शनिवार, अप्रैल 25, 2009

राँची की एक शाम पीनाज मसानी के नाम : कहाँ थे रात को हमसे ज़रा निगाह मिले...

पिछली पोस्ट में पीनाज़ से जुड़ी यादों को बाँटते वक़्त आपसे वादा किया था यह बताने का कि आज की पीनाज़ मसानी मुझे क्यूँ नहीं भाती ? करीब ढाई साल पहले की बात रही होगी। कार्यालय के काम से कर्नाटक के शिमोगा के पास के अपने भद्रावती के संयंत्र में गया था। काम निपटने के बाद अचानक खबर मिली कि शाम को पीनाज़ मसानी का कार्यक्रम है।



पर दिक्कत ये थी कि कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए पॉस की जरूरत थी जो हमारे पास नहीं था। थी तो बस मित्र की एक एम्बेस्डर गाड़ी। अब एम्बेस्डर चाहे कैसी भी हो, इससे उतरने के माने एक छोटे से शहर में यही हैं कि आप सरकारी महकमे वाले हैं। तो जनाब पुलिस के बंदोबस्त के बीच हम कार से उतरे और बिना इधर उधर देखे सीधे हॉल के प्रांगण में चल पड़े। अब मजाल है कि कोई हमारे पॉस के बारे में पूछता। :)

दरअसल मैं और मेरे वरीय सहयोगी पीनाज़ की गाई ग़ज़लों के प्रशंसक रह चुके थे। अंदर पहुँचे तो स्टेज को देख माज़रा समझ नहीं आया। भला एक ग़जल गायिका के शो में इतनी प्रकाश व्यवस्था और पीछे रखे विशाल म्यूजिक सिस्टम का क्या काम ! कार्यक्रम शुरु होते ही जिस तरह नर्तकों और नृत्यांगनाओं के बीच पीनाज़ ने प्रवेश किया, ये समझ आ गया कि यहाँ ग़ज़लों के आलावा सब कुछ होने वाला है। और हुआ भी वही। ग़ज़लों को अपनी सुरीली आवाज़ से सँवारने वाली पीनाज़ नए चलताउ गानों में नर्तकों के साथ थिरकती नज़र आईं। गाने भी ऐसे जिसमें गायिकी से ज्यादा नाचने का स्कोप ज्यादा हो। मन ही मन दुखी हुए कि प्रवेश के लिए इतनी बहादुरी दिखाने के बाद ये नज़ारा देखने को मिलेगा। फिर ये सोचकर संतोष किया कि शायद ये कर्नाटक है, ये सोचकर पीनाज़ ने कार्यक्रम की रूपरेखा ऍसी रखी होगी।


इसीलिए जब एक हफ्ते पहले राँची में हमारे कार्यालय के सभागार कक्ष में पीनाज मसानी के कार्यक्रम के बारे में सुना तो सोचा राँची में सेलकर्मियों के बीच तो वो अपनी ग़ज़ल जरूर सुनवाएँगी। पर जब यहाँ भी उनके कार्यक्रम का वही रूप देखा तो मन बेहद निराश हो गया। म्यूजिक सिस्टम के शोर के बीच में सधा नृत्य करते नर्तक पर पीनाज़, सिर्फ गीत के मुखड़े और एक आध अंतरे को गा रही थीं और वो भी उखड़े उखड़े सुरों के साथ। शायद वो सोचती हैं कि आज के श्रोता अच्छी गायिकी से ज्यादा ग्लैमर और चकाचौंध पर ज्यादा विश्वास रखते हैं।



खैर इन फिल्मी गीतों के बीच उन्होंने बेटियों पर लिखा एक प्यारा नग्मा गा कर सुनाया जिसे सुन कर मन को थोड़ा सुकून पहुँचा

साँसों में प्रीत भरे,
रागों में गीत भरे,
सपनों में रंग भरे बेटी।
लक्ष्मी का दीप जले,
आरती का शंख बजे,
जिस घर में वास करे बेटी।'


पीनाज़ ने बताया कि इस गीत की संगीत रचना शांतनु मोइत्रा की है और वो अपने हर कार्यक्रम में इस गीत को जरूर पेश करती हैं ताकि इस बारे में लोगों में जागरुकता बढ़े।

जब ग़ज़ल सुनने आई जनता को गीतों की ये मार भारी पड़ने लगी तो किसी ने पीछे से आवाज़ दी कि ग़ज़ल सुनने को कब मिलेंगी? पीनाज़ तुरंत माहौल को समझ गई़ और कहा कि म्यूजिशियन तो मैं अपने साथ लाई नहीं फिर भी आपकी क्या फरमाइश है। पहले अनुरोध पर उन्होंने यूँ उनकी बज्म ए खामोशियों ने काम किया..सुनाया जिसे सुन कर मन गदगद हो गया। फिर किसी ने आज जाने की जिद ना करो का अनुरोध किया। उनके गाए हुए भाग की एक हिस्से की रिकार्डिंग मैं कर पाया। लीजिए सुनिए...


