जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
इससे पहले कि क़तील के गीतों और गीतनुमा ग़ज़लों का जिक्र किया जाए, आज की शाम का आग़ाज क़तील की इस लोकप्रिय ग़ज़ल के चंद अशआरों से करते है्
गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं हम चराग़ों की तरह शाम से जल जाते हैं
शमा जिस आग में जलती है नुमाइश के लिये हम उसी आग में गुमनाम से जल जाते हैं
जब भी आता है मेरा नाम तेरे नाम के साथ जाने क्यूँ लोग मेरे नाम से जल जाते हैं
रब्ता बाहम पे हमें क्या न कहेंगे दुश्मन आशना जब तेरे पैग़ाम से जल जाते हैं
क़तील ने एक शायर के रूप में तो प्रसिद्धि पाई ही, साथ ही साथ तमाम पाकिस्तानी और हिंदी फिल्मों के लिए गीत भी लिखे। जनवरी 1947 में क़तील को लाहौर के एक फिल्म प्रोड्यूसर ने गाने लिखने की दावत दी, उन्होंने जिस पहली फिल्म में गाने लिखे उसका नाम था ‘तेरी याद’ । वैसे तो हिंदी फिल्मों में 'गुमनाम' और फिर 'तेरी कहानी याद आई' में लिखे उनके गीत बेहद कर्णप्रिय हैं पर क़तील के लिखे गीतों में जो सबसे अधिक चर्चित हुआ वो था "मोहे आई न जग से लाज ....के घुँघरू टूट गए।" हम लोगों ने तो पहली बार इसे अनूप जलोटा के स्वर में सुना था पर बाद में पता चला कि इसे तो कितने ही गायकों ने अपनी आवाज़ से संवारा है। क़तील मज़ाहिया लहजे में कहते थे कि "जब तक भारत और पाकिस्तान का कोई भी गायक इस गीत को नहीं गा लेता वो गवैया नहीं कहलाता"।
अक्सर फिल्मों के गीत लिखने और साथ साथ शायर करने वालों को ठेठ साहित्यिक वर्ग हेय दृष्टि से देखता है। क़तील को भी इस वज़ह से अपने आलोचकों का सामना करना पड़ा। इसलिए इस गीत को मुशायरे में पढ़ते वक़्त क़तील ने इस बात पर जोर दिया कि उनके गीत सिर्फ फिल्मी नहीं बल्कि इल्मी भी होते हैं। देखिए इस मुशायरे में वो ये गीत किस अदा से पढ़ रहे हैं।
मोहे आई न जग से लाज मैं इतना ज़ोर से नाची आज के घुंघरू टूट गए कुछ मुझ पे नया जोबन भी था कुछ प्यार का पागलपन भी था हर पलक मेरी तीर बनी और ज़ुल्फ़ मेरी ज़ंजीर बनी लिया दिल साजन का जीत वो छेड़े पायलिया ने गीत के घुंघरू टूट गए
धरती पे न मेरे पैर लगे बिन पिया मुझे सब ग़ैर लगे मुझे अंग मिले अरमानों के मुझे पंख मिले परवानों के जब मिला पिया का गाँव तो ऐसा लचका मेरा पाँव के घुंघरू टूट गए
मेहंदी हसन साहब का गाया हुआ "जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं ..." जैसा अजर अमर गीत भी क़तील शिफ़ाई ने ही लिखा था।
तलत अज़ीज ने भी क़तील की कई गीतनुमा ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी है। उम्मीद है कि बरसात के इस मौसम में इस ग़ज़ल को सुनकर तलत अज़ीज की आवाज़ आपको अपनी कुछ पुरानी यादों तक पहुँचने में मदद करेगी। वैसे भी इस ग़ज़ल के मक़ते में जिसे तलत अज़ीज ने गाया नहीं है क़तील खुद भी कहते हैं
हम चाक - ए-गिरेबाँ आप भी थे, क्या कहते क़तील जमाने से छेड़ा जो पराया अफ़साना, अपनी भी कहानी याद आई
वैसे इस ग़ज़ल को शुरु करने के पहले तलत अज़ीज साहव ये क़ता जरूर पढ़ते थे जिससे ग़ज़ल का लुत्फ कुछ और बढ़ जाया करता था।
आयी जो रुत सुहानी तेरी याद आ गयी
महकी जो रातरानी तेरी याद आ गयी
खुद को सँभाले रखा था यादों की भीड़ में
कल ऐसा बरसा पानी तेरी याद आ गयी
बरसात की भीगी रातों में फिर कोई सुहानी याद आई कुछ अपना ज़माना याद आया, कुछ उनकी जवानी याद आई
हम भूल चुके थे, किस ने हमें, दुनिया में अकेला छोड़ दिया जब गौर किया तो इक सूरत जानी पहचानी याद आई
कुछ पाँव के छाले, कुछ आँसू, कुछ गर्द-ए-सफ़र, कुछ तनहाई उस बिछड़े हुए हमराही की एक-एक निशानी याद आई
फिर सब्र का दामन छूट गया, शीशे की तरह दिल टूट गया तनहाई के लमहों में शायद फिर कोई पुरानी याद आई
क़तील शिफाई पर इस श्रृंखला की आखिरी कड़ी में पेश करूँगा क़तील शिफ़ाई की लिखी और तलत अजीज की गाई एक और ग़ज़ल जिसे गुनगुनाना मुझे बेहद प्रिय है...
क़तील की शायरी को जितना पढ़ेंगे आप ये महसूस करेंगे कि प्रेम, वियोग, बेवफाई की भावना को जिस शिद्दत से उन्होंने अपनी लेखनी का विषय बनाया है, वैसा गिने चुने शायरों की शायरी में ही नज़र आता है। आज के इस भाग में आपको सुनवाएँगे क़तील की आवाज में उनकी एक खूबसूरत क़ता और ग़ज़ल, उनकी शक्ल-ओ-सूरत के बारे में प्रकाश पंडित की चुटकियाँ और आखिर में प्रेम के वियोग में डूबी उनकी एक ग़ज़ल जिसे अपनी आवाज़ में मैंने आप तक पहुँचाने का प्रयास किया है।
क्या आप मानते हैं कि प्रेम में डूबकर कोई चमत्कार संभव है? क्या आपने ऍसा महसूस नहीं किया कि प्रेम आपकी सोच को उस मुहाने तक ले जाता है जहाँ दिमाग रूपी नदी में उठती लहरें शिथिल पड़ जाती हैं। शायद ऍसे ही किसी मूड में क़तील कह उठते हैं
बशर1 के रूप में इक दिलरुबा तिलिस्म बने शफक़2 में धूप मिलाएँ तो उसका जिस्म बने वो मोजज़ा3 की हद तक पहुँच गया है क़तील रूप कोई भी लिखूँ उसी का इस्म4 बनें
1.मनुष्य, 2.प्रातः काल या संध्या के समय में आकाश में छाई लाली, 3. चमत्कार, 4.छवि, नाम
अपनी इस रिकार्डिंग में क़तील एक अलहदा अंदाज में जब अपना ये फिलासफिकल शेर पढ़ते हैं तो मन बाग-बाग हो जाता है
ना कोई खाब हमारे हैं ना ताबीरे हैं हम तो पानी पे बनाई हुई तसवीरें हैं
और जब इस शेर का जिक्र आया है तो इस ग़ज़ल का मकता भी आपसे बाँटता चलूँ
हो ना हो ये कोई सच बोलने वाला है क़तील जिसके हाथों में कलम पावों में जंजीरे हैं
तो चलिए अब ले चलते हैं आपको एक मुशायरे में जहाँ क़तील अपनी बुलंद आवाज़ ये ग़ज़ल पढ़ रहे हैं और अपने साथियों की वाहा वाही लूट रहे हैं।
ये मोज़जा भी मोहब्बत कभी दिखाए मुझे कि संग तुझ पे गिरे और जख़्म आए मुझे
मैं घर से तेरी तमन्ना पहन के जब निकलूँ बरहना शहर में कोई नज़र ना आए मुझे
वो मेरा दोस्त है सारे ज़हाँ को है मालूम दगा करे वो किसी से तो शर्म आए मुझे
वो मेहरबाँ है तो इक़रार क्यूं नहीं करता वो बदगुमाँ है तो सौ बार आज़माए मुझे
मैं अपनी जात में नीलाम हो रहा हूँ क़तील गम-ए-हयात1 से कह दो खरीद लाए मुझे1. जीवन
इस ग़ज़ल में चंद शेर और हैं जो मुझे बेहद प्यारे हैं। अब यहाँ गौर फरमाइए कितने तरीके से बात रखी है अपनी शायर ने..
मैं अपने पाँव तले रौंदता हूँ साये को बदन मेरा ही सही, दोपहर ना भाये मुझे
और मेरे मित्र ध्यान रखें :)
वही तो सबसे ज्यादा है नुक़्ताचीं मेरा जो मुस्कुरा के हमेशा गले लगाए मुझे
ये मुशायरा तो संभवतः नब्बे के दशक के उत्तरार्ध का है। क़तील के बारे में इतना पढ़ने के बाद म पाठकों में सहज उत्सुकता जाग उठी होगी कि 'मोहब्बतों का ये शायर ' अपनी जवानी में कैसा दिखता होगा ? मेरे पास युवा क़तील की कोई तसवीर तो नहीं पर प्रकाश पंडित का ये शब्द चित्र, जरूर उनकी शक्ल-ओ-सूरत का खाका आपके ज़ेहन में खींचने में सफल होगा, ऍसा मुझे यकीं है। प्रकाश पंडित साहब बड़े ही मज़ाहिया लहजे में युवा क़तील के बारे में लिखते हैं...
".....क़तील’ शिफ़ाई जाति का पठान है और एक समय तक गेंद-बल्ले, रैकट, लुंगियाँ और कुल्ले बेचता रहा है, चुँगीख़ाने में मुहर्रिरी और बस-कम्पनियों में बुकिंग-क्लर्की करता रहा है तो उसके शे’रों के लोच-लचक को देखकर आप अवश्य कुछ देर के लिए सोचने पर विवश हो जाएँगे। इस पर यदि कभी आपको उसे देखने का अवसर मिल जाए और आपको पहले से मालूम न हो कि वह ‘क़तील’ शिफ़ाई है, तो आज भी आपको वह शायर की अपेक्षा एक ऐसा क्लर्क नज़र आएगा जिसकी सौ सवा सौ की तनख्वाह के पीछे आधे दर्जन बच्चे जीने का सहारा ढूँढ़ रहे हों। उसका क़द मौज़ूँ है, नैन-नक़्श मौज़ूँ हैं। बाल काले और घुँघराले हैं। गोल चेहरे पर तीखी मूँछें और चमकीली आँखें हैं और वह हमेशा ‘टाई’ या ‘बो’ लगाने का आदी। फिर भी न जाने क्यों पहली नज़र में वह ऐसा ठेठ पंजाबी नज़र आता है जो अभी-अभी लस्सी के कुहनी-भर लम्बे दो गिलास पीकर डकार लेने के बारे में सोच रहा हो।
पहली नज़र में वह जो भी नज़र आता हो, दो-चार नज़रों या मुलाक़ातों के बाद बड़ी सुन्दर वास्तविकता खुलती है-कि वह डकार लेने के बारे में नहीं, अपनी किसी प्रेमिका के बारे में सोच रहा होता है-उस प्रेमिका के बारे में जो उसे विरह की आग में जलता छोड़ गई, या उस प्रेमिका के बारे में जिसे इन दिनों वह पूजा की सीमा तक प्रेम करता है। ......."
