मुन्नवर राना की किताब 'घर अकेला हो गया' को पढ़ते वक्त कुछ सहज प्रश्न हर पाठक के दिमाग में उठ सकते हैं? पिछली प्रविष्टि में आपने देखा कि किस तरह 'घर अकेला हो गया' के तमाम शेर आज की सियासत और नेताओं के लिए तल्खियों से भरे हैं। मुन्न्वर जी के हृदय की ये तल्खियाँ सिर्फ सियासत और नेताओं तक ही सीमित नहीं है। मसलन आख़िर शायर के दुखों का कारण क्या है? ये दुख उनकी आज की जिंदगी से जुड़े हैं?
मुन्नवर की आज की जिंदगी की रूपरेखा पुस्तक में जनाब वाली आसी साहब कुछ यूँ देते हैं..
लोगों को उसकी ज़िंदगी में बड़ी चमक दिखाई देती है। कलकत्ते और दिल्ली से पूरे मुल्क में फैला हुआ उसका कारोबार, हवाई जहाजों, रेल के एयर कंडिश्नड डिब्बों और चमकती हुई कारों में उसका सफ़र, सितारों वाले होटलों में उसका क़याम, उसका सुखी घर संसार, जहाँ उसकी जीवन संगिनी, हँसती हुई गुड़ियों जैसी बच्चियाँ और किलकारियाँ भरते हुए फूल जैसे मासूम और चाँद जेसे प्यार बेटे के आलावा ज़िंदगी को आराम-ओ -असाइश से गुज़ारने के लिए नए से नया और अच्छे से अच्छा सामान मौजूद है, लेकिन उसका सबसे बड़ा दुख गाँव से नाता टूट जाने का है। वह और ऐसे बहुत से दुख उसे सताते हैं।
बहुत ज़माना हुआ, गौतम ने इन्हीं दुखों से छुटकारा पाने के लिए संसार को त्याग दिया था, लेकिन मुनचनवर राना का दुख यह है कि वह रात के अँधेरे में चुप कर कहीं ना जा सका, वह संसार को त्याग नहीं सका, शायद यही वज़ह है कि उसने शायरी के दामन में पनाह ढूँढ ली और अपने दुखों को इस तरह हिफ़ाज़त से रखा जैसे औरतें अपने गहने सँभाल कर रखती हैं।
वाली साहब की बात कितनी सही है उसका अंदाज़ा आप इस किताब को पढ़ कर लगा सकते हैं। देश में गाँव से शहरों की ओर होता पलायन, गाँवों और शहरों में लोगों के नैतिक मूल्यों में होता अवमूल्यन भी शायर को चिंतित करता है और ये चिंता उनके कई अशआरों में मुखर हो उठती है.....
सज़ा कितनी बड़ी है गाँव से बाहर निकलने की
मैं मिट्टी गूँथता था अब डबलरोटी बनाता हूँ
मैं अपने गाँव का मुखिया भी हूँ बच्चों का क़ातिल भी
जला कर दूध कुछ लोगों की ख़ातिर घी बनाता हूँ
मुन्नवर जी भले ही आज एक अच्छे खासे कारोबार के मालिक हैं पर ये अमीरी उन्होंने गरीबी और बदहाली की जिंदगी से संघर्ष कर पाई है। आपको जानकर हैरानी होगी कि मुन्नवर राना के पिता एक ट्रक चालक थे। पिता को कई बार काफी दिनों के लिए बाहर रहना पड़ता और उनके लौटने तक पूरा परिवार खाने को भी मोहताज हो जाया करता था। मुन्नवर ने गरीब और अमीर तबके के जीवन को करीब से देखा है। आज अमीरों के बीच उनका उठना बैठना है फिर भी वो इनकी जिंदगी के खोखलेपन व मुखीटों के अंदर के चरित्र से वाकिफ़ हैं।
मैंने फल देख के इंसान को पहचाना है
जो बहुत मीठे हों अंदर से सड़े होते हैं
लबों पर मुस्कुराहट दिल में बेज़ारी निकलती है
बड़े लोगों में ही अक्सर ये बीमारी निकलती है
वहीं अपनी जड़ों को उनकी शायरी कभी नहीं भूलती। मुन्न्वर की लेखनी की धार इन अशआरों में स्पष्ट दिखती है।
मैंने देखा है जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं
कद में छोटे हों मगर लोग बड़े होते हैं।
भटकती है हवस दिन रात सोने की दुकानों में
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है
सो जाते हैं फुटपाथ पे अखबार बिछा कर
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते
मुन्नवर साहब की हर किताब में आप माँ से जुड़े अशआरों को प्रचुरता से पाएँगे। गुफ़तगू पत्रिका को हाल ही में दिए गए साक्षात्कार में जब उनसे इसकी वज़ह पूछी गई तो मुन्नवर साहब का जवाब था
घर के कठिन हालातों को देखकर माँ हर वक्त बैठी दुआएँ ही माँगती रहती थी। मुझे बचपन में नींद में चलने की बीमारी थी। इसी वजह से माँ रातभर जागती थी, वो डरती थीं कि कहीं रात में चलते हुए कुएँ में जाकर न गिर जाऊँ। मैंने माँ को हमेशा दुआ माँगते ही देखा है इसीलिए उनका किरदार मेरे जेहन में घूमता रहता है और शायरी का विषय बनता है।घर अकेला हो गया में भी ऍसे कई शेर हैं कुछ की बानगी देखिए
जब भी कश्ती मेरे सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ बन कर मेरे ख़्वाब में आ जाती है।
लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिंदी मुस्कुराती है
मुन्नवर माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो, इतनी नमी अच्छी नहीं होती
पूरी किताब में कई जगह आज के हालातों के मद्दे नज़र राना साहब के अशआरों की शक़्ल में किए गए चुटीले व्यंग्य मन को मोह लेते हैं।
कलम सोने का रखने में कोई बुराई नहीं लेकिन
कोई तहरीर भी निकले तो दरबारी निकलती है
मुँह का मजा बदलने के लिए सुनते हैं वो ग़ज़ल
टेबुल के दालमोठ की सूरत हूँ इन दिनों
हर शख़्स देखने लगा शक़ की निगाह से
मैं पाँच सौ के नोट की सूरत हूँ इन दिनों
कुल मिलाकर अगर आप ग़ज़ल को प्रेम काव्य ना मानकर एक ऐसा माध्यम मानते हैं जिसके द्वारा शायर समाज से जुड़े सरोकारों को सामने लाए तो ये किताब आपके लिए है। चलते चलते इस किताब के शीर्षक के नाम मुन्नवर राना साहब का ये शेर सुनते जाइए
ऐसा लगता है कि जैसे ख़त्म मेला हो गया
उड़ गई आँगन से चिड़िया घर अकेला हो गया
पुस्तक के बारे में
घर अकेला हो गया
मूल्य : 125 रुपये मात्र
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन