जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
आज से करीब २५ साल पहले २० नवंबर १९८४ को लाहौर के मेयो अस्पताल से फ़ैज़ अहमद फैज़ हमें छोड़ कर चले गए। पर फ़ैज़ की ग़ज़लें, उनकी नज़्में रह रह कर दिल में उभरती रहती हैं। आज की सुबह एक ऍसी ही सुबह है जब उनकी इस नज़्म की याद मुझे बारहा आ रही है। क्यूँ आ रही है ये बात बाद में । पहले ये जान लें कि फ़ैज ने इस नज़्म में क्या लिखा था?
फ़ैज़ ने अगस्त १९४७ में पाकिस्तान के तत्कालीन हालातों के मद्देनज़र एक नज़्म लिखी थी सुबह-ए- आज़ादी। कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े फ़ैज़ आज़ादी को एक ऍसे परिवर्तन के रूप में देखना चाहते थे जो अमीरी और गरीबी की खाई को मिटा दे। पर जब ऍसा कुछ नहीं हुआ तो मायूस हो कर उन्होंने लिखा
कैसी दागदार रौशनी के साथ निकली है ये सुबह जिसमें कुछ दिखाई नहीं दे रहा। जब हम अपने इस सफ़र में चले थे तो हमने ऐसी सुबह की तो कल्पना नहीं की थी। हमारी कल्पनाओं की सुबह तो उस मुकाम की तरह थी जैसे कोई आसमान की चादर पर चलते हुए जगमगाते तारों के पास पहुँच जाए या जैसे भटकती हुई समुद्र की धारा को उसका किनारा मिल जाए।
ये दाग दाग उजाला, ये शबगज़ीदा सहर वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल
आखिर कहीं तो ग़म से भरे इस दिल की नैया को किनारा मिलेगा? युवावस्था की रहस्यमय दहलीज़ को पार करते वक़्त इस सफ़र पर चलने से हमें जाने कितने ही हाथों ने रोका। हुस्न की परियाँ हमें आवाज़ देकर अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयास करती रहीं पर फिर भी वो हमें अपने मार्ग से विचलित ना कर सकीं, थका ना सकीं। आखिर क्यूँ ? क्यूँकि दिल में उस सुबह को लाने का एक जोश था, एक उमंग थी। हमारे लिए तो उस बिल्कुल करीब आ गई सुबह के हसीं दामन को छू लेना ही अंतिम मुकाम था।
कहीं तो जा के रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़म-ए-दिल जवाँ लहू की पुर-असरार शाहराहों से चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन बहुत क़रीं था हसीनान-ए-नूर का दामन सुबुक सुबुक थी तमन्ना, दबी दबी थी थकन
सुन रहे हैं कि जुल्म के बादल अब छँट चुके हैं और लोग तो ये भी कह रहे हैं कि जिस मंजिल की तलाश में हम चले थे वो हमें मिल भी चुकी है। पर कहाँ है चेहरों पर लक्ष्य मिलने की खुशी? अगर हालात बदले हैं तो उनका असर क्यूँ नहीं दिखाई देता? जिस सुबह की हवा का हमें बेसब्री से इंतज़ार था वो किधर से आई और किधर चली गई? अब देखिए ना सड़क के किनारे जलते इस प्रकाशपुंज को भी उसके जाने का रास्ता नहीं मालूम। रात का भारीपन भी तो कम होता नहीं दिखता। इसीलिए तो मुझे लगता है आँखों और दिल को जिस सुबह की तलाश थी वो अभी नहीं आई। तुमलोग भी आगे का सफ़र करने को तैयार हो जाओ कि मंज़िल तक पहुँचना अभी बाकी है..... सुना है हो भी चुका है फ़िराक़-ए-ज़ुल्मत-ओ-नूर सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अज़ाब-ए-हिज्र-ओ-हराम जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं कहाँ से आई निगार-ए-सबा, किधर को गई अभी चराग़-ए-सर-ए-राह को कुछ ख़बर ही नहीं गिरानि-ए-शब में कमी नहीं आई निजात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई
ये तो थी मेरी समझ के हिसाब से इस उर्दू नज़्म का अनुवाद करने की एक कोशिश। संभवतः इसमें कुछ त्रुटियाँ भी हो सकती हैं। वैसे कुछ दिनों पहले मुझे कुर्तुलीन हैदर की किताब आग का दरिया के अंग्रेजी अनुवाद The River of Fire के एक अंश को पढ़ने का मौका मिला था। उस किताब में फ़ैज की इस नज़्म का संक्षिप्त अनुवाद करते हुए कुर्तुलीन जी ने लिखा था
This blighted dawn , this darkened sun. This is not the morning we waited for.We went forth in the desert of heaven, hoping to reach our destination of stars. We hoped that, somewhere, we would come ashore from the placid river of the night, that the barge of sorrow would end its cruise. Whence came the early morning breeze, where did it go? The wayside lamp does not know. The night's burden has not diminished, the hour of deliverance for eye and heart has not arrived. Face forward! For our destination is not yet in sight.