और जब इसके बाद उन्होंने पूछा और कोई रिक्वेस्ट तो मुझसे ना रहा गया और मैं कह बैठा कहाँ थे रात को हमसे ज़रा निगाह मिले सुनाइए और पीनाज़ ने उसे भी गा कर सुनाया। पिछली पोस्ट में पेश की गई ग़ज़ल की तरह जनाब दाग़ देहलवी की ये ग़ज़ल भी मुझे बेहद प्रिय रही है। जो लोग मुँह की बजाए आँखों के ज़रिए अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने में विश्वास रखते हैं उन्हें से ग़ज़ल निश्चय ही पसंद आएगी..


कहाँ थे रात को हमसे ज़रा निगाह मिले
तलाश में हो कि झूठा कोई गवाह मिले


ये है मजे कि लड़ाई ये है मजे का मिलाप
कि तुझसे आँख लड़ी और फिर निगाह मिले


तेरा गुरूर समाया है इस क़दर दिल में
निगाह भी न मिलाऊँ जो बादशाह मिले

मसलहत* ये है कि मिलने से कोई मिलता है
मिलो तो आँख मिले, मिले तो निगाह मिले


रहस्य, परामर्श *

ये सब सुनकर कार्यक्रम के पहले हिस्से में हो रहा मलाल कुछ हद तक धुल गया। पर कार्यक्रम खत्म होने के बाद हम सब यही विचार विमर्श करते रहे कि जिस सुर में और जिस सिद्धस्थता के साथ वो ग़ज़लें गाती हैं उसे छोड़कर एक बेहद मामूली तरह के स्टेज गायक की छवि ओढ़ने की उन्हें क्या जरूरत पड़ गई है। इस सवाल का जवाब तो पीनाज मसानी ही दे सकती हैं पर आप कहें कि आप की क्या राय है इस बारे में...

मंगलवार, अप्रैल 21, 2009

पीनाज़ मसानी से जुड़ी यादें : यूँ उनकी बज्म-ए-खामोशियों ने काम किया

पीनाज मसानी अस्सी के दशक में एक ऍसी आवाज़ थी जिसे बारहा हम और आप दूरदर्शन पर सुना करते थे और सराहा करते थे। उस वक्त घर में ग़ज़लों की कैसेट कम ही आ पाती थीं क्यूँकि उनके दाम उस जमाने में भी अस्सी रुपये से ऊपर हुआ करता थे और वो हमारे उस वक़्त के जेब खर्च से कहीं ज्यादा था।

शायद आठवीं क्लॉस में रहा हूंगा जब घर में नेपाल सीमा पर रहने वाले एक रिश्तेदार वहाँ से कुछ कैसेट लाए थे। उन्हीं में से एक कैसेट थी जिसकी एक साइड में पीनाज मसानी और दूसरी साइड में तलत अज़ीज की गज़ले थीं। वो कैसेट मुझे बेहद पसंद आई। लिहाज़ा उसे रिवाइंड कर कर इतना सुना गया कि उसका टेप रगड़ खाकर टूट गया। बाद में पीनाज को सुनते रहे पर उतना आनंद कभी नहीं आ पाया।

मुंबई यूनिवर्सिटी से स्नातक, पीनाज़ मसानी आगरा घराने की शागिर्द रही हैं और ग़ज़ल गायिकी उन्होंने उस्ताद मधुरानी जी से सीखी। १९८१ में बतौर ग़ायिका के रूप में उन्हें पहचान मिली। पर इसका एक बड़ा श्रेय संगीतकार जयदेव को भी जाता है जिन्होंने पीनाज की प्रतिभा को १९७८ में एक संगीत प्रतियोगिता के दौरान पहचाना। इस प्रतियोगिता में पीनाज अव्वल रही थीं। जयदेव ने इस युवा प्रतिभा के कैरियर में काफी दिलचस्पी ली जिसकी वज़ह से पीनाज़ दूरदर्शन पर ग़ज़ल गायिका के रूप में पहचानी जाने लगीं।

