ये घटना करीब बीस साल पुरानी है।
घटना स्थल था... शहर के एक बेहद सम्मानीय मिशनरी स्कूल का आहाता, जहाँ का छात्र होना उस शहर में एक विशिष्ट पहचान दिलाता था....
पर उस अनुशासन प्रिय स्कूल के गेट पर ये मज़मा कैसा?
अरे ! ये लड़के तो प्राध्यापक और उप-प्राध्यापक के ना जाने क्या-क्या अपशब्द कह रहे हैं। सामूहिक नारेबाजी से सारा माहौल गर्म है। कतार में लगी बसों के ड्राइवर और कंडक्टर इस अभूतपूर्व दृश्य को देख कर आनंदित हैं।
और क्यूँ ना हों...स्कूल के इतिहास में ऐसी धृष्टता पहले कभी किसी ने नहीं की थी।
घटना स्थल था... शहर के एक बेहद सम्मानीय मिशनरी स्कूल का आहाता, जहाँ का छात्र होना उस शहर में एक विशिष्ट पहचान दिलाता था....
पर उस अनुशासन प्रिय स्कूल के गेट पर ये मज़मा कैसा?
अरे ! ये लड़के तो प्राध्यापक और उप-प्राध्यापक के ना जाने क्या-क्या अपशब्द कह रहे हैं। सामूहिक नारेबाजी से सारा माहौल गर्म है। कतार में लगी बसों के ड्राइवर और कंडक्टर इस अभूतपूर्व दृश्य को देख कर आनंदित हैं।
और क्यूँ ना हों...स्कूल के इतिहास में ऐसी धृष्टता पहले कभी किसी ने नहीं की थी।
फ़िर आख़िर कक्षा '10 D' के छात्र ऍसा क्यूँ कर रहे थे?
चार साल पहले ही मैं इस स्कूल में दाखिल हुआ था। अंग्रेजी माध्यम से एक अन्य स्कूल में जाने की अपेक्षा मैंने हिंदी माध्यम से पढ़ना ज्यादा बेहतर समझा था। हिंदी माध्यम उस स्कूल में नया-नया ही शुरु हुआ था और मैं इसके दूसरे बैच का छात्र था। उस वक़्त हर कक्षा में चार सेक्शन हुआ करते थे। 'A', 'B', 'C' अँग्रेजी मीडियम और 'D' हिंदी मीडियम का सेक्शन था। स्कूल में बिताए पहले तीन सालों में शायद ही मुझे कोई शिकायत रही थी।
बारिश के दिनों में स्कूल के पीछे बहती गंगा नदी का पानी उफनते देख कर खुश होना (पानी का स्तर बढ़ने से स्कूल में छुट्टियाँ हो जाया करती थीं) , सबा करीम के छक्के, कैंटीन में दस पैसे का समोसा, फुटबॉल के मैदान में मारा पहला और अंतिम गोल..ये सब कुछ ऐसी स्मृतियाँ हैं जिनके बारे में सोचकर आज भी चेहरे पर मुस्कुराहट आ ही जाती है।
कक्षा में हर तरह के छात्रों का जमावड़ा था। कुछ बेहद होनहार, कुछ सामान्य तो कुछ बेहद खुराफाती। पर नवीं कक्षा तक सब कुछ एक आम स्कूल की तरह ही बीत रहा था और कक्षा की कमान सामान्य और होनहार ही सँभाले हुए थे। पर कुछ बातें रह-रह कर सारी क्लॉस को परेशान कर रही थीं।
बेहद छोटी छोटी बातों से शुरु हुआ था वो सब ...,
'डी' सेक्शन का नाम खेल प्रतियोगिता में विजयी होकर भी ना बुलाया जाना,
अंग्रेजी मीडियम के साथ साथ मूवी शो देखने की अनुमति ना देना,
पुराने शिक्षकों को हटा कर नए शिक्षकों को पढ़ाने का काम सौंप देना....
ऐसा सबको लगने लगा था कि हिंदी माध्यम के छात्रों की, स्कूल की नज़र में वो अहमियत नहीं है जो अंग्रेजी माध्यम की है। दसवीं बोर्ड का डर सबको सता रहा था और कक्षा में अनुभवी आध्यापकों की कमी खटक रही थी। सबसे पहले प्रिंसपल साहब को दो तीन बार शिक्षकों के माध्यम से अपनी परेशानी बताई गई। पर उसका कोई नतीजा नहीं निकला।
नतीजन,खुराफाती दिमाग वालों की बन आई। वे क्लॉस के अगुआ बन गए। फ़ैसला हुआ कि अगर प्रिसिंपल उनकी बात नहीं सुनेगा तो वो भी नए नवेले शिक्षकों की नाक में दम कर देंगे। अर्थशास्त्र की शिक्षिका हमारी क्लॉस टीचर थीं । पिछले साल ही क्लॉस को पढ़ा रहे एक वरीय शिक्षक की जगह उन्हें लिया गया था। थीं तो वो सीधी-साधी पर तज़ुर्बे की कमी कह लें या उनका ढीला ढाला व्यक्तित्व, कक्षा पर उनका नियंत्रण कदाचित ही हो पाता था। ज्यादातर छात्र उनसे निज़ात पाना चाहते थै। सो कक्षा की उद्दंडता का पहला निशाना वो बन गईं।
मार्च का महिना था,होली आने वाली थी। मिस ग्रोवर ने कक्षा के मॉनीटर को किसी कार्य से टीचर्स रूम में बुलाया। जब वो उससे बात कर वापस पहुँची तो सहअध्यापक विस्मित से पूछ बैठे !