ऊपर की बातों को समझने के लिए मुझे कुछ और कहने की जरूरत नहीं बस इस ग़जल को एक बार पढ़ लें,
मेरी जिंदगी, तू फिराक़ है ,वो अज़ल से दिल में मकीं सही वो निगाह-ए-शौक से दूर हैं ,रग-ए-जां1 से लाख क़रीं सही 1शरीर की मुख्य रक्तवाहिनी
हमें जान देनी है एक दिन, वो किसी तरह वो कहीं सही हमें आप खींचिए वार पर, जो नहीं कोई तो हमीं सही
सर-ए-तूर सार-ए-हश्र हो, हमें इंतज़ार क़बूल है वो कभी मिलें वो कहीं मिलें, वो कभी सही, वो कहीं सही
ना हो उन पे मेरा बस नहीं, कि ये आशिकी है हवस नहीं मैं उन्हीं का था, मैं उन्हीं का हूँ, वो मेरे नहीं, तो नहीं सही
मुझे बैठने की जगह मिले, मेरी आरजू का भरम रहे तेरी अंजुमन में अगर नहीं , तेरी अंजुमन के करीं सही
तेरा दर तो हमको ना मिल सका, तेरी रहगुजर की जमीं सही हमें सज़दा करने से काम है जो वहाँ नहीं तो यहीं सही
उसे देखने की जो लौ लगी तो क़तील देख ही लेंगे हम वो हज़ार आँख से दूर हो, वो हज़ार पर्दानशीं सही
मैंने क़तील साहब की आवाज़ में ये ग़ज़ल खोजने की कोशिश की पर नहीं मिली तो अपनी आवाज़ में इसे पढ़ने की कोशिश की है। इस ग़ज़ल को पढ़ते वक़्त मुझे एक अलग तरह का प्रवाह और जुनूं का एहसास हुआ इसलिए ये अंदाजा लगा सकता हूँ कि इसे लिखने वाला अपनी मोहब्बत में किस क़दर जुनूनी रहा होगा।
तो जनाब इस ग़ज़ल में आपको डूबता छोड़ इस भाग का यहीं समापन करता हूँ। इस श्रृंखला की अगली कड़ी में क़तील की ग़जलों के आलावा पहली बार सुनेंगे उनकी आवाज़ में उनका लिखा एक बहुचर्चित गीत....
यूँ तो जगजीत जी ने कतील शिफ़ाई की बहुत सारी ग़ज़लें गाई हैं पर मुझे उनमें से तीन मेरी आल टाइम फेवरट ग़जलें हैं। तो चलिए आज की शाम की महफिल सजाते हैं जगजीत जी की गाई इन तीनों ग़जलों से । और पिछली पोस्ट की तरह महफिल का अंत क़तील की आवाज़ में पढ़ी गई उनकी एक खूबसूरत ग़ज़ल से....
जिंदगी में कभी आप जब अपने प्यारे हमसफ़र के साथ बैठे हों और मन अपने साथी के प्रति अपने प्रेम को अभिव्यक्त करने को मचल रहा हो तो किस तरह अपनी भावनाओं को शब्द देंगे आप? क्या कहेंगे आप उससे ? आपका उत्तर तो मुझे नहीं मालूम पर मैं तो क़तील की इस ग़ज़ल का ही सहारा लूँगा। इसका हर एक शेर कमाल है। कॉलेज के जमाने में इस ग़ज़ल को जब पहली बार सुना था तो महिनों अपने आप को इस ग़ज़ल के प्रभाव से मुक्त नहीं कर पाया था। दरअसल सीधे सादे शब्दों से एक गहरी भावना को निकाल पाना सबके बूते की बात नहीं है। पर क़तील को इस फ़न में कमाल हासिल था। मतले पर गौर करें क्या आगाज़ है इस ग़ज़ल का
अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ
और फिर ये शेर..सुभानअल्लाह !
कोई आँसू तेरे दामन पर गिराकर बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ
थक गया मैं करते-करते याद तुझको अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ
छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा
रौशनी को घर जलाना चाहता हूँ
आख़री हिचकी तेरे ज़ानों पे आये मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ
क़तील की जिंदगी में कई प्रेमिकाएँ आईं जिनके बारे में प्रकाश पंडित जी ने लिखा है
"प्रेम और पूजा की सीमा तक प्रेम उसने अपनी हर प्रेमिका से किया है और उसकी हर प्रेमिका ने वरदान-स्वरूप उसकी शायरी में निखार और माधुर्य पैदा किया है, जैसे ‘चन्द्रकान्ता’ नाम की एक फिल्म ऐक्ट्रेस ने किया है जिससे उसका प्रेम केवल डेढ़ वर्ष तक चल सका और जिसका अन्त बिलकुल नाटकीय और शायर के लिए अत्यन्त दुखदायी सिद्ध हुआ। लेकिन ‘क़तील’ के कथनानुसार : "यदि यह घटना न घटी होती तो शायद अब तक मैं वही परम्परागत गज़लें लिख रहा होता, जिनमें यथार्थ की अपेक्षा बनावट और फैशन होता है। इस घटना ने मुझे यथार्थवाद के मार्ग पर डाल दिया और मैंने व्यक्तिगत घटना को सांसारिक रंग में ढालने का प्रयत्न किया। अतएव उसके बाद जो कुछ भी मैंने लिखा है वह कल्पित कम और वास्तविक अधिक है।".
प्रकाश शायर की जिंदगी में प्रेरणा के महत्त्व के बारे में अपने लेख में आगे लिखते हैं.....
चन्द्रकान्ता से प्रेम और विछोह से पहले ‘क़तील’ शिफ़ाई आर्तनाद क़िस्म की परम्परागत शायरी करते थे और ‘शिफ़ा’ कानपुरी नाम के एक शायर से अपने कलाम पर सलाह लेते थे। फिर 'अहमद नदीम क़ासमी' साहब से भी उन्होंने मैत्रीपूर्ण परामर्श लिये। लेकिन किसी की इस्लाह या परामर्श तब तक किसी शायर के लिए हितकर सिद्ध नहीं हो सकते जब तक कि स्वयं शायर के जीवन में कोई प्रेरक वस्तु न हो। लगन और क्षमता का अपना अलग स्थान है, लेकिन इस दिशा की समस्त क्षमताएँ मौलिक रूप से उस प्रेरणा ही के वशीभूत होती हैं,जिसे ‘मनोवृत्तान्त’ का नाम दिया जा सकता है।
अगर ऊपर की ग़ज़ल में आपको प्रेम का सैलाब उमड़ता दिख रहा है तो इस ग़ज़ल पर निगाह डालिए। बेवफाई से छलनी हृदय की वेदना नज़र आएगी आपको इसमें। दरअसल किसी शायर या कवि की लेखनी उसके व्यक्तित्व का आईना है बशर्त्ते उसे पढ़ और समझ पाने का हुनर आप में मौजूद हो। इस ग़ज़ल को मैंने पहली बार आकाशवाणी पटना से सुना था और पहली बार सुन कर मन में एक उदासीनता का भाव व्याप्त हो गया था। मेरे एक मित्र ने बताया था कि जगजीत जी अपनी कानसर्ट में ये ग़ज़ल जल्दी नहीं गाते और गाते हैं तो मतले और उसके बाद का शेर उन्हें अपने बेटे की याद दिलाकर भावुक कर देता है। जगजीत जी ने इस ग़ज़ल में क़तील के साहब के उन चार शेरों को चुना है जो इस ग़ज़ल की जान हैं...
सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं
बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा वजूद बेकार महफ़िलों में तुझे ढूँढता हूँ मैं मैं ख़ुदकशी के जुर्म का करता हूँ ऐतराफ़ अपने बदन की क़ब्र में कब से गड़ा हूँ मैं
किस-किसका नाम लाऊँ ज़बाँ पर कि तेरे साथ हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं
ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूँ मैं
ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रक़ीब दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं
जागा हुआ ज़मीर वो आईना है "क़तील" सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं
जिंदगी की कितनी सुनसान रातें आसमान के इन चाँद तारों से मूक संवाद करते हुए बिताई हैं उसका कोई हिसाब फिलहाल मेरे पास नहीं। आज भी जब कभी अभी अपने घर जाता हूँ तो रात में छत पर चहलकदमी करते हुए सितारों से क़तील की जुबां में गुफ़्तगू करना बहुत भाता है..
परेशाँ रात सारी है सितारों तुम तो सो जाओ सुकूत-ए-मर्ग तारी है सितारों तुम तो सो जाओ
हँसो और हँसते-हँसते डूबते जाओ ख़लाओं में हमें ये रात भारी है सितारों तुम तो सो जाओ
तुम्हें क्या आज भी कोई अगर मिलने नहीं आया ये बाज़ी हमने हारी है सितारों तुम तो सो जाओ
कहे जाते हो रो-रो के हमारा हाल दुनिया से ये कैसी राज़दारी है सितारों तुम तो सो जा
हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा यही क़िस्मत हमारी है सितारों तुम तो सो जाओ
हमें भी नींद आ जायेगी हम भी सो ही जायेंगे अभी कुछ बेक़रारी है सितारों तुम तो सो जाओ
इस ग़ज़ल को पाकिस्तानी फिल्म इश्क़ ए लैला में भी शामिल किया गया था जहाँ इसे आवाज़ दी थी इकबाल बानो ने। पिछली पोस्ट में यूनुस भाई ने क़तील के मुशायरे का वीडिओ देने का अनुरोध किया था। तो आज सुनने के साथ क़तील साहब को देखिए उनकी मशहूर ग़ज़ल हाथ दिया उसने मेरे हाथ में....
हाथ दिया उसने मेरे हाथ में
मैं तो वली बन गया इक रात में
इश्क़ करोगे तो कमाओगे नाम
तोहमतें बँटती नहीं खैरात में
इश्क़ बुरी शै सही पर दोस्तों
दखल ना दो तुम मेरी हर बात में
मुझ पे तवोज्जह है सब *आफ़ाक़ के (*संसार)
कोई कशिश तो है मेरी जात में
रब्त बढ़ाया ना 'क़तील' इसलिए
फर्क़ था दोनों के ख़यालात में
आज तो बस इतना ही अगले भाग में फिर मिलेंगे उनकी कुछ और ग़ज़लों के साथ...