अस्सी का दशक ग़ज़ल गायकों के लिए स्वर्णिम काल कहा जा सकता है। क्या पंकज उधास, क्या अनूप जलोटा सब के सब गोल्ड और प्लेटिनम डिस्क जीत रहे थे। इस दौर में पीनाज के भी दर्जनों एलबम आए और वो भी प्लेटिनम डिस्क की हक़दार बनीं। पर ज्यों ही फिल्म संगीत नब्बे के दशक से फिर अपने को स्थापित करने लगा, म्यूजिक कंपनियों की रुचि इन कलाकारों में कम होने लगी। पिछले दस सालों में पीनाज ने बहुत कम ही गाया है, पर उनके पुराने समय को याद कर, सरकार ने हाल ही में उन्हें पद्मश्री सम्मान से विभूषित किया।

आज जो ग़ज़ल आपके सामने पेश कर रहा हूँ ये उसी कैसट का हिस्सा थी जिसका जिक्र, मैंने इस प्रविष्टि के शुरु में किया है।। इस ग़ज़ल का संगीत संयोजन किया था मधुरानी जी ने तो और इसके बोल लिखे थे सईद राही ने। पीनाज़ की गायिकी का अंदाज़ कुछ ऐसा है कि सामान्य से लगने वाले अशआरों मे उनकी आवाज़ की खनक से एक नई चमक आ जाती है



यूँ उनकी बज्म-ए-खामोशियों ने काम किया
सब ही ने मेरी मोहब्बत का एहतराम किया

हमारा नाम भी लेने लगे वफ़ा वाले
हमें भी आ के फरिश्तों ने सलाम किया

तेरे ही ख़त, तेरी तसवीर ले के बैठ गए
ये हमने काम यही सुबह शाम किया

ज़माना उनको हमेशा ही याद रखेगा
वो जिसने इश्क़ की दुनिया में अपना नाम किया

तू बेवफ़ा है मगर मुझको जां से प्यारा है
इसी अदा ने राही तेरा गुलाम किया

पर अचानक पीनाज मसानी मुझे क्यूँ कर याद आ गईं? दरअसल कुछ दिनों पहले वो राँची आई थीं, हमारा यानि सेल परिवार का मनोरंजन करने और मैंने भी उस कार्यक्रम में भाग लिया था। अगली पोस्ट में आपको बताऊँगा कि आज की पीनाज मसानी मुझे क्यों निराश करती हैं ? साथ ही होगी उसी कैसट की मेरी एक और पसंदीदा ग़ज़ल जिसकी कुछ पंक्तियाँ उन्होंने मेरे अनुरोध पर कार्यक्रम में गाकर सुनाईं...

शुक्रवार, अप्रैल 17, 2009

मैं एक अघोषित पागल हूँ : पुरानी पीढ़ी के नेताओं का जीवन दर्शन दिखाती एक जानदार कविता

कल जब राँची के दैनिक प्रभात खबर के मुख पृष्ठ पर छपी देश के एक पुराने नेता स्व.रामदत्त जोशी की कविता देखी तो आज के नेताओं के गिरते नैतिक स्तर पर बेहद रोष आया। आजकल के इस चुनावी माहौल में ये कविता बेहद प्रासंगिक है। पर इससे पहले कि आप रामदत्त जोशी जी की ये व्यंग्यात्मक कविता पढ़ें, थोड़ी जानकारी जोशी जी के बारे में आपसे बाँटता चलूँ जो इस अखबार और अंतरजाल के माध्यम से मुझे मिली है।

रामदत्त जोशी साहब साठ के दशक में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता थे। वे दो बार तब के उत्तरप्रदेश और आज के उत्तराखंड की काशीपुर विधानसभा सीट से विधानसभा के लिए चुने गए। १९६७ के चुनावों में उन्होंने कांग्रेस के बड़े नेता और उत्तराखंड के भूतपूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को भी हरा दिया था। जोशी साहब की एक और कविता 'नैनीताल की शाम' भी बेहद चर्चित हुई थी। आज जब राजनीति, परिवारवाद, भ्रष्टाचार और अपराधीकरण के दलदल में फँसती जा रही है, जोशी जी का सहज शब्दों में गिरते नैतिक मूल्यों पर ये कटाक्ष दिल को झकझोर जाता है। तो आइए पढ़ें और सुनें इस कविता को और संकल्प लें कि जहाँ तक हो सके हमारा वोट स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों के हक में ही पड़े



मैं एक अघोषित पागल हूँ

जो बीत गया मैं वो कल हूँ
कलांतर ने परिभाषाएँ, शब्दों के अर्थ बदल डाले
सिद्धांतनिष्ठ तो सनकी है, खब्ती हैं नैतिकतावाले
नहीं धन बोटरने का शऊर, ज्यों बंद अकल के हैं ताले
ईमानदार हैं बेवकूफ, वह तो मूरख हैं मतवाले
आदर्शवाद है पागलपन, लेकिन मैं उसका कायल हूँ
मैं एक अघोषित पागल हूँ