बेहद छोटी छोटी बातों से शुरु हुआ था वो सब ...,
'डी' सेक्शन का नाम खेल प्रतियोगिता में विजयी होकर भी ना बुलाया जाना,
अंग्रेजी मीडियम के साथ साथ मूवी शो देखने की अनुमति ना देना,
पुराने शिक्षकों को हटा कर नए शिक्षकों को पढ़ाने का काम सौंप देना....
ऐसा सबको लगने लगा था कि हिंदी माध्यम के छात्रों की, स्कूल की नज़र में वो अहमियत नहीं है जो अंग्रेजी माध्यम की है। दसवीं बोर्ड का डर सबको सता रहा था और कक्षा में अनुभवी आध्यापकों की कमी खटक रही थी। सबसे पहले प्रिंसपल साहब को दो तीन बार शिक्षकों के माध्यम से अपनी परेशानी बताई गई। पर उसका कोई नतीजा नहीं निकला।
नतीजन,खुराफाती दिमाग वालों की बन आई। वे क्लॉस के अगुआ बन गए। फ़ैसला हुआ कि अगर प्रिसिंपल उनकी बात नहीं सुनेगा तो वो भी नए नवेले शिक्षकों की नाक में दम कर देंगे। अर्थशास्त्र की शिक्षिका हमारी क्लॉस टीचर थीं । पिछले साल ही क्लॉस को पढ़ा रहे एक वरीय शिक्षक की जगह उन्हें लिया गया था। थीं तो वो सीधी-साधी पर तज़ुर्बे की कमी कह लें या उनका ढीला ढाला व्यक्तित्व, कक्षा पर उनका नियंत्रण कदाचित ही हो पाता था। ज्यादातर छात्र उनसे निज़ात पाना चाहते थै। सो कक्षा की उद्दंडता का पहला निशाना वो बन गईं।
मार्च का महिना था,होली आने वाली थी। मिस ग्रोवर ने कक्षा के मॉनीटर को किसी कार्य से टीचर्स रूम में बुलाया। जब वो उससे बात कर वापस पहुँची तो सहअध्यापक विस्मित से पूछ बैठे !
ये किसने किया मिस ग्रोवर ?
उन्हें तभी पता चला कि पीछे से उनके सारे कपड़े, स्याही की छोटी-छोटी बूँदों से अटे पड़े हैं। शिकायत ऊपर पहुँची..पर माफीनामे और चेतावनी के बाद मॉनीटर महोदय बरी हो गए।
कक्षा की खुराफ़ाती मंडली के दूसरे शिकार भूगोल के शिक्षक हुए। मिशनरी स्कूलों में अक्सर ऍसे शिक्षकों की बहाली होती है जिनकी एकमात्र योग्यता उनका धर्म होता है। भूगोल के नए नियुक्त शिक्षक इसी श्रेणी में आते थे। वो आते के साथ बोर्ड पर कुछ लिखना शुरु करते और बिना कुछ समझाए बगैर लिखाते-लिखाते कक्षा का समय समाप्त कर देते थे। सो एक दिन वो आए ओर आते ही उन्हें भेंट स्वरूप एक कैलेंडर प्रस्तुत किया गया। कैलेंडर पर क्या था ये बताने की जरूरत नहीं पर उसे दिखाकर लड़कों ने उनकी वो रैगिंग की, कि वो हफ्तों स्कूल में दिखाई नहीं पड़े।
ये सब सही नहीं हो रहा था...पर समझने को कोई पक्ष तैयार नहीं था। '10 D' कक्षा की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी थी। स्कूल की शिक्षिकाएँ सामने के बजाए दूर के रास्ते से गुजरना पसंद करतीं ।
अगर अभी तक प्रिंसपल कुछ कर नहीं पा रहे थे तो वो इस वजह से कि कक्षा को अंग्रेजी पढ़ाने वाले अमरीकी रेक्टर ने उन्हें मना किया था। उनका पढ़ाने का तरीका इतना प्यारा था कि उनकी कक्षा में सभी एकाग्रचित्त होकर पढ़ते थे। वो समझ ही नहीं पाते थे कि इतनी अनुशासित क्लॉस, कैसे इतनी अभद्रता पर उतर आती है? उन्होंने शिक्षकों के बारे में हमारी शिकायत को अपनी छुट्टी के बाद पूरा करने का वायदा भी किया था।
पर वो छुट्टी कुछ ज्यादा ही लंबी हो गई थी। अगर वो घटना के समय रहते तो बात कुछ दूसरी होती...