तो आइए सुनें जाने माने अभिनेता नसीरुद्दीन शाह की धारदार आवाज़ में फ़ैज़ की ये नज़्म
जिंदगी के इस सफ़र में ना जाने कितने लोग हमारे संपर्क में आते हैं। पर बीते समय में झाँक कर देखने पर क्या आपको नहीं लगता कि कुछ ऐसे चेहरे रह गए जिनसे अपने रिश्तों को समय रहते हम वो रूप नहीं दे पाए जो देना चाहते थे।
दिल खुशफहमियाँ पालता रहता है कि काश कभी उनसे एक मुलाकात और तो हो जिसमें हम ऍसे मरासिम बना सके जिन्हें परिभाषित करने में हमारे अंतरमन को कोई दिक्कत ना हो। पर अव्वल तो ऍसी मुलाकातें हो नहीं पाती और होती भी हैं तो माहौल ऐसा नहीं बन पाता कि रिश्तों के अधखुले सिरों को फिर से टटोला जा सके।
ये तो हुई वास्तविक जिंदगी की बात पर फिल्मों में ऐसी मुलाकातें अक्सर हो जाया करती हैं क्यूँकि उनके बिना कहानी आगे बढ़ती नहीं। इसीलिए तो गीतों का ये आशावादी दृष्टिकोण हमारे मन को सुकून देता है। साथ ही उन्हें गुनगुनाकर हम अपने आप को पहले से तरो ताज़ा और उमंगों से भरा महसूस करते हैं।
ऍसा ही एक गीत गाया था रफ़ी साहब ने फिल्म ये रात फिर ना आएगी के लिए और क्या कमाल गाया था। १९६५ में आई ये फिल्म अपने गीतों के लिए बेहद चर्चित रही थी। चाहे आशा जी का गाया 'यही वो जगह है... हो या फिर महेंद्र कपूर का गाया मेरा प्यार वो है..... हो, ओ पी नैयर द्वारा संगीत निर्देशित इस फिल्म के सारे गीत लाज़वाब थे। और इस गीत का तो शमसुल हूदा बिहारी ने, मुखड़ा ही बड़ा जबरदस्त लिखा था ...
फिर मिलोगे कभी इस बात का वादा कर लो हमसे एक और मुलाकात का वादा कर लो वैसे बिहारी साहब अपने नाम के अनुरूप सचमुच बिहार के ही थे और पटना के पास स्थित आरा में उनका जन्म हुआ था। संगीतकार ओ पी नैयर के करीबियों का कहना है कि ओ पी नैयर ने बिहारी के मुखड़े को आगे बढ़ाते हुए पहला अंतरा ख़ुद ही रच डाला था। ये अंतरा गुनगुनाना मुझे बेहद पसंद रहा है इसलिए आज इसे यहाँ लगा दे रहा हूँ
वैसे आप मुझे ना झेलना चाहें तो रफ़ी साहब की गायिकी का आनंद यहाँ ले सकते हैं।
फिर मिलोगे कभी इस बात का वादा कर लो हमसे इक और मुलाकात का वादा कर लो
दिल की हर बात अधूरी है अधूरी है अभी अपनी इक और मुलाकात ज़रूरी है अभी चंद लमहों के लिये साथ का वादा कर लो हमसे इक और मुलाकात का वादा करलो फिर मिलोगे कभी .....