निर्वाचित जनसेवक होकर भी मैंने वेतन नहीं लिया
जो फर्स्ट क्लॉस का नकद किराया भी मिलता था नहीं लिया
पहले दरजे में रेल सफ़र की फ्री सुविधा को नहीं लिया
साधारण श्रेणी में जनता के साथ खुशी से सफ़र किया
जो व्यर्थ मरुस्थल में बरसा मैं एक अकेला बादल हूँ
मैं एक अघोषित पागल हूँ

जनता द्वारा परित्यक्त विधायक को पेंशन के क्या माने
है एक डकैती कानूनी, जनता बेचारी क्या जाने ?
कानून बनाना जनहित में जिनका कर्तव्य वही जाने
क्यों अपने ही ऐश्वर्य वृद्धि के नियम बनाते मन माने
आँसू से जो धुल जाता है, दुखती आँखों का काजल हूँ
मैं एक अघोषित पागल हूँ

सादा जीवन ऊँचे विचार, यह सब ढकोसलाबाजी है
अबके ज्यादातर नेतागण झूठे , पाखंडी पाजी हैं
कोई वैचारिक वाद नहीं, कोई सैंद्धांतिक सोच नहीं
सर्वोपरि कुर्सीवाद एक, जिसका निंदक मैं पागल हूँ
मैं एक अघोषित पागल हूँ

जन प्रतिनिधियों का जीवन स्तर, साधारण के ही समान
है लोकतंत्र में आवश्यक, समुचित है नैतिक संविधान
कोई कोरा उपदेश नहीं, गाँधीजी का कीर्तिमान
लंदन के राजमहल में भी, भारत के प्रतिनिधि ने महान
चरितार्थ किया आदर्शों को, जिनका मैं मन से कायल हूँ
मैं एक अघोषित पागल हूँ

कड़ियाँ, ईटों की छत दीवारें, दरकीं बिना पलस्तर की
टूटे उखड़े हैं फर्श और हैं फटी चादरें बिस्तर की
घर की न मरम्मत करा सका, दो बार विधायक रह कर भी
मैं एक खंडहरवासी हूँ, खुश हूँ इस बदहाली में भी
लाखों जनसाधारण हैं बेघर, उनकी पीड़ा से घायल हूँ
मैं एक अघोषित पागल हूँ

सोमवार, अप्रैल 13, 2009

जालियाँवाला बाग त्रासदी की ९० वीं सालगिरह पर झांकिए इस दर्दनाक हादसे को एक पुस्तक की नज़र से...