क़तील शिफ़ाई की शायरी से मेरा परिचय जगजीत सिंह जी की वज़ह हुआ। जगजीत जी अपने अलग अलग एलबमों में उनकी कई ग़ज़लें गाई हैं जिसमें ज्यादातर ग़जलें इश्क़ मोहब्बत के अहसासों से भरपूर है। दरअसल प्रेम क़तील की अधिकांश ग़ज़लों और नज्मों का मुख्य विषय रहा है इसलिए उन्हें 'मोहब्बतों का शायर' भी कहा जाता है। बाद में विभिन्न शायरी मंचों में क़तील की कई और ग़ज़लें और नज़्में पढ़ने को मिलीं। आज से शुरु होने वाली इस श्रृंखला में मैं आपसे बाटूँगा क़तील साहब की जिंदगी से जुड़ी बातों के साथ उनकी चंद ग़ज़लें और नज़्में जो मुझे बेहद पसंद हैं।
क़तील का जन्म पश्चिमी पंजाब के हरीपुर, ज़िला हज़ारा (पाकिस्तान) में हुआ। क़तील उनका तख़ल्लुस था, क़तील यानी वो जिसका क़त्ल हो चुका है । अपने उस्ताद हकीम मुहम्मद शिफ़ा के सम्मान में क़तील ने अपने नाम के साथ शिफ़ाई शब्द जोड़ लिया था । क़तील अपनी प्रारम्भिक शिक्षा इस्लामिया मिडिल स्कूल, रावलपिंडी में प्राप्त करने के बाद गवर्नमेंट हाई स्कूल में दाखिल हुए, लेकिन पिता के देहान्त और कोई अभिभावक न होने के कारण शिक्षा जारी न रह सकी और पिता की छोड़ी हुई पूँजी समाप्त होते ही उन्हें तरह-तरह के व्यापार और नौकरियाँ करनी पड़ीं। साहित्य की ओर इनका ध्यान इस तरह हुआ कि क्लासिकल साहित्य में पिता की बहुत रुचि थी और ‘क़तील’ के कथनानुसार, ‘‘उन्होंने शुरू में मुझे कुछ पुस्तकें लाकर दीं जिनमें ‘क़िस्सा चहार दरवेश’ ‘क़िस्सा हातिमताई’ आदि भी थीं। वे अक्सर उन्हें पढ़ते थे जिससे उन्हें लिखने का शौक़ हुआ।
क़तील शिफाई के बारे में मैंने तफ़सील से जाना, जनाब प्रकाश पंडित संपादित किताब 'क़तील शिफाई और उनकी शायरी' को पढ़ने के बाद। सच में क़तील की शख्सियत का अंदाजा आप उनकी शायरी से नहीं लगा सकते।
प्रकाश इस किताब के परिचय में क़तील के बारे बड़े रोचक में अंदाज में लिखते हैं
किसी शायर के शेर लिखने के ढंग आपने बहुत सुने होंगे। उदाहरणतः ‘इकबाल’ के बारे में सुना होगा कि वे फ़र्शी हुक़्क़ा भरकर पलंग पर लेट जाते थे और अपने मुंशी को शे’र डिक्टेट कराना शुरू कर देते थे। ‘जोश’ मलीहाबादी सुबह-सबेरे लम्बी सैर को निकल जाते हैं और यों प्राकृतिक दृश्यों से लिखने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं। लिखते समय बेतहाशा सिगरेट फूँकने चाय की केतली गर्म रखने और लिखने के साथ-साथ चाय की चुस्कियाँ लेने के बाद (यहाँ तक कि कुछ शायरों के सम्बन्ध में यह भी सुना होगा कि उनके दिमाग़ की गिरहें शराब के कई पैग पीने के बाद) खुलनी शुरू होती हैं।
लेकिन यह अन्दाज़ शायद ही आपने सुना हो कि शायर शेर लिखने का मूड लाने के लिए सुबह चार बजे उठकर बदन पर तेल की मालिश करता हो और फिर ताबड़तोड़ डंड पेलने के बाद लिखने की मेज पर बैठता हो। यदि आपने नहीं सुना तो सूचनार्थ निवेदन है कि यह शायर ‘क़तील’ शिफ़ाई है।क़तील’ शिफ़ाई के शे’र लिखने के इस अन्दाज़ को और उसके लिखे शे’रों को देखकर आश्चर्य होता है कि इस तरह लंगर-लँगोट कसकर लिखे गये शे’रों में कैसे झरनों का-सा संगीत फूलों की-सी महक और उर्दू की परम्परागत शायरी के महबूब की कमर-जैसी लचक मिलती है। अर्थात् ऐसे वक़्त में जबकि उसके कमरे से ख़म ठोकने और पैंतरें बदलने की आवाज़ आनी चाहिए, वहाँ के वातावरण में कुछ ऐसी गुनगुनाहट बसी होती है।
क़तील की शायरी की खास बात ये है कि वो बशीर बद्र साहब की तरह ही बड़े सादे लफ्ज़ों का प्रयोग कर भी कमाल कर जाते हैं। मिसाल के तौर पर उनकी इस ग़ज़ल के चंद अशआर देखिए
प्यास वो दिल की बुझाने कभी आया भी नहीं कैसा बादल है जिसका कोई साया भी नहीं
बेरुखी इस से बड़ी और भला क्या होगी इक मुद्दत से हमें उसने सताया भी नहीं
सुन लिया कैसे ख़ुदा जाने ज़माने भर ने वो फ़साना जो कभी हमने सुनाया भी नहीं
तुम तो शायर हो क़तील और वो इक आम सा शख़्स उस ने चाहा भी तुझे जताया भी नहीं
कितनी सहजता से कहे गए शेर जिसको पढ़ कर दिल अपने आप पुलकित हो जाता है। अगर मेरी बात पर अब तक यकीन नहीं आ रहा तो क़तील के इस अंदाजे बयाँ के बारे में आपका क्या खयाल है ?
गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे गुज़रूँ जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे
मेहमान बन के आये किसी रोज़ अगर वो शख़्स उस रोज़ बिन सजाये मेरा घर सजा लगे
जब तशनगी की आखिरी हद पर मिले कोई आँख उसकी जाम बदन महक़दा लगे
मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी मुझको रक़ीब की न कहीं बददुआ लगे
वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों जो मुस्कुरा के बात करे आशना लगे
एक ऍसी खुशजमाल परी अपनी सोच है जो सबके साथ रह के भी सब से जुदा लगे
देखा ये रंग बैठ के बहुरूपियों के बीच अपने सिवा हर एक मुझे पारसां लगे
तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा "क़तील" मुझको सताये कोई तो उस को बुरा लगे
और खुद अगर क़तील शिफ़ाई आपको ये ग़ज़ल अपनी आवाज़ में सुनाएँ तो कैसा रहे ? तो लीजिए हजरात सुनिए ये ग़ज़ल क़तील की अपनी आवाज़ में...
अमूमन जब कवि कोई कविता लिखता है तो कोई घटना, कोई प्रसंग या फिर किसी व्यक्तित्व का ताना बाना जरूर उसके मानस पटल पर उभरता है। ये ताना बाना जरूरी नहीं कि हाल फिलहाल का हो। अतीत के अनुभव और आस पास होती घटनाएँ कई बार नए पुराने तारों को जोड़ जाती हैं और एक भावना प्रकट होती है जो एक कविता की शक्ल ले लेती है। पर कभी भूत में लिखी आपकी रचना, आप ही के भविष्य की राहों को भी बदल दे तो ? हो सकता है आप के साथ भी कुछ ऐसा हुआ हों।
आज जिस प्रसंग का उल्लेख करने जा रहा हूँ वो एक बार फिर हरिवंश राय बच्चन जी के जीवन की उस संध्या से जुड़ा हुआ है जब श्यामा जी के देहांत के बाद वे एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे थे और अपने एक मित्र प्रकाश के यहाँ बरेली पहुंचे थे। वहीं उनकी पहली मुलाकात मिस तेजी सूरी से हुई थी। अपनी आत्मकथा में मुलाकात की रात का जिक्र करते हुए बच्चन कहते हैं
"........उस दिन ३१ दिसंबर की रात थी। रात में सबने ये इच्छा ज़ाहिर कि नया वर्ष मेरे काव्य पाठ से आरंभ हो। आधी रात बीत चुकी थी, मैंने केवल एक दो कविताएं सुनाने का वादा किया था। सबने क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी वाला गीत सुनना चाहा, जिसे मैं सुबह सुना चुका था. यह कविता मैंने बड़े सिनिकल मूड में लिखी थी। मैंने सुनाना आरंभ किया। एक पलंग पर मैं बैठा था, मेरे सामने प्रकाश बैठे थे और मिस तेजी सूरी उनके पीछे खड़ीं थीं कि गीत खत्म हो और वह अपने कमरे में चली जाएँ। गीत सुनाते सुनाते ना जाने मेरे स्वर में कहाँ से वेदना भर आई। जैसे ही मैंने उस नयन से बह सकी कब इस नयन की अश्रु-धारा पंक्ति पढ़ी कि देखता हूँ कि मिस सूरी की आँखें डबडबाती हैं और टप टप उनके आँसू की बूंदे प्रकाश के कंधे पर गिर रही हैं। यह देककर मेरा कंठ भर आता है। मेरा गला रुँध जाता है। मेरे भी आँसू नहीं रुक रहे हैं। और जब मिस सूरी की आँखों से गंगा जमुना बह चली है और मेरे आँखों से जैसे सरस्वती। कुछ पता नहीं कब प्रकाश का परिवार कमरे से निकल गया और हम दोनों एक दूसरे से लिपटकर रोते रहे। आँसुओं से कितने कूल-किनारे टूट गिर गए, कितने बाँध ढह-बह गए, हम दोनों के कितने शाप-ताप धुल गए, कितना हम बरस-बरस कर हलके हुए हैं, कितना भींग-भींग कर भारी? कोई प्रेमी ही इस विरोध को समझेगा। कितना हमने एक दूसरे को पा लिया, कितना हम एक दूसरे में खो गए। हम क्या थे और आंसुओं के चश्मे में नहा कर क्या हो गए। हम पहले से बिलकुल बदल गए हैं पर पहले से एक दूसरे को ज्यादा पहचान रहे हैं। चौबीस घंटे पहले हमने इस कमरे में अजनबी की तरह प्रवेश किया और चौबीस घंटे बाद हम उसी कमरे से जीवन साथी पति पत्नी नहीं बनकर निकल रहे हैं. यह नव वर्ष का नव प्रभात है जिसका स्वागत करने को हम बाहर आए हैं। यह अचानक एक दूसरे के प्रति आकर्षित, एक दूसरे पर निछावर अथवा एक दूसरे के प्रति समर्पित होना आज भी विश्लेषित नहीं हो सका है। ......"
तो देखा आपने कविता के चंद शब्द दो अजनबी मानवों को कितने पास ला सकते हैं। भावनाओं के सैलाब को उमड़ाने की ताकत रखते हैं वे। तो आइए देखें क्या थी वो पूरी कविता
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
मैं दुखी जब-जब हुआ
संवेदना तुमने दिखाई,
मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा,
रीति दोनो ने निभाई, किन्तु इस आभार का अब हो उठा है बोझ भारी;
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
एक भी उच्छ्वास मेरा हो सका किस दिन तुम्हारा? उस नयन से बह सकी कब इस नयन की अश्रु-धारा? सत्य को मूंदे रहेगी शब्द की कब तक पिटारी? क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?क्या करूँ?
कौन है जो दूसरों को
दु:ख अपना दे सकेगा?
कौन है जो दूसरे से
दु:ख उसका ले सकेगा?
क्यों हमारे बीच धोखे
का रहे व्यापार जारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
क्यों न हम लें मान, हम हैं
चल रहे ऐसी डगर पर,
हर पथिक जिस पर अकेला,
दुख नहीं बंटते परस्पर,
दूसरों की वेदना में
वेदना जो है दिखाता,
वेदना से मुक्ति का निज
हर्ष केवल वह छिपाता;
तुम दुखी हो तो सुखी मैं
विश्व का अभिशाप भारी!
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
क्या ये सच नहीं जब अपने दुख से हम खुद ही निबटने की असफल कोशिश कर रहे हों तो संवेदनाओं के शब्द, दिल को सुकून पहुँचाने के बजाए मात्र खोखले शब्द से महसूस होते हैं। हर्ष की बात इतनी जरूर है कि बच्चन की ये दुखी करती कविता खुद उनके जीवन में एक नई रोशनी का संचार कर गई।
वैसे ये बताएँ कि क्या आपके द्वारा लिखी कोई कविता ऍसी भी है जिसने आपके जीवन के मार्ग को एकदम से मोड़ दिया हो?