आप क्यूँ दिल का हसीं राज़ मुझे देते हैं क्यूँ नया नग़मा नया साज़ मुझे देते हैं मैं तो हूँ डूबी हुई प्यार की तूफ़ानों में आप साहिल से ही आवाज़ मुझे देते हैं कल भी होंगे यहीं जज़्बात ये वादा करलो हमसे इक और मुलाकात का वादा करलो फिर मिलोगे कभी .....
इस गीत का दूसरा अंतरा आप इस वीडियो में देख सकते हैं जिसे आशा जी ने गाया है। ये गीत पर्दे पर फिल्माया गया था विश्वजीत और शर्मिला टैगोर जी पर
तो आज है बच्चों का दिन यानि बाल दिवस ! तो क्यूँ ना इस दिन बचपन की कुछ बातों को साझा किया जाए एक बेहद दिलअज़ीज़ गीत के साथ। समय के साथ कितना बदल गया है तब और आज का बचपन। तब भी मस्तियाँ और शैतानियाँ होती थीं और आज भी। फर्क आया है इनके तौर तरीकों में, तब के और आज के माहौल में। बचपन की स्मृतियों पर नज़र दौड़ाऊँ तो बहुत सारी बातें अनायास ही मन में आती हैं। पेड़ों पर रस्सी लगा कर झूला झूलना, इमली के पेड़ की डरते डरते चढ़ाई करना, टोकरी को तिरछा कर रस्सी के सहारे चिड़िया को पकड़ने की कोशिश करना, हारने या खेल में ना शामिल किए जाने पर टेसुए बहाना, मन का ना होने पर बार बार घर छोड़ने की धमकी दे डालना और ऐसी ही ना जाने कितनी और बातें। पर आज बात उन खेलों की जिन्हें खेलते हुए बचपन का एक बड़ा हिस्सा बीता।
बचपन में पहला खेल जो हमनें सीखा था वो था बुढ़िया कबड्डी। अगर आप इस खेल से वाकिफ़ ना हों तो ये बताना जरूरी होगा कि इस खेल में अपनी साँस बिना तोड़े बारी बारी से विपक्षी दल के खिलाड़ियों को दौड़ाना और इन्हें छू कर वापस आना होता था। ऍसा इसलिए किया जाता था ताकि एक गोल रेखा के अंदर खड़ी अपने दल की बुढ़िया को भागने का रास्ता मिल जाए। कबड्डी के इस परिवर्तित रूप में गोल रेखा के अंदर खड़े खिलाड़ी को बुढ़िया क्यूँ कहा जाता था ये अभी भी मेरी समझ के बाहर है।
ज़ाहिर है जितनी लंबी साँस होगी उतने ही अधिक खिलाड़ियों को दौड़ाकर आप बुढ़िया का काम आसान कर सकते थे। अब एक साँस को लेने के लिए कई तरीके थे। सबसे प्रचलित होता था
शैल तीईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईईई............. या फिर कबड्डी के बाड बड्डी बाड बड्डी बाड बड्डी......
पर इन दोनों तरीकों में साँस में हेर फेर यानि चीटिंग करने की गुंजाइश काफी कम होती थी तो हम लोग इनका इस्तेमाल कम ही करते थे। सबसे मज़ेदार रहता
शैल दल्ले छू दल्ले छू...
बोलना क्यूँकि ये इतनी धीमी गति से बोला जाता कि साँस ले लेने का पता ही न चलता। अगर विपक्षी खिलाड़ी शिकायत करते तो हम अपने दूसरे सहारे प्रकाश लाल की शरण में चले जाते। अब ये न पूछिएगा कि ये प्रकाश लाल कौन था क्यूंकि हम तो उसे जाने बगैर ही उसका मर्सिया पढ़ देते थे यानि
शैल कबड्डी आस लाल मर गया प्रकाश लाल मेरा....लाल लाल लाल लाल...