आज जालियाँवाला बाग त्रासदी की ९० वीं सालगिरह है। इसीलिए सोचा कि इतिहास की परतों में दफ़न इस काले दिन की कहानी कहने वाली इस पुस्तक से रूबरू कराने के लिए ये दिन बिल्कुल उपयुक्त रहेगा। इतिहास और ऐतिहासिक पुस्तकों से मेरा शुरु से लगाव रहा है इसीलिए जब मुझे स्टेनले वोलपर्ट (Stanley Wolpert) की किताब Massacre at Jallianwala Bagh हाथ लगी तो इसे पढ़ने की त्वरित इच्छा मन में जाग उठी। ये किताब एक कहानी को ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बुनती हुई चलती है। तो चलिए इस किताब के माध्यम से जानते हैं कि कैसे हुआ ये दर्दनाक हादसा! पुस्तक का आरंभ स्टैनले ने 1919 की ग्रीष्म ॠतु के उन आरंभिक महिनों से किया है जब पंजाब का राजनीतिक माहौल रॉलेट एक्ट के विरोध से गर्माया हुआ था। अमृतसर में इस आंदोलन का नेतृत्व तब पक्के गाँधीवादी नेता डा. सत्यवान और बैरिस्टर किचलू कर रहे थे। जब उनके द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शनों में भीड़ की तादाद बढ़ने लगी तो अंग्रेज घबरा उठे। अंग्रेजों की इसी घबराहट का नतीजा था कि दोनों नेताओं को गिरफ्तार कर पंजाब के बाहर भेज दिया गया। अंग्रेजों ने ये सोचा था कि ऍसा करने से आंदोलन शांत हो जाएगा। पर हुआ ठीक इसका उल्टा। शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन नेतृत्वविहीन होने की वज़ह से हिंसात्मक रुख अख्तियार कर बैठा। हुआ ये कि जब क्रुद्ध भीड़ तत्कालीन कलक्टर के यहाँ अपने नेताओं को छुड़ाने के लिए सिविल लाइंस की ओर चली तो रास्ते में एक सेतु पार करते वक्त जुलूस पर गोलियों की वर्षा कर दी गई। लगभग तीस लोग मौत की गोद में सुला दिए गए। इस नृशंस गोलीकांड से बौखलाए लोगों ने शहर के पुराने इलाकों मे छः अंग्रेजों की हत्या कर दी जिसमें एक महिला भी शामिल थी। अंग्रेज चाहते तो बचे हुए नरमपंथी नेताओं की मदद लेकर वे स्थिति को सामान्य बनाने का प्रयास कर सकते थे। पर ऍसा करने के बजाए उन्होंने सेना बुला ली। 12 अप्रैल 1919 को स्थानीय नेताओं ने निर्णय लिया कि आंदोलन की आगे की दशा-दिशा निर्धारित करने के लिए 13 अप्रैल 1919 को जालियाँवाला बाग में एक सभा का आयोजन किया जाए। अंग्रेजी सेना के ब्रिगेडिअर जेनेरल डॉयर ने सुबह में ही लोगों के जमा होने पर निषेधाज्ञा लगा दी। दुर्भाग्यवश वो दिन बैसाखी का दिन था और अगल बगल के गांवों के सैकड़ों किसान सालाना पशु मेले में शहर की स्थितियाँ जाने बगैर, शिरकत करने आए थे। जेनेरल डॉयर ठीक शाम पाँच बजे सभास्थल पर अपने गोरखा जवानों के साथ पहुँचा और बिना चेतावनी के अंधाधुंध फॉयरिंग शुरु करवा दी। बाग में सिर्फ एक ही निकास होने की वजह से लोगों को भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग वहाँ के कुएँ में कूद कर जान गवां बैठे तो कुछ दीवार फाँदने की असफल कोशिश करते हुए। अंग्रेजों के हिसाब से 300 से ज्यादा लोग इस घटना में मारे गए जबकि दस मिनट तक चली इस गोलीबारी में कांग्रेस के अनुसार मरने वाले लोगों का आँकड़ा 1000 के आस पास था. स्टानले वोलपर्ट ने उस समय की घटनाओं का जीवंत विवरण देने के साथ साथ जेनेरल डॉयर के मन को भी टटोलने की कोशिश की है। घटना के बाद देश और विदेशों में निंदित होने के बाद भी जेनेरल डॉयर को रत्ती भर पश्चाताप की अनुभूति नहीं हुई। वो अंत तक ये मानने को तैयार नहीं हुआ कि उसने कुछ गलत किया है। उसने हमेशा यही कहा कि उसने जो किया वो इस ब्रिटिश उपनिवेश की सुरक्षा के लिए किया जो बिना आम जनों के मन में अंग्रेजों का आतंक बिठाए संभव नहीं था। पर इस कांड ने उस मिथक की धज्जियाँ उड़ा दीं जिसके अनुसार अंग्रेज काले और साँवली नस्लों से ज्यादा उत्कृष्ट न्यायपूर्ण, मर्यादित नस्ल हैं जो कि मानवीय गुणों से भरपूर है। 10 अप्रैल से 13अप्रैल तक की अमानवीय घटनाओं और फिर नवम्बर 1919 तक की न्यायिक जाँच तक का विवरण वोलपर्ट ने पूरी निष्पक्षता के साथ दिया है और यही इस पुस्तक की सबसे बड़ी उपलब्धि है। भारत के इतिहास के इस काले दिन के पीछे की घटनाओं को जानने में अगर आपकी रुचि है तो ये किताब आपको पसंद आएगी। देखिए इसी घटना पर आधारित ये वीडिओ पुनःश्च : Stanley Wolpert की ये किताब १९८८ में पेंगुइन इंडिया (Penguin India) द्वारा प्रकाशित की गई थी। फिलहाल नेट पर ये किताब आमेजन डॉट काम पर यहाँ उपलब्ध है।

बुधवार, अप्रैल 08, 2009

' मैं बोरिशाइल्‍ला ' : महुआ माजी का बाँग्लादेश स्वतंत्रता संग्राम पर लिखा पुरस्कृत उपन्यास

वैसे तो एक शाम मेरे नाम पर अब तक कई किताबों की चर्चा हुई है पर आज फर्क सिर्फ इतना है कि इस किताब को पढ़ने के पहले, इसकी लेखिका महुआ माजी को हिंदी दिवस समारोह में देखने सुनने का सौभाग्य मुझे मिला है। मैं बोरिशाइल्ला, राँची की लेखिका महुआ माजी का पहला उपन्यास है जो हमारे पड़ोसी देश, बाँग्लादेश के मुक्ति संग्राम की अमर गाथा कहता है।

समाजशास्त्र से स्नात्कोत्तर करने वाली महुआ माजी जी ने बाँग्लादेश को ही आखिर अपने उपन्यास का विषय क्यूँ चुना? दरअसल लेखिका का ददिहाल ढाका और ननिहाल बारिसाल (बोरिशाल) रहा। इसलिए बंग भूमि से बाहर रहती हुई भी उनके पुरखों की मातृभूमि और वहाँ से आए लोगों के बारे में उनकी सहज उत्सुकता बनी रही।

