हिंदी फिल्मों में गीतकार पुराने दिग्गज़ों की कालजयी कृतियों से प्रेरणा लेते रहे हैं और जब जब ऐसा हुआ है परिणाम ज्यादातर बेहतरीन ही रहे हैं। पिछले एक दशक के हिंदी फिल्म संगीत में ऐसे प्रयोगों से जुड़े दो बेमिसाल नग्मे तो तुरंत ही याद आ रहे हैं। 2007 में एक फिल्म आई थी खोया खोया चाँद और उस फिल्म में गीतकार स्वानंद ने मज़ाज लखनवी की बहुचर्चित नज़्म आवारा से जी में आता है, मुर्दा सितारे नोच लूँ... का बड़ा प्यारा इस्तेमाल किया था। फिर वर्ष 2009 में प्रदर्शित फिल्म गुलाल में पीयूष मिश्रा ने फिल्म प्यासा में साहिर के लिखे गीत ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है.. को अपने लिखे गीत ओ री दुनिया... में उतना ही सटीक प्रयोग किया था।
वार्षिक संगीतमाला के इस साल का रनर्स अप का खिताब जीता है एक ऐसे ही गीत ने जिसके बारे में मैं पहले भी इस ब्लॉग पर लिख चुका हूँ। इस गीत की ख़ास बात ये भी है कि इसे लिखा एक गीतकार ने और गाया एक दूसरे गीतकार ने। इंडियन ओशन बैंड द्वारा संगीतबद्ध फिल्म मसान के इस गीत को आवाज़ दी है स्वानंद किरकिरे ने और इसे लिखा है वरुण ग्रोवर ने जो इस फिल्म के पटकथा लेखक भी हैं।
वार्षिक संगीतमाला के इस साल का रनर्स अप का खिताब जीता है एक ऐसे ही गीत ने जिसके बारे में मैं पहले भी इस ब्लॉग पर लिख चुका हूँ। इस गीत की ख़ास बात ये भी है कि इसे लिखा एक गीतकार ने और गाया एक दूसरे गीतकार ने। इंडियन ओशन बैंड द्वारा संगीतबद्ध फिल्म मसान के इस गीत को आवाज़ दी है स्वानंद किरकिरे ने और इसे लिखा है वरुण ग्रोवर ने जो इस फिल्म के पटकथा लेखक भी हैं।
दरअसल इस तरह के गीतों को फिल्मों के माध्यम से आम जनता और खासकर आज की नई पीढ़ी तक पहुँचाने के कई फायदे हैं। एक तो जिस कवि या शायर की रचना का इस्तेमाल हुआ है उसके लेखन और कृतियों के प्रति लोगों की उत्सुकता बढ़ जाती है। दूसरी ओर गायक, गीतकार और संगीतकार ऐसे गीतों पर पूरी ईमानदारी से मेहनत करते हैं ताकि मूल रचना पर किसी तरह का धब्बा ना लगे। यानि दोनों ओर से श्रोताओं की चाँदी !
वरुण ने मसान के इस गीत के लिए हिंदी के सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार दुष्यन्त कुमार की रचना का वो शेर लिया है जिसे लोग अनोखे बिंबो के लिए हमेशा याद रखते हैं यानि तू किसी रेल सी गुज़रती है,..मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ।
पर इस गीत के लिए वरुण के दिमाग में दुष्यन्त साहब की ग़ज़ल का मतला आया कैसे इसकी भी एक लंबी दास्तान है। वरुण ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था
मसान के लिए जब निर्देशक नीरज घायवान से वरूण की फिल्म के संगीत को लेकर बात हुई तो उन्होंने ये निर्णय लिया कि फिल्म के गीत काव्यात्मक होने चाहिए क्यूँकि नायिका शालू का चरित्र एक कविता प्रेमी का है जिसने ग़ालिब, बशीर बद्र, निदा फ़ाजली जैसे धुरंधरों को अच्छी तरह पढ़ रखा है। उदय प्रकाश के मुक्त छंद से लेकर उन्होंने फ़ैज़ और बद्र साहब की ग़ज़ले पढ़ीं पर तभी वरुण के दिमाग में दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल का मिसरा वापस लौट आया। गीत रचने में वरुण के समक्ष चुनौती थी सहज ज़मीनी शब्दों से वो वैसे रूपक रचें जो दुष्यन्त कुमार के शेर की सी ऊँचाइयाँ लिये हुए हों और ये काम उन्होंने बखूबी कर भी दिखाया।
बनारस की गलियों में दो भोले भाले दिलों के बीच पनपते इस फेसबुकिये प्रेम को जब वरुण अपने शब्दों के तेल से छौंकते हैं तो उसकी झाँस से सच ये दिल रूपी पुल थरथरा उठता है। वो फिर या तो उसका नाम हर वक़्त बुदबुदाने की बात हो या सफ़र में उसकी यादों का अलाव जलाने की।
पर मन सिर्फ मन जीतने से थोड़े ही मान जाता है। उसे तो तन भी चाहिए। सो दूसरे अंतरे में बदमाशी भरे लहजे में गीतकार काठ के तालों को इशारों की चाभियों से तोड़ने की बात भी करते हैं। गीत के बोलों में छुपी शरारत खूबसूरत रूपकों के ज़रिए उड़ा ले जाती है प्रेम के इस बुलबुले को उसकी स्वाभाविक नियति के लिए.