इस चिट्ठे पर हरिवंश राय 'बच्चन' से जुड़ी कुछ अन्य प्रविष्टियाँ
नीचे की प्रविष्टि मुंबई बम विस्फोट के बाद जुलाई २००६ में लिखी थी। पिछले दो सालों में ये सिलसिला दिल्ली, लखनऊ, हैदराबाद, जयपुर, बंगलोर और अब अहमदाबाद तक बदस्तूर ज़ारी है। दुश्मन और शातिर और चालाक होता जा रहा है और हम वहीं के वहीं हैं। कुछ भी नहीं बदला और लगता है कि हम चुपचाप से इसे अपनी तकदीर मानकर अपने शहर की बारी का इंतज़ार करते हुए फिर अपने काम धंधों पर निकल पड़ेंगे। जिनके पास कुछ कर सकने के अधिकार या दायित्व है वो लिप सर्विस के आलावा और कुछ नहीं कर रहे। करते होते तो अब तक इन पिछले धमाकों से जुड़े अपराधियों को अब तक कटघरे तक ला चुके होते।
बार बार बात ग्राउंड इनटेलिजेंस और सही मात्रा में पुलिसिंग ना होने की होती है तो पुलिस बल में रिक्तियों को हर राज्य भरने में आतुरता क्यूँ नहीं दिखाता? क्या इसके लिए राज्य व केंद्र सरकारें दोषी नहीं हैं ? आतंकवाद के बीजों को हमारे दुश्मन देश में बोने को तैयार हो जाते हैं और आप यह कह कर बच निकलते हैं कि इनके पीछे सामाजिक आर्थिक समस्याएँ भी हैं। पर क्या देश की आम जनता ने इस समस्याओं का निवारण करने से हमारे नेताओं को रोका है। नहीं रोका फिर भी ख़ामियाजा इसी आम जनता को सहना पड़ता है।
पर सवाल वही है जो दो साल पहले था। आखिर कब तक ऐसी त्रासदियाँ हमारी जनता सहती रहेगी ? कैसे मूक दूर्शक बने रह सकते हैं हम सब आखिर कब तक?
******************************************************************** ईश्वर अल्लाह तेरे ज़हाँ में नफरत क्यूँ है ? जंग है क्यूँ ? तेरा दिल तो इतना बड़ा है इंसां का दिल तंग हैं क्यूँ ?
कदम कदम पर, सरहद क्यूँ है ? सारी जमीं जो तेरी है सूरज के फेरे करती फिर क्यूँ इतनी अंधेरी है ?
इस दुनिया के दामन पर इंसां के लहू का रंग है क्यूँ ? तेरा दिल तो इतना बड़ा है इंसां का दिल तंग हैं क्यूँ ?
गूंज रही हैं कितनी चीखें प्यार की बातें कौन सुने ? टूट रहे हैँ कितने सपने इनके टुकड़े कौन चुने ?
दिल की दरवाजों पर ताले तालों पर ये जंग है क्यूँ ? ईश्वर अल्लाह तेरे जहाँ में नफरत क्यूँ है? जंग है क्यूँ ? तेरा दिल तो इतना बड़ा है इंसां का दिल तंग हैं क्यूँ ? जावेद अख्तर हमारे समाज की इस सच्चाई को उजागर करते इस गीत को आप यहाँ सुन सकते हैं
हम सब बहुत खिन्न हैं, उदास हैं इन सवालों को दिल में दबाये हुए । पर जानते हैं इन सब बातों का कोई सीधा साधा हल नहीं है। घृणा और सीमा रहित समाज की परिकल्पना अभी भी कोसों दूर लगती है। अपनी जिंदगी में ऍसा होते हुये देख पाए तो खुशकिस्मती होगी!
हरिवंशराय बच्चन की कविताएँ छुटपन से ही मन को लुभाती रही हैं। दरअसल भावों के साथ उनकी कविता में जो शब्दों का प्रवाह रहता है वो मेरे मन को हमेशा से बेहद रोमांचित करता है। उनकी कविता को बार-बार बोल कर दुहराने में जिस असीम आनंद की अनुभूति होती थी, उसकी कमी इस युग की अधिकांश कविताओं में हमेशा खटकती है। खैर , इससे पहले आपके सामने बच्चन जी की इस कविता को पेश करूँ क्या ये आप नहीं जानना चाहेंगे कि बच्चन जी ने अपनी पहली कविता कब लिखी और कविता लिखने का शौक उनमें कैसे पनपा?
कायस्थ पाठशाला में बच्चन जी ने अपनी पहली पूरी हिंदी कविता लिखी, किसी अध्यापक के विदाअभिनंदन पर जब वे सातवीं में थे। अपनी आत्मकथा में बच्चन ने लिखा है ".....स्कूल में शिक्षक जब निबंध लिखाते तब कहते, अंत में कोई दोहा लिख देना चाहिए। विषय से सम्बन्ध दोहा याद ना होने पर मैं स्वयं कोई रचकर लगा देता था। इन्हीं दोहों से मेरे काव्य का उदगम हुआ। 'भारत भारती' से गुप्त जी की पद्यावली, 'सरस्वती' के पृष्ठों से पंत जी की कविता और 'मतवाला' के अंकों से निराला जी के मुक्त छंदों से मेरा परिचय हो चुका था। नवीं, दसवीं कक्षा में तो मैंने कविताओं से एक पूरी कापी भर डाली। पर मेरी ये कविताएँ इतनी निजी थीं कि जब मेरे एक साथी ने चोरी से उन्हें देख लिया तो मैंने गुस्से में पूरी कॉपी टुकड़े टुकड़े करके फेंक दी। मेरे घर से खेत तक कॉपी के टुकड़े गली में फैल गए थे, इसका चित्र मेरी आँखों के सामने अब भी ज्यों का त्यों है। कविताएँ मैंने आगे भी बिल्कुल अपनी और निजी बनाकर रखीं और मेरे कई साथी उनके साथ ताक झांक करने का प्रयत्न करते रहे।....."
वक़्त के पहिए की चाल देखिए....एक बालक जो अपने सहपाठियों में अपनी कविताएँ दिखाते हिचकता था, ने ऍसी कृतियों की रचना की जिसे सारे भारत की हिंदी प्रेमी जनता पूरे प्रेम से रस ले लेकर पढ़ती रही।
बच्चन की ये कविता हर उस स्वाभिमानी मनुष्य के दिल की बात कहती है जिसने अपने उसूलों के साथ समझौता करना नहीं सीखा। उनके सुपुत्र अमिताभ बच्चन ने एलबम बच्चन रिसाइट्स बच्चन (Bachchan Recites Bachchan) में बड़े मनोयोग से इस कविता को पढ़ा है। तो आइए सुनें अमित जी की आवाज़ में हरिवंश राय बच्चन जी की ये कविता....
मैं हूँ उनके साथ,खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
कभी नही जो तज सकते हैं, अपना न्यायोचित अधिकार कभी नही जो सह सकते हैं, शीश नवाकर अत्याचार एक अकेले हों, या उनके साथ खड़ी हो भारी भीड़ मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
निर्भय होकर घोषित करते, जो अपने उदगार विचार जिनकी जिह्वा पर होता है, उनके अंतर का अंगार नहीं जिन्हें, चुप कर सकती है, आतताइयों की शमशीर मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
नहीं झुका करते जो दुनिया से करने को समझौता ऊँचे से ऊँचे सपनो को देते रहते जो न्योता दूर देखती जिनकी पैनी आँख, भविष्यत का तम चीर मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
जो अपने कन्धों से पर्वत से बढ़ टक्कर लेते हैं पथ की बाधाओं को जिनके पाँव चुनौती देते हैं जिनको बाँध नही सकती है लोहे की बेड़ी जंजीर मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
जो चलते हैं अपने छप्पर के ऊपर लूका धर कर हर जीत का सौदा करते जो प्राणों की बाजी पर कूद उदधि में नही पलट कर जो फिर ताका करते तीर मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
जिनको यह अवकाश नही है, देखें कब तारे अनुकूल जिनको यह परवाह नहीं है कब तक भद्रा, कब दिक्शूल जिनके हाथों की चाबुक से चलती हें उनकी तकदीर मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
तुम हो कौन, कहो जो मुझसे सही ग़लत पथ लो तो जान सोच सोच कर, पूछ पूछ कर बोलो, कब चलता तूफ़ान सत्पथ वह है, जिसपर अपनी छाती ताने जाते वीर मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
बच्चन की ये कविता सार्वकालिक है। आज जब हमारे समाज , हमारी राजनीति में नैतिक मूल्यों के ह्रास की प्रक्रिया निरंतर जारी है, जरूरत है हमारे नेताओं, प्रशासकों में अपने आत्म सम्मान को जगाने की, सही और गलत के बीच पहचान करने की। अगर वे इस मार्ग पर चलें तो देश की संपूर्ण जनता खुद ब खुद उनके पीछे खड़ी हो जाएगी।
इस चिट्ठे पर हरिवंश राय 'बच्चन' से जुड़ी कुछ अन्य प्रविष्टियाँ
पिछले साल अगस्त महिने में मैंने एक नज़्म पोस्ट की थी जिसका शीर्षक था अज़ब पागल सी लड़की है....। उसे किसने लिखा ये उस वक़्त नहीं पता था। आज मै जब इस नज़्म को पढ़ रहा था तो पता चला कि इसके लेखक वहीं हैं जिन्होंने अज़ब पागल सी लड़की है.... लिखी थी। जी हाँ, इन दोनों नज़्मों को लिखा है पाकिस्तान के नौजवान शायर आतिफ़ सईद साहब ने। आतिफ़ साहब का अपना एक जाल पृष्ठ भी है जिसका लाभ आप तभी उठा सकते हैं जब आप उर्दू लिपि के जानकार हों।
आज उनकी जो नज़्म आप के साथ बाँट रहा हूँ वो यकीं है कि आपके लिए नई होगी।
ये नज़्म उन्होंने अपनी नई किताब 'तुम्हें मौसम बुलाते हैं' के उन्वान में लिखी है। नज़्म प्यार के हसस जज़्बातों से लबरेज़ है। अपने प्रेम और मौसम की बदलती रुतों को आपस में बेहद बेहतरीन तरीके से गुँथा है शायर ने। विश्वास नहीं होता तो खुद ही पढ़कर देखिए ना..
मेरे अंदर बहुत दिन से कि जैसे जंग जारी है अज़ब बेइख्तियारी है
मैं ना चाहूँ मगर फिर भी, तुम्हारी सोच रहती है हर इक मौसम की दस्तक से तुम्हारा अक़्स बनता है कभी बारिश, तुम्हारे शबनमी लहजे में ढलती है कभी शर्मा के ये रातें तुम्हारे सर्द होठों का, दहकता लम्स लगती हैं कभी पतझड़.तुम्हारे पाँवों से रौंदे हुए पत्तों की आवाज़ें सुनाता है
कभी मौसम गुलाबों का तुम्हारी मुस्कुराहट के सारे मंज़र जगाता है मुझे बेहद सताता है
कभी पलकें तुम्हारी धूप ओढ़े जिस्म ओ जान पर शाम करती हैं कभी आँखें, मेरे लिखे हुए मिसरों को अपने नाम करती हैं मैं खुश हूं या उदासी के किसी मौसम से लिपटा हूँ कोई महफ़िल हो तनहाई में या महफ़िल में तनहा हूँ या अपनी ही लगाई आग में बुझ-बुझ कर जलता हूँ
मुझे महसूस होता है मेरे अंदर बहुत दिन से कि जैसे जंग ज़ारी है अज़ब बेइख्तियारी है
और इस बेइख्तियारी में मेरे जज़्बे, मेरे अलफाज़ मुझ से रूठ जाते हैं मैं कुछ भी कह नहीं सकता, मैं कुछ भी लिख नहीं सकता उदासी ओढ़ लेता हूँ और इन लमहों की मुठ्ठी में तुम्हारी याद के जुगनू कहीं जब जगमगाते हैं ये बीते वक़्त के साये मेरी बेख्वाब आँखों में, कई दीपक जलाते हैं मुझे महसूस होता है मुझे तुम को बताना है कि रुत बदले तो पंछी भी घरों को लौट आते हैं सुनो जानां चले आओ तुम्हें मौसम बुलाते हैं....
