बुधवार, नवंबर 25, 2009

ये दाग दाग उजाला, ये शबगज़ीदा सहर : सुनिए आज के हालातों के मद्देनज़र फैज़ की ये नज़्म नसीरुद्दीन शाह की आवाज़ में...

आज से करीब २५ साल पहले २० नवंबर १९८४ को लाहौर के मेयो अस्पताल से फ़ैज़ अहमद फैज़ हमें छोड़ कर चले गए। पर फ़ैज़ की ग़ज़लें, उनकी नज़्में रह रह कर दिल में उभरती रहती हैं। आज की सुबह एक ऍसी ही सुबह है जब उनकी इस नज़्म की याद मुझे बारहा आ रही है। क्यूँ आ रही है ये बात बाद में । पहले ये जान लें कि फ़ैज ने इस नज़्म में क्या लिखा था?

फ़ैज़ ने अगस्त १९४७ में पाकिस्तान के तत्कालीन हालातों के मद्देनज़र एक नज़्म लिखी थी सुबह-ए- आज़ादी। कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े फ़ैज़ आज़ादी को एक ऍसे परिवर्तन के रूप में देखना चाहते थे जो अमीरी और गरीबी की खाई को मिटा दे। पर जब ऍसा कुछ नहीं हुआ तो मायूस हो कर उन्होंने लिखा

कैसी दागदार रौशनी के साथ निकली है ये सुबह जिसमें कुछ दिखाई नहीं दे रहा। जब हम अपने इस सफ़र में चले थे तो हमने ऐसी सुबह की तो कल्पना नहीं की थी। हमारी कल्पनाओं की सुबह तो उस मुकाम की तरह थी जैसे कोई आसमान की चादर पर चलते हुए जगमगाते तारों के पास पहुँच जाए या जैसे भटकती हुई समुद्र की धारा को उसका किनारा मिल जाए।

ये दाग दाग उजाला, ये शबगज़ीदा सहर
वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल

आखिर कहीं तो ग़म से भरे इस दिल की नैया को किनारा मिलेगा? युवावस्था की रहस्यमय दहलीज़ को पार करते वक़्त इस सफ़र पर चलने से हमें जाने कितने ही हाथों ने रोका। हुस्न की परियाँ हमें आवाज़ देकर अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयास करती रहीं पर फिर भी वो हमें अपने मार्ग से विचलित ना कर सकीं, थका ना सकीं। आखिर क्यूँ ? क्यूँकि दिल में उस सुबह को लाने का एक जोश था, एक उमंग थी। हमारे लिए तो उस बिल्कुल करीब आ गई सुबह के हसीं दामन को छू लेना ही अंतिम मुकाम था।

कहीं तो जा के रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़म-ए-दिल
जवाँ लहू की पुर-असरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से
पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन
बहुत क़रीं था हसीनान-ए-नूर का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना, दबी दबी थी थकन

सुन रहे हैं कि जुल्म के बादल अब छँट चुके हैं और लोग तो ये भी कह रहे हैं कि जिस मंजिल की तलाश में हम चले थे वो हमें मिल भी चुकी है। पर कहाँ है चेहरों पर लक्ष्य मिलने की खुशी? अगर हालात बदले हैं तो उनका असर क्यूँ नहीं दिखाई देता? जिस सुबह की हवा का हमें बेसब्री से इंतज़ार था वो किधर से आई और किधर चली गई? अब देखिए ना सड़क के किनारे जलते इस प्रकाशपुंज को भी उसके जाने का रास्ता नहीं मालूम। रात का भारीपन भी तो कम होता नहीं दिखता। इसीलिए तो मुझे लगता है आँखों और दिल को जिस सुबह की तलाश थी वो अभी नहीं आई। तुमलोग भी आगे का सफ़र करने को तैयार हो जाओ कि मंज़िल तक पहुँचना अभी बाकी है.....

सुना है हो भी चुका है फ़िराक़-ए-ज़ुल्मत-ओ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर
निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अज़ाब-ए-हिज्र-ओ-हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगार-ए-सबा, किधर को गई
अभी चराग़-ए-सर-ए-राह को कुछ ख़बर ही नहीं
गिरानि-ए-शब में कमी नहीं आई
निजात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई

ये तो थी मेरी समझ के हिसाब से इस उर्दू नज़्म का अनुवाद करने की एक कोशिश। संभवतः इसमें कुछ त्रुटियाँ भी हो सकती हैं। वैसे कुछ दिनों पहले मुझे कुर्तुलीन हैदर की किताब आग का दरिया के अंग्रेजी अनुवाद The River of Fire के एक अंश को पढ़ने का मौका मिला था। उस किताब में फ़ैज की इस नज़्म का संक्षिप्त अनुवाद करते हुए कुर्तुलीन जी ने लिखा था


This blighted dawn , this darkened sun. This is not the morning we waited for.We went forth in the desert of heaven, hoping to reach our destination of stars. We hoped that, somewhere, we would come ashore from the placid river of the night, that the barge of sorrow would end its cruise. Whence came the early morning breeze, where did it go? The wayside lamp does not know. The night's burden has not diminished, the hour of deliverance for eye and heart has not arrived. Face forward! For our destination is not yet
in sight.
तो आइए सुनें जाने माने अभिनेता नसीरुद्दीन शाह की धारदार आवाज़ में फ़ैज़ की ये नज़्म

 
 

गुरुवार, नवंबर 19, 2009

फिर मिलोगे कभी इस बात का वादा कर लो...

जिंदगी के इस सफ़र में ना जाने कितने लोग हमारे संपर्क में आते हैं। पर बीते समय में झाँक कर देखने पर क्या आपको नहीं लगता कि कुछ ऐसे चेहरे रह गए जिनसे अपने रिश्तों को समय रहते हम वो रूप नहीं दे पाए जो देना चाहते थे।

दिल खुशफहमियाँ पालता रहता है कि काश कभी उनसे एक मुलाकात और तो हो जिसमें हम ऍसे मरासिम बना सके जिन्हें परिभाषित करने में हमारे अंतरमन को कोई दिक्कत ना हो। पर अव्वल तो ऍसी मुलाकातें हो नहीं पाती और होती भी हैं तो माहौल ऐसा नहीं बन पाता कि रिश्तों के अधखुले सिरों को फिर से टटोला जा सके।

ये तो हुई वास्तविक जिंदगी की बात पर फिल्मों में ऐसी मुलाकातें अक्सर हो जाया करती हैं क्यूँकि उनके बिना कहानी आगे बढ़ती नहीं। इसीलिए तो गीतों का ये आशावादी दृष्टिकोण हमारे मन को सुकून देता है। साथ ही उन्हें गुनगुनाकर हम अपने आप को पहले से तरो ताज़ा और उमंगों से भरा महसूस करते हैं।

ऍसा ही एक गीत गाया था रफ़ी साहब ने फिल्म ये रात फिर ना आएगी के लिए और क्या कमाल गाया था। १९६५ में आई ये फिल्म अपने गीतों के लिए बेहद चर्चित रही थी। चाहे आशा जी का गाया 'यही वो जगह है... हो या फिर महेंद्र कपूर का गाया मेरा प्यार वो है..... हो, ओ पी नैयर द्वारा संगीत निर्देशित इस फिल्म के सारे गीत लाज़वाब थे। और इस गीत का तो शमसुल हूदा बिहारी ने, मुखड़ा ही बड़ा जबरदस्त लिखा था ...

फिर मिलोगे कभी इस बात का वादा कर लो
हमसे एक और मुलाकात का वादा कर लो


वैसे बिहारी साहब अपने नाम के अनुरूप सचमुच बिहार के ही थे और पटना के पास स्थित आरा में उनका जन्म हुआ था। संगीतकार ओ पी नैयर के करीबियों का कहना है कि ओ पी नैयर ने बिहारी के मुखड़े को आगे बढ़ाते हुए पहला अंतरा ख़ुद ही रच डाला था। ये अंतरा गुनगुनाना मुझे बेहद पसंद रहा है इसलिए आज इसे यहाँ लगा दे रहा हूँ



वैसे आप मुझे ना झेलना चाहें तो रफ़ी साहब की गायिकी का आनंद यहाँ ले सकते हैं।




फिर मिलोगे कभी इस बात का वादा कर लो
हमसे इक और मुलाकात का वादा कर लो

दिल की हर बात अधूरी है अधूरी है अभी
अपनी इक और मुलाकात ज़रूरी है अभी
चंद लमहों के लिये साथ का वादा कर लो
हमसे इक और मुलाकात का वादा करलो
फिर मिलोगे कभी .....

आप क्यूँ दिल का हसीं राज़ मुझे देते हैं
क्यूँ नया नग़मा नया साज़ मुझे देते हैं
मैं तो हूँ डूबी हुई प्यार की तूफ़ानों में
आप साहिल से ही आवाज़ मुझे देते हैं
कल भी होंगे यहीं जज़्बात ये वादा करलो
हमसे इक और मुलाकात का वादा करलो
फिर मिलोगे कभी .....


इस गीत का दूसरा अंतरा आप इस वीडियो में देख सकते हैं जिसे आशा जी ने गाया है। ये गीत पर्दे पर फिल्माया गया था विश्वजीत और शर्मिला टैगोर जी पर

शनिवार, नवंबर 14, 2009

'बुढ़िया कबड्डी' और बचपन के वे अनमोल दिन .....

तो आज है बच्चों का दिन यानि बाल दिवस ! तो क्यूँ ना इस दिन बचपन की कुछ बातों को साझा किया जाए एक बेहद दिलअज़ीज़ गीत के साथ। समय के साथ कितना बदल गया है तब और आज का बचपन। तब भी मस्तियाँ और शैतानियाँ होती थीं और आज भी। फर्क आया है इनके तौर तरीकों में, तब के और आज के माहौल में। बचपन की स्मृतियों पर नज़र दौड़ाऊँ तो बहुत सारी बातें अनायास ही मन में आती हैं। पेड़ों पर रस्सी लगा कर झूला झूलना, इमली के पेड़ की डरते डरते चढ़ाई करना, टोकरी को तिरछा कर रस्सी के सहारे चिड़िया को पकड़ने की कोशिश करना, हारने या खेल में ना शामिल किए जाने पर टेसुए बहाना, मन का ना होने पर बार बार घर छोड़ने की धमकी दे डालना और ऐसी ही ना जाने कितनी और बातें। पर आज बात उन खेलों की जिन्हें खेलते हुए बचपन का एक बड़ा हिस्सा बीता।

बचपन में पहला खेल जो हमनें सीखा था वो था बुढ़िया कबड्डी। अगर आप इस खेल से वाकिफ़ ना हों तो ये बताना जरूरी होगा कि इस खेल में अपनी साँस बिना तोड़े बारी बारी से विपक्षी दल के खिलाड़ियों को दौड़ाना और इन्हें छू कर वापस आना होता था। ऍसा इसलिए किया जाता था ताकि एक गोल रेखा के अंदर खड़ी अपने दल की बुढ़िया को भागने का रास्ता मिल जाए। कबड्डी के इस परिवर्तित रूप में गोल रेखा के अंदर खड़े खिलाड़ी को बुढ़िया क्यूँ कहा जाता था ये अभी भी मेरी समझ के बाहर है।

ज़ाहिर है जितनी लंबी साँस होगी उतने ही अधिक खिलाड़ियों को दौड़ाकर आप बुढ़िया का काम आसान कर सकते थे। अब एक साँस को लेने के लिए कई तरीके थे। सबसे प्रचलित होता था

शैल तीईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईई............. या फिर
कबड्डी के बाड बड्डी बाड बड्डी बाड बड्डी......

पर इन दोनों तरीकों में साँस में हेर फेर यानि चीटिंग करने की गुंजाइश काफी कम होती थी तो हम लोग इनका इस्तेमाल कम ही करते थे। सबसे मज़ेदार रहता

शैल दल्ले छू दल्ले छू...