पर इस गीत के लिए वरुण के दिमाग में दुष्यन्त साहब की ग़ज़ल का मतला आया कैसे इसकी भी एक लंबी दास्तान है। वरुण ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था
जब मैं लखनऊ में दसवीं में पढ़ रहा था तो मेरे सपनों का भारत पर निबंध लिखते समय मैंने पहली बार दुष्यन्त कुमार के मशहूर शेर कौन कहता है कि आसमान में सुराख नहीं हो सकता....एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों का इस्तेमाल किया था। उन स्कूली दिनों में दुष्यन्त कुमार के शेर वाद विवाद प्रतियोगिता का अहम हिस्सा हुआ करते थे। आगे के सालों में दुष्यन्त जी की कविताओं से साथ छूट गया। पर लखनऊ में ही एक दोस्त की शादी ने उनकी कविता से फिर मुलाकात करा दी। मेरे दोस्त के पिता ने वहाँ उनकी ग़ज़ल सुनाई मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ.....जिसमें ये तू किसी रेल सी गुजरती है वाला शेर भी है। तभी से ये ग़ज़ल और खासकर ये शेर मेरे ज़ेहन में बस गया।
अजीब रूपक था ये एक लड़की का रेल की तरह गुजरना और उसके प्रेमी का उसे देख पुल की तरह थरथराना। देखने से कितना सूखा सा बिंब लगता है। यंत्रवत चलती ट्रेन और लोहे का पुल। पर मेरे ये लिए हिन्दी कविताओं में प्रायः इस्तेमाल किये जाने वाले बिंबों से एक दम अलग था। जरा दूसरे नज़रिए से सोचिए, इंजन और रेल का ये रोज का क्षणिक पर दैहिक मिलन कितना नर्म, मादक अहसास जगाता है मन में उस चित्र के साथ जिसमें हम सभी पल बढ़ के बड़े हुए हैं।
मसान के लिए जब निर्देशक नीरज घायवान से वरूण की फिल्म के संगीत को लेकर बात हुई तो उन्होंने ये निर्णय लिया कि फिल्म के गीत काव्यात्मक होने चाहिए क्यूँकि नायिका शालू का चरित्र एक कविता प्रेमी का है जिसने ग़ालिब, बशीर बद्र, निदा फ़ाजली जैसे धुरंधरों को अच्छी तरह पढ़ रखा है। उदय प्रकाश के मुक्त छंद से लेकर उन्होंने फ़ैज़ और बद्र साहब की ग़ज़ले पढ़ीं पर तभी वरुण के दिमाग में दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल का मिसरा वापस लौट आया। गीत रचने में वरुण के समक्ष चुनौती थी सहज ज़मीनी शब्दों से वो वैसे रूपक रचें जो दुष्यन्त कुमार के शेर की सी ऊँचाइयाँ लिये हुए हों और ये काम उन्होंने बखूबी कर भी दिखाया।
बनारस की गलियों में दो भोले भाले दिलों के बीच पनपते इस फेसबुकिये प्रेम को जब वरुण अपने शब्दों के तेल से छौंकते हैं तो उसकी झाँस से सच ये दिल रूपी पुल थरथरा उठता है। वो फिर या तो उसका नाम हर वक़्त बुदबुदाने की बात हो या सफ़र में उसकी यादों का अलाव जलाने की।
पर मन सिर्फ मन जीतने से थोड़े ही मान जाता है। उसे तो तन भी चाहिए। सो दूसरे अंतरे में बदमाशी भरे लहजे में गीतकार काठ के तालों को इशारों की चाभियों से तोड़ने की बात भी करते हैं। गीत के बोलों में छुपी शरारत खूबसूरत रूपकों के ज़रिए उड़ा ले जाती है प्रेम के इस बुलबुले को उसकी स्वाभाविक नियति के लिए.
तू किसी रेल सी गुज़रती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
तू भले रत्ती भर ना सुनती है...
मैं तेरा नाम बुदबुदाता हूँ..
किसी लंबे सफर की रातों में
तुझे अलाव सा जलाता हूँ
काठ के ताले हैं, आँख पे डाले हैं
उनमें इशारों की चाभियाँ लगा
रात जो बाकी है, शाम से ताकी है
नीयत में थोड़ी खराबियाँ लगा.. खराबियाँ लगा..