जैसा कि विषय से स्पष्ट है, इस तरह का उपन्यास लिखने के लिए गहन छान बीन और तथ्य संकलन की आवश्यकता है। महुआ ने जिस तरह इस पुस्तक में मुक्तिवाहिनी के कार्यकलापों का विवरण दिया है, उसमें उनके द्वारा रिसर्च में की गई मेहनत साफ झलकती है। अब अगर आप इस उहापोह में हों कि पुस्तक का शीर्षक मैं बोरिशाइल्ला क्यूँ है तो इसका सीधा सा जवाब है कि आंचलिक भाषा में बांग्लादेश के दक्षिणी हिस्से में अवस्थित इस सांस्कृतिक नगरी बोरिशाल बारिसाल के लोगों को बोरिशाइल्ला कहा जाता है और इस कहानी के नायक केष्टो घोष की कर्मभूमि भी बोरिशाल ही है इसीलिए वो कह सकता है 'मैं बोरिशाइल्‍ला'।

महुआ ने अपनी कथा केस्टो के माध्यम से रची है। केस्टो का बचपन बोरिशाल शहर में बीता और फिर जब उसके पिता की मिठाई की दुकान में आग लग गई तो उसे अपने भाई बहनों के साथ अपने पैतृक गाँव शोनारामपुर जाना पड़ा। केस्टो के बचपन की कहानी कहने में महुआ बंग भूमि का पूरा नज़ारा आपके सामने ला खड़ा करती हैं। गाछ भरा नारियल, पोखर भरी मछली, वोरोज भरा पान और गोला भरा धान जैसे दृश्य रह रह कर उभरते हैं। हर मौसम की अपनी निराली छटा को लेखिका ने अपनी कलम में बखूबी क़ैद किया है। ग्राम बाँग्ला में उतर आई शरद ॠतु के बारे में वो लिखती हैं
"......बरसात खत्म होने के साथ ही आकाश का रंग बदलने लगा। जेठ के मध्य से लगातार रोते रहने के बाद इस आश्विन में आकर आकाश मानों दिल खोलकर हँस पड़ा। स्वच्छ भारहीन बादलों के कुछ झुंड आकाश के हँसते नीले चेहरे पर सफेद दाँतों की तरह चमकने लगे। झूटकलि, मोहनचुड़ा, हरियाल, हल्दिमना, टूनि, बॉगाई जैसे तरह तरह के रंग बिरंगे पक्षी जो बारिश के कारण नज़र नहीं आते थे, झुंड के झुंड पंख पसार कर खुले आकाश में मँडराने लगे। खुले मैदान में जहाँ लम्बे लम्बे धान के पौधे नहीं थे, पानी के ऊपर दूर दिगंत तक मानों फूलों को साम्राज्य बिछा हुआ था। लाल लाल कुमुद फूलों का, जलकुम्भी के नीले नीले मनभावन फूलों का और बड़े बड़े थाल से बिछे हरे पत्तों के बीच सर उठाए खड़े सफेद गुलाबी कमल फूलों का साम्राज्य।....."
आंचलिक परिवेश की प्रस्तुति जमीन से जुड़ी लगे इसके लिए लेखिका ने हिंदी शब्दों को वैसे ही लिखा है जैसे वे बाँग्ला में बोले जाते हैं। साथ ही साथ उन्होंने जगह जगह बंग भूमि के महान कवियों, भटियारी लोक गीतों और मुक्ति संग्राम के प्रेरक नारों को हिन्दी के साथ साथ बाँग्ला में भी लिखा है ताकि पाठक को उस संस्कृति और उस समय के माहौल से अपना सामंजस्य बिठाने में सहूलियत हो।

पूरे उपन्यास को दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहले चरण में लेखिका केस्टो की बचपन की शरारतों से लेकर किशोरावस्था में मुंबई भागने और फिर प्रेम में असफल होकर वापस बोरिशाल में एक बड़े व्यवसायी और बॉडी बिल्डर बनकर अपने आप को स्थापित करने की कहानी कहती हैं। उपन्यास का अगला चरण स्वतंत्र पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से में उभरे भाषाई राष्ट्रवाद की कथा कहता है। पश्चिमी पाकिस्तान के शासकों द्वारा निरंतर बरते जाने वाले भेदभाव, से ये भाषाई राष्ट्रवाद स्वतंत्रता संग्राम में तब बदल जाता है जब चुनावी जीत के बाद पाकिस्तानी शासक शेख मुजीब को सत्ता हस्तांतरित किये जाने से आनाकानी करते हैं।