बुढ़िया कबड्डी का शुमार तो अब लुप्तप्राय खेलों में कर लेना चाहिए। पर गिल्ली डंडा, रस्सी और लट्टू, कंचों पिट्टो, कोनों की अदला बदली और रुमाल ले कर भागने वाले खेल तो कस्बों और गाँवों में जरूर खेले जाते होंगे। आज तो बाजार में हर आयु वर्ग के लिए तरह तरह के आकर्षक खेल हैं खासकर तब जब आपकी जेब में इनके लिए पर्याप्त पैसे हों। वैसे भी आज के बच्चों के हाथ, मोबाइल और कम्प्यूटर के कीबोर्ड में गेम खेलने को इतने सिद्धस्त हो जाते हैं कि उन्हें गिल्ली और डंडे को पकड़ने की जरूरत ही क्या है। पर जो बच्चे इन सुविधाओं से अभी भी दूर हैं उनके लिए तो ये खेल आज भी मौज मस्ती की तरंग जरूर लाते होंगे।
तो आइए आज आपको वो गीत सुनाऊँ जो मुझे अपने बचपन की इन्हीं यादों के बहुत करीब ले जाता है। सुजाता फिल्म के इस गीत के बोल लिखे थे मजरूह सुल्तानपुरी ने और संगीतबद्ध किया था सचिन देव बर्मन साहब ने। गीता दत्त और आशा जी ने जो चुनिंदा युगल गीत गाए हैं उनमें से ये एक था। गायिकी, संगीत और बोल तीनों के लिहाज़ से ये गीत मुझे पसंद हैं ..
बचपन के दिन बचपन के दिन बचपन के दिन भी क्या दिन थे हाय हाय बचपन के दिन भी क्या दिन थे उड़ते फिरते तितली बन के बचपन....
वहाँ फिरते थे हम फूलों में पड़े यहाँ ढूँढते सब हमें छोटे बड़े थक जाते थे हम कलियाँ चुनते बचपन के दिन भी क्या दिन थे उड़ते फिरते तितली बन के बचपन.....
कभी रोये तो आप ही हँस दिये हम छोटी छोटी ख़ुशी छोटे छोटे वो ग़म हाय रे हाय हाय हाय हाय रे हाय कभी रोये तो आप ही हँस दिये हम छोटी छोटी ख़ुशी छोटे छोटे वो ग़म हाय क्या दिन थे वो भी क्या दिन थे
बचपन के दिन भी क्या दिन थे उड़ते फिरते तितली बन के बचपन ...
और चलते चलते आज के बचपन को अपने क़ैमरे में क़ैद करने की मेरी कोशिश
तो क्या आपको ये प्रविष्टि आपके बचपन तक खींच कर ले जा सकी ?
जब भी पुरानी ग़ज़लों की बात सोचता हूँ मुझे अस्सी का दशक रह रह कर याद आता है। अब अगर कोई ये कहे कि मियाँ तुम क्या देर से जगे हो ग़ज़लें तो हमारे बाप दादा के ज़माने से चलती आ रही हैं तो वो बात भी सही है। अस्सी के दशक से पुरानी कई ग़ज़लें सच पूछिए तो पिछले एक दशक में ही सुन पाया हूँ। पर अब करें क्या ग़ज़ल की भावनाओं को समझने की उम्र भी तो 1985 के बाद ही आई।
वैसे भी जिस संगीत को आप सुनते हुए बड़े होते हैं वो आपकी वास्तविक ज़िंदगी का हिस्सा हो जाता है। जब भी ऐसी ही कोई ग़ज़ल या गीत बरबस याद आता है तो अपने साथ उस समय की बहुत सी यादों को समेटता हुआ आता है।
आज एक ऐसी ही ग़ज़ल आपके सामने पेश है जिसे अस्सी के दशक में ख़ासी लोकप्रियता हासिल हुई थी। इसे अपनी आवाज़ दी थी भजन सम्राट कहे जाने वाले अनूप जलोटा साहब ने। ये ग़ज़ल 1984 में रिलीज़ हुए उनके एलबम फरमाइशका अहम हिस्सा थी। पहली बार जब इसे सुना था तो मुझे जलोटा साहब का ग़ज़ल शुरु करने के पहले कहा गया शेर असमंजस में डाल गया था।
ग़ज़ल में बंदिशो अल्फाज़ ही नहीं काफी जिगर का ख़ून भी चाहिए असर के लिए