बोलना क्यूँकि ये इतनी धीमी गति से बोला जाता कि साँस ले लेने का पता ही न चलता। अगर विपक्षी खिलाड़ी शिकायत करते तो हम अपने दूसरे सहारे प्रकाश लाल की शरण में चले जाते। अब ये न पूछिएगा कि ये प्रकाश लाल कौन था क्यूंकि हम तो उसे जाने बगैर ही उसका मर्सिया पढ़ देते थे यानि

शैल कबड्डी आस लाल मर गया प्रकाश लाल मेरा....लाल लाल लाल लाल...

बुढ़िया कबड्डी का शुमार तो अब लुप्तप्राय खेलों में कर लेना चाहिए। पर गिल्ली डंडा, रस्सी और लट्टू, कंचों पिट्टो, कोनों की अदला बदली और रुमाल ले कर भागने वाले खेल तो कस्बों और गाँवों में जरूर खेले जाते होंगे। आज तो बाजार में हर आयु वर्ग के लिए तरह तरह के आकर्षक खेल हैं खासकर तब जब आपकी जेब में इनके लिए पर्याप्त पैसे हों। वैसे भी आज के बच्चों के हाथ, मोबाइल और कम्प्यूटर के कीबोर्ड में गेम खेलने को इतने सिद्धस्त हो जाते हैं कि उन्हें गिल्ली और डंडे को पकड़ने की जरूरत ही क्या है। पर जो बच्चे इन सुविधाओं से अभी भी दूर हैं उनके लिए तो ये खेल आज भी मौज मस्ती की तरंग जरूर लाते होंगे।

तो आइए आज आपको वो गीत सुनाऊँ जो मुझे अपने बचपन की इन्हीं यादों के बहुत करीब ले जाता है। सुजाता फिल्म के इस गीत के बोल लिखे थे मजरूह सुल्तानपुरी ने और संगीतबद्ध किया था सचिन देव बर्मन साहब ने। गीता दत्त और आशा जी ने जो चुनिंदा युगल गीत गाए हैं उनमें से ये एक था। गायिकी, संगीत और बोल तीनों के लिहाज़ से ये गीत मुझे पसंद हैं ..



बचपन के दिन बचपन के दिन
बचपन के दिन भी क्या दिन थे हाय हाय
बचपन के दिन भी क्या दिन थे
उड़ते फिरते तितली बन के बचपन....

वहाँ फिरते थे हम फूलों में पड़े
यहाँ ढूँढते सब हमें छोटे बड़े
थक जाते थे हम कलियाँ चुनते
बचपन के दिन भी क्या दिन थे
उड़ते फिरते तितली बन के बचपन.....

कभी रोये तो आप ही हँस दिये हम
छोटी छोटी ख़ुशी छोटे छोटे वो ग़म
हाय रे हाय हाय हाय हाय रे हाय
कभी रोये तो आप ही हँस दिये हम
छोटी छोटी ख़ुशी छोटे छोटे वो ग़म
हाय क्या दिन थे वो भी क्या दिन थे

बचपन के दिन भी क्या दिन थे
उड़ते फिरते तितली बन के बचपन ...


और चलते चलते आज के बचपन को अपने क़ैमरे में क़ैद करने की मेरी कोशिश


तो क्या आपको ये प्रविष्टि आपके बचपन तक खींच कर ले जा सकी ?

मंगलवार, नवंबर 10, 2009

तुम्हारे शहर का मौसम बडा सुहाना लगे : अनूप जलोटा के साथ सुनिए जनाब क़ैसर उल ज़ाफरी को !

जब भी पुरानी ग़ज़लों की बात सोचता हूँ मुझे अस्सी का दशक रह रह कर याद आता है। अब अगर कोई ये कहे कि मियाँ तुम क्या देर से जगे हो ग़ज़लें तो हमारे बाप दादा के ज़माने से चलती आ रही हैं तो वो बात भी सही है। अस्सी के दशक से पुरानी कई ग़ज़लें सच पूछिए तो पिछले एक दशक में ही सुन पाया हूँ। पर अब करें क्या ग़ज़ल की भावनाओं को समझने की उम्र भी तो 1985 के बाद ही आई।

वैसे भी जिस संगीत को आप सुनते हुए बड़े होते हैं वो आपकी वास्तविक ज़िंदगी का हिस्सा हो जाता है। जब भी ऐसी ही कोई ग़ज़ल या गीत बरबस याद आता है तो अपने साथ उस समय की बहुत सी यादों को समेटता हुआ आता है।

आज एक ऐसी ही ग़ज़ल आपके सामने पेश है जिसे अस्सी के दशक में ख़ासी लोकप्रियता हासिल हुई थी। इसे अपनी आवाज़ दी थी भजन सम्राट कहे जाने वाले अनूप जलोटा साहब ने। ये ग़ज़ल 1984 में रिलीज़ हुए उनके एलबम फरमाइश का अहम हिस्सा थी। पहली बार जब इसे सुना था तो मुझे जलोटा साहब का ग़ज़ल शुरु करने के पहले कहा गया शेर असमंजस में डाल गया था।

ग़ज़ल में बंदिशो अल्फाज़ ही नहीं काफी
जिगर का ख़ून भी चाहिए असर के लिए


इस 'जिगर के ख़ून' का मर्म समझने में मुझे तीन चार साल और लगे। फिर तो इस शेर के साथ पूरी ग़ज़ल को सुनना मुझे बहुत अच्छा लगने लगा। इसकी एक वज़ह ये भी थी कि क़ैसर उल ज़ाफरी साहब ने एक ऍसी रूमानी ग़ज़ल लिखी थी जो आसानी से एक हिंदी भाषी को भी समझ आ जाए। वैसे भी किशोरावस्था की दहलीज़ पर ऍसी भावनाएँ कुछ ज्यादा ही असर करती थीं।

वैसे अनूप जी ने भी बड़ी तबियत से इसका हर शेर गाया है। मतले में मौसम को छः बार कहने का उनका अंदाज़ निराला है। खूबसूरत वाद्य संयोजन के साथ साथ अपने चिरपरिचित अंदाज़ में अनूप भाई वाह वाही बटोरने वाला शास्त्रीय आलाप लेना भी नहीं भूले हैं।

अनूप जलोटा एक ऐसे गायक हैं जो उस ज़माने से लेकर आज तक सुने जाते रहे हैं। वे बारहा देश विदेशों में कनसर्ट देते रहते हैं। भक्ति संगीत के सैकड़ों एलबम में अपनी आवाज़ देने के बाद आजकल वो अपना समय भावी गायकों को सिखाने में लगाते हैं। उन्होंने गजल गायिकी बिल्कुल बंद तो नहीं की पर ग़ज़लों के अब उनके इक्का दुक्का एलबम ही आते हैं। तो देर किस बात की..बात शुरु की जाए उनके प्यारे शहर की


तुम्हारे शहर का मौसम बडा सुहाना लगे
मै एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा ना लगे

जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो
कि आसपास की लहरों को भी पता ना लगे


तुम्हारे बस मे अगर हो तो भूल जाओ हमें
तुम्हें भुलाने मे शायद हमें ज़माना लगे

न जाने क्या है किसी की उदास आँखों में
वो मुँह छुपा के भी जाये तो बेवफ़ा ना लगे


हमारे प्यार से जलने लगी है इक दुनिया
दुआ करो किसी दुश्मन की बद्दुआ ना लगे

अनूप जलोटा की इस ग़ज़ल में जनाब क़ैसर-उल-जाफ़री के ये अशआर नहीं हैं..
कुछ इस अदा से मेरे साथ बेवफ़ाई कर
कि तेरे बाद मुझे कोई बेवफ़ा ना लगे

वो फूल जो मेरे दामन से हो गया मंसूब,
ख़ुदा करे उसे बाज़ार की हवा ना लगे

तुम आँख मूँद के पी जाओ ज़िन्दगी 'क़ैसर',
कि एक घूँट मे शायद ये बदमज़ा ना लगे

क़ैसर-उल-जाफ़री एक ऍसे शायर हैं जिन्होंने मुशायरों की शोभा तो बढ़ाई ही है कई फिल्मों के गीत भी लिखे हैं। इतना ही नहीं क़ैसर साहब एक बुलंद आवाज़ के मालिक भी हैं। बड़ा आनंद आता है जब भी क़ैसर साहब की आवाज़ में ये ग़ज़ल सुनता हूँ। तो क्यूँ ना चलते चलते आप सब को भी उनकी आवाज़ से रूबरू कराता चलूँ !



चाँदनी था, कि ग़ज़ल था, कि सबा था क्या था
मैंने इक बार तेरा नाम सुना था क्या था

ख़ुदकुशी कर के भी बिस्तर से उठा हूँ ज़िंदा
मैंने कल रात को जो ज़हर पिया था क्या था

तुम तो कहते थे ख़ुदा तुमसे ख़फ़ा है क़ैसर
डूबते वक़्त इक हाथ बढ़ा था क्या था

शुक्रवार, नवंबर 06, 2009

मुझे दर्द-ए-दिल का पता ना था, मुझे आप किसलिए मिल गए...

आदमी की फ़ितरत अज़ीब सी है। चाहता कुछ और है और कहता कुछ और। अब भला जिंदगी की राहों में कोई हसीन हमसफ़र मिल जाए तो इसमें दिक्कत कहाँ हैं जनाब ! पर देखिए अब कोई मिल गया तो इतरा रहे हैं ये कहते हुए कि मैं तो अकेले ही बड़े आराम से था। अब भइया एक अदद दिल की तलाश में मारे मारे फिरोगे और एक के साथ एक फ्री वाली स्कीम में दर्द लाज़िमी तौर पर मिलेगा तो क्या कलपने लगोगे :)?

पर ये तो हमारे आपके दिखाने की बात है। अंदर ही अंदर तो हम दर्द-ए-दिल को भी शिद्दत से महसूस करना चाहते हैं। फ़राज़ ऍसे तो नहीं कह गए

पहले पहल का इश्क़ अभी याद है फ़राज़
दिल खुद से चाहता है कि रुसवाइयाँ भी हों


पर जहाँ ये बात सही है, वहाँ इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि जब हमारी समझ से अपने स्तर से बहुत अच्छा हमें अपना लेता है तो एक ओर तो हमें बड़ी खुशी मिलती है पर दूसरी ओर रह रह कर अंदर की हीन ग्रंथि हमें अपनी तुच्छता का अहसास भी दिलाती रहती है।

तो आज ऍसे ही भावनाओं से ओतप्रोत इस गीत की बात करना चाहता हूँ। इसे लिखा था मजरूह सुल्तानपुरी ने और इसकी धुन बनाई थी चित्रगुप्त ने। मजरूह ने ये गीत शायद ऍसे ही किसी क़िरदार के लिए लिखा होगा। शायद इसलिए कि जिस फिल्म का ये गीत है वो मैंने देखी नहीं। फिल्म का नाम था 'आकाशदीप' जो १९६५ में प्रदर्शित हुई थी। वैसे यू ट्यूब के वीडिओ से ये स्पष्ट है कि इसे फिल्माया गया था धर्मेन्द और नंदा जी पर।

ये गीत रफ़ी साहब के गाए मेरे पसंदीदा गीतों में से एक है तो सुनिए रफ़ी की गायिकी का कमाल ..


वैसे यू ट्यूब के वीडिओ में इस गीत के तीनों अंतरे सुनने को मिलेंगे।


मुझे दर्द-ए-दिल का पता ना था
मुझे आप किसलिए मिल गए
मैं अकेला यूँ ही मजे में था
मुझे आप किसलिए मिल गए....

यूँ ही अपने अपने सफ़र में गुम
कही दूर मैं, कही दूर तुम
चले जा रहे थे जुदा, जुदा
मुझे आप किसलिए मिल गए....

मैं गरीब हाथ बढ़ा तो दूँ
तुम्हें पा सकूँ कि ना पा सकूँ
मेरी जाँ बहुत हैं ये फ़ासला
मुझे आप किसलिए मिल गए....

