मंगलवार, जनवरी 08, 2013

वार्षिक संगीतमाला 2012 पॉयदान # 21 : आला आला मतवाला बर्फी !

वार्षिक संगीतमाला की पिछली तीन सीढ़ियों को चढ़कर हम आ पहुँचे हैं बाइसवीं पॉयदान पर जहाँ पर इस साल की सफलतम फिल्मों से एक फिल्म 'बर्फी' का गीत है। वैसे जिन्होंने बर्फी फिल्म के सारे गीत सुने हैं उन्हें ये अनुमान लगाने में कोई कठिनाई नहीं होगी कि इस संगीतमाला में बर्फी के गीत कई बार बजेंगे।  आज जिस गीत की चर्चा हो रही है वो है बर्फी का शीर्षक गीत। वैसे तो इस गीत के दो वर्सन हैं एक खुद गीतकार स्वानंद किरकिरे का गाया हुआ और दूसरा मोहित चौहान की आवाज़ में।



स्वानंद को इस गीत के ज़रिये फिल्म की शुरुआत में ही बर्फी का चरित्र बयाँ कर देना था। हम अक्सर किसी गूँगे बहरे के बारे में सोचते हैं तो मन में दया की भावना उपजती है। पर इस फिल्म में इस तरह के चरित्र को इतने खुशनुमा तरीके से दिखाया गया है कि अब किसी मूक बधिर की बात होने पर अपने ज़ेहन में हमें बर्फी का हँसता मुस्कुराता ज़िदादिल चेहरा उभरेगा ना कि करुणा के कोई भाव।

पिछली पोस्ट में संगीतकार स्नेहा खानवलकर की एक बात मैंने उद्धृत की थी कि  अगर निर्देशक एक फिल्म में कहानी के परिवेश और चरित्र को अपनी सूझबूझ से गढ़ सकता है तो मैं भी अपने संगीत के साथ वही करने का प्रयास करती हूँ। और यही बात इस गीत में बर्फी का चरित्र गढ़ते स्वानंद बखूबी करते दिखाई पड़ते हैं। मुखड़े में बर्फी से हमारा परिचय वो कुछ यूँ कराते हैं..

आँखों ही आँखो करे बातें
गुपचुप गुपचुप गुपचुप गुप
खुस फुस खुस फुस खुस
आँखों ही आँखों में करे बातें
गुपचुप गुपचुप गुपचुप गुप
खुस फुस खुस फुस खुस
ओ ओ ये..
ख़्वाबों की नदी में खाए गोते
गुड गुड गुड गुड गुड गुड होए
बुड बुड बुड बुड बुड बुड.
आला आला मतवाला बर्फी
पाँव पड़ा मोटा छाला बर्फी
रातों का है यह उजाला बर्फी
गुमसुम गुमसुम ही मचाये यह तो उत्पात
खुर खुर खुर खुर ख़ुराफ़ातें करे नॉन-स्टॉप

आपको इससे पता चल जाता है कि जिस शख़्स की बात हो रही है भले ही वो बोल सुन नहीं सकता पर है बला का शरारती। पर ये तो बर्फी की शख़्सियत का मात्र एक पहलू है। गीत के दूसरे अंतरे में स्वानंद हमें बर्फी के चरित्र के दूसरे पहलुओं से रूबरू कराते हैं। धनात्मक उर्जा से भरपूर बर्फी दूसरों के दुखों के प्रति संवेदनशील है। आत्मविश्वास से भरा वो किसी से भी खुद को कमतर नहीं मानता। उसके लिए ज़िंदगी एक नग्मा है जिसे वो अपनी धड़कनों की तान के साथ गुनगुनाता चाहता है। पर जहाँ बर्फी मासूम है वहीं इतना नासमझ भी नहीं कि इस टेढ़ी दुनिया की चालें ना समझ सके।

कभी न रुकता रे, कभी न थमता रे
ग़म जो दिखा उसे खुशियों की ठोकर मारे
पलकों की हरमुनिया, नैनो की गा रे सारे
धड़कन की रिदम पे ये गाता जाए गाने प्यारे
भोला न समझो यह चालू खिलाडी है बड़ा बड़ा हे.. हे
सूरज ये बुझा देगा, मारेगा फूँक ऐसी
टॉप तलैया, पीपल छैय्या
हर कूचे की ऐसी तैसी हे..