इस 'जिगर के ख़ून' का मर्म समझने में मुझे तीन चार साल और लगे। फिर तो इस शेर के साथ पूरी ग़ज़ल को सुनना मुझे बहुत अच्छा लगने लगा। इसकी एक वज़ह ये भी थी कि क़ैसर उल ज़ाफरी साहब ने एक ऍसी रूमानी ग़ज़ल लिखी थी जो आसानी से एक हिंदी भाषी को भी समझ आ जाए। वैसे भी किशोरावस्था की दहलीज़ पर ऍसी भावनाएँ कुछ ज्यादा ही असर करती थीं।
वैसे अनूप जी ने भी बड़ी तबियत से इसका हर शेर गाया है। मतले में मौसम को छः बार कहने का उनका अंदाज़ निराला है। खूबसूरत वाद्य संयोजन के साथ साथ अपने चिरपरिचित अंदाज़ में अनूप भाई वाह वाही बटोरने वाला शास्त्रीय आलाप लेना भी नहीं भूले हैं।
अनूप जलोटा एक ऐसे गायक हैं जो उस ज़माने से लेकर आज तक सुने जाते रहे हैं। वे बारहा देश विदेशों में कनसर्ट देते रहते हैं। भक्ति संगीत के सैकड़ों एलबम में अपनी आवाज़ देने के बाद आजकल वो अपना समय भावी गायकों को सिखाने में लगाते हैं। उन्होंने गजल गायिकी बिल्कुल बंद तो नहीं की पर ग़ज़लों के अब उनके इक्का दुक्का एलबम ही आते हैं। तो देर किस बात की..बात शुरु की जाए उनके प्यारे शहर की
तुम्हारे शहर का मौसम बडा सुहाना लगे मै एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा ना लगे
जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो कि आसपास की लहरों को भी पता ना लगे
तुम्हारे बस मे अगर हो तो भूल जाओ हमें तुम्हें भुलाने मे शायद हमें ज़माना लगे
न जाने क्या है किसी की उदास आँखों में वो मुँह छुपा के भी जाये तो बेवफ़ा ना लगे
हमारे प्यार से जलने लगी है इक दुनिया दुआ करो किसी दुश्मन की बद्दुआ ना लगे
अनूप जलोटा की इस ग़ज़ल में जनाब क़ैसर-उल-जाफ़री के ये अशआर नहीं हैं.. कुछ इस अदा से मेरे साथ बेवफ़ाई कर कि तेरे बाद मुझे कोई बेवफ़ा ना लगे
वो फूल जो मेरे दामन से हो गया मंसूब, ख़ुदा करे उसे बाज़ार की हवा ना लगे
तुम आँख मूँद के पी जाओ ज़िन्दगी 'क़ैसर', कि एक घूँट मे शायद ये बदमज़ा ना लगे
क़ैसर-उल-जाफ़री एक ऍसे शायर हैं जिन्होंने मुशायरों की शोभा तो बढ़ाई ही है कई फिल्मों के गीत भी लिखे हैं। इतना ही नहीं क़ैसर साहब एक बुलंद आवाज़ के मालिक भी हैं। बड़ा आनंद आता है जब भी क़ैसर साहब की आवाज़ में ये ग़ज़ल सुनता हूँ। तो क्यूँ ना चलते चलते आप सब को भी उनकी आवाज़ से रूबरू कराता चलूँ !
चाँदनी था, कि ग़ज़ल था, कि सबा था क्या था मैंने इक बार तेरा नाम सुना था क्या था
ख़ुदकुशी कर के भी बिस्तर से उठा हूँ ज़िंदा मैंने कल रात को जो ज़हर पिया था क्या था
तुम तो कहते थे ख़ुदा तुमसे ख़फ़ा है क़ैसर डूबते वक़्त इक हाथ बढ़ा था क्या था
आदमी की फ़ितरत अज़ीब सी है। चाहता कुछ और है और कहता कुछ और। अब भला जिंदगी की राहों में कोई हसीन हमसफ़र मिल जाए तो इसमें दिक्कत कहाँ हैं जनाब ! पर देखिए अब कोई मिल गया तो इतरा रहे हैं ये कहते हुए कि मैं तो अकेले ही बड़े आराम से था। अब भइया एक अदद दिल की तलाश में मारे मारे फिरोगे और एक के साथ एक फ्री वाली स्कीम में दर्द लाज़िमी तौर पर मिलेगा तो क्या कलपने लगोगे :)?