उनकी इस प्यारी नज़्म को आवाज़ देने की कोशिश की है सुनिएगा..
अगर आपको ये नज़्म पसंद आई तो यकीनन आप इन्हें भी पढ़ना पसंद करेंगे...
'एक शाम मेरे नाम' पर पिछले हफ्ते आपने भोजपुरी, असमी और बंगाली लोकगीतों को सुना। आज बारी है उत्तर प्रदेश की। यूँ तो मैं शुरु से बिहार और झारखंड में रहा हूँ, पर शादी विवाहों में जब जब अपने ददिहाल 'बलिया' और ननिहाल 'कानपुर' में जाना हुआ तो उस वक़्त पूर्वांचल और सेन्ट्रल यूपी के कई लोकगीत सुनने को मिले।
उत्तरप्रदेश के लोक गीतों का अपना ही एक इतिहास है। शायद ही ऍसा कोई अवसर या विषय हो जिस पर इस प्रदेश में लोकगीत ना गाए जाते हो। चाहे वो बच्चे का जन्म हो या प्रेमियों का बिछुड़ना, शादी हो या बिदाई, नई ॠतु का स्वागत हो या खेत में हल जोतने का समय सभी अवसरों के लिए गीत मुकर्रर हैं और इनका नामाकरण भी अलग अलग है, जैसे सोहर, ब्याह, बन्ना बन्नी, कोहबर, बिदाई, ॠतु गीत, सावन, चैती आदि। आपको याद होगा कि IIT Mumbai में जब हम सब ने गीत संगीत की महफिल जमाई थी तो हमारे साथी चिट्ठाकार अनिल रघुराज ने चैती गाकर हम सबको सुनाया था। उसका वीडिओ आप यूनुस के ब्लॉग पर यहाँ देख सकते हैं। उत्तरप्रदेश के लोक गीतों के बारे में अपनी किताब 'Folk Songs of Uttar Pradesh' में लेखिका निशा सहाय लिखती हैं....
"...राज्य के लोकगीतों को मुख्यतः तीन श्रेणी में बाँटा जा सकता है
ॠतु विशेष के आने पर गाए जाने वाले गीत
किसी खास अवसर पर गाए जाने वाले गीत
और कभी कभी गाए जाने वाले गीत
कुछ गीत केवल महिलाओं द्वारा गाए जाते हैं तो कुछ केवल मर्दों द्वारा। इसी तरह कुछ गीत सिर्फ समूह में गाए जाते हैं जब कि कुछ सोलो। समूह गान में रिदम पर ज्यादा जोर होता है जिसे लाने के लिए अक्सर चिमटा और मजीरा जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। इसके आलावा इन गीतों में बाँसुरी, शंख, रबाब, एकतारा, सारंगी ओर ढोलक का इस्तेमाल भी होता है। वैसे तो ये गीत ज्यादातर लोक धुनों पर ही रचित होते हैं पर कई बार इनकी गायिकी बहुत कुछ शास्त्रीय रागों जैसे पीलू, बहार, दुर्गा और ख़माज से मिलती जुलती है......."
आषाढ खत्म होने वाला है और सावन आने वाला है तो क्यूँ ना आज सुने जाएँ वे लोकगीत जो अक्सर सावन के महिने में गाए जाते हैं।
प्रस्तुत गीत में प्रसंग ये है कि नायिका को सावन की मस्त बयारें अपने पीहर में जाने को आतुर कर रही हैं। वो अपनी माँ को संदेशा भिजवाती है कि कोई आ के उसे पीहर ले जाए पर माँ पिता की बढ़ती उम्र और भाई के छोटे होने की बात कह कर उसकी बात टाल जाती है। नायिका ससुराल में किस तरह अपना सावन मनाती है ये बात आगे कही जाती है।
अम्मा मेरे बाबा को भेजो री कि सावन आया कि सावन आया कि सावन आया अरे बेटी तेरा, अरे बेटी तेरा, अरे बेटी तेरा, बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री कि सावन आया कि सावन आया कि सावन आया
अम्मा मेरे भैया को भेजो री अरे बेटी तेरा, अरे बेटी तेरा, अरे बेटी तेरा, बेटी तेरा भैया तो बाला री कि सावन आया कि सावन आया कि सावन आया अम्मा मेरे भैया को भेजो री ************************************* नन्ही नन्ही बुँदिया रे, सावन का मेरा झूलना, हरी हरी मेंहदी रे ,सावन का मेरा झूलना हरी हरी चुनरी रे ,सावन का मेरा झूलना
पर इन गीतों के मनोविज्ञान में झांकें तो ये पाते हैं कि घर से दूर पर वहाँ की यादों के करीब एक नवविवाहिता को अपनी खुशियों और गम को व्यक्त करने के लिए सावन के ये गीत ही माध्यम बन पाते थे। मेरी जब इन गीतों के बारे में कंचन चौहान से बात हुई तो उन्होंने बताया कि
"उनकी माँ की शादी जुलाई १९५३ मे हुई थी और वो बताती हैं कि वे उन दिनों यही गीत गा के बहुत रोती थी...! और शायद उन्होने भी ये गीत अपनी माँ से ही सुना होगा, कहने का आशय ये है कि बड़ी पुरानी धरोहरे हैं ये कही हम अपने आगे बढ़ने की होड़ मे इन्हें खो न दे...! .."
इस गीत के आगे की पंक्तियाँ कंचन की माताजी ने अपनी स्मृति के आधार पर भेजा है।
एक सुख देखा मैने मईया के राज में, सखियों के संग अपने, गुड़ियों का मेरा खेलना
एक सुख देखा मैने भाभी के राज में, गोद में भतीजा रे, गलियों का मेरा घूमना
एक दुख देखा मैने सासू के राज में, आधी आधी रातियाँ रे चक्की का मेरा पीसना
एक दुख देखा मैने जिठनी के राज में, आधी आधी रतियाँ रे चूल्हे का मेरा फूँकना
इस गीत को गाया है लखनऊ की गायिका मालिनी अवस्थी ने। मालिनी जी ने जुनूँ कुछ कर दिखाने का कार्यक्रम मेंमें उत्तरप्रदेश के हर तरह के लोकगीतों को अपनी आवाज़ दी है। कल्पना की तरह वो भी एक बेहद प्रतिभाशाली कलाकार हैं। तो आइए देखें उनकी गायिकी के जलवे..
पिछली दो पोस्टों में आपने लोक गीतों में अंतरनिहित मस्ती और मासूमियत के रंगों से सराबोर पाया। पर आज जो लोक गीत मैं आपके सामने लाया हूँ वो अपने साथ मजदूर कहारों का दर्द समेटे हुए है। जुनूँ कुछ कर दिखाने में अब तक गाए लोकगीतों में मुझे ये सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति लगी।
इस लोकगीत में संदर्भ आज का नहीं है। अब तो ना वे राजा महराजा रहे , ना डोली पालकी का ज़माना रहा। पर कहारों की जिस बदहाल अवस्था का जिक्र इस लोकगीत में हुआ है उससे आज के श्रमिकों की हालत चाहे वो ईंट भट्टे में झोंके हुए हों, या आलीशान अट्टालिकाएँ बनाने में, कतई भिन्न नहीं है। अमीर और गरीब के बीच की खाई दिनों दिन बढ़ती ही गई है। और आज भी असंगठित क्षेत्र में श्रम का दोहन निर्बाध ज़ारी है।
यही कारण है कि एक बार सुनने में ही ये गीत सीधा दिल को छूता है। वैसे भी गायिका कल्पना जब हैय्या ना हैय्या ना हैय्या ना हैय्या की तान छेड़ती हैं तो ऍसा प्रतीत होता है कि पालकी के हिचकोले से कहारों के कंधों पर बढ़ता घटता भार उनकी स्वरलहरी में एकाकार हो गया हो। कल्पना की आवाज़ अगर में एक दर्द भी है और एक धनात्मक उर्जा भी जो आपको झकझोरे हुए बिना नहीं रह पाती
तो आइए सुने सबसे पहले कल्पना की आवाज़ में ये मर्मस्पर्शी गीत..
हे डोला हे डोला, हे डोला, हे डोला
हे आघे बाघे रास्तों से कान्धे लिये जाते हैं राजा महाराजाओं का डोला,
हे डोला, हे डोला, हे डोला
हे देहा जलाइके, पसीना बहाइके दौड़ाते हैं डोला
हे डोला, हे डोला, हे डोला
हे हैय्या ना हैय्या ना हैय्या ना हैय्या
हे हैय्या ना हैय्या ना हैय्या ना हैय्या
पालकी से लहराता, गालों को सहलाता
रेशम का हल्का पीला सा
किरणों की झिलमिल में
बरमा के मखमल में
आसन विराजा हो राजा
कैसन गुजरा एक साल गुजरा
देखा नहीं तन पे धागा
नंगे हैं पाँव पर धूप और छांव पर
दौड़ाते हैं डोला, हे डोला हे डोला हे डोला सदियों से घूमते हैं
पालकी हिलोड़े पे है
देह मेरा गिरा ओ गिरा ओ गिरा
जागो जागो देखो कभी मोरे धन वाले राजा
कौड़ियों के दाम कोई मारा हे मारा
चोटियाँ पहाड़ की, सामने हैं अपने
पाँव मिला लो कहारों...
कान्धे से जो फिसला ह नीचे जा गिरेगा
ह राजाओं का आसन न्यारा
नीचे जो गिरेगा डोला
हे राजा महाराजाओ का डोला
हे डोला हे डोला हे डोला हे डोला......
और अगर यू ट्यूब पर आप कल्पना की live performance देखना चाहते हों तो यहाँ देखें...