ना मैं चाँद हूँ, किसी शाम का
ना च़राग हूँ, किसी बाम का
मैं तो रास्ते का हूँ एक दीया
मुझे आप किसलिए मिल गए....


वैसे चलते चलते कुछ बाते संगीतकार चित्रगुप्त यानि चित्रगुप्त श्रीवास्तव के बारे में। यूँ तो चित्रगुप्त भोजपुरी फिल्मों के मूर्धन्य संगीतकार माने जाते हैं, पर हिंदी फिल्मों के लिए भी उन्होंने कुछ नायाब नग्मे दिए। चित्रगुप्त का ताल्लुक बिहार से था और रोचक तथ्य ये है कि मुंबई की मायानगरी में संगीतकार बनने के पहले वो कॉलेज में लेक्चरर थे। वैसे क्या आपको पता है कि चित्रगुप्त की सांगीतिक विरासत को किसने आगे बढ़ाया ? वही 'क़यामत से क़यामत तक ' की संगीतकार जोड़ी आनंद-मिलिंद ने, जो चित्रगुप्त के सुपुत्र हैं।

मंगलवार, नवंबर 03, 2009

क्या होगा जब श्रेया घोषाल और सुखविंदर दिखलाएँ आपको जीवन की डगर ?

पिछले साल जब वार्षिक संगीतमाला के अपने पसंदीदा गीतों का चयन कर चुका था, तब ये गीत मुझे सुनने को मिला। लिहाज़ा ये मेरी वार्षिक संगीतमाला 2008 का हिस्सा नहीं बन पाया था। ये गीत था फिल्म ब्लैक एंड व्हॉइट (Black and White) का। अगर आपको इस फिल्म का नाम याद नहीं आ रहा तो इसमें आपका कोई क़सूर नहीं। फिल्म सिनेमाघर के पर्दे की शोभा ज्यादा दिनों तक नहीं बढ़ा सकी थी। वैसे विशुद्ध व्यवसायिक फिल्म बनाने वाले सुभाष घई ने इस फिल्म के ज़रिए वास्तविक ज़िंदगी के करीब आने की कोशिश की थी। पर सुभाष घई जैसी भी फिल्में बनाएँ अपनी फिल्मों के संगीत के चयन के प्रति बेहद सजग रहे हैं। इस हट के बनाई गई फिल्म के संगीतकार के तौर पर उन्होंने चुना था लोकप्रिय गायक सुखविंदर सिंह को। और आज जिस गीत की बात मैं आपसे कर रहा हूँ उसमें सुखविंदर जी के हुनर का क़माल साफ दिखाई देता है...


चिड़ियों की चहचहाट, गायिका का मधुर आलाप, चलती रेल की आवाज़ के साथ सम्मोहित करती आरंभिक धुन के साथ इस गीत से आप रूबरू होते हैं। जब तक आप इस आरंभिक सम्मोहन से निकलें श्रेया घोषाल की खनकती आवाज़ और इब्राहिम अश्क़ के बोल ज़िदगी की राहों में साथ साथ चलने पर मज़बूर कर देते हैं। शुरुआती धुन को इंटरल्यूड्स में बरक़रार रख कर सुखविंदर इस गीत का मज़ा दूना कर देते हैं। तो आइए पहले सुनें कोकिल कंठी श्रेया घोषाल के स्वर में ये गीत..



मैं चली मैं चली
इस गली उस गली
इस डगर उस डगर
इस तरफ़ उस तरफ़
साथ मेरे चले ज़िंदगी का सफ़र...

हँसती हैं तितलियाँ, मुस्कुराए ज़मीं
बादलों की हँसी गुनगुनाए कहीं
दिल की धड़कन चले, वक़्त की छाँव में
दर्द की मस्तियाँ नाचती पाँव में..

इस गली उस गली
इस डगर उस डगर, ऍ मेरे हमसफ़र
मैं चली मैं चली
सारी दुनिया से मैं हो गई बेख़बर
साथ मेरे चले जिंदगी का सफ़र...


मेरी पायल में हैं बोल सब प्यार के
चूड़ियों में भी हैं लफ़्ज़ इक़रार के
मेरे होठों पे हैं गीत इज़हार के
ख़्वाब आँखों में है तेरे दीदार के
है यही तो मेरे प्यार की रहगुज़र
मैं चली मैं चली..मैं चली मैं चली


वैसे इस गीत का एक और वर्सन है जिसे सुखविंदर ने अपनी आवाज़ से सँवारा है। श्रेया वाले वर्सन में गीत का मूड जहाँ रोमांटिक हैं वहीं सुखविंदर के इस वर्सन में गीतकार फिलासफिकल नज़रिए से जिंदगी के बदलते रास्तों से हमें ले जाते हैं। इस बार अंतरे में पिआनो की धुन भी कर्णप्रिय लगती है। तो सुखविंदर जी के गाए इस गीत को सुनिए ..



मैं चला मैं चला
इस गली उस गली
इस डगर उस डगर
इस तरफ़ उस तरफ़
साथ मेरे चले ज़िंदगी का सफ़र...

अज़नबी रास्ते, अज़नबी है ज़हाँ
मैं कहाँ से कहाँ आ गया हूँ यहाँ
अज़नबी रास्ते, अज़नबी है ज़हाँ
मैं कहाँ से कहाँ आ गया हूँ यहाँ.......
सात रंगों की है तेरी दुनिया हसीं
है उजाला कहीं तो है अँधेरा कहीं
है कहीं शाम तो क्यूँ कहीं है सहर
मैं चला मैं चला...

कैसी हैं उलझनें कैसे हालात हैं
दिल में उमड़े ये कैसे जज़्बात हैं
कैसी हैं उलझनें कैसे हालात हैं
दिल में उमड़े हुए कैसे जज़्बात हैं.......
है धुआँ ही धुआँ रास्तों के निशां
हर क़दम पर मेरे हौसले है जवाँ
मेरी मंजिल मुझे आ रही है नज़र

मैं चला मैं चला
इस गली उस गली
इस डगर उस डगर
इस तरफ़ उस तरफ़
साथ मेरे चले ज़िंदगी का सफ़र...

सोमवार, अक्टूबर 26, 2009

दुष्यन्त कुमार की एक प्रेरणादायक ग़ज़ल : रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख ..

वीर रस की कविताएँ तो बचपन से ही पढ़ते सुनते आए हैं। दिनकर व सुभद्रा कुमारी चौहान जैसे कवि कवयित्रियों की रचनाएँ छुटपन से ही हमारी शिराओं में रक़्त प्रवाह को तेज कर देती थीं।

पर ये बताइए कि कितनी ग़ज़लों को पढ़ने के बाद भी वैसे ही अहसासात से आप रूबरू हुए हैं। निश्चय ही अपेक्षाकृत ये संख्या कम रही होगी। ग़ज़लें अपने स्वाभाव से ही कोमल भावनाओं को समाहित करती चलती हैं पर जैसा हम सभी जानते हैं कि कई ग़ज़लकारों ने बदलते वक़्त और माहौल के साथ इनमें अलग अलग रंग भरने की कोशिश की है। फ़ैज की कई नज़्में इसी श्रेणी की रही हैं पर जब ग़ज़लों के बारे में सोचता हूँ तो मेरे ज़हन में दुष्यन्त कुमार जी की कई ग़ज़लें एक साथ उभर कर सामने आती हैं।

भारत में हिंदी ग़ज़लों के जनक कहे जाने वाले दुष्यन्त कुमार की ऍसी ही एक ग़ज़ल आपके सामने पेश कर रहा हूँ। ये ग़ज़ल हमें उत्प्रेरित करती है इस बात के लिए कि किसी भी कार्य को पूरा करने के लिए, दूसरों की तरफ़ आशा भरी नज़रों से देखने के बजाए ख़ुद कुछ करने की ललक होनी चाहिए। दुष्यन्त जी ने इस ग़ज़ल के हर शेर में विभिन्न रूपकों की मदद से इस बात को पुरज़ोर ढंग से रखा है।

दुष्यन्त जी को कभी सुनने का अवसर नहीं मिला इस बात का मुझे हमेशा अफ़सोस रहा है। इस महान शायर की लिखी ये प्रेरणादायक पंक्तियाँ मेरे दिल पर क्या असर डालती हैं इसे व्यक्त करने का सबसे अच्छा ज़रिया यही है कि इसे मैं पढ़कर आप तक पहुँचाऊँ। तो ये रहा मेरा प्रयास..



आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख।

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख।

अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख।

वे सहारे भी नहीं अब, जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख।

दिल को बहला ले, इजाज़त है, मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख।

ये धुँधलका है नज़र का, तू महज़ मायूस है
रोग़नों को देख, दीवारों में दीवारें न देख।

राख, कितनी राख है, चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख।


आशा है इसे सुनने के बाद ऍसी ही कुछ भावनाओं का संचार आपके दिल में भी हुआ होगा..

बुधवार, अक्टूबर 21, 2009

आए कुछ अब्र कुछ शराब आए: फ़ैज़ के क़लाम पर रूना लैला का खनकता स्वर

दीपावली एक ऐसा त्योहार है जिसकी गहमागहमी में ब्लॉग की ओर भी रुख करने को जी नहीं चाहता। साल के इन दिनों में पुरानी स्मृतियों से गुजरना अच्छा लगता है। आप कहेंगे दीपावली से पुरानी स्मृतियों का क्या लेना देना? दरअसल जब भी घर की साफ सफाई में अपने आप को लगाता हूँ, कुछ पुराने ख़तों, तसवीरों,काग़ज़ातों और उनसे जुड़ी यादों से अपने आप को घिरा पाता हूँ। दीप से लेकर पटाखे जलाने तक में अपने बच्चे के साथ खुद भी बच्चा बनने की ख़्वाहिश रहती है मेरी। फिर भला एक बार नेट से दूर जाने पर ब्लॉग की बात भी क्यूँ याद आए?

पर अब तो दीपावली भी खत्म हो गई है। और शुक्र की बात है कि इस बार की दीपावली बिना किसी मानव निर्मित हादसे के बिना ही गुजर गई। पर मन अभी भी अनमना सा है। क्यूँ है ये अनमनापन पता नहीं। शायद छुट्टियों से लौट कर फिर दैनिक दिनचर्या से बँधने की खीज़ है या मन में अटका कोई बिना बात का फ़ितूर। दीपावली के पहले फ़ैज़ के एक क़लाम को ढूँढ कर रखा था तबियत से सुनने के लिए और आज वही कर भी रहा हूँ ...