फिर शुरु होती है मुक्तिवाहिनी के अभ्युदय के साथ पाकिस्तानी शासकों के बर्बर जुल्म की गाथा जो कई जगह रोंगटे खड़ी कर देती है। अगर आप मुक्तिवाहिनी की उत्पत्ति के कारणों, उनके लड़ने के तरीकों और उस कालखंड में पाक सेना द्वारा की गई बर्बरता और भारत द्वारा किए गए परोक्ष और प्रत्यक्ष सहयोग के बारे में विस्तार से जानने में रुचि रखते हों तो ये उपन्यास आपके लिए है। भारत के युद्ध में निर्णायक सहयोग के बावजूद भी बाँग्लादेशियों की भारत के प्रति संदेह करने की प्रवृति और विगत वर्षों में अल्पसंख्यक हिंदुओं के साथ होने वाली दंगाई हिंसा का जिक्र भी एक कचोट के साथ लेखिका ने किया है।

महुआ माजी के इस उपन्यास को पढ़ने के बाद कुछ प्रश्न दिमाग में स्वतः उठते हैं।
क्या धर्म को किसी राष्ट्र की उत्पत्ति का आधार बनना चाहिए ? अगर ऍसा होता तो पाकिस्तान के दो टुकड़े कभी ना बनते। 'मैं बोरिशाइल्ला' की रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए महुआ माजी कहती हैं कि बाँग्लादेश के मुक्ति संग्राम को अपने पहले ही उपन्यास का विषय बनाने का कारण था कि मैं नई पीढ़ी के लिए उसे एक दृष्टांत के रूप में पेश करना चाहती थी कि आज बेशक पूरी दुनिया में सारी लड़ाइयाँ धर्म के नाम पर ही लड़ी जा रही हैं, लेकिन सच तो ये है कि सारा खेल सत्ता का है।
उपन्यास के आखिर में अपनी बात को प्रभावी ढंग से रखते हुए महुआ लिखती हैं

"........तो क्या धर्म से अधिक महत्त्वपूर्ण कुछ और तत्व हैं जो धर्म के साथ शामिल हैं या धर्म उनमें शामिल है। क्या हैं वो तत्त्व ? यह तो हम सबने देखा है कि पूर्वी पाकिस्तानियों के लिए धर्म से अधिक महत्त्वपूर्ण संस्कृति रही। तभी तो बाँग्ला भाषा, साहित्य संस्कृति के लिए भाषा आंदोलन हुआ और आंदोलनों का सिलसिला चल निकला ।
और पश्चिमी पाकिस्तानियों के लिए? उनके लिए निश्चय ही धर्म से अधिक महत्त्वपूर्ण सत्ता रही। वर्चस्व का सुख, शोषण से प्राप्त ऍश्वर्य का सुख हमेशा उनके धर्म पर हावी रहा तभी तो समानधर्मी होते हुए भी वो पूर्वी प्रान्त के लोगों से इतनी क्रूरता से पेश आए जितनी कि कोई विधर्मी भी नहीं आ सकता था।
इसका मतलब धर्म उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना जतलाया जाता है। महत्त्वपूर्ण होते हैं दूसरे कारक। धर्म तो सिर्फ एक मुखौटा है जिसे पहनकर और पहनाकर कुछ स्वार्थी तत्त्व अपना स्वार्थ साधते हैं। ...."


महुआ माजी ने अपने ३९९ पृष्ठों के उपन्यास में रोचकता बनाए रखी है। ' राजकमल' द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास को जुलाई २००७ में 'इंदु शर्मा कथा सम्मान' से नवाज़ा गया था। १५० रुपये की इस पुस्तक को आप नेट पर यहाँ से खरीद सकते हैं।

इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं

असंतोष के दिन, जल्लाद की डॉयरी, गुनाहों का देवता, कसप, गोरा, महाभोज, क्याप, एक इंच मुस्कान, लीला चिरंतन, क्षमा करना जीजी, मर्डरर की माँ, दो खिड़कियाँ, हमारा हिस्सा, मधुशाला, मुझे चाँद चाहिए, कहानी एक परिवार की' , तीन भूलें जिंदगी की

सोमवार, अप्रैल 06, 2009

अकेले देखी पहली फिल्म का वो प्यारा सा नग्मा : प्यार के मोड़ पे छोड़ोगे जो बाहें मेरी