मूलरूप से ये कहार गीत बंगाली में है जिसे सर्वप्रथम असम के जाने माने गायक और संगीतकार भूपेन हजारिका ने अपने एलबम 'आमि एक जाजाबर ' (मैं एक यायावर) में गाया था। ये गीत हिंदी में उसका अनुवाद मात्र है। शायद इसलिए कल्पना ने इसे गीत के अंत में बंगाली गीत के हिस्से को भी अपनी आवाज़ दी है ताकि इस गीत की जन्मभूमि का अंदाजा लग जाए। भूपेन दा का ये एलबम आप यहाँ से खरीद सकते हैं। पर अभी सुनिए इस गीत को दिया उनका निर्मल, बहता स्वर
आज जब नई पीढ़ी हमारी मिट्टी से उपजे लोकगीतों से कटती जा रही है, 'जुनूँ कुछ कर दिखाने का' लोकगीतों को एक मंच देने का प्रयास अत्यंत सराहनीय है और साथ ही कल्पना और मालिनी जैसे प्रतिभाशाली कलाकारों के गायन को भी बढ़ावा देने की उतनी ही जरूरत है ताकि लोकसंगीत का प्रवाह, हर संगीतप्रेमी जन के मन में हो।
लोकगीतों में मिट्टी की सोंधी खुशबू होती है और साथ में होता है एक ऍसा भोलापन जिसे नज़रअंदाज कर पाना मुश्किल है। पिछली दफ़े आपने सुना कल्पना का गाया हुआ एक मस्त भोजपुरी गीत।
मस्ती का रंग आज भी है पर आज के इस गीत में परिवेश है असम और उत्तर पूर्व का पर साथ ही इस गीत के तार झारखंडी गीतों की शैली से भी मिलते हैं। । अगर अलग-अलग क्षेत्रों में गाए जाने वाले लोकगीतों को एक ही गीत में पिरो कर सुनाया जाए तो वो छौंक अपना एक अलग आनंद देती है और आज के इस गीत में कुछ ऐसी ही बात है। जैसा कि मैंने आपको बताया था कि कल्पना मूलतः असम की हैं और अपनी जुबां में गाना भी बेहद पसंद करती हैं। तो तैयार हैं ना असम के बागानों से उठते इस बिहू गीत को सुनने के लिए आप। बिहू गीत वसंत के आगमन और असमी नव वर्ष के स्वागत के उपलक्ष्य में गाए जाते हैं। इस बिहू गीत में सुनें कल्पना की आवाज़ में चमेली की कहानी
आखम देखर बाकी सारे सूवाली झूमोर तोमोर नासे कारो धे माली हे लक्ष्मी ना हई मोरे नाम चामेली वीरपुर ला बेटी मुर नाम चामेली
छोटो छोटो छोकड़ी बड़ो बड़ो टोकरी नरम सकाच पाता तोले टोक टोक जवान बोदा राखी दे करे लक लक छोटो छोटो पोउ खाना करे धक धक कि भांति सोए हमर साहेली मन राख मोर नाम चामेली
हे पाकदा आसिले कुनबा मुलका एसि आमि बिहू गाबो जानूँ
और यहाँ से आगे गीत ने जो लय पकड़ी है वो बहुत कुछ झारखंड के उत्सवों पर गाए जाने वाले लोक गीतों की तरह है । यहाँ बताना मुनासिब होगा कि ऐसे गीतों को गाते वक़्त आदिवासी बालाएँ सफेद लाल पाड़ की साड़ी पहन, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले बड़ी खूबसूरती से आगे पीछे की ओर थिरकती चलती हैं। गीत की लय ऍसी होती हे कि सुनने वाले का मन खुद ब खुद झूम जाता है जैसा कि कल्पना को सुन कर यहाँ झूम उठा
हे हाहे हो सोरिम गयो मैना तुमा रेनू पुखुरी तुमा रेनू पुखुरी पार मैनू खोरी गोइ साला हे घामे घूमम गोये मैना तुमा रेनू हरिर तुमा रेनू हरिर माखी हइनू सूमा दिम लाला
(शब्दों को चूंकि सुन कर लिखा है और इस भाषा की समझ ना के बराबर है इसलिए ऊपर के बोलों में गलती होने की पूरी गुंजाइश है।)
यहाँ कल्पना वापस आ जाती हैं इस लोकप्रिय लोकगीत पर..
हो बिछुआ हाए रे पीपल छैयाँ बैठी पल भर हो भर के गगरिया हाए रे हाए रे हाए रे दैया री दैया चढ़ गयो पापी बिछुआ हाय हाय रे मर गई कोई उतारो बिछुआ देखो रे पापी बिछुआ
मंतर झूठा और बैद भी झूठा पिया घर आ रे , हाँ रे, हाँ रे, हाँ रे देखो रे देखो रे कहाँ उतर गयो बिछुआ सैयाँ को देख कर जाने किधर गयो बिछुआ देखो रे पापी बिछुआ
दैया...................... बिछुआ
पिछली पोस्ट पर कल्पना द्वारा भोजपुरी कैसेट्स में गाए सस्ते गीतों की बात उठी थी जिस पर की गई कंचन की टिप्पणी वस्तुस्थिति का खुलासा करती है। दरअसल प्रतिभाशाली गायकों को जब तक आप अपना हुनर दिखाने के लिए सही मंच नहीं प्रदान करेंगे वो बाजार की अर्थव्यवस्था के अनुरूप शासित होते रहेंगे। अपनी टिप्पणी में कंचन कहती हैं..
"...समस्या कहे या असलियत ये है कि रेस्टोरेंट वो परोस रहे हैं जो हम खाना चाह रहे हैं.... अब समझ में नही आ रहा कि बाज़ारवाद के इस युग में गलती उपभोक्ता को दे या दुकानदार को ! भोजपुरी लोकगीतों को वही श्रोता सुन रहे हैं जो, बिलकुल नीचे तबके के हैं,..! पूरे दिन मेहनत कर के अनुराग जी के शब्दों मे जब वो अपनी सारी मेहनत का पसीना एक गिलास शराब बना कर पी जाता है, तब उसे जगजीत सिंह की गज़ल नही, ये कल्पना और गुड्दू रंगीला जैसे लोगो के गाने ही सुनने होते हैं जो उसकी झोपड़ी के २५० रु० के लोकल वाकमैन पर २५ रु के कैसेट से मनोरंजन करा देता है..! और जब कल्पना जैसे लोगो को सुनने वाला वही सुनना चाह रहा है तो वो, मजबूरी है उनकी कि वही सुनाए..!
अगली पोस्ट में कल्पना के गाए एक और लोकगीत की चर्चा होगी जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि लोकगीत मस्ती के रंगों को ही हम तक नहीं पहुँचाते पर कई बार आम जनों का दर्द भी भी श्रोताओं तक संप्रेषित करते हैं।
पिछली पोस्ट में पंजाबी विरह गीत सुनाते वक़्त मैंने आपसे वादा किया था कि अपने इस चिट्ठे के जरिए एक नई कलाकार से आपको मिलवाउँगा। ये गायिका हैं कल्पना..। कल्पना ने भोजपुरी फिल्म जगत में अपनी गायिकी के जरिए एक अलग पहचान छोड़ी है और आजकल हिंदी फिल्म जगत में अपना उचित मुकाम हासिल करने के लिए संघर्षरत हैं। मज़े की बात ये है बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश में बोली जाने वाली भोजपुरी में जब कल्पना गाती हैं तो कोई कह ही नहीं सकता कि वो असम से ताल्लुक रखती हैं। पिछले दो तीन हफ्तों से NDTV Imagine के शो 'जुनूँ कुछ कर दिखाने का' में, मैं उन्हें लगातार सुन रहा हूँ।
वे कार्यक्रम में 'माटी के लाल' समूह की सदस्या हैं। ये समूह इस कार्यक्रम में देश के विभिन्न भागों के लोकगीतों को पेश कर रहा है। कल्पना की गायिकी की सबसे बड़ी विशेषता उनकी लोकगीतों के भावों की उम्दा पकड़ है। किस पंक्ति को उसके भाव के हिसाब से कितना खींचना है, कहाँ रुक कर श्रोताओं को संगीत की ताल से रिझाना है , किस शब्द को शरारती लहजे में उच्चारित करना है ये अगर गायक या गायिका समझ जाए तो वो भोजपुरी का सफल लोक गायक अवश्य बन सकता है। और इसके लिए जरूरी है उस संस्कृति को समझना जहाँ से ये लोकगीत जन्मे हैं। कल्पना ना केवल एक संगीत सीखी हुई गायिका हैं पर उनकी गायिकी से ये भी साफ ज़ाहिर होता है कि वो भोजपुरी लोकगीतों के परिवेश को भी अच्छी तरह समझती हैं।
अब जो लोग भोजपुरी भाषा से परिचित ना हों उनके लिए मैं इस गीत के भाव को बता देता हूँ।
"नायिका के पति परदेश में हैं। पिया बिना उसका मन लग ही नहीं रहा। उनकी अनुपस्थिति में वो कभी श्रृंगार करती है, वर्षा ॠतु में पपीहे की बोली सुन उद्विग्न हो जाती है तो कभी सास से झगड़ा कर बैठती है। कई रातें सवेरे में बदल जाती हैं पर मन की उलझन है कि सुलझने का नाम ही नहीं लेती। "
भोजपुरी गीतों में संगीत की भी एक अहम भूमिका होती है। हारमोनियम, झाल, मजीरे और ढोलक की थाप के बिना मस्ती का आलम आना मुश्किल है। अब इस गीत को सुनिए और संगीत के साथ कल्पना की लाजवाब गायिकी का आनंद लीजिए...
हाथ में मेंहदी मांग सिंदुरवा बर्बाद कजरवा हो गइले बाहरे बलम बिना नींद ना आवे बाहरे बलम बिना नींद ना आवे उलझन में सवेरवा हो गइले
बिजुरी चमके देवा गर्जे घनघोर बदरवा हो गइले पापी पपीहा बोलियाँ बोले पापी पपीहा बोलियाँ बोले दिल धड़के सुवेरवा हो गइले बाहरे बलम बिन नींद न आवे उलझन में सुवेरवा हो गइले आ...................................
अरे पहिले पहिले जब अइलीं गवनवा सासू से झगड़ा हो गइले बाकें बलम पर...अहा अहा बांके बलम परदेसवा विराजें उलझन में सुवेरवा हो गइले
हाथ में मेंहदी मांग सिंदुरवा बर्बाद कजरवा हो गइले
लोकगीतों की मस्ती कुछ ऐसी होती है कि ये भाषा और सरहदों की दीवार को यूँ तोड देती है जैसे वहाँ कोई अड़चन ही नहीं थी। अब इस वीडिओ में ही देखिए कल्पना की गायिकी का मज़ा आम जनता तो ले ही रही है, पड़ोस से आए सूफी के सुल्तान राहत फतेह अली खाँ भी कितने आनंदित होकर झूम रहे हैं।
पर कल्पना की गायिकी का बस यही एक रूप नहीं हैं। उनके कुछ और लोकगीतों की चर्चा 'एक शाम मेरे नाम' पर जारी रहेगी.....
गीत शब्दों से बनते हैं। गीतकार की भावनाओं को संगीत और आवाज के माध्यम से संगीतकार और गायक श्रोता के दिल में उतारते हैं। पर कई बार मेरे साथ ऍसा भी हुआ है जब गीत और संगीत दोनों पार्श्व में चले गए हों और रह गई हो तो सिर्फ एक आवाज़।
दर्द में डूबती सी आवाज़... दिल में उतरती सी आवाज़... रोंगटे खड़ी करती आवाज़...
