रविवार, जून 30, 2019

ओ घटा साँवरी, थोड़ी-थोड़ी बावरी O Ghata Sanwari

बरसात की फुहारें रुक रुक कर ही सही मेरे शहर को भिंगो रही हैं। पिछले कुछ दिनों से दिन चढ़ते ही गहरे काले बादल आसमान को घेर लेते हैं। गर्जन तर्जन भी खूब करते हैं। बरसते हैं तो लगता है कि कहर बरपा ही के छोड़ेंगे पर फिर अचानक ही उनका नामालूम कहाँ से कॉल आ जाता है और वे चुपके से खिसक लेते हैं। गनीमत ये है कि वो ठंडी हवाओं को छोड़ जाते हैं जिनके झोंको का सुखद स्पर्श मन को खुशनुमा कर देता है।

ऍसे ही खुशनुमा मौसम में टहलते हुए परसों 1970 की फिल्म अभिनेत्री का ये गीत कानों से टकराया और बारिश से तरंगित नायिका के चंचल मन की आपबीती का ये सुरीला किस्सा सुन मन आनंद से भर उठा। क्या गीत लिखा था मजरूह ने! भला बताइए तो क्या आप विश्वास करेंगे कि एक कम्युनिस्ट विचारधारा वाला शायर जो अपनी इंकलाबी रचनाओ की वज़ह से साल भर जेल की हवा खा चुका हो इतने रूमानी गीत भी लिख सकता है? पर ये भी तो सच है ना कि हर व्यक्ति की शख्सियत के कई पहलू होते हैं।


मजरूह के बोलों को संगीत से सजाया था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की जोड़ी ने। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल कभी भी मेरे पसंदीदा संगीतकार नहीं रहे। इसकी एक बड़ी वजह थी अस्सी और नब्बे के दशक में उनका संगीत जो औसत दर्जे का होने के बावजूद भी कम प्रतिस्पर्धा के चलते लोकप्रिय होता रहा था। फिल्म संगीत की गुणवत्ता में निरंतर ह्रास के उस दौर में उनके इलू इलू से लेकर चोली के पीछे तक सुन सुन के हमारी पीढ़ी बड़ी हुई थी। लक्ष्मी प्यारे के संगीत की मेरे मन में कुछ ऐसी छवि बन गयी थी कि मैंने उनके साठ व सत्तर के दशक में संगीतबद्ध गीतों पर कम ही ध्यान दिया। बाद में मुझे इन दशकों में उनके बनाए हुए कई नायाब गीत सुनने को मिले जो मेरे मन में उनकी छवि को कुछ हद तक बदल पाने में सफल रहे।

लक्ष्मीकांत बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखते थे। जीवकोपार्जन के लिए उन्होंने संगीत सीखा। मेंडोलिन अच्छा बजा लेते थे। एक कार्यक्रम में उनकी स्थिति के बारे में लता जी को बताया गया। फिर लता जी के ही कहने पर उन्हें कुछ संगीतकारों के यहाँ काम मिलने लगा। इसी क्रम में उनकी मुलाकात प्यारेलाल से हुई जिन्हें वॉयलिन में महारत हासिल थी। कुछ दिनों तक दोनों ने साथ साथ कई जगह वादक का काम किया और फिर उनकी जोड़ी बन गयी जो उनकी पहली ही फिल्म पारसमणि में जो चमकी कि फिर चमकती ही चली गयी़। कहते हैं कि उस ज़माने में उनकी कड़की का ये हाल था कि उनके गीत कितने हिट हुए ये जानने के लिए वे गली के नुक्कड़ पर पान दुकानों पर बजते बिनाका गीत माला के गीतों पर कान लगा कर रखते थे।

लक्ष्मी प्यारे को अगर आरंभिक सफलता मिली तो उसमें उनकी मधुर धुनों के साथ लता जी की आवाज़ का भी जबरदस्त हाथ रहा। ऐसा शायद ही होता था कि लता उनकी फिल्मों में गाने के लिए कभी ना कर दें। फिल्म जगत को ये बात पता थी और ये उनका कैरियर ज़माने में सहायक रही।

ओ घटा साँवरी, थोड़ी-थोड़ी बावरी
हो गयी है बरसात क्या
हर साँस है बहकी हुई
अबकी बरस है ये बात क्या
हर बात है बहकी हुई
अबकी बरस है ये बात क्या
ओ घटा साँवरी...