और जब फैज़ की ग़ज़ल के कुछ अशआरों को रूना लैला की खनकती आवाज़ का सहारा हो तो ग़जल की तासीर ही कुछ और हो जाती है




आए कुछ अब्र1 कुछ शराब आए
उसके बाद आए जो अज़ाब2 आए

1-बादल, 2-मुसीबत

बाम-ए-मीना3 से महताब4 उतरे
दस्त-ए-साकी5 में आफ़ताब6 आए

3 - स्वर्ग की छत, 4- चाँदनी, 5 - साकी के हाथों में, 6 - सूर्य किरणें

हर रग-ए-ख़ूँ में फिर चरागाँ हो
सामने फिर वो बेनक़ाब आए


कर रहा था ग़म-ए-ज़हाँ का हिसाब
आज तुम याद बेहिसाब आए


ना गई तेरे ग़म की सरदारी7
दिल में यूं रोज इनकिलाब आए

7 - तांडव, आतंक

इस तरह अपनी खामोशी गूँजी
गोया हर सिमत8 से जवाब आए

8 - तरफ़

‘फ़ैज़’ थी राह सर-बसर मंज़िल
हम जहाँ पहुँचे क़ामयाब आए



ऐसी आवाज़..ऍसी कम्पोजीशन को सुने अब अर्सा बीत गया। वैसे पिछले महिने रूना जी म्यूजिक टुडे के विभिन्न अवसरों में गाए जाने वाले पंजाबी गीतों के इस एलबम के लिए दस साल बाद भारत की यात्रा पर आईं थीं। रूना जी ने उस दौरान दिए गए एक साक्षात्कार में बताया
मैंने जब गाना शुरु किया तो मैं बारह साल की भी नहीं थी। उस ज़माने की फिल्में परिवारोन्मुख सामाजिक परिवेश से जुड़ी होती थीं। ऍसा नहीं कि आज की फिल्में ऍसी नहीं हैं पर आजकल ध्यान स्टंट और सुंदर स्थलों पर की जाने वाली शूटिंग पर कहीं ज़्यादा है। उस ज़माने की बात करूँ तो संगीत बेहद अहम हिस्सा हुआ करता था फिल्मों का। उस वक़्त लोग संगीत सुनने के लिए फिल्म देखते थे। संगीत रिकार्डिंग एक सामाजिक उत्सव लगता था जहाँ सब अपने किरदारों को बिना थोड़ी सी गलती के निभाना अपना कर्तव्य समझते थे। आज तो स्टूडिओ में आए पूछा गाना क्या है, अलग अलग पंक्तियाँ या कभी कभी तो शब्द गा दिए और हो गया जी गीत तैयार। ये बेहद आसान है पर मुझे लगता है कि ऍसा करते वक़्त उन भावनाओं को खो देते हैं जो पूरे गीत को एक साथ गाने में आती हैं।
बिल्कुल वाज़िब फर्माया रूना लैला जी ने ! वैसे मुझे तो लगता है कि आज भी लोग अच्छे संगीत की वज़ह से सिनेमा देखने जाना चाहते हैं। पर वैसा संगीत देने के लिए जिस मेहनत की जरूरत है उस मापदंड को साल में चार पाँच फिल्में ही पूरी तरह पैदा कर पाती हैं। अगर हमारे रूना लैला जैसे शैदाइयों की खुशकिस्मती रही तो हिंदी फिल्म जगत में भी रूना की आवाज़ को सुनने का मौका एक बार फिर मिल पाएगा।

बुधवार, अक्टूबर 14, 2009

'शादीशुदा मगर उपलब्ध' ....यानि 'Married But Available' !

शीर्षक पढ़ कर कहीं आपको ऍसा तो नहीं लगा कि आप खुद ही इस श्रेणी में आते हैं। वैसे कहीं आपको इस शीर्षक ने भ्रमित कर दिया हो तो बता दूँ कि ये अंग्रेजी की एक किताब का नाम है जिसे अभिजीत भादुरी (Abhijit Bhaduri) ने लिखा है। जबसे चेतन भगत की 'Five Point Someone' हिट हो गई है तब से एक नया ट्रेंड चल पड़ा है अपनी कॉलेज लॉइफ को पुस्तक के माध्यम से परोसने का।

किसी भी रेलवे प्लेटफार्म पर आपको इस तरह कि किताबें धड़्ल्ले से बिकती मिलेंगी। शीर्षक भी एक से एक मसालेदार ! मिसाल के तौर पर 'Offcourse I love you till I found someone better' या फिर 'Anything for You Maam' या ऐसा ही बहुत कुछ। ज्यादातर किताबों के आगे बेस्ट सेलर का टैग भी झाँकता मिलेगा। सफ़र में जब और कुछ करने को नहीं हो तो सौ से दो सौ रुपये तक मूल्य वाली ये किताबें समय का सदुपयोग ही लगती हैं।

किशोरों और युवाओं को ऍसी किताबें खासी आकर्षित कर रही हैं और उसके पीछे कई कारण हैं। पहली तो ये कि नए नवेले लेखक अपनी कहानी कहने के लिए ज्यादा कठिन भाषा या क्लिष्ट शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते। कथानक में घटनाएँ तेजी से घटित होती रहती हैं और बीच बीच में आते घुमाव और तड़के में आपका समय सहजता से बीत जाता है। दूसरी ये कि कहीं ना कहीं इन किताबों में आपको वो बात नज़र आ जाती है जो आपने अपने कॉलेज के दिनों में खुद अनुभव की हो। Five Point Someone की सफलता का यही राज था।

अभिजीत भदुरी की पहली किताब Mediocre But Arrogant भी इसी श्रेणी की पुस्तक थी और काफी चर्चित भी हुई। फर्क सिर्फ इतना था कि किताब का परिदृश्य IIT Delhi की बजाए देश के नामी प्रबंधन संस्थान XLRI Jamshedpur का था।


वैसे तो भदुरी साहब ने अपनी स्नात्क की पढ़ाई दिल्ली के श्री राम कॉलेज आफ कामर्स से की पर मानव संसाधन में पीजी की डिग्री XLRI Jamshedpur से ली। अपनी पहली किताब में भदुरी ने XLRI Jamshedpur में दो साल की पढ़ाई से मूख्य पात्र अभय की जिंदगी और रिश्तों के स्वरूप में आए परिवर्तन को पुस्तक केंद्र बिंदु बनाया। उनकी दूसरी किताब पहली किताब की कहानी को आगे बढ़ाती है। यानि एक sequel के तौर पर इस बार उन्होंने कॉलेज की जिंदगी से निकल कर एक MBA के नौकरी के प्रथम दस सालों को अपनी पुस्तक की कथा वस्तु बनाया है।
हार्पर कालिंस द्वारा प्रकाशित, २८० पृष्ठों की ये किताब अभय (written as Abbey) की नौकरी, परिवार, प्रेमिका और पत्नी के बीच घूमती रहती है। पर इस उपन्यास की कहानी का शीर्षक से कोई लेना देना नहीं है। यानि ये किताब वैसे लोगों के बारे में हरगिज़ नहीं है जो शादी के बाद भी नए रिश्तों की तलाश में भटकते रहते हैं। पुस्तक की भूमिका में इसके नाम लिए हल्के फुल्के लहज़े में एक तर्क भी ढूँढा गया है। Mediocre But Arrogant (MBA) इसीलिए Married But Available (MBA)। पर सिर्फ MBA acronym को बरक़रार रखने के लिए ऍसे नामाकरण की बात गले नहीं उतरती। ये लेखक और प्रकाशक का पाठकों को आकर्षित करने का स्टंट भर है।

उपन्यास की बात करें तो अभिजीत ने अभय की कहानी ईमानदारी से कही है।
ये बात इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्यूँकि इस तरह की किताबों में मुख्य किरदार के चरित्र को बहुत कुछ पाठकों द्वारा लेखक की निजी जिंदगी से से जोड़ कर देखा जाता है। उपन्यास के प्रमुख पुरुष और स्त्री किरदारों में अहम की लड़ाई में किसी का पक्ष लेने से बचने में लेखक सफल रहे हैं। तेजी से ऊपर बढ़ने की चाह किस तरह रिश्तों के बीच के नेतिक मूल्यों को गर्त में ढकेल देती है इसे भदुरी सही तरीके से उभार पाए हैं। मानव संसाधन प्रबंधक के तौर पर कार्य करने में किस तरह की कार्यकुशलता चाहिए इस का भी अंदाज इस किताब को पढ़ने से लगता है।

पर कुल मिलाकर उनकी ये किताब बहुत कुछ उनकी पहली किताब के शीर्षक से मिलती जुलती नज़र आती है यानि Mediocre। इसलिए अगर आपका मानव संसाधन यानि Human Resources से दूर का भी नाता ना हो तो इस किताब से आप सहज दूरी बनाए रख सकते हैं।

आशा करता हूँ कि आप सबके लिए दीपावली का पर्व अपने परिवार के साथ सोल्लास बीतेगा और आप इस दौरान और आगे भी 'Married But Unavailable' रहेंगे। :)

रविवार, अक्टूबर 11, 2009

वो इश्क़ जो हमसे रूठ गया...अथर नफ़ीस के शब्द, फरीदा खानम की आवाज़ और उस्ताद नफ़ीस खान का सितार वादन !

पिछली पोस्ट में हम बात कर रहे थे शिक़वे और शिकायतों की जो रिश्तों की चमक बनाए रहते हैं। पर यही शिकायतें इस हद तक बढ़ जाएँ कि मामला प्रेम से विरह का रूप ले ले, तब कितने कठिन दौर से गुजरता है ये तनहा दिल! सच पूछिए तो जिंदगी बदमज़ा हो जाती है। कोई हँसी ठिठोली हमें बर्दाश्त नहीं होती। हम दूसरों से तो दूर भागते ही हैं अपनी यादों से भी पीछा छुड़ाने की कोशिश में लगे रहते हैं। पर कमबख़्त यादें नहीं जातीं। वो रहती हैं हमारे आस पास.... हमारे एकाकीपन के अहसास को और पुख्ता करने के लिए।

पाकिस्तानी शायर अथर नफ़ीस की मशहूर ग़ज़ल वो इश्क़ जो हमसे रूठ गया, अब उसका हाल बताएँ क्या, में कुछ ऍसी ही भावनाओं की झलक मिलती है। अथर साहब ने शायद ज्यादा लिखा नहीं। उनकी निजी जिंदगी के बारे में तो पता नहीं पर अपनी डॉयरी में उनके लिखे कुछ अशआर हमेशा से दिल को छूते रहे हैं। मसलन ये शेर मुलाहज़ा फ़रमाइए
जल गया सारा बदन इन मौसमों की आग में
एक मौसम रूह का है जिसमें अब जिंदा हूँ मैं

या फिर इसे ही देखिए
मेरे होठों का तबस्सुम दे गया धोखा तुझे
तूने मुझको बाग जाना देख ले सेहरा हूँ मैं

और उनकी लिखी ये पंक्तियाँ भी मुझे पसंद हैं
टूट जाते हैं कभी मेरे किनारे मुझ में
डूब जाता है कभी मुझ में समंदर मेरा

तो आइए लौटते हैं अथर साहब की ग़ज़ल पर..

वो इश्क़ जो हमसे रूठ गया, अब उसका हाल बताएँ क्या,
कोई मेहर नहीं, कोई क़हर नहीं, फिर सच्चा शेर सुनाएँ क्या
क़हर - विपत्ति

जो मेरी प्रेरणा, मेरी भावनाओं की स्रोत थी जब वो ही मुझसे रूठ कर चली गई फिर उसके बारे में बातें करने से क्या फ़ायदा। उसके जाने से ज्यादा बड़ी आफ़त कौन सी आ गई जो इस बुझे दिल में सच्चे अशआरों की रवानी भर दे! मुझे अपने वियोग के साथ कुछ पल तो एकांत में जीने दीजिए। एक बार जिस ग़म को पी लिया उसे सब के सामने दोहरा कर बेमतलब तूल देना मेरे दिल को गवारा नहीं है।

एक हिज़्र जो हमको लाहक़ है, ता-देर उसे दुहराएँ क्या,
वो जहर जो दिल में उतार लिया, फिर उसके नाज़ उठाएँ क्या
हिज्र -वियोग, लाहक़- मिला हुआ, नाज़ - नखरे

एक आग ग़म-ए-तन्हाई की, जो सारे बदन में फैल गई,
जब जिस्म हीं सारा जलता हो, फिर दामने-दिल को बचाएँ क्या

आप कहते हैं सँभालो अपने दिल को? सवाल तो ये है कि किस किस को सँभाले ? अब तो इस जिस्म का कोई भी हिस्सा उसकी तड़प से अछूता नहीं रह गया है। ठीक है दोस्त कि हमने भी जिंदगी में चंद हसीन ख़्वाब देखे हैं..इस महफिल में कुछ ग़ज़लें गाई हैं पर वो तब की बात थी। आज इस उदासी, इस तन्हाई के आलम में मुझसे कुछ सुनने की उम्मीद आप कैसे रख सकते हैं। इस व्यथित हृदय में तो अब सपनों के लिए भी कोई जगह नहीं बची।

हम नग़्मासरा कुछ गज़लों कें, हम सूरतगर कुछ ख्वाबों के,
बेजज़्बा-ए-शौक सुनाएँ क्या, कोई ख़्वाब न हों तो बताएँ क्या
नग़्मासरा - गायक

इस ग़ज़ल को इतनी मक़बूलियत दिलाने में जितना अथर नफ़ीस का हाथ है उतना ही श्रेय पाकिस्तान की मशहूर ग़ज़ल गायिका फरीदा खानम को भी मिलना चाहिए। फरीदा जी की गायिकी से तो आप सब वाकिफ़ ही हैं। फ़रीदा जी की आवाज, का लुत्फ उठाइए और फिर...