पिछले दिनों NDTV IMAGINE के शो जुनूँ कुछ कर दिखाने का में मुझे कुछ ऍसी ही एक आवाज को सुनने का मौका मिला ...गायक थे फैसलाबाद , पाकिस्तान से आए अली अब्बास । अली अब्बास इस कार्यक्रम में 'सूफी के सुलतान' टीम के सदस्य हैं। अली अब्बास ने संगीत की तालीम नज़ाकत अली, हसन सिद्दिकी और इज़ाक क़ैसर से ली है। इस कार्यक्रम में गाए उनके जिस गीत की बात मैं कर रहा हूँ वो एक पंजाबी गीत है जिसे मूल रूप से पाकिस्तानी गायक मीकाल हसन साहब ने अपने एलबम 'समपूरन' में गाया था। मैंने इस गीत को सुनने के बाद मीकाल साहब का गाया हुआ वर्सन भी सुना पर उसमें वो बात नहीं दिखी जो इस युवा कलाकार की गायिकी (और वो भी Live Performance) में नज़र आई।
इस गीत पर गौर करें तो पाएँगे कि ये प्रेम में विकल नायिका की अपने दूर जाते प्रेमी को वापस बुलाने की करुण पुकार है। अली अब्बास ने जब इस गीत को गाया तो ऍसा लगा कि ये सारा दर्द मैं खुद महसूस कर पा रहा हूँ। मुखड़े में सुर के उतार चढ़ाव तो इस खूबसूरती से लगाए गए हैं कि एक बार सुन कर ही मन वाह वाह कर उठता है।
साजण प्रीत, लगा के.......... दू..र दे..श मत जात दू......र दे.....श मत जात बसो हमा..री नगरी.. मोहे सुंदर मुख दिखलात कदि आ मिल सांवल यार वे ओ कदि आ मिल साँवल यार वे मेरे रूं रूं चीख पुकार वे..(२) कदि आ......चीख पुकार वे कदि आ मिल साँवल यार वे...(२)
मेरी जिंदड़ी होई उदास वे मेरा सांवल आस ना पास वे मेरी जिंदड़ी होई उदास वे मेरा सांवल आस ना पास वे मुझे मिले ना चार कहार वे मुझे... मिले ना चार कहा..र वे कदि आ मिल साँवल यार वे...(२)
तुझ हरजाई की बाहों में और प्यार परीत* की राहों में (* प्रीत) तुझ हरजाई की बाहों में और प्यार परीत की राहों में मैं तो बैठी सब कुछ हार वे...(२) कदि आ मिल साँवल यार वे...(२) मेरे रूं रूं** चीख पुकार वे (यहाँ 'रूं रूं', 'रोम रोम'को कहा गया है)
पंजाबी का बेहद अल्प ज्ञान रखता हूँ और इस गीत के लफ्ज़ सुन के यहाँ लिखे हैं। अगर कोई गलती दिखे तो बताने की कृपा कीजिएगा।
इस गीत को यू ट्यूब पर भी देखा जा सकता है
तो कैसा लगा ये गीत आपको ? अगले कुछ दिनों में एक और बेहतरीन कलाकार से मिलाने का मेरा वादा है जिसके गीतों में आप मिट्टी की सोंधी खशबू जरूर महसूस करेंगे...
परसों आफिस की एक पार्टी में ये गीत बहुत दिनों बाद सुना। हमारे जिन सहयोगी ने इस गीत को अपनी आवाज़ दी वो अक्सर मन्ना डे के गीत ही गाते हैं। उनके अंदाज़ से मुझे पूरा यकीं हो गया कि ये मन्ना डे का ही गाया हुआ है। पर रविवार को जब गूगलदेव के दरबार में गए तो पता चला कि ये तो लहू के दो रंग फिल्म का गीत है जो 1979 में रिलीज हुई थी और इसे गाया था येशुदास जी ने।
दरअसल 1979 ही वो साल था जब पिताजी सारे परिवार को राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म 'सावन को आने दो' दिखाने ले गए थे। और तभी मेरा पहला परिचय येशुदास की आवाज़ से हुआ था। उस फिल्म के दो गीत बाल मन में छा से गए थे। एक था चाँद जैसे मुखड़े पर बिंदिया सितारा.... और दूसरा तुझे गीतों में ढालूँगा, सावन को आने दो........। बाद में विविध भारती के जरिए येशुदास के बाकी गीतों से भी परिचय होता रहा। 68 वर्षीय कट्टाशेरी जोसफ येशुदास (Kattassery Joseph Yesudas) केरल की उन विभूतियों मे से हैं जिन्होंने हिन्दी फिल्म संगीत पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। 1973 में पद्मश्री और 2002 में पद्मभूषण से सम्मानित, कनार्टक शास्त्रीय संगीत में प्रवीण, डा. येशुदास अब तक विभिन्न भाषाओं में 40000 के करीब गीत गा चुके हैं।
मातृभाषा मलयालम होने के बावज़ूद उनका हिंदी गीतों में शब्दों का उच्चारण लाज़वाब था। अब इस गीत को ही देखें। इस रूमानी गीत को जिस भाव प्रवणता के साथ उन्होंने निभाया है उसे सुनकर मन भी गीत के मूड में बह जाता है। कल से इस गीत का कई बार सुन चुका हूँ। सीधे सच्चे लफ़्ज और उससे बढ़कर येशुदास जी की अदाएगी ऐसी कि इसे गुनगुनाए बिना रहा ही नहीं जाता...
इस गीत को लिखा था फारूख क़ैसर साहब ने। फारूख साहब मेरे पसंदीदा गीतकारों में नहीं रहे। पर इस गीत के आलावा उनके लिखे गीतों में मुझे वो जब याद आए बहुत याद आए .... बेहद पसंद है। यूँ तो बप्पी लाहिड़ी को अस्सी के दशक में हिंदी फिल्म संगीत के गिरते स्तर के लिए मुख्य रूप से जिम्मेवार मानता हूँ पर ऐसे कई गीत हैं जहाँ उन्होंने अपनी क़ाबिलियत की पहचान दी है। ये गीत वैसे ही गीतों में से एक है।
तो आइए अब सुनते हैं येशुदास की आवाज़ में ये खूबसूरत नग्मा
जिद ना करो अब तो रुको ये रात नहीं आएगी माना अगर कहना मेरा तुमको वफ़ा आ जाएगी...
सज़दा करूँ, पूजा करूँ, तू ही बता क्या करूँ लगता है ये तेरी नज़र मेरा धरम ले जाएगी जिद ना करो अब तो रुको ........
रुत भी अगन, तपता बदन, बढ़ने लगी बेखुदी अब जो गए, सारी उमर दिल में कसक रह जाएगी जिद ना करो अब तो रुको... ....
पाँच साल पहले 'सा रे गा मा ' ने येशुदास के गाए बेहतरीन गीतों का एक गुलदस्ता पेश किया था। अगर आप चाहें तो इसे यहाँ से खरीद सकते हैं।
वैसे अगर आप गीत से जुड़ गए हैं तो लता जी का गाया वर्सन भी सुनते जाइए.
जिद ना करो अब तो रुको ये रात नहीं आएगी माना अगर कहना मेरा तुमको वफ़ा आ जाएगी...
तनहाई है और तू भी है,चाहा वही मिल गया लग जा गले, खुशबू तेरी, तन मन मेरा महकाएगी जिद ना करो अब तो रुको...
सजना मेरे, चुनरी ज़रा मुख पे मेरे डाल दो देखा अगर खुल के तूने तुमको नज़र लग जाएगी जिद ना करो अब तो रुको...
मुझे तो येशुदास वाला वर्सन ज्यादा पसंद आता है। आपका क्या खयाल है ?
Author: Manish Kumar
| Posted at: 6/23/2008 08:32:00 am |
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पच्चीस साल पहले की बातों को याद करना कठिन है , पर इस घटना को मैं कैसे भूल सकता हूँ। जी हाँ, मैं १९८३ के विश्व कप की बात कर रहा हूँ। भारत में रंगीन टेलीविजन तो १९८२ के एशियाई खेलों के समय आया था पर १९८३ में हुए प्रूडेन्शियल विश्व क्रिकेट के सारे मैचों का सीधे प्रसारण की व्यवस्था यहाँ तो क्या इंग्लैंड में भी नहीं थी। यही वज़ह है कि उस प्रतियोगिता में जिम्बाब्वे के खिलाफ संकटमोचक की तरह उतरे कपिलदेव के शानदार नाबाद १७५ रनों का वीडिओ फुटेज उपलब्ध ही नहीं है।
जैसा कल IBN 7 पर टीम के सदस्य कह रहे थे कि हम पर उस वक़्त जीतने का कोई दबाव नहीं था। होता भी कैसे जिस टीम ने उससे पहले के सारे विश्व कपों में कुल मिलाकर एक मैच ही जीता हो, उससे ज्यादा उम्मीद भी क्या रखी जा सकती थी? प्रतियोगिता शुरु होने वक़्त मैं अपनी नानी के घर कानपुर गया हुआ था। भारत के पहले मैच के अगले दिन जब दूरदर्शन समाचार ने भारत के अपने पहले लीग मैच में ही वेस्ट इंडीज को पटखनी देने की खबर सुनाई, मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा। अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य को जब तक मैंने ये खबर नहीं सुनाई दिल को चैन नहीं पड़ा।
सुननेवालों ने तो खवर में उतनी दिलचस्पी नहीं दिखाई पर मेरे दिल में अपनी टीम के लिए आशा का दीपक जल चुका था। बीबीसी वर्ल्ड और दूरदर्शन से मिलती खबरें ही मैच के नतीजों को हम तक पहुँचा पाती थीं। भारतीय टीम को अपने ग्रुप में वेस्ट इंडीज, आस्ट्रेलिया और जिम्बाबवे से दो दो मैच खेलने थे। भारत ने अपने पहले तीन में दो मैच जीत लिए थे पर आस्ट्रेलिया से अपने पहले मैच में वो बुरी तरह हार गया था।
चौथे मैच में वेस्टइंडीज से हारने के बाद भी भारत प्रतियोगिता में पहले की दर्ज जीतों की वज़ह से बना हुआ था। पर १८ जून १९८३ में जिम्बाबवे के साथ खेला मैच भारत के लिए प्रतियोगिता का टर्निंग पव्याइंट था। भारत पहले बैटिंग करते हुए १७ रनों पर पाँच विकेट खो चुका था और ७८ तक पहुँचते पहुँचते ये संख्या सात तक पहुँच गई थी पर कप्तान कपिल देव ने अपने नाबाद १७५ रनों जिसमें सोलह चौके और छः छक्के शामिल थे स्कोर को आठ विकेट पर २६० तक पहुँचा दिया। भारत ने जिम्बाब्वे को इस मैच में ३१ रनों से हरा दिया था। विपरीत परिस्थितियों में मैच को जीतने के बाद मुझे विश्वास हो गया था कि अबकि अपनी टीम सेमी फाइनल में तो पहुँच ही जाएगी। और हुआ भी वही! अगले लीग मैच में आस्ट्रेलिया को हराकर भारत सेमी फाइनल में पहुँच चुका था।
अब तक मैं वापस पटना आ चुका था और सेमीफाइनल में जब भारत ने इंग्लैंड को हराया तब मैंने उसका सीधा प्रसारण बीबीसी वर्ल्ड से सुनने का पूर्ण आनंद प्राप्त किया था। फाइनल के दो दिन पहले से ही हमारे मोहल्ले के सारे बच्चे मैच के बारे में विस्तार से चर्चा करते रहते। दूरदर्शन ने फाइनल मैच के सीधे प्रसारण की व्यवस्था की थी। स्कूल की गर्मी की छुट्टियाँ शायद चल ही रहीं थी। हम दस बारह वच्चे पड़ोसी के घर में श्वेत श्याम टेलीविजन के सामने मैच शुरु होने के पंद्रह मिनट पहले ही जमीन पर चादर बिछाकर बैठ गए थे। पर जब भारत बिना पूरे साठ ओवर खेले ही १८३ रन बनाकर लौट आया, हम सारे बच्चों के चेहरों की उदासी देखने लायक थी। पहले तो प्रोग्राम रात भर पड़ोसी के घर डेरा जमाए रखने का था। पर भारतीय बल्लेबाजों के इस निराशाजनक प्रदर्शन ने मुझे अपना विचार बदलने पर मज़बूर कर दिया। मन इतना दुखी था कि थोड़ा बहुत खा पी कर मैं जल्द ही सोने चल गया।
सुबह उठ के अखबार खोला तो जीत का समाचार देख के दंग रह गया। भागा भागा अपने टीवी वाले दोस्तों के घर गया कि भाई ये सब हुआ कैसे? बाद में कई बार उन यादगार लमहों की रेडियो कमेंट्री सुनीं और वीडियो फुटेज भी देखा पर दिल में मलाल रह ही गया कि मैं उस रात क्यूँ सोया...
