसीलिए पिछले हफ्ते जब बच्चों के स्कूल के प्राचार्य ने सारे अभिभावकों को बुला कर CBSE के कुछ साल पहले चालू किए गए Continuous Evaluation System को लागू करने की बात कही तो लगा कि चलो ये शिक्षा के क्षेत्र में देर से लिया गया सही कदम है।
अपने वक्तव्य में प्राचार्य महोदय ने जोर देकर कहा कि
बच्चों की शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे वो इंजीनियर डॉक्टर या कोई और पेशेवर विधा हासिल करें ना करें एक जिम्मेदार और चरित्रवान नागरिक अवश्य बनें और अब इस पद्धति में उनके विषय ज्ञान के अतिरिक्त इस दृष्टि से भी उनके व्यक्तित्व का आकलन किया जाएगा। उन्होंने अभिभावकों में एक दूसरे के बच्चों की आपसी तुलना की प्रवृति की निंदा की और कहा कि इससे बच्चों का अपने पर से विश्वास घटता है। प्राचार्य ने स्कूल और सिलेबस की कमियों को भी स्वीकारा।तीसरी से पाँचवी कक्षा के अभिभावकों को दिए गए भाषण के बाद उन्होंने अभिभावकों से उनके विचार आमंत्रित किए। एक अभिभावक की प्रतिक्रिया दिलचस्प थी।
लगता था जनाब बहुत अधीरता से अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। माइक लेते ही उन्होंने भाइयों और बहनों की तर्ज में भाषण शुरु करते हुए कहा कि मेरा पहला अनुरोध ये है कि बच्चों को रोज़गारोन्मुख शिक्षा देनी चाहिए। उन्हें ये बताना चाहिए कि सीमेंट में कितना बालू गारा और कितना पानी मिलाना जरूरी है। (मैंने मन ही मन सोचा हाँ अगर शहरों के स्कूल में तीन से पाँच के बच्चों को ये शिक्षा दी जाए तो उसी तरह ये भी बताया जाए कि दूध में कितना दूध और पानी मिलाया जाए।) हद तो तब हो गई जब उन महाशय ने इतिहास जैसे विषय को एक सिरे से ख़ारिज़ करते हुए ये कह दिया कि ये बताना कतई जरूरी नहीं कि गौतम बुद्ध कौन थे और कहाँ पैदा हुए थे? ख़ैर उन सज्जन को चुप कराने के लिए बाकी अभिभावकों को जबरिया ताली बजानी पड़ी और तब कहीं उनका भाषण खत्म हुआ।
इस वाक़ए से ये स्पष्ट हो जाता है कि हमारी मानसिकता किस हद तक दिग्भ्रमित हो गई है। ऊपर का वक़्तव्य उन सज्जन ने नवीं दसवीं के विद्यार्थियों के लिए दिया होता तो बात समझ में आती थी। सामाजिक विज्ञान की विषय वस्तु पर बहस हो सकती है पर उनका भी एक अहम महत्त्व हमारे चरित्र निर्माण में अवश्य है और इस बात को कोई भी सिलेबस अनदेखा नहीं कर सकता।हम आज अगर अपने बच्चों को एरोगेंट पाते हैं , बड़ों के प्रति उनके व्यवहार में शिष्टता में कमी देखते हैं, समूह में घुल मिलकर रहने में उन्हें असमर्थ देखते हैं, अपनी और अपने आस पास की साफ सफाई में उन्हें उदासीन देखते हैं तो उसकी वज़ह ये भी है कि प्राथमिक शिक्षा यानि प्राइमरी एडुकेशन में कहीं ना कहीं इन तत्त्वों की उपेक्षा हुई है। वहीं आगे की कक्षाओं में प्रतियोगिता परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करने का इतना दबाव है कि व्यक्तित्व निर्माण और सामाजिक व्यवहार के कई वांछित पहलुओं से मौज़ूदा शिक्षा प्रणाली में एक छात्र अछूता रह जाता है।
आज जोर इस बात पर होना चाहिए की निचली कक्षाओं में सिर्फ वही पढ़ाया और सिखाया जाए जो बच्चा अपने आसपास की जिंदगी से जुड़ा पाए और जिसे सीखते वक़्त वो खुशी का अनुभव करे। बच्चे के चरित्र निर्माण के लिए आवश्यक रुझान प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के दौरान ही करना चाहिए और साथ ही विषयों के साथ उसके व्यवहार का मूल्यांकन करने से वो इनके महत्त्व को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। हाई स्कूल और उसके ऊपर की शिक्षा निश्चय ही रोज़गारोन्मुख होनी चाहिए। पर इस तरह कि पद्धति तभी सफल हो सकती है जब शिक्षक छात्र का अनुपात कम हो, शिक्षक का मूल्यांकन बिना किसी पूर्वाग्रह के हो और अभिभावक भी भेड़ चाल वाली प्रवृति से निकल कर अपने बच्चों को वो करने दें जिसके वो सर्वथा योग्य हैं।
चलते चलते समाजवादी कार्यकर्ता और कवि श्याम बहादुर नम्र की ये कविता आपसे साझा करना चाहूँगा जो वर्तमान शिक्षा पद्धति की कमियों को सहज शब्दों में बखूबी उजागर करती है...
एक बच्ची स्कूल नहीं जाती, बकरी चराती है
वह लकड़ियाँ बटोर कर घर लाती है,
फिर माँ के साथ भात पकाती है।
एक बच्ची किताब का बोझ लादे स्कूल जाती है,
शाम को थकी माँदी घर आती है।
वह स्कूल से मिला होमवर्क, माँ बाप से करवाती है।
बोझ किताब का हो या लकड़ियों का दोनों बच्चियाँ ढोती हैं,
लेकिन लकड़ी से चूल्हा जलेगा, तब पेट भरेगा,
लकड़ी लाने वाली बच्ची यह जानती है।
वह लकड़ी की उपयोगिता पहचानती है।
किताब की बातें कब किस काम आती हैं?
स्कूल जाने वाली बच्ची बिना समझे रट जाती है।
लकड़ी बटोरना, बकरी चराना और माँ के साथ भात पकाना,
जो सचमुच गृहकार्य हैं, होमवर्क नहीं कहे जाते हैं।
लेकिन स्कूल से मिले पाठों के अभ्यास,
भले ही घरेलू काम ना हों, होमवर्क कहलाते हैं
ऐसा कब होगा
जब किताबें सचमुच के 'होमवर्क' से जुड़ेंगी
और लकड़ी बटोरने वाली बच्चियाँ भी ऐसी किताबें पढ़ेंगी।