और फिर होठों पर वही ग़ज़ल गुनगुनाइए सितार पर इसकी धुन के साथ जिसे बजाया है उस्ताद नफ़ीस अहमद खाँ ने। नफ़ीस प्रसिद्ध सितार वादक उस्ताद फतेह अली खाँ के सुपुत्र हैं। हो गया ना मज़ा दोगुना...


बुधवार, अक्टूबर 07, 2009

कोई शिक़वा भी नहीं.... और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं

प्यार भी एक अजीब सी फ़ितरत है। पहले तो किसी का दिल जीतने के लिए मशक्क़त कीजिए । और अगर वो मिल गया तो भी चैन कहाँ है जनाब ! उसे खोने का डर भी तो साथ चला आता है। और तो और परिस्थितियाँ बदलती रहें तो भी हमारे साथी की हमसे उम्मीद रहती है कि प्यार की तपिश बनी रहे। और गर आप साथी के खयालतों की सुध लेने से चूके तो फिर ये उलाहना मिलते देर नहीं कि तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं !

पर ये भी है कि बिना शिक़वे, शिकायतों और मनुहारों जैसे टॉनिकों के प्रेम का रंग फीका रह जाता है। इसलिए रिश्तों की खामोशी भी मन में शक़ और बेचैनी पैदा कर देती है । ऐसी ही कुछ शिकायतें लिए एक प्यारा सा नग्मा आया था १९६६ में प्रदर्शित फिल्म 'नींद हमारी ख़्वाब तुम्हारे' में। रूमानियत में डूबे इस गीत को लिखा था राजेंद्र कृष्ण साहब ने और इस गीत की धुन बनाई थी मदन मोहन ने। गीतकार राजेंद्र के बोलों में वो कशिश थी कि कितने भी नाराज़ हमराही की मुस्कान को वापस लौटा लाए। बस जरूरत थी एक मधुर धुन और माधुर्य भरी आवाज़ की। और इस जरूरत को भली भांति पूरा किया मदनमोहन और आशा ताई की जोड़ी ने..

ये गीत वैसे गीतों में शुमार होता है जो बिना किसी वाद्य यंत्र के भी सुने जाएँ तो भी दिल को छूते से जाते हैं.. तो अगर आप भी शिकायती मूड में हैं तो बस अपने मीत के पास जाकर यही गीत गुनगुना दीजिए ना..



कोई शिक़वा भी नहीं, कोई शिकायत भी नहीं
और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं
कोई शिक़वा भी नहीं....

ये खामोशी, ये निगाहों में उदासी क्यूँ है?
पा के सब कुछ भी मोहब्बत अभी प्यासी क्यूँ है?
राज- ए- दिल हम भी सुनें इतनी इनायत भी नहीं
और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं
कोई शिक़वा भी नहीं....

प्यार के वादे वफ़ा होने के दिन आए हैं
ये ना समझाओ खफ़ा होने के दिन आए हैं
रूठ जाओगे तो कुछ दूर क़यामत भी नहीं
और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं
कोई शिक़वा भी नहीं....

हम वही अपनी वफ़ा अपनी मोहब्बत है वही
तुम जहाँ बैठ गए अपनी तो जन्नत है वही
और दुनिया में किसी चीज की चाहत भी नहीं
और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं
कोई शिक़वा भी नहीं....


मंगलवार, सितंबर 22, 2009

जब ग्यारह वर्षीय बालक हेमंत बृजवासी ने भाव विभोर किया आशा ताई को..

नवरात्र शुरु हो गए हैं और कल ईद सोल्लास मनाई जा चुकी है। पर्व त्योहारों के इस मस्ती भरे दौर में ब्लॉग पर भी मस्ती का रंग चढ़ना लाज़िमी है ना। आज जो मूड मन में तारी है उसका पूरा श्रेय जाता है मथुरा के ग्यारह वर्षीय बालक हेमंत बृजवासी को। हफ्ते भर से हेमंत की आवाज़ कानों में गूँज रही है। ग्यारह सितंबर की उस यादगार रात को जी टीवी के लिटिल चैम्पस (Zee TV Little Champs) पर खुद आशा ताई पधारी थीं। पूरे कार्यक्रम में लड़कियों को आशा जी और लड़कों को पंचम के गाने गाने थे। अब पंचम की भारी आवाज़ और उनकी उर्जात्मक शैली को दस बारह साल के बच्चों द्वारा निभा पाना टेढ़ी खीर थी। फिर भी सब प्रतिभागियों ने अच्छा प्रयास किया, पर ज़माने को दिखाना है फिल्म में पंचम द्वारा गाए गीत दिल लेना खेल है दिलदार का, भूले से नाम ना लो प्यार का... की हेमंत द्वारा प्रस्तुति इतनी दमदार थी कि आशा ताई तक को कहना पड़ गया कि "आपने तो बर्मन साहब से भी बेहतर तरीके से इस गीत को निभाया"।

पूरे कार्यक्रम में एक और बात कमाल की थी वो थी गायकों को जबरदस्त सपोर्ट ‍‍देता हुआ मनभावन आरकेस्ट्रा। वैसे भी जी टीवी के संगीत कार्यक्रमों में कई सालों से मँजे हुए साज़कारों को बजाते देखता रहा हूँ और पंचम की धुनों में तो इनकी विशेष भूमिका हमेशा ही रहा करती थी। पंचम के संगीतबद्ध गीतों का पार्श्व संगीत उनकी अनूठी शैली की गवाही देता है। दरअसल तरह तरह की आवाज़ों को पारंपरिक और गैर पारंपरिक वाद्य यंत्रो से निकालने में राहुल देव बर्मन का कोई सानी नहीं था।


तो लौटें अपने इस सुरीले बालक की ओर। हेमंत की दमदार प्रस्तुति यादगार तब बन गई जब उसने गीत के बाद आशा जी को बुल्लेशाह के लिखे सूफ़ियत में रँगे पंजाबी लोकगीत का वो टुकड़ा सुनाया।

चरखा दे मिट्टा दियाँ दूरियाँ...........
हो..मैं कटि जावाँ तेरी होर पिया दूरियाँ
गद सखरी रा गद सखरी रा ...
गद.. सख...रीरा..
गद सखरी रा वरण दिए कुड़िए...........
मैं पैया और सिपहयिए


सच मानिए हेमंत ने उन चंद पंक्तियों में ली गई हरक़तों ने ऐसा समा बाँधा कि हजारों दर्शकों के साथ-साथ आशा जी की भी आँखें गीली हो गईं और वे कह उठीं

हेमंत अगर सबसे बड़ी कला कोई मानी जाती है तो वो कला है संगीत कला। संगीत कला भगवान के नज़दीक होती है। और तुम्हारा जो गाना है वो भगवान के बहुत नज़दीक है।

नौ साल की आयु से अपने पिता और गुरु हुकुमचंद बृजवासी से संगीत सीखना शुरु करने वाले हेमंत को शास्त्रीय और सूफ़ीयाना नग्मे गाने में महारत हासिल है। मात्र दो साल संगीत की शिक्षा लेने के बाद ये बालक गीतों में अपनी और से जोड़ी हुई विविधताओं का इस तरह समावेश करता है मानों गीत से खेल रहा है। हेमंत की आवाज़ और उच्चारण एक शीशे की तरह साफ और स्पष्ट है पर उसके साथ दिक्कत यही है कि वो अपनी शैली के गीतों से अलग तरीके के गीतों में वो कमाल नहीं दिखला पाता। पर शायद आज के युग में इसकी जरूरत भी नहीं है। हर गाने के पहले अपनी जिह्वा को बाँके बिहारी लाल की जयकार से पवित्र कराने वाला ये बालक नुसरत और आशा जी को अपना आदर्श मानता है। गीत संगीत के आलावा क्रिकेट भी खेलता है और मौका मिले तो शाहरुख और करीना की फिल्में देखना भी पसंद करता है।

तो अगर आपने उस दिन इस प्रसारण का आनंद नहीं लिया तो अब ले लीजिए..






वैसे इस सूफ़ी लोकगीत को पूरा सुनने की इच्छा आप के मन में भी हो रही होगी। दरअसल इस लोकगीत को सबसे पहले लोकप्रिय बनाया था सूफ़ी के बादशाह नुसरत फतेह अली खाँ साहब ने और फिर इस गीत को नई बुलंदियों पर ले गए थे जालंधर के पंजाबी पुत्तर सलीम शाहजादा। बादशाह और शहज़ादे द्वारा इस लोकगीत की प्रस्तुति को आप तक पहुँचाने की शीघ्र ही कोशिश करूँगा।

शुक्रवार, सितंबर 18, 2009

भले दिनों की बात है, भली सी एक शक्ल थी... प्रेम के बदलते स्वरूप को उभारती फ़राज़ की एक नज़्म

अहमद फ़राज़ साहब पाकिस्तान के मशहूर शायर थे। भारत में भी हमेशा से ही उन्हें बड़े चाव से पढ़ा जाता रहा है और जाता रहेगा। भला इनकी लिखी गजल रंजिश ही सही.. किस गजल प्रेमी ने नहीं सुनी होगी। आज उनकी ही एक नज्म पेशे खिदमत है जो कुछ साल पहले सरहद पार के एक मित्र के सौजन्य से पढ़ने को मिली थी।

प्रेम का शाश्वत स्वरूप हमेशा से बहस का विषय रहा है। पर फिर भी इस पर विश्वास करने वाले तो यही कहते रहेंगे कि सच्चा प्रेम अजर अमर होता है।मिसाल के तौर पर प्रसिद्ध अमरीकी कवयित्री एमिली डिकिन्सन (Emily Dickinson) इस सूक्ति पर गौर करें..


पर इतना सहज भी नहीं है समझना प्रेम के इस डायनमिक्स को। आज के इस युग में जब रिश्ते पल में बनते और बिगड़ते हैं तो उससे क्या ये नतीज़ा निकाल लेना चाहिए कि इन रिश्तों में प्रेम हरगिज़ नहीं है। या इसकी वज़ह है कि प्रेम का बीज प्रस्फुटित होने के बाद भी आज की भागमभाग, ऊपर की सीढ़ियाँ तक जल्दी पहुँचने की बेसब्री और इन सब के पीछे हम सब में बढ़ता अहम, इसे फलते फूलते पौधे के रूप में तब्दील होने से पहले ही रोक देता है।

दरअसल बड़ा मुश्किल है ये फैसला कर पाना कि प्रेम को निजी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक बेड़ी की तरह समझा जाए या नहीं? पर एक बात तो पक्की है ये हम सबको पता होता है कि इन बेड़ियों को तोड़ देने के बाद हम जितना पाते गए हैं अंदर ही अंदर दिल में एक खोखलापन भी भरता गया है।

अहमद फ़राज़ ने अपनी इस नज़्म में इस सवाल का उत्तर तो नहीं दिया पर ये जरूर है कि ज़िंदगी के किसी मुकाम तक एक शख़्स से मिलने और बिछुड़ने की इस सीधी‍- सच्ची दास्तान को किस्सागोई के अंदाज़ में वो इस तरह कह गए हैं कि नज़्म पढ़ते पढ़ते दिल में उतरती सी चली जाती है।


भले दिनों की बात है,
भली सी एक शक्ल थी
न ये कि हुस्न-ए-ताम हो
न देखने में आम सी

ना ये कि वो चले तो
कहकशां सी रहगुजर लगे
मगर वो साथ हो तो फिर
भला भला सफर लगे

कहकशां - आकाश-गंगा

कोई भी रुत हो उसकी छाब
फज़ां का रंगो रूप थी
वो गर्मियों की छाँव थी
वो सर्दियों की धूप थी