पा के अकेली मुझे, मेरा आँचल मेरे साथ उलझे
छू ले अचानक कोई, लट में ऐसे मेरा हाथ उलझे
क्यूँ रे बादल तूने.. ए ..ए.. ए.. आह उई ! तूने छुआ मेरा हाथ क्या
ओ घटा साँवरी...

आवाज़ थी कल यही, फिर भी ऐसे लहकती ना देखी
पग में थी पायल मगर, फिर भी ऐसे छनकती ना देखी
चंचल हो गये घुँघरू रू.. मे..रे..,  घुँघरू मेरे रातों-रात क्या
ओ घटा साँवरी...

मस्ती से बोझल पवन, जैसे छाया कोई मन पे डोले
बरखा की हर बूँद पर, थरथरी सी मेरे तन पे डोले
पागल मौसम जारे जा जाजा जा.. जा तू लगा मेरे साथ क्या!
ओ घटा साँवरी...

तो लौटें आज के इस चुहल भरे सुरीले गीत पर। लक्ष्मी प्यारे ने इस गीत की धुन राग कलावती पर आधारित की थी। बारिश के आते ही नायिका का तन मन कैसे एक मीठी अगन से सराबोर हो जाता है मजरूह ने इसी भाव को इस गीत में बेहद प्यारे तरीके से विस्तार दिया है। लक्ष्मी प्यारे ने लता जी से हर अंतरे की आखिरी पंक्ति में शब्दों के दोहराव से जो प्रभाव उत्पन्न किया है वो लता जी की आवाज़ में और मादक हो उठा है। तो चलिए हाथ भर के फासले पर मँडराते बादल और मस्त पवन के झोंको के बीच सुनें लता जी की लहकती आवाज़ और छनकती पायल को ...


जितना प्यारा ये गीत है उतना ही बेसिरपैर का इसका फिल्मांकन है। हेमा मालिनी पर फिल्माए इस गीत की शुरुआत तो बारिश से होती है पर गीत खत्म होते होते ऐसा लगता है कि योग की कक्षा से लौटे हों। बहरहाल एक रोचक तथ्य ये भी है कि इस फिल्म के प्रीमियर पर धरम पा जी ने पहली बार अपनी चंगी कुड़ी हेमा को देखा था।

एक शाम मेरे नाम पर मानसूनी गीतों की बहार  

शनिवार, जून 15, 2019

यादें इब्ने इंशा की : फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों ! Farz Karo..

इब्ने इंशा का आज यानी 15 जून को जन्मदिन है। अगर वो आज हमारे साथ रहते तो उनकी उम्र 92 की होती। इब्ने इंशा मेरे पसंदीदा साहित्यकारों में से एक रहे हैं। शायर इसलिए नहीं कह रहा कि मुझे उनके लिखे व्यंग्य भी बेहद उम्दा लगते हैं। उर्दू की आखिरी किताब पढ़ते वक़्त जितना मैं हँसते हँसते लोटपोट हुआ था उसके बाद वैसी कोई मजेदार किताब पढ़ने को नहीं मिली। उनके यात्रानामों का अभी तक हिंदी में अनुवाद नहीं आया है। जिस दिन आएगा उस दिन चीन जापान से लेकर मध्य पूर्व के उनके यात्रानामों को पढ़ने की तमन्ना है।