पर ये तो हमारे आपके दिखाने की बात है। अंदर ही अंदर तो हम दर्द-ए-दिल को भी शिद्दत से महसूस करना चाहते हैं। फ़राज़ ऍसे तो नहीं कह गए
पहले पहल का इश्क़ अभी याद है फ़राज़ दिल खुद से चाहता है कि रुसवाइयाँ भी हों
पर जहाँ ये बात सही है, वहाँ इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि जब हमारी समझ से अपने स्तर से बहुत अच्छा हमें अपना लेता है तो एक ओर तो हमें बड़ी खुशी मिलती है पर दूसरी ओर रह रह कर अंदर की हीन ग्रंथि हमें अपनी तुच्छता का अहसास भी दिलाती रहती है।
तो आज ऍसे ही भावनाओं से ओतप्रोत इस गीत की बात करना चाहता हूँ। इसे लिखा था मजरूह सुल्तानपुरी ने और इसकी धुन बनाई थी चित्रगुप्त ने। मजरूह ने ये गीत शायद ऍसे ही किसी क़िरदार के लिए लिखा होगा। शायद इसलिए कि जिस फिल्म का ये गीत है वो मैंने देखी नहीं। फिल्म का नाम था 'आकाशदीप' जो १९६५ में प्रदर्शित हुई थी। वैसे यू ट्यूब के वीडिओ से ये स्पष्ट है कि इसे फिल्माया गया था धर्मेन्द और नंदा जी पर।
ये गीत रफ़ी साहब के गाए मेरे पसंदीदा गीतों में से एक है तो सुनिए रफ़ी की गायिकी का कमाल ..
वैसे यू ट्यूब के वीडिओ में इस गीत के तीनों अंतरे सुनने को मिलेंगे।
मुझे दर्द-ए-दिल का पता ना था मुझे आप किसलिए मिल गए मैं अकेला यूँ ही मजे में था मुझे आप किसलिए मिल गए....
यूँ ही अपने अपने सफ़र में गुम कही दूर मैं, कही दूर तुम चले जा रहे थे जुदा, जुदा मुझे आप किसलिए मिल गए....
मैं गरीब हाथ बढ़ा तो दूँ तुम्हें पा सकूँ कि ना पा सकूँ मेरी जाँ बहुत हैं ये फ़ासला मुझे आप किसलिए मिल गए....
ना मैं चाँद हूँ, किसी शाम का ना च़राग हूँ, किसी बाम का मैं तो रास्ते का हूँ एक दीया मुझे आप किसलिए मिल गए....
वैसे चलते चलते कुछ बाते संगीतकार चित्रगुप्त यानि चित्रगुप्त श्रीवास्तवके बारे में। यूँ तो चित्रगुप्त भोजपुरी फिल्मों के मूर्धन्य संगीतकार माने जाते हैं, पर हिंदी फिल्मों के लिए भी उन्होंने कुछ नायाब नग्मे दिए। चित्रगुप्त का ताल्लुक बिहार से था और रोचक तथ्य ये है कि मुंबई की मायानगरी में संगीतकार बनने के पहले वो कॉलेज में लेक्चरर थे। वैसे क्या आपको पता है कि चित्रगुप्त की सांगीतिक विरासत को किसने आगे बढ़ाया ? वही 'क़यामत से क़यामत तक ' की संगीतकार जोड़ी आनंद-मिलिंद ने, जो चित्रगुप्त के सुपुत्र हैं।
पिछले साल जब वार्षिक संगीतमाला के अपने पसंदीदा गीतों का चयन कर चुका था, तब ये गीत मुझे सुनने को मिला। लिहाज़ा ये मेरी वार्षिक संगीतमाला 2008 का हिस्सा नहीं बन पाया था। ये गीत था फिल्म ब्लैक एंड व्हॉइट (Black and White) का। अगर आपको इस फिल्म का नाम याद नहीं आ रहा तो इसमें आपका कोई क़सूर नहीं। फिल्म सिनेमाघर के पर्दे की शोभा ज्यादा दिनों तक नहीं बढ़ा सकी थी। वैसे विशुद्ध व्यवसायिक फिल्म बनाने वाले सुभाष घई ने इस फिल्म के ज़रिए वास्तविक ज़िंदगी के करीब आने की कोशिश की थी। पर सुभाष घई जैसी भी फिल्में बनाएँ अपनी फिल्मों के संगीत के चयन के प्रति बेहद सजग रहे हैं। इस हट के बनाई गई फिल्म के संगीतकार के तौर पर उन्होंने चुना था लोकप्रिय गायक सुखविंदर सिंह को। और आज जिस गीत की बात मैं आपसे कर रहा हूँ उसमें सुखविंदर जी के हुनर का क़माल साफ दिखाई देता है...