छाब-छवि

ना ऍसी खुश लिबासियाँ
कि सादगी गिला करे
न इतनी बेतक़ल्लुफ़ी
कि आईना हया करे

ना मुद्दतों जुदा रहे
ना साथ सुबह-ओ-शाम हो
ना रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद
ना ये कि इज़्न-आम हो

ना आशिकी जुनून की
कि जिंदगी अज़ाब हो
न इस कदर कठोरपन
कि दोस्ती खराब हो
अजाब - कष्टप्रद

सुना है एक उम्र है
मुआमलात-ए-दिल की भी
विसाल-ए-जां फिज़ा तो क्या
फिराक़-ए-जां गुसल की भी

मुआमलात - मामला, विसाल - मिलन, फिराक़ - वियोग

सो एक रोज़ क्या हुआ
वफ़ा पे बहस छिड़ गयी
मैं इश्क को अमर कहूँ
वो मेरी ज़िद से चिढ़ गयी

मैं इश्क का असीर था
वो इश्क़ को क़फ़स कहे
कि उम्र भर के साथ को
बदतरज़ हवस कहे
असीर - बन्दी, कफस - पिंजड़ा

शज़र, हजर नहीं के हम
हमेशा पा-बे-गुल रहें
ना डोर हैं कि रस्सियाँ
गले में मुस्तकिल रहें

शजर - टहनी, पेड़, हजर - पत्थर, पा - पैर
गुल - फूल, मुस्तकिल -मजबूती से डाला हुआ


मैं कोई पेटिंग नहीं
कि एक फ्रेम में रहूँ
वही जो मन का मीत हो
उसी के प्रेम में रहूँ

तुम्हारी सोच जो भी हो
मैं इस मिज़ाज़ की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है
ये बात आज की नहीं

ना उस को मुझ पे मान था
ना मुझ को उस पे जाम ही
जो अहद ही कोई ना हो
तो क्या ग़म-ए-शिक़स्तगी
अहद - प्रतिज्ञा, शिक़स्त- हार

सो अपना अपना रास्ता
हँसी खुशी बदल दिया
वो अपनी राह चल पड़ी
मैं अपनी राह चल दिया

भली सी एक शक्ल थी
भली सी उस की दोस्ती
अब उस की याद रात दिन
नहीं मगर कभी-कभी...


ये कभी-कभी वाली बात इस बात को पुरजोर अंदाज में रखती है कि यादें दब सकती हैं, स्याह पड़ सकती हैं पर मरती नहीं ।

सोमवार, सितंबर 14, 2009

दौरान ए तफ़तीश भाग 3 : बॉस की वहशत, चलते रहो प्यारे और भारत माता के तीन कपूत!

भारतीय पुलिस के आला अधिकारी रह चुके सतीश चंद्र पांडे की किताब दौरान ए तफ़तीश की चर्चा की इस आखिरी कड़ी में कुछ बातें पंजाब पुलिस और सीआरपीएफ से जुड़े लेखक के अनुभवों की। पर इससे पहले गंभीर मसलों पर लेखक के उठाए बिंदुओं का उल्लेख किया जाए, एक ऍसे चरित्र की बात करना चाहूँगा जिससे हर नौकरीपेशा व्यक्ति आक्रान्त रहता है। जी बिल्कुल सही समझा आपने वो शख़्स है हमारी कार्यालयी ज़िंदगी का अहम हिस्सा बनने वाले हमारे बॉस।


ज़ाहिर है लेखक ने अपनी सर्विस लाइफ में तरह तरह के वरीय सहकर्मियों को झेला। इनमें से कई उनके प्रेरणा स्रोत बने तो कई ऐसे, जिनकी उपहासजनक वृतियों को लेखक कभी भुला नहीं पाए। ऍसे कई किस्से आपको पूरी पुस्तक में मिलेंगे, पर सबसे मज़ेदार संस्मरण मुझे एक ऍसे कमिश्नर साहब का लगा जिनकी सख़्त ताक़ीद रहती थी कि जब भी वो किसी जिले के मुआयने में जाएँ तो कलक्टर, एस पी और ज़िला जज के आवास पर उनकी दावत निश्चित करने से पहले उनसे पूछने की जरूरत ना समझी जाए। कमिश्नर साहब के साथ दिक्कत ये थी कि वो ज़िले के साथ अपने मेज़बान के घर का मुआयना भी बड़ी तबियत से किया करते थे। तो इस मुआयने की एक झांकी पांडे जी की कलम से

'अच्छा तो ये आपका लॉन है?' 'ये आपका बेडरूम है?'

ज़ाहिर है कि इन प्रश्नों का उत्तर जी हाँ जी के आलावा और कुछ हो ही नहीं सकता। लेकिन उनकी इस तरह की भूमिका का शिखर बिंदु तब आया जब उन्होंने अपने पर गृह भ्रमण के दौरान कलेक्टर की पत्नी को भीतर आँगन में बैठे देखा (उनका वहाँ जाना कलक्टर अपनी तमाम कोशिशों के बावज़ूद रोक नहीं पाए थे) और अपना सर्वाधिक मार्मिक प्रश्न पूछा 'अच्छा तो ये आपकी वाइफ हैं?'कलक्टर ने किसी तरह अपने को जी नहीं, ये आपकी अम्मा हैं कहने से रोक कर 'जी हाँ, ये मेरी वाइफ़ हैं। आप इनसे मिल चुके हैं।'कहकर टालने की कोशिश की। लेकिन हमारे बॉस की ज्ञान पिपासा तो अदम्य थी और उनका अगला प्रश्न था 'अच्छा वे अपने बाल सुखा रही हैं?' बात सही थी। कलेक्टर की पत्नी नहाने के बाद धूप में बैठी अपने बाल सुखा रही थीं और अपने आँगन में उस स्थिति में कमिश्नर साहब का स्वागत करने में उन्होंने कोई विशेष रुचि नहीं ली।


पांडे जी को अपने दीर्घसेवा काल में यूपी पुलिस के आलावा बीएसएफ, विशेष सेवा, पंजाब पुलिस और सीआरपीएफ के साथ काम करने का अवसर मिला। पंजाब में लेखक का दायित्व आतंकवाद के साये में विधानसभा चुनाव को शांतिपूर्ण ढंग से संपादित कराने का था। पंजाब पुलिस के बारे में लेखक को वहाँ जाकर जो सुनने को मिला,उससे उन्हें अपने कार्य की दुरुहता का आभास हुआ। फिर भी उन्होंने दुत्कारने और सुधारने की बजाए अपनी फोर्स पर आस्था और प्रशिक्षण को अपनी कार्यशैली का मुख्य बिंदु बनाया और अपने प्रयास में सफल भी हुए।

डीजी, सीआरपीएफ के पद पर आसीन होते ही उन्होंने सीआरपीएफ (CERPF) यानि सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स की दुखती रग को समझ लिया। दरअसल फोर्स के अंदर सीआरपी का मतलब 'चलते रहो प्यारे' है। चरैवेति चरैवेति के सिद्धांत से पांडे जी को उज्र नहीं है। पर उनका मानना है कि बिना किसी स्पष्ट प्रयोजन के एक सीमा से ज्यादा इस तरह एक स्थान से दूसरे स्थान का भ्रमण स्वास्थ और ताज़गी के बजाए थकावट और क्लांति देने लगता है और सीआरपी के चलते रहने में ऍसा ही कुछ हुआ है। सीआरपी आज देश के आतंकियों, दंगाइयों और नक्सलियों से विषम परिस्थितियों में लड़ने भिड़ने में जुटी है। ऐसे हालातों में पांडे जी की ये सोच हमारे गृह मंत्रालय के नीति निर्माताओं के लिए बेहद माएने रखती है

जिस तरह फोर्स की कंपनियों को साल दर साल, दिन रात इधर से उधर भेजा जा रहा है उससे जवानों की थकावट और अन्य असुविधाओं के आलावा, उनकी ट्रेनिंग बिल्कुल चौपट हो चुकी है। इससे उनकी अपने हथियारों के प्रयोग की दक्षता पर ही नहीं, उनके अनुशासन और मनोबल पर भी बहुत बुरा असर पड़ रहा है। इस फ़ोर्स का मूल 'सेंट्रल रिजर्व' वाला स्वरूप लगभग समाप्त हो चुका है और यह एक कुशल कारगर सुप्रशिक्षित फोर्स के बजाए एक अकुशल, अर्धप्रशिक्षित 'भीड़' सा बनता जा रहा है।

पांडे जी को अपने कार्यकाल में इन प्रयासों के बावज़ूद कुछ खास सफलता मिली हो ऍसा नहीं लगता। क्यूँकि लेखक की सेवानिवृति के दो दशक बाद आज भी कश्मीर से लेकर काँधमाल और छत्तिसगढ़ से झारखंड तक में, सीआरपी अपनी इन समस्याओं से जूझती लग रही है।

पुस्तक के अंत में लेखक आज की स्थिति की जिम्मेवारी भारत माता के तीन कपूतों को देते हैं। कपूतों की सूची में पहला नाम राजनीतिज्ञों का है। पांडे जी का मानना है कि भ्रष्ट और नकारे शासन का मुख्य निर्माता यही वर्ग है। उनकी सूची में दूसरे नंबर पर आते हैं नौकरशाह जिनमें पुलिस भी शामिल है। लेखक का तर्क है कि राजनीतिक दबाव में ना आकर सही कार्य करने के बजाए इस वर्ग के अधिकांश सदस्य राजनीतिज्ञों के साथ की बंदरबाँट में बराबर के सहभागी हैं। कपूत नंबर तीन के बारे में लेखक की टिप्पणी सबसे दिलचस्प है। लेखक के अनुसार ये कपूत नंबर तीन और कोई नहीं 'हम भारत के लोग और हमारे गिरते हुए इथोस' हैं। लेखक अपनी दमदार शैली में लिखते हैं

राजनेताओं और राजकर्मियों के भ्रष्टाचार की शिकायत करने वाले अपने बैंक के लॉकरों में रखे काले धन को भुलाए रहते हैं। जो दादी अपने होनहार पोते की तनख्वाह के आलावा उसकी ऊपरी आमदनी के बारे में अधिक उत्सुक होती है वह पूरे देशव्यापी भ्रष्टाचार के लिए उतनी ही दोषी है जितने पैसा लेकर संसद में पूछने वाले नेता जी, और झूठे एनकांउटर में बेगुनाह लोगों को मारने वाले पुलिसकर्मियों को पालने पोसने वाला, परिवार का वह बूढ़ा है जो अपने कप्तान भतीजे से मोहल्ले के कुछ बदमाशों को मुँह में मुतवाने को कहता है।
पांडे जी इस पूरी स्थिति में भी आशा की किरण देखते हैं। उनके अनुसार जनमानस गिरता है तो उसे उठाया भी जा सकता है। और यह तब तक नहीं होगा जब तक कि राजनीतिज्ञों और नौकरशाह इस बाबत स्वयम एक उदहारण नहीं पेश करेंगे।

पांडे जी की ये किताब हर पुलिसवाले के आलावा भारत के हर उस नागरिक को पढ़नी चाहिए जो देश को सही अर्थों में ऊपर उठता हुआ देखना चाहता है। पांडे जी ने अपने इन संस्मरणों के माध्यम से ना केवल सटीक ढंग से पुलिस की कठिनाइयों और उनसे निकलने के उपायों को रेखांकित किया है बल्कि साथ ही समाज में आए विकारों से लड़ने के लिए हमारे जैसे आम नागरिकों को प्रेरित करने में सफल रहे हैं। लेखक की किस्सागोई भी क़ाबिले तारीफ़ है और एक विशिष्ट सेवा से जुड़ी इस किताब को नीरस नहीं होने देती। कुल मिलाकर ये पुस्तक आपको चिंतन मनन करने पर भी मज़बूर करती है और कुछ पल हँसने खिलखिलाने के भी देती है।

पुस्तक के बारे में
दौरान ए तफ़तीश
वर्ष २००६ में पेंगुइन इंडिया से प्रकाशित ISBN 0 -14-310029-7
पृष्ठ संख्या २७६, मूल्य १७५ रु


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बुधवार, सितंबर 09, 2009

दौरान ए तफ़तीश भाग 2 : रिश्वतखोरी, कुछ ना करने की कला, क़ायदे कानून व कागज़ी आदेशों पर पुलसिया सोच !