स्वानंद ने गीत के मूड को हल्का फुल्का बनाए रखने के लिए खुस फुस ,खुर खुर, गुड गुड, बुड बुड जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है। हँसी हँसी में वो मरफी मुन्ने की कहानी कहते हुए उसके जीवन की त्रासदी भी बयाँ कर देते हैं।

बर्फी जब अम्मा जी की कोख में था सोया
अम्माँ ने मर्फी का रेडियो मँगाया
मर्फी मुन्ना जैसा लल्ला अम्मा का था सपना
मुन्ना जब हौले-हौले दुनिया में आया
बाबा ने चेलों वाला स्टेशन
रेडियो आन हुआ अम्मा ऑफ हुई
टूटा हर सपना...
ओह ओ ये..
मुन्ना म्यूट ही आंसू बहाए ओ..
ओ ओ ये मुन्ना झुनझुना सुन भी न पाए
झुन झुन झुन झुन....

कहना ना होगा कि प्रीतम द्वारा संगीबद्ध और मोहित द्वारा गाए इस गीत के असली हीरो स्वानंद हैं । जब जब ये गीत हमारे कानों से गुजरेगा बर्फी के व्यक्तित्व के अलग अलग बिंब हमारी आँखों के सामने होंगे। तो आइए सुनें ये हँसता मुस्कुराता गीत...


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7 टिप्पणियाँ:

sonal on जनवरी 08, 2013 ने कहा…

meetha geet

Mrityunjay Kumar Rai on जनवरी 09, 2013 ने कहा…

fabulous song. Should be in Top five

Shailendra Singh on जनवरी 09, 2013 ने कहा…

bilkul sahi kaha aapne

प्रवीण पाण्डेय on जनवरी 11, 2013 ने कहा…

बड़ी कोमल और कर्णप्रिय धुन..

Ankit on जनवरी 11, 2013 ने कहा…

बर्फी में प्रीतम की धुनों ने नए रंग तलाशे हैं। स्वानंद की तारीफ तो बनती ही है, इतना खूबसूरत गीत रचने के लिए। खुस-फुस, गुड-गुड, बुड-बुड इत्यादि क्या खूब लाये हैं। गायकी में ज़रूर मोहित चौहान वाला वर्ज़न ज़्यादा भाता है क्योंकि उसमे मोहित ने हरकतें अच्छी ली हैं लेकिन फिल्म में शायद स्वानंद का ही गाया हुआ है जो अच्छा लगता है। स्वानंद ने गाने के आखिरी पैरा में बर्फी की पैदाइश, मर्फी वाला किस्सा और कुदरत की नाइंसाफी को जबरदस्त लफ्ज़ देकर उन्होंने फिल्म के तकरीबन 10 मिनट तो बचा लिए हैं जो नहीं तो ये सब गढ़ने में चला जाता।
अपनी पसंद के हिसाब से कहूं तो इसे कुछ और पायदान उप्पर होना चाहिए था।

Manish Kumar on जनवरी 13, 2013 ने कहा…

सोनल, मृत्युंजय, प्रवीण व शैलेंद्र गीत पसंद करने का शुक्रिया।

मृत्युंजय बर्फी के बाकी गीत मुझे इससे ज्यादा पसंद हैं।

Manish Kumar on जनवरी 13, 2013 ने कहा…

अंकित दरअसल पन्द्रह से बीस तक की पॉयदानों में संगीत शब्द, गायिकी और ओवरआल एफेक्ट के हिसाब से दिए गए अंक लगभग बराबर हैं। इसलिए मेरी समझ से ये गीत इनमें से कोई भी स्थान लेने का हक़दार था। वैसे बर्फी के अन्य गीत मुझे इससे भी ज्यादा प्यारे लगते हैं।

स्वानंद की तारीफ़ में आपने जो लिखा है उससे अक्षरशः सहमत हूँ।

 

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