खेलों में कुछ खास ना कर पाने वाले देश के लिए वो जीत एक बहुत बड़ी जीत थी। उस जीत ने एकदिवसीय क्रिकेट में अच्छा करने के लिए आगे की भारतीय टीमों के लिए एक सपना जगाया। आज जब इस बात को पचीस साल बीतने वाले हैं , आइए उन लमहों को एक बार फिर से देखें यू ट्यूब के इस वीडियो के जरिए..
साथ ही उन खिलाड़ियों को मेरा कोटि कोटि सलाम जिन्होंने विश्व कप जीतकर एक मिसाल आगे की पीढ़ियों के लिए छोड़ दी..
मानसूनी बारिश से पूरा भारत भीगा हुआ है। झुलसाती गर्मी के बाद बारिश की फुहारें किसे अच्छी नहीं लगती। आज बाहर टप टप गिरती बरखा की बूँदों ने मुझे प्रेरित किया है आपके साथ एक प्यारे से मानसूनी गीत को बाँटने के लिए। यूँ तो बारिश से जुड़े कई अनमोल गीत भारतीय फिल्म जगत हमें दे चुका है। नियमित पाठकों को याद होगा कि किशोर कुमार के बारे में श्रृंखला लिखते समय मैंने मंजिल फिल्म के लिए योगेश गौड़ का लिखा गीत रिमझिम गिरे सावन सुनाया था। इस गीत को गुनगुनाना मुझे बेहद प्रिय है और यही वज़ह है कि इस गीत को आप चिट्ठे की साइडबार में भी पाएँगे। पर आज का ये गीत कुछ अलग सा है, इसमें शास्त्रीयता भी है और लफ़्जों की एक नज़ाकत भी। ये एक ऍसा गीत है जो वर्षा ॠतु को प्रेम के रंगों में सराबोर कर देता है।
जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ १९६७ में आई फिल्म नूरजहाँ के गीत "शराबी शराबी ये सावन का मौसम ख़ुदा की क़सम ख़ूबसूरत न होता..." की जिसे संगीतबद्ध किया था राकेश रोशन के पिता स्वर्गीय रोशन जी ने, जिसे लिखा था गीतकार शकील बदायुँनी साहब ने और इस गीत को गाया था कोकिल कंठी सुमन कल्याणपुर ने....
मझे सुमन कल्याणपुर की गायिकी हमेशा से अच्छी लगती रही है। बचपन में अक्सर जब किसी के संगीत ज्ञान की परीक्षा लेनी होती तो सुमन जी के गाए किसी गीत को गा कर सामने वाले से ये जरूर पूछते कि बताओ इसे किसने गाया है। अक्सर जवाब लता मंगेशकर आता और तब तक हमने अपना प्वाइंट प्रूव कर लिया होता कि तुम्हें अभी तो गायकों की ही पहचान नहीं है तो तुमसे संगीत के बारे में क्या बहस करनी :)।
लता से आवाज की साम्यता की वज़ह सुमन जी को गाने के मौके कम मिले पर जितने भी मिले उसे उन्होंने पूरी तरह निभाया। 'दिल ही तो है', 'शगुन' और 'बात एक रात की' जैसी फिल्मों में उनके गाए कुछ गीत मुझे बेहद पसंद हैं और कभी उन्हें भी आप तक पहुँचाने की कोशिश करूँगा।
इस गीत की एक खासियत ये भी है कि ये राग गौड़ मल्हार पर आधारित है। राग मल्हार के बारे में कहा जाता है कि जब इस राग पर आधारित कोई गीत पूरे सुर ताल और भाव के साथ गाया जाए तो देवराज इन्द्र को बारिश करानी ही पड़ती है। वैसे भी शकील के लिखे खूबसूरत बोल बारिश की बूंदों सी शीतलता देते हैं। आप खुद ही सुन कर महसूस करें ना..
शराबी शराबी ये सावन का मौसम ख़ुदा की क़सम ख़ूबसूरत न होता अगर इसमें रंग-ए-मोहब्बत न होता शराबी शराबी ......................
सुहानी-सुहानी ये कोयल की कूकें उठाती हैं सीने में रह-रह के हूकें छलकती है मस्ती घने बादलों से उलझती हैं नज़रें हसीं आँचलों से ये पुरनूर मंज़र ये पुरनूर मंज़र ये रंगीन आलम ख़ुदा की क़सम ख़ूबसूरत न होता अगर इसमें रंग-ए-मोहब्बत न होता शराबी शराबी ......................
पुरनूर - प्रकाशमान
गुलाबी-गुलाबी ये फूलों के चेहरे ये रिमझिम के मोती ये बूँदों के सेहरे कुछ ऐसी बहार आ गई है चमन में कि दिल खो गया है इसी अंजुमन में ये महकी नशीली ये महकी नशीली हवाओं का परचम ख़ुदा की क़सम ख़ूबसूरत न होता अगर इसमें रंग-ए-मोहब्बत न होता शराबी शराबी ... ..................
अंजुमन - सभा मज़लिस
ये मौसम सलोना अजब ग़ुल खिलाए उमंगें उभारे उम्मीदें जगाए वो बेताबियाँ दिल से टकरा रहीं हैं के रातों की नींदें उड़ी जा रहीं हैं ये सहर-ए-जवानी ये सहर-ए-जवानी ये ख़्वाबों का आलम ख़ुदा की क़सम ख़ूबसूरत न होता अगर इसमें रंग-ए-मोहब्बत न होता शराबी शराबी ....................
जिंदगी में कोई जब इतना करीब हो जाए कि आप उस शख्स के साये में भी उसकी खुशबू महसूस करने लगें.. दूर से आते उसके पदचापों को सुन कर आपके हृदय की धड़कन तीव्र गति से चलने लगे, गाहे-बगाहे आपकी आँखों के सामने उसी की छवि उभरने लगे, तब समझ लीजिए कि आप भगवन की बनाई सबसे हसीन नियामत 'प्रेम' की गिरफ्त में हैं।
ऍसी ही भावनाओं को लेकर मशहूर शायर कैफ़ी आजमी ने १९६४ में फिल्म हक़ीकत में एक प्यारा सा नग्मा लिखा था। 'हक़ीकत' भारत चीन युद्ध के परिपेक्ष्य में चेतन आनंद द्वारा बनाई गई थी जो इस तरह की पहली फिल्म थी। युद्ध की असफलता से आहत भारतीय जनमानस पर इस फिल्म ने एक मरहम का काम किया था। फिल्म तो सराही गई ही इसमें दिया मदनमोहन का संगीत बेहद चर्चित रहा।
वैसे तो सारा गीत ही प्रेम रस से सराबोर है पर गीत का मुखड़ा दिल में ऍसी तासीर छोड़ता है जिसे लफ़्जों से बयाँ कर पाना मुश्किल है।
ज़रा सी आहट होती है तो दिल सोचता है, कहीं ये वो तो नहीं...
इसे कितनी ही दफा गुनगुनाते रहें मन नहीं भरता...दो महान कलाकारों मदनमोहन और लता की जोड़ी की अद्भुत सौगात है ये गीत..
इस गीत को आप यू ट्यूब पर भी देख सकते हैं
ज़रा सी आहट होती है तो दिल सोचता है कहीं ये वो तो नहीं, कहीं ये वो तो नहीं ज़रा सी आहट होती है ...
छुप के सीने में कोई जैसे सदा देता है शाम से पहले दिया दिल का जला देता है है उसी की ये सदा, है उसी की ये अदा कहीं ये वो तो नहीं ...
शक्ल फिरती है निगाहों में वो ही प्यारी सी मेरी नस-नस में मचलने लगी चिंगारी सी छू गई जिस्म मेरा किसके दामन की हवा कहीं ये वो तो नहीं ...
आशा है इस गीत को सुन कर आपका मूड रूमानी हो गया होगा। तो क्यूँ ना चलते चलते जानिसार अख़्तर की एक गज़ल भी पढ़ाता चलूँ जिसके भाव बहुत कुछ इस गीत से मिलते जुलते हैं... और जब भी ये गीत सुनता हूँ ये ग़ज़ल खुद ब खुद मन के झरोखों से निकल कर सामने आ जाती है..
आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो
जब शाख कोई हाथ लगाते ही चमन में शरमाए, लचक जाए तो लगता है कि तुम हो
रस्ते के धुंधलके में किसी मोड़ पे कुछ दूर इक लौ सी चमक जाए तो लगता है कि तुम हो
ओढ़े हुए तारों की चमकती हुई चादर नदिया कोई बल खाए तो लगता है कि तुम हो
जब रात गए कोई किरण मेरे बराबर चुप चाप से सो जाए तो लगता है कि तुम हो
1999 में एक फिल्म आई थी, नाम था संघर्ष ! अक्षय कुमार, प्रीति जिंटा और आशुतोष राणा जैसे कलाकारों से सजी इस फिल्म की बेसिरपैर कहानी को दर्शकों ने एक सिरे से नकार दिया था। पर गीतकार समीर और संगीतकार जतिन-ललित की जोड़ी ने अपना काम बखूबी निभाते हुए इस फिल्म में कर्णप्रिय संगीत दिया था।
'पहली पहली बार वलिए ..' और 'नाराज़ सवेरा...' तो चर्चित हुए ही पर मुझे जिस गीत ने सबसे ज्यादा आनंदित किया वो था सोनू निगम द्वारा गाया हुआ ये एकल गीत जिसकी रूमानियत मुझे इसे सुनते वक़्त हमेशा ही गुदगुदा जाती है। इसलिए ये सोनू के गाए रोमांटिक गीतों में मेरी पहली पसंद है।
सोनू निगम की गायिकी से तो हम आप परिचित ही हैं। जिस भाव प्रवणता के साथ इस गीत को सोनू ने अपनी आवाज़ दी है उसका जवाब नहीं। पहले अंतरे के बाद आप लता जी का पार्श्व से लहराता स्वर सुन सकते हैं।
ये गीत वैसे गीतों में है जिसकी लय पहली बार में ही दिल पर सीधा असर करती है। जब भी मैं इस गीत को गुनगुनाता हूँ, अपने मन को हल्का और खुशमिज़ाज पाता हूँ।
मुझे रात दिन बस मुझे चाहती हो कहो ना कहो मुझको सब कुछ पता है हाँ करूँ क्या मुझे तुम बताती नहीं हो छुपाती हो मुझसे ये तुम्हारी खता है हाँ मुझे रात दिन ...
मेरी बेकरारी को हद से बढ़ाना तुम्हें खूब आता है बातें बनाना निगाहें मिलाके यूँ मेरा चैन लेना सताके मोहब्बत में यूँ दर्द देना मुझे देखके ऐसे पलकें झुकाना शरारत नहीं है तो फिर और क्या है हाँ मुझे रात दिन ...
तुम्हें नींद आएगी अब ना मेरे बिन मुझे है यकीं ऐसा आएगा इक दिन खुली तेरी ज़ुल्फ़ों में सोया रहूँगा तेरे ही ख्यालों में खोया रहूँगा कभी गौर से मेरी आँखों में देखो मेरी जां तुम्हारा ही चेहरा छुपा है हाँ मुझे रात दिन ...
उत्तरी कारो नदी में पदयात्रा Torpa , Jharkhand
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कारो और कोयल ये दो प्यारी नदियां कभी सघन वनों तो कभी कृषि योग्य पठारी
इलाकों के बीच से बहती हुई दक्षिणी झारखंड को सींचती हैं। बरसात में उफनती ये
नदियां...
इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।