दौरान-ए-तफ़तीश पर छिड़ी चर्चा में पिछली पोस्ट में हमने बातें कीं 'काम के समय सख्ती', 'झूठी गवाही', 'थर्ड डिग्री' और कुछ मज़ेदार किस्सों की। आज की चर्चा शुरु करते हैं रिश्वतखोरी की समस्या से जो पुलिस ही क्या सारे भारतीय समाज में संक्रामक रूप से फैल चुकी है। पर इससे पहले कि इस गंभीर समस्या के कारणों और सुधार के उपायों की पड़ताल की जाए शुरुआत एक किस्से से।

नौकरी की आरंभिक दिनों में पांडे जी के पास एक चार्ज आया कि उनके थाने के हैड कांसटेबिल ने किसी मुलज़िम की जामा तालाशी में निकले उसके सौ रुपये मार दिए और जब बाद में उसने चिल्ल पौं मचाई तो उसे वो धन वापस कर दिया। छुट्टी के दिन वो हेड कांसटेबिल, पांडे जी के घर पहुँचा और अपनी सफ़ाई पेश करते हुए बोला

हुज़ूर मुझ पर इल्ज़ाम लगाया गया है कि मैंने मुलज़िम का सौ रुपये का नोट ले लिया और फिर उसे वापस कर दिया। मैं तो हुज़ूर आज़ादी के पहले पंजाब पुलिस में सब इंस्पेक्टर रह चुका हूँ। ऍसी बेअक़्ली का काम मैं भला कैसे कर सकता था? यानि कहने का मतलब ये कि पंजाब पुलिस में एक बार पैसा लेकर वापस करने का रिवाज़ ही नहीं था।:)

ये तो थी किस्से की बात पर लेखक इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं कि आज के सिस्टम में सिर्फ बेईमान ही लोग पनप सकते हैं या कि ईमानदार होने का मतलब है बेवकूफ होना। पांडे जी की इस राय से मैं शत प्रतिशत इत्तिफाक रहता हूँ इसलिए उनके इस कथन ने मुझे खासा प्रभावित किया...

मैं दोनों हाथ उठाकर पुरज़ोर आवाज़ में कहना चाहता हूँ कि कार्यकुशलता और व्यक्तिगत सत्यनिष्ठा में कोई बुनियादी विरोध नहीं है। उल्टे एक बुनियादी सामांजस्य है। और उससे भी पुरज़ोर आवाज़ में यह कहना चाहता हूँ कि जो भी 'धीर' पुरुष मेहनत और कौशल से अपना काम करते हुए अपनी नीयत को पाक साफ़ रखने के लिए दृढप्रतिज्ञ होता है, उसे किसी ना किसी रूप में सूक्ष्म या स्थूल, प्रत्यक्ष या अप्रयत्क्ष पर्याप्त बाहरी या 'ऊपरी' सहायता मिलती है।

रिश्वतखोरी की समस्या को लेखक सिर्फ पुलिस विभाग के नज़रिए से नहीं देखते वरन पूरे भारतीय समाज के संदर्भ में विश्लेषित करते हैं। उन्हें भारतीय समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार के पीछे दो मुख्य कारण नज़र आते हैं। पहला तो हमारा अपना आंतरिक विष, अपनी निजी मुक्ति की चाह जिसने हमारे समाज को स्वार्थपरक बना दिया है। दूसरा बाहर से आया संक्रमण भोगवाद जिसने धन लोलुपता को हमारी सबसे बड़ी कमजोरी बना दिया है। पांडे जी इस समस्या से लड़ने के लिए प्रशिक्षण संस्था की विशेष भूमिका देखते हैं। उनका कहना है कि प्रशिक्षार्थियों को हर कदम पर इस बारे में सजग और सचेत किया जाना आवश्यक है। पर सही मार्ग को पहचानना और उस पर चलना तो आखिर प्रशिक्षार्थी का काम है।

पांडे जी ने अपनी इस किताब में एक पुलिस अफसर की सर्विस लाइफ में आने वाले तकरीबन हर मसले को छुआ है। सीनियर अफसरों में व्यावसायिक प्रवीणता के आभाव, स्टाफ वर्क में कोताही, आई ए एस और आई पी एस कैडर के बीच का मन मुटाव, स्थानीय दादाओं के राजनैतिक संरक्षण, वी आई पी सुरक्षा, पुलिसिया इनकांउटर ऐसे कई मुद्दों को उन्होंने अपनी पुस्तक में विस्तार दिया है। वे ये बताना भी नहीं भूले हैं कि किन परिस्थितियों में कुछ ना करने का कमाल दिखलाना चाहिए।

मिसाल के तौर पर उन्होंने रेलवे एम्बैंकमेंट से एक गाँव के किसानों की फ़सल के डूबने का उदाहरण दिया है। रेलवे से सरकार तक सभी एम्बैंकमेंट तोड़ कर वहाँ पानी के सही बहाव के लिए पुलिया बनाने के पक्ष में थे पर फाइलों में काम सालों साल रुका था। बाद में क्षेत्र के नौजवान नेता की अगुआई में लोगों द्वारा एम्बैंकमेंट काट डाला गया ‌और साथ ही कलेक्टर और स्टेशन पर सूचना भिजवाई गई। ऊपर ऊपर कलक्टर और एस पी ने इस घटना पर वहाँ के थानेदार को खूब हड़काया पर अंदर अंदर ये भी बता दिया गया कि इस मसले पर ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है आखिर इस तथ्य को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है कि जो पुलिया वहाँ वर्षों पहले बन जानी चाहिए वो इस कृत्य की वज़ह से आनन फानन में बन गई ।

सीनियर अफ़सरों और राज्य के राजनीतिक आकाओं के गलत मौखिक आदेशों की अवहेलना किस तरह टैक्ट दिखा कर की जाए इसके बारे में भी लेखक ने कुछ रोचक उदाहरण अपनी इस किताब में बताए हैं। यानि 'बेहतर है जनाब' या 'जैसा आप कहते हैं वही होगा' जैसे ज़ुमले उछाल कर भी करिए वही जिसके लिए आपका दिल गवाही दे सके। पांडे जी आज़ादी के बाद फोर्स पर लागू पुरातन नियम व कानून में सुधार की मंथर गति से बेहद क्षुब्ध हैं और ये मानते हैं कि उसके वर्तमान स्वरूप से विकास की नई आकांक्षांओं को पर्याप्त संबल नहीं मिलता। पर आज के अफसरों को सिनिकल होने के बजाए शेक्सपीयर की भाषा में हिम्मत बँधाते हुए लेखक कहते हैं

प्यारे ब्रूटस, दोष क़ायदों का नहीं है हमारा है कि हम उनके पिट्ठू बने रहते हैं। वैसे हमारे सीनियर्स ने ठीक ही तो कहा है कि कोई क़ायदा ऍसा नहीं जिसे तोड़ा ना जा सके।

लेखक की एक और जायज़ चिंता है और वो है राजनेताओं द्वारा पुलिस को साफ और स्पष्ट आदेश देने से बचने की मानसिकता। इस सिलसिले में पांडे जी द्वारा लिखित इस प्रसंग का उल्लेख करना वाज़िब रहेगा। आज़ादी के बाद देश में पुलसिया फायरिंग को कम करने की मुहिम चली। सचिवालय में उन सारे हालातों को चिन्हित किया गया जिनमें गोली चलाना अंतिम हल माना गया। पूरा मसौदा मुख्यमंत्री के अनुमोदन के लिए भेजा गया। पांडे जी लिखते हैं
मसौदे में ऍसा कुछ लिखा था कि पुलिस 'जब ज़रूरी हो गोली चला सकती है'। मुख्यमंत्री ने बस एक शब्द बदल कर उस मसौदे की काया पलट दी। अब उसमें हिदायत थी कि पुलिस 'अगर ज़रूरी हो गोली चला सकती है'। तो ये हुआ साहब लिखा पढ़ी का, मुंशी-गिरि का कमाल। यानि ऊपर की हिदायतें ऍसीं गठी हुईं हों कि सारी जिम्मेवारी उन्हें देने वाले की नहीं, उनका पालन करने वालों की हो। इतना ही नहीं देने वाली सत्ता अपनी सुविधानुसार उनकी जैसी चाहे वैसी व्याख्या भी कर सके।

ऐसे आदेशों का ज़मीनी परिस्थितियों पर असर शून्य ही होता है। बहुत कुछ अकबर इलाहाबादी के इस मज़मूं की तरह

मेरी उम्मीद तरक्क़ी की हुईं सब पाएमाल *
बीज मगरिब** ने जो बोया वह उगा और फल गया
बूट डासन ने बनाया हमने एक मजमूं लिखा
मुल्क में मज़मूं ना फैला उल्टे जूता चल गया।

* चकनाचूर , **पश्चिमी

सतीश चंद्र पांडे की इस किताब की चर्चा के आखिरी भाग में फिर उपस्थित हूँगा पुलिस, सी.आर.पी.एफ.(CRPF) से संबंधित कुछ और मसलों और किस्सों को लेकर..


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शनिवार, सितंबर 05, 2009

दौरान ए तफ़तीश : भाग 1 - पुलिसिया तंत्र के बारे में लिखा एक पुलिसवाले का ईमानदार संस्मरण

पुलिसिया जिंदगी को कभी नज़दीक से देखने का अवसर नहीं मिला। बचपन में अपने हमउम्रों की तरह चोर सिपाही जैसे खेल खेले। कागज़ के टुकड़ों को अच्छी तरह चौकोर लपेट कर घर के बाकी सदस्यों के साथ राजा मंत्री चोर सिपाही भी बहुत खेला। खेल के दौरान राजा या मंत्री आता तो बेहद खुशी होती पर सिपाही आता तो बस इतना भर सुकून होता कि चोर आने से बच गया। यानि राजा मंत्री एक तरफ़ और चोर और उससे थोड़ा बेहतर सिपाही एक तरफ़। आज सोचता हूँ खेल खेल में आने वाले वे भाव आज आम समाज में एक पुलिसवाले की छवि से कितने मेल खाते हैं। क्या हमारी सोच ये नहीं रहती कि जहाँ तक हो सके पुलिस के चक्कर से बचा रहा जाए? अपनी रक्षा के लिए उनके पास पहुँचने के लिए क्या पहले ये नहीं सोचना पड़ता कि दान दक्षिणा कितनी देनी होंगी ?