जो लोग कविता को पढ़ पढ़ कर रस लेते हैं उनके लिए इब्ने इंशा जैसा कोई शायर नहीं है। इंशा जी की शायरी में जहाँ एक ओर शोखी है, शरारत है तो वहीं दूसरी ओर एक बेकली, तड़प और एक किस्म की फकीरी भी है। अपने दुख के साथ साथ समाज के प्रति अपने दायित्व को उनकी नज़्में बारहा उभारती हैं। ये बच्चा किसका बच्चा है और बगदाद की एक रात उनकी ऍसी ही श्रेणी की लंबी नज़्में हैं। 

आजकल के शायरों में अगर चाँद किसी की नज़्मों और गीतों मे बार बार दिखता है तो वो गुलज़ार साहब हैं पर जिनलोगों ने इब्ने इंशा को पढ़ा है वो जानते हैं कि चाँद के तमन्नाइयों में इंशा सबसे ऊपर हैं। बचपन में उनकी शायरी से मेरा परिचय जगजीत सिंह की गाई ग़ज़ल कल चौदहवीं की रात थी, से ही हुआ था। इंशा ने अपनी पहली किताब का भी नाम चाँदनगर रखा। इंशा ने इस बात का जिक्र भी किया है कि उनका घर एक रेलवे स्टेशन के पास था जिसके ऊपर बने पुल पर वो घंटों चर्च के घंटा घर की आवाज़ें सुनते और चाँद को निहारा करते थे। चाहे वो एकांत में रहें या शहर की भीड़ भाड़ में, चाँद से उनकी प्रीति बनी रही। चाँदनगर की प्रस्तावना में अपनी शायरी के बारे में इंशा लिखते हैं...   
मैं शुरु से स्वाभाव का रूमानी था पर मैं ऍसे संसार का वासी हूँ जहाँ सब कुछ प्रेममय नहीं है। मेरी लंबी नज़्में मेरे आस पास की घटनाओं का कटु सत्य उजागर करती हैं। हालांकि कई बार ऐसा लेखन मेरी रूमानियत के आड़े आता रहा। फिर भी मैंने कोशिश की चाहे प्रेम हो या जगत की विपदा जब भी लिखूँ मन की भावनाओं को सच्चे और सशक्त रूप में उभारूँ।
अब फर्ज करो को ही लीजिए। कैसी शरारत भरी नज़्म है कि एक ओर तो उनके दिल में दबा प्रेम इस रचना के हर टुकड़े से कुलाँचे मार कर बाहर निकलना चाहता है तो दूसरी ओर अपनी ही भावनाओं को हर दूसरी पंक्ति में वो विपरीत मोड़ पर भी ले जाते हैं ताकि सामने वाले के मन में संशय बना रहे। ये जो इंसानी फितरत है वो थोड़ी बहुत हम सबमें हैं। प्रेम से लबालब भरे पड़े हैं पर जब सीधे पूछ दिया जाए तो कह दें नहीं जी ऐसा भी कुछ नहीं हैं। आपने आखिर क्या सोच लिया और फिर बात को ही घुमा दें? अपनी बात कहते हुए जिस तरह इंशा ने हम सब की मनोभावनाओं पर चुपके से सेंध मारी है,वो उनकी इस रचना को इतनी मकबूलियत दिलाने में सफल रहा।


इब्ने इंशा को उनके जन्मदिन पर याद करने के लिए उनकी बेहद लोकप्रिय नज़्म पढ़ने की कोशिश की है। यूँ तो इब्ने इंशा की इस नज़्म को छाया गाँगुली और हाल फिलहाल में जेब बंगेश ने अपनी आवाज़ से सँवारा है पर जो आनंद इसे बोलते हुए पढ़ने में आता है वो संगीत के साथ सुनने में मुझे तो नहीं आता। आशा है आप भी पूरे भावों के साथ साथ ही में पढ़ेंगे इसको

फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों

फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई हो
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो

फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के ढूंढे हमने बहाने हों
फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सचमुच के मयख़ाने हों

फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूठा, झूठी पीत हमारी हो
फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में सांस भी हम पर भारी हो

फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सब कुछ माया हो




एक शाम मेरे नाम पर इब्ने इंशा
 

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