मैं हूँ पानी के बुलबुले जैसा
तुझे सोचूँ तो फूट जाता हूँ
तू किसी रेल सी गुज़रती है.....थरथराता हूँ
बतौर गायक स्वानंद की आवाज़ को मैं हजारों ख्वाहिशें ऐसी, परीणिता, खोया खोया चाँद जैसी फिल्मों में गाये उनके गीतों से पसंद करता आया हूँ। इस बार भी पार्श्व में गूँजती उनकी दमदार आवाज़ मन में गहरे पैठ कर जाती है। इंडियन ओशन ने भी गीत के बोलों को न्यूनतम संगीत संयोजन से दबने नहीं दिया है। तो आइए सुनते हैं नए कलाकारों श्वेता त्रिपाठी और विकी कौशल पर फिल्माए ये नग्मा..
19 टिप्पणियाँ:
शुक्रिया मनीष! इसी कड़ी में इरशाद साब का 'आज दिन चढ़या' भी जोड़ा जा सकता है, जो बटालवी साब की नज़्म से बीज लेता है।
हाँ बिल्कुल वरुण !
भाई वाह, बहुत बढियां लिखा है, पुरानी रचनाओं को समसामयिक संदर्भों में प्रयोग पर बहुत अच्छा लिखा है आपने। साझा करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार।
शुक्रिया विमल जी !
इस गीत से परिचय आपने ही कराया था मेरे जन्मदिन के दूसरे दिन। अगर इसी को अपना बर्थडे गिफ्ट मान लूँ तो बड़ा खूबसूरत गिफ्ट था। दिनों तक मेरी हेलो ट्यून रहा यह गीत।
तू किसी रेल सी...! यह शेर, यह बिम्ब वाक़ई यह हांट करता है, शायद इसी कारण गीतकार को भी हांट करता रह गया होगा यह शेर।
फिलहाल रनर अप के लिए
क्यूँ हांट कर गया इसका जवाब है ना पोस्ट में :)बकौल वरूण ग्रोवर.."अजीब रूपक था ये एक लड़की का रेल की तरह गुजरना और उसके प्रेमी का उसे देख पुल की तरह थरथराना। देखने से कितना सूखा सा बिंब लगता है। यंत्रवत चलती ट्रेन और लोहे का पुल। पर मेरे ये लिए हिन्दी कविताओं में प्रायः इस्तेमाल किये जाने वाले बिंबों से एक दम अलग था। जरा दूसरे नज़रिए से सोचिए, इंजन और रेल का ये रोज का क्षणिक पर दैहिक मिलन कितना नर्म, मादक अहसास जगाता है मन में उस चित्र के साथ जिसमें हम सभी पल बढ़ के बड़े हुए हैं।"
हाँ यही जवाब है और सही जवाब है।
Very lovely song Manish Ji
Mritunjay आपको भी गीत पसंद आया ये जानकर खुशी हुई।
Maine jab ye kavita kuch saal pahle padhi/suni thi tab iska marm shayad utna samajh nahi aaya tha, lekin masaan mein jab ye gaana aata hai aur jaise hi shuru hota hai, aap jaise iska marm jaan lete ho..
गीत का फिल्मांकन भी शानदार है। दुर्गा पूजा की भीड़ में किसी को खोजती निगाहें मुझे तो अपनी किशोरावस्था में ले गयीं।
अपने बिलकुल सही कहा मनीष जी, ऐसे गाने पुराने शायरों के लिए श्रोताओ की उत्सुकता बढ़ाते हे.... ये गाना यहाँ सुना तो इसके बाद दुष्यंत कुमार जी को पूरा पढ़ डाला... हम जैसे कविता प्रेमियों के लिए ऐसे गाने एक तोहफा होते हे...
तो फिर आपने मीनू पुरुषोत्तम वाली ग़ज़ल सुनी जो दुष्यन्त जी की इसी रचना पर आधारित है। अगर नहीं सुनी तो यहाँ सुन लीजिए।
http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.in/2015/07/tu-kisi-rail-si-masaan.html
And the winner is "Moh Moh Ke dhaagey" :-)
दुष्यंत जी की ग़ज़ल और मीनू पुरुषोत्तम जी की गायिकी...कुल मिलाकर एक बहुत ही सुन्दर रचना... इस link के लिए आपका शुक्रिया....
जब भी किसी नए गीतकार ने अपने गीतों में पुरानी ग़ज़लों की मिठास घोली हे तो परिणाम हमेशा अच्छे ही रहे हे... उम्मीद हे की ऐसे गाने आगे भी बनते रहेंगे... :)
Patna ke kis kalibaadi mein jaate the aap? Ya apne ghar ke aas paas MLA flats area mein?
Stone Obvious guess :)!
Sumit दुर्गा पूजा कै दौरान अशोक राजपथ,नाला रोड, स्टेशन व गाँधी मैदान के पूजा पंडालों और फिर मैदान में हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में कुछ वक़्त बिताना तब हमारे परिवार का प्रिय शगल था अस्सी के दशक की शुरुआत में।
स्वाति सहमत हूँ आपके विचार और उम्मीद से। :)
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