जनाब असरार उल हक उर्फ 'मजाज़ ' एक शायराना खानदान से ताल्लुक रखते थे। उनकी बहन का निकाह जावेद अख्तर के पिता जानिसार अख्तर के साथ हुआ था ।
अपने शायराना सफर की शुरुआत सेंट जान्स कॉलेज में पढ़ते वक्त उन्होंने फनी बदायुनी की शागिर्दी में की थी । प्रेम मजाज की शायरी का केन्द्रबिन्दु रहा जो बाद में दर्द में बदल गया। जैसा कि स्पष्ट था कि मजाज़ को चाहने वालों की कभी कमी नहीं रही थी । पर प्रेम के खुले विकल्पों को छोड़ एक अमीर शादी शुदा स्त्री के इश्क ने उनकी जिंदगी में वो तूफान ला दिया जिस में वो डूबते उतराते ही रहे.... कभी उबर ना सके ।
मुन्तजिर* है एक तूफां -ए -बला मेरे लिये
अब भी जाने कितने दरवाजे हैं वा** मेरे लिये
पर मुसीबत है मेरा अहद -ए- वफा मेरे लिए
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
*इंतजार में, ** खुला हुआ
जी में आता है कि अब अहद- ए -वफा* भी तोड़ दूँ
उन को पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी छोड़ दूँ
हाँ मुनासिब है ये जंजीर -ए- हवा भी तोड़ दूँ
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
*वफा करने का वादा
क्या अजीब चीज है ये इश्क ! पास रहे तो सब खुशनुमा सा लगता है और दूर छिटक जाए तो चमकती चाँदनी देने वाला माहताब भी बनिये की किताब सा पीला दिखता है । रातें बीतती गईं। चाँद रोज रोज अपनी मनहूस शक्लें दिखलाता रहा । मजाज़ का दिल कातर और बेचैन ही रहा..और उन्होंने लिखा
इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा*, जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफलिस** की जवानी, जैसे बेवा का शबाब
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
* पगड़ी, **गरीब
दिल में एक शोला भड़क उठा है आखिर क्या करूँ ?
मेरा पैमाना छलक उठा है आखिर क्या करूँ ?
जख्म सीने का महक उठा है आखिर क्या करूँ ?
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
जी में आता है कि चाँद तारे नोच लूँ
इस किनारे नोच लूँ , उस किनारे नोच लूँ
एक दो का जिक्र क्या, सारे के सारे नोच लूँ
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
मजाज़ को ऊँचे तबके के लोगों की महफिलों में उठने बैठने के कई अवसर मिले थे । अक्सर ऐसी महफिलों में अपने मनोरंजन के लिए मजाज को आमंत्रित किया जाता था । अमीरों के चरित्र का खोखलापन और आम जनता की गरीबी को उन्होंने करीब से देखा था । अन्य प्रगतिशील शायरों की तरह उनमें भी तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश था , जो आगे की इन पंक्तियों में साफ जाहिर होता है
मुफलिसी और ये मजाहिर हैं नजर के सामने
सैकड़ों चंगेज-ओ-नादिर हैं नजर के सामने
सैकड़ों सुल्तान जाबिर* हैं नजर के सामने
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
* अत्याचारी
ले के चंगेज के हाथों से खंजर तोड़ दूँ
ताज पर उस के दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई तोड़े या ना तोड़े मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
बढ़ के इस इन्दर सभा का साज-ओ-सामां फूँक दूँ
इस का गुलशन फूँक दूँ, उस का शबिस्ताँ* फूँक दूँ,
तख्त-ए-सुल्तान क्या मैं सारा कस्र-ए-सुल्तान** फूँक दूँ,
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
* शयनगार, **शाही महल
१९५४ में मजाज़ को दोबारा पागलपन का दौरा पड़ा । पागलपन के इस दौरे से बच तो निकले पर शराब से नाता नहीं टूट सका । उनके मित्र प्रकाश पंडित ने लिखा है कि अक्सर रईसों की महफिलों में उनके बुलावे आते। औरतें उनकी गजलियात और नज्में सुनतीं और साथ- साथ उन्हें खूब शराब पिलाई जाती । जब मजाज की साँसें उखड़ने लगतीं और मेजबान को लगता कि अब वो कुछ ना सुना सकेगा तो उन्हें ड्राइवर के हवाले कर किसी मैदान या रेलवे स्टेशन की बेंच पर छोड़ आया जाता था ।
मजाज़ की जिंदगी की आखिरी रात भी कुछ ऐसी ही थी । फर्क सिर्फ इतना रहा कि इस बार महफिल से शेरो शायरी का दौर तो खत्म हुआ पर मजाज को लखनऊ में दिसंबर की उस सर्द रात में लोगों ने छत पर ही छोड़ दिया । और अगली सुबह १५ दिसंबर १९५५ को दिमाग की नस फटने से वो इस दुनिया से कूच कर गए । आज इस बात को गुजरे ५१ साल बीत चुके हैं पर आज भी कहकशाँ में जगजीत सिंह की आवाज में गर कोई इस नज्म को सुने तो मजाज के उस दर्द को महसूस कर सकता है ।
मजाज़ की जिंदगी उनकी दीवानगी, महकदे के चक्करों और बेपरवाही में गुजर गई । शायद उनके खुद कहे ये शेर उनके जीवन की सच्ची कहानी कहते हैं ।
कुछ तो होते हैं मोहब्बत में जुनूँ के आसार
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं
हम महकदे की राह से होकर गुजर गए
वर्ना सफर हयात का बेहद तवील* था
*लम्बा
मेरी बर्बादियों के हमनशीनों
तुम्हें क्या मुझे भी गम नहीं है
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पुनःश्च :
इस लेख में जिक्र किए गए तथ्य प्रकाश पंडित और मराठी लेखक माधव मोहोलकर के संस्मरणों पर आधारित हैं ।१९५३ में आई फिल्म ठोकर में तलत महमूद साहब ने भी इस नज्म को अपनी आवाज दी है ।
इस नज़्म का पिछला भाग आप इस पोस्ट में यहाँ पढ़ सकते हैं।