पर ये भी सही हे किसी सिस्टम की निंदा करना या उसकी कमजोरियों को गिनाना ज़्यादा आसान है वनिस्पत कि उसकी तह में घुसकर उसके उद्धार के उपायों के बारे में सोचना। अब हम और आप जैसे लोग ये आकलन करना भी चाहें तो मुश्किल है क्यूँकि बिना उस सिस्टम से गुज़रे उसकी ख़ामियाँ को सही सही समझना सरल नहीं है।




इसलिए जब पुलिस की नौकरी के बारे में एक पुलिस वाले की किताब दिखी तो उसे पढ़ने की सहज उत्सुकता मन में जागी। ये किताब थी सतीश चंद्र पांडे की लिखी दौरान -ए- तफ़तीश। तो इससे पहले इस पुस्तक की विस्तार से चर्चा करूँ, पहले कुछ बातें सतीश चंद्र पांडे जी के बारे में। पांडे जी 1953 में आई पी एस में चुने गए और उत्तर प्रदेश काडर में नियुक्त हुए। छह जि़लों में पुलिस का बुनियादी काम करने के आलावा वे 1985 के विख्यात विधानसभा चुनावों के समय पंजाब के डीजीपी और फिर सीआरपीएफ के डीजी बनाए गए।

पेंगुइन इंडिया द्वारा प्रकाशित पांडे जी ने 276 पृष्ठों की इस किताब के 24 अध्यायों में पुलिसिया नौकरी से जुड़े विविध पहलुओं और उनसे जुड़े अपने संस्मरणों को बाँटा है। यूँ तो पांडे जी ने जिन मसलों को उठाया है उनमें से सब की चर्चा कर पाना यहाँ संभव नहीं होगा पर उनकी लिखी जिन बातों और किस्सों ने मुझे प्रभावित किया उसका जिक्र जरूर करना चाहूँगा। अपनी शुरुआती दौर में उस्तादों द्वारा दी जाने वाली कड़ी ट्रेनिंग को वो सही ठहराते हैं। उनका मानना है कि वो सख्ती भले उस समय किसी भी नवांगुतक के लिए नागवार गुजरती हो पर बाद में वही बेहद फायदेमंद महसूस होती है। पर जब वो आज के हालात देखते हैं तो पाते हैं कि ना केवल पुलिस में बल्कि सारे सहकारी महक़मे में इस कड़ाई में कमी आती दिख रही है। इसीलिए वे लिखते हैं
काम के वक्त सख्ती वाले उसूल का लगता है आजादी के बाद निरंतर ह्रास होता जा रहा है। किसी भी सरकारी दफ़्तर में जाइए, वी आई पी की तरह नहीं बल्कि भारत के नागरिक की तरह तो वहाँ के वातावरण को देखकर यह नहीं लगेगा कि आप ऍसी जगह आए हैं जिसे सार्वजनिक सेवा के लिए क़ायम रखने में मेहनत करने और टैक्स देने वाले नागरिकों का अमूल्य धन , लाखों करोड़ों, खर्च होता है। उल्टे ऐसा महसूस होगा कि आप किसी पिकनिक स्थल पर आ गए हैं जहाँ लोग खुशगप्पियाँ कर रहे हैं। एक दूसरे की बीमारी, शादी ब्याह, नाती पोतों की बातें हो रही हैं...
अपनी नौकरी की शुरुआत में ही पांडे जी को पुलिस विभाग की पहली कुप्रथा से रूबरू होना पड़ा वो थी 'झूठी गवाही' जिसकी तुलना उन्होंने विषैली घास की जड़ से की है। पांडे जी बताते हैं कि झूठे केसों की बात छोड़ दें तो हालत ये है कि सच्चे केस भी बिना झूठे गवाहों के जीते नहीं जा पाते। साथ ही ये प्रथा एक ऍसे कुचक्र को जन्म देती है जिससे किसी भी पुलिस तंत्र को अपने से अलग करना मुश्किल होता है। लेखक इसकी विवेचना करते हुए लिखते हैं
झूठी गवाही के लिए पुलिस को दलाल पालने पड़ते हैं। दलाल लोग ये काम प्यार मोहब्बत के लिए तो करेंगे नहीं। उन्हें या तो पैसा दीजिए या पैसा पैदा करने की छूट दीजिए। दूसरा वाला तरीका ज़ाहिर है सुविधाजनक है। इसलिए वही अपनाया जाता है। नतीज़ा जुर्मों की तफत़ीश की प्रक्रिया के लिए जुर्मों को बढ़ावा देना।
इस भयंकर कुचक्र को तोड़ने के लिए पुलिस और न्यायपालिका दोनों में ही जिस व्यक्तिगत निर्भीकता और उच्चतर प्रशासनिक स्तर पर नीतिपरक ईमानदारी और साहस की जरूरत है वो लेखक को मौज़ूदा पद्धति में नज़र नहीं आती। पांडे जी ने झूठी गवाही के बाद पुलिसिया डंडे और थर्ड डिग्री में अपनाए जाने वाले तौर तरीक़ो का जिक्र किया है। पांडे जी का इस बाबत पुलिसिया मनोविज्ञान पर निष्कर्ष ये है कि
थर्ड डिग्री के इस्तेमाल के लिए पुलिस का भीतरी और बाहरी निहित स्वार्थ होता है। भीतरी स्वार्थ अपनी मेहनत बचाने, अपनी जेब गर्म करने और अर्ध सत्य वाली लाइन, पर अपनी भड़ास निकालने पर आधारित होते हैं और बाहरी वाले राजनीतिक, सामाजिक और विभागीय दख़लंदाजी पर। इन दोनों ही स्वार्थों के प्रभावों से अपने को ना बचा पाने का अवश्यंभावी परिणाम है भागलपुर या उससे भी गंभीर और दुर्भाग्यपूर्ण, पंजाब।
पुलसिया नौकरी पर लिखी ये किताब का एक अहम हिस्सा कार्यालयी जिंदगी के मज़ेदार किस्से हैं जिसमें अधिकतर को पांडे जी ने अपने हर प्रमुख बिंदु को रेखांकित करने के पहले सुनाया है पर कुछ किस्से यूँ ही उनके संस्मरणों मे से निकल कर आए हैं जिन्हें पढ़कर आप हँसते हँसते लोटपोट हो जाएँगे ।

ये पुस्तक चर्चा तो कई भागों में चलेगी पर आज चलते चलते पांडे जी की यादों से निकले अंग्रेजों के ज़माने के इस खुर्राट तहसीलदार का किस्सा सुनते जाइए जो हर स्थिति में कठिन से कठिन सवाल का जवाब गोल मोल तरीके से देने के लिए मशहूर थे। तो हुआ यूँ कि ...

एक बार एक नए अंग्रेज कलेक्टर साहब उन्हें पड़ताल के लिए घोड़े पर ले गए। थकान से चूर तहसीलदार साहब अपने इलाके की जो थोड़ी बहुत जानकारी रखते थे वो भी भूल गए। आपके यहाँ गेहूँ की पैदावार कितनी होती है, कलेक्टर ने पूछा तो उन्होंने कहा कि हुज़ूर हो जाती है अच्छी ख़ासी, कोई अकाल तो पड़ता नहीं । लेकिन ये भी नहीं कि दोआबा की तरह बढ़िया फ़सल हो। फिर पूछा गया कि बारिश कितनी होती है आपकी तहसील में तो जवाब मिला कि ऍसा तो नहीं है कि चेरापूँजी की तरह पानी बरसता हो। लेकिन ऍसा भी नहीं कि राजस्थान के माफ़िक सूखा पड़े। ऍसे ही करते करते आखिर कलेक्टर ने उनसे ये पूछा कि जो एक दो नदियाँ हैं वे किस दिशा से किस दिशा में बहती हैं? तहसीलदार को मालूम हो तो बताएँ। ऍसा है हुजूर, उन्होंने थोड़ा सोचकर कहा कहीं तो पूरब से पश्चिम को बहती है तो कहीं उत्तर से दक्खन को। असलियत ये है कि कमबख्त खुल कर नहीं बहती...

पुलसिया नौकरी से जुड़े कुछ अन्य पहलुओं की चर्चा करेंगे इस पुस्तक चर्चा के दूसरे भाग में...



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मंगलवार, सितंबर 01, 2009

तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक : गुलज़ार की नज्म नाना पाटेकर के स्वर में..

दो साल पहले एक दौरे पर दुर्गापुर गया था। साथ में कोई सहकर्मी ना होने के कारण दफ़्तर से वापस आकर शामें गुजारना काफी मुश्किल हो रहा था। ऐसी ही एक खाली शाम को कोई और विकल्प ना रहने की वज़ह से एक फिल्म देखनी पड़ी थी 'दस कहानियाँ'

दुर्गापुर के नए मल्टीप्लेक्स में हॉल में उस रात मेरे साथ मात्र सात आठ दर्शक रहे होंगे। दस अलग अलग कहानियों को एक ही साथ प्रस्तुत करने के इस अनूठे प्रयोग के लिए कहानियों के चुनाव में निर्देशक को जो सतर्कता बरतनी चाहिए थी, वो नहीं की गई।

सो दस कहानियों में तीन चार को छोड़कर बाकी किसी गत की नहीं थी। खैर अब नब्बे रुपये खर्च किए थे तो मैं फिल्म को झेलने के लिए मज़बूर था, पर कमाल की बात ये देखी कि मेरी पंक्ति में एक सज्जन आए और पहली कहानी को आधा देखने के बाद ऍसा सोए कि सीधे फिल्म खत्म होने के बाद चुपचाप उठे और चल दिये। मैंने मन ही मन सोचा कि जरूर ये बंदा अपनी घरवाली से त्रस्त होगा वर्ना एक मीठी नींद के लिए इतना खर्चा करने की क्या जरूरत थी।

खैर फिल्म में गीत भी दमदार नहीं थे। बाद में एक दिन नेट पर विचरण कर रहा था तो ये पता लगा कि गुलज़ार साहब ने इसकी दस कहानियों की स्क्रिप्ट पढ़कर हर कहानी पर एक नज़्म तैयार की है जिसे फिल्म के अलग अलग कलाकारों ने अपनी आवाज़ में पढ़ा है।

दस कहानियों के गीतों के साथ ही निकला एलबम तो मुझे जल्द ही मिल गया पर मुझे अचरज इस बात का हुआ कि फिल्म में इन बेहतरीन नज़्मों को किसलिए इस्तेमाल नहीं किया गया। शायद समय की कमी एक वज़ह रही हो। इस चिट्ठे पर इस एलबम की अपनी चार पसंदीदा नज़्मों में से तीन तो आपको सुना चुका हूँ। तो आइए करें कुछ बातें 'गुब्बारे' कहानी पर केंद्रित गुलज़ार की इस चौथी नज़्म के बारे में जिसे अपना स्वर दिया है नाना पाटेकर ने ।



पुराने दिन, पुरानी यादें किसी भी कवि मन की महत्त्वपूर्ण खुराक़ होती है। बीते हुए लमहों में हुई हर इक छोटी बड़ी बात को याद रखना तो शायद हम में से कइयों का प्रिय शगल होगा। पर उन बातों को शब्दों के कैनवास पर बखूबी उतार पाना कि वो सीधे दिल को बिंधती चली जाए गुलज़ार के ही बस की बात है। नाना जब अपनी गहरी आवाज़ में बस इतना सा कहते हैं

तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी


तो हमारी अपनी पुरानी यादों के कुछ बंद दरवाजे तो अनायास खुल ही जाते हैं। गुलज़ार का ये अंदाज़ भी दिल को करीब से छू जाता है

गिलहरियों को बुलाकर खिलाता हूँ बिस्कुट
गिलहरियाँ मुझे शक़ की नज़रों से देखती हैं
वो तेरे हाथों का मस्स जानती होंगी...


तो सुनें नाना पाटेकर की आवाज़ में ये नज़्म



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दरअसल नज़्मों को पढ़ना भी एक कला से कम नहीं है गुलज़ार को जितना पढ़ना पसंद आता है उतना ही उन्हें सुनना। यही खासियत अमिताभ जी में भी है। वैसे कुछ शब्दों के उच्चारण को अगर नज़रअंदाज कर दें तो नाना पाटेकर ने भी नज़्म की भावनाओं को आत्मसात कर इसे पढ़ा है।
तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी

इलायची के बहुत पास रखे पत्थर पर
ज़रा सी जल्दी सरक आया करती है छाँव
ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा
मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ
फकीरा अब भी वहीं मेरी कॉफी देता है
गिलहरियों को बुलाकर खिलाता हूँ बिस्कुट
गिलहरियाँ मुझे शक़ की नज़रों से देखती हैं
वो तेरे हाथों का मस्स जानती होंगी...

कभी कभी जब उतरती हैं चील शाम की छत से
थकी थकी सी ज़रा देर लॉन में रुककर
सफेद और गुलाबी
मसुंदे के पौधों में घुलने लगती है
कि जैसे बर्फ का टुकड़ा पिघलता जाए विहस्की में
मैं स्कार्फ ..... गले से उतार देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन पहन कर अब भी मैं तेरी महक में कई रोज़ काट देता हूँ

तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी....


इस एलबम की अन्य पसंदीदा नज़्में..

 

मेरी पसंदीदा किताबें...

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Freedom at Midnight
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Madhushala
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