चिड़ियों की चहचहाट, गायिका का मधुर आलाप, चलती रेल की आवाज़ के साथ सम्मोहित करती आरंभिक धुन के साथ इस गीत से आप रूबरू होते हैं। जब तक आप इस आरंभिक सम्मोहन से निकलें श्रेया घोषाल की खनकती आवाज़ और इब्राहिम अश्क़ के बोल ज़िदगी की राहों में साथ साथ चलने पर मज़बूर कर देते हैं। शुरुआती धुन को इंटरल्यूड्स में बरक़रार रख कर सुखविंदर इस गीत का मज़ा दूना कर देते हैं। तो आइए पहले सुनें कोकिल कंठी श्रेया घोषाल के स्वर में ये गीत..
मैं चली मैं चली इस गली उस गली इस डगर उस डगर इस तरफ़ उस तरफ़ साथ मेरे चले ज़िंदगी का सफ़र...
हँसती हैं तितलियाँ, मुस्कुराए ज़मीं बादलों की हँसी गुनगुनाए कहीं दिल की धड़कन चले, वक़्त की छाँव में दर्द की मस्तियाँ नाचती पाँव में..
इस गली उस गली इस डगर उस डगर, ऍ मेरे हमसफ़र मैं चली मैं चली सारी दुनिया से मैं हो गई बेख़बर साथ मेरे चले जिंदगी का सफ़र...
मेरी पायल में हैं बोल सब प्यार के चूड़ियों में भी हैं लफ़्ज़ इक़रार के मेरे होठों पे हैं गीत इज़हार के ख़्वाब आँखों में है तेरे दीदार के है यही तो मेरे प्यार की रहगुज़र मैं चली मैं चली..मैं चली मैं चली
वैसे इस गीत का एक और वर्सन है जिसे सुखविंदर ने अपनी आवाज़ से सँवारा है। श्रेया वाले वर्सन में गीत का मूड जहाँ रोमांटिक हैं वहीं सुखविंदर के इस वर्सन में गीतकार फिलासफिकल नज़रिए से जिंदगी के बदलते रास्तों से हमें ले जाते हैं। इस बार अंतरे में पिआनो की धुन भी कर्णप्रिय लगती है। तो सुखविंदर जी के गाए इस गीत को सुनिए ..
मैं चला मैं चला इस गली उस गली इस डगर उस डगर इस तरफ़ उस तरफ़ साथ मेरे चले ज़िंदगी का सफ़र...
अज़नबी रास्ते, अज़नबी है ज़हाँ मैं कहाँ से कहाँ आ गया हूँ यहाँ अज़नबी रास्ते, अज़नबी है ज़हाँ मैं कहाँ से कहाँ आ गया हूँ यहाँ....... सात रंगों की है तेरी दुनिया हसीं है उजाला कहीं तो है अँधेरा कहीं है कहीं शाम तो क्यूँ कहीं है सहर मैं चला मैं चला...
कैसी हैं उलझनें कैसे हालात हैं दिल में उमड़े ये कैसे जज़्बात हैं कैसी हैं उलझनें कैसे हालात हैं दिल में उमड़े हुए कैसे जज़्बात हैं....... है धुआँ ही धुआँ रास्तों के निशां हर क़दम पर मेरे हौसले है जवाँ मेरी मंजिल मुझे आ रही है नज़र
मैं चला मैं चला इस गली उस गली इस डगर उस डगर इस तरफ़ उस तरफ़ साथ मेरे चले ज़िंदगी का सफ़र...
बनलता जोयपुर जंगलों के किनारे बसा फूलों का गाँव
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पश्चिम बंगाल में ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे विख्यात जगह है तो वो है बिष्णुपुर।
वर्षों पहले बांकुरा जिले में स्थित इस छोटे से कस्बे में जब मैं यहाँ के
विख्या...
इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।