सितंबर के आसपास का महिना चल रहा था। स्कूल में बड़े पर्दे पर फिल्म दिखाई जा रही थी। सभी देख रहे थे कि दसवीं के बाकी सेक्शन पंक्तिबद्ध होकर जा रहे हैं। हिंदी की कक्षा थी। छात्रों ने सर को बताया कि A,B और C वाले चले गए और अब section D की बारी है। अनुमति मिल गई ...पर जैसे ही कक्षा ने थि॓एटर रूम में प्रवेश किया, प्रिंसिपल सभी को देखते ही आग बबूला हो गए और दहाड़ते हुए बोले
JUST GO BACK AND STAND UP ON YOUR BENCH....
बेंच पर खड़ा होने की परंपरा हम सभी सातवीं कक्षा से ही भूल चुके थे। और दसवीं को ऐसा सज़ा मिलना तो सबके लिए अप्रत्याशित था...
इस बार गलती हमारी नहीं थी। अनुमति लेकर हम सब वहाँ गए थे। हमें वापस जाने को कहा जा सकता था पर बेंच पर सारी कक्षा को खड़ा करने का कोई तुक नहीं था। इस अपमान से सभी आहत थे। बीस पचीस मिनट इसी तरह खड़े रहे..और क्लॉस में कोई नहीं आया। समय के सा्थ छात्रों के खून की गर्मी भी बढ़ती गई। सारे बच्चे कक्षा छोड़ने को आमादा थे।
पर मैं ये जानता था कि इस दंड का पालन ना करने से हानि हम सब की ही होनी है। सब को ये समझाते व़क्त मन के किसी कोने में आत्मसम्मान कचोट रहा था...शायद कह रहा था कि अगर सारी कक्षा राजी है तो क्या तेरी ही गैरत ख़त्म हो गई है...इसलिए मैंने भी वही किया जो सारी कक्षा ने किया..मँझधार के साथ बहने का फ़ैसला ये जानते हुए भी कि इसमें सबको साथ ही डूबना है।
और फिर वो हुआ जो नहीं होना चाहिए।
जब तक हम चिल्लाते रहे पलड़ा हमारा भारी रहा क्यूँकि उस स्थिति में हमारा न्यूसेंस वैल्यू ज्यादा रहा। पर दो तीन बार जब बड़े प्यार से हमें अंदर आकर बातचीत से मामला हल करने के लिए कहा गया तो हम सब शांत हुए। पर अंदर जाते ही हमारी हेकड़ी ख़त्म हो गई। प्रिंसिपल के कक्ष में जम कर झाड़ मिली। स्कूल से निकाल दिए जाने की धमकियाँ दी गयीं। अंत में यही कहा गया कि अगर स्कूल मे पढ़ना है तो उन्हीं शिक्षकों से पढ़ना होगा, जो हमें स्वीकार्य नहीं था। लिहाज़ा स्कूल ने हमें छः महीनों के लिए छुट्टी दे दी। बोर्ड की परीक्षा हमने बिना स्कूल के सहायता के दी।
यानि जो तय बात थी वही हुई...नुक़सान स्कूल से ज्यादा छात्रों का हुआ। +2 में हमें स्कूल ने लेने से इनकार कर दिया और हम लोगों को इंटर में अच्छे कॉलेज में दाखिला नहीं मिला।
संत माइकल की गणना आज भी पटना के सम्मानित स्कूलों में होती है। पर मेरे लिए स्कूल में बिताए मीठे लमहों के ऊपर स्कूल के दिनों के पटाक्षेप की दुखद स्मृतियों ही ज्यादा हावी हो गईं है। इसलिए हममें से ज्यादातर ने पटना में रहकर भी अपने स्कूल का मुँह तक नहीं देखा। दो तीन छात्रों के आलावा मुझे आज अपने सहपाठियों की कोई ख़बर नहीं है।
संत माइकल की गणना आज भी पटना के सम्मानित स्कूलों में होती है। पर मेरे लिए स्कूल में बिताए मीठे लमहों के ऊपर स्कूल के दिनों के पटाक्षेप की दुखद स्मृतियों ही ज्यादा हावी हो गईं है। इसलिए हममें से ज्यादातर ने पटना में रहकर भी अपने स्कूल का मुँह तक नहीं देखा। दो तीन छात्रों के आलावा मुझे आज अपने सहपाठियों की कोई ख़बर नहीं है।
आशा है, मेरी तरह वे भी उस चोट से उबर गए होंगे..शायद उन्होंने अनुशासन के महत्त्व को समझा होगा..और शायद मेरा स्कूल भाषाई पूर्वाग्रह से ग्रसित वैसे प्राध्यापकों से मुक्त हो गया होगा....
(स्कूल जाते वक़्त एक ही बस में सफ़र करने वाले सहपाठी अमिताभ माहेश्वरी को साभार, जिन्होंने मुझे इस पोस्ट को लिखने के लिए प्रेरित किया)
इस प्रविष्टि के सारे चित्र यहाँ से लिए गए हैं।