सिनेमा देखना मेरे लिए कभी लत नहीं बना। शायद ही कभी ऍसा हुआ है कि मैंने कोई फिल्म शो के पहले ही दिन जा कर धक्का मुक्की करते हुए देख ली हो। पर इसका मतलब ये भी नहीं कि हॉल में जाकर फिल्म देखना अच्छा नहीं लगता था। बस दिक्कत मेरे साथ यही है कि मन लायक फिल्म नहीं रहने पर मुझे तीन घंटे पिक्चर झेल पाना असह्य कार्य लगता है। इसीलिए आजकल काफी तहकीकात करके ही फिल्म देखने जाता हूँ।

पर बचपन की बात दूसरी थी। दरअसल हमारे पिताजी पढ़ाई लिखाई के साथ परिवार के मनोरंजन का भी खासा ख्याल रखते थे। सो उनकी वजह से हर हफ्ते या फिर दो हफ्तों में एक बार, दो रिक्शों में सवार होकर हमारा पाँच सदस्यों का कुनबा पटना के विभिन्न सिनेमाहॉलों मोना, एलिफिस्टन, अशोक, अप्सरा और वैशाली आदि का चक्कर लगा लेता था। ये सिलसिला तब तक चला जब तक पापा का तबादला पटना से बाहर नहीं हो गया। १९८३ में रिलीज हुई राजेश खन्ना की अवतार सारे परिवार के साथ देखी गई मेरी आखिरी फिल्म थी।

एक बार दसवीं में लड़कों ने स्कूल में फ्री पीरियड का फायदा उठाकर फिल्म देखने की सोची। योजना ये थी कि फ्री पीरियड्स के समय फिल्म देख ली जाए और फिल्म की समाप्ति तक घर पर हाजिरी भी दे दी जाए। अब फिल्म भी कौन सी ? ब्रुक शील्ड की ब्लू लैगून :) । मन ही मन डर रहे थे कि सही नहीं कर रहे हैं। पर साथियों के जोश दिलाने पर स्कूल से बाहर निकल आए, पर ऍन वक़्त पर मुख्य शहर की ओर जाने वाली बस के पॉयदान पर पैर रखकर वापस खींच लिया। दोस्त बस से पुकारते रहे पर मैं अनमने मन से वापस लौट आया।

उसके बाद फिल्म देखना एक तरह से बंद ही हो गया। ८९ में इंजीनियरिंग में दाखिला हुआ तो पहली बार घर से निकले। पहले सेमस्टर की शुरुआत में कॉलेज कैंपस से बाहर जाना तो दूर, रैगिंग के डर से हम हॉस्टल के बाहर निकलना भी खतरे से खाली नहीं समझते थे। जाते भी तो कैसे, प्रायः ऐसी कहानियाँ सुनने को मिलती की लोग गए थे फिल्म देखने पर सीनियर्स ने फिरायालाल चौक पर जबरदस्ती का ट्राफिक इंस्पेक्टर बना दिया। यानि खुद का मनोरंजन करने के बजाए दूसरों की हँसी का पात्र बन गए।

खैर, एक महिने के बाद जब रैगिंग का दौर कम हो गया तो हम दोस्तों ने मिलकर एक फिल्म देखने का कार्यक्रम बनाया। पहली बार अकेले किसी फिल्म देखने के आलावा ये मौका छः साल के अंतराल के बाद सिनेमा हॉल में जाने का था। सीनियर्स से बचने के लिए स्टूडेंट बस की जगह स्टॉफ बस ली और चल दिए राँची के रतन टॉकीज की ओर।


वो फिल्म थी विधु विनोद चोपड़ा की परिंदा। इतने सालों बाद बड़े पर्दे पर फिल्म देखना बड़ा रोमांचक अनुभव रहा। नाना पाटेकर का कसा हुआ अभिनय और माधुरी दीक्षित की मासूमियत भरी खूबसूरती बहुत दिनों तक स्मृति पटल पर अंकित रही। और साथ में छाया रहा इस फिल्म में आशा और सुरेश वाडकर के स्वरों में गाया हुआ ये युगल गीत

प्यार के मोड़ पे छोड़ोगे जो बाहें मेरी
तुमको ढूँढेगी ज़माने में निगाहें मेरी


गाने की जान आशा ताई का गाया ये मुखड़ा ही था जिसके बोल और धुन सहज ही मन को आकर्षित कर लेती थी।

ये वो समय था जब फिल्म जगत ने ही आर डी बर्मन को एक चुका हुआ संगीतकार मान लिया गया था। पर इस फिल्म का संगीत काफी सराहा गया और इस गीत के आलावा तुमसे मिलके ऐसा लगा तुमसे मिलके..भी काफी पसंद किया गया। परिंदा के गीतों को लिखा था खुर्शीद (Khursheed Hallauri) ने। तो आइए सुनें परिंदा फिल्म का ये युगल गीत...


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वैसे आपने अपने दोस्तों के साथ पहली फिल्म कौन सी और कब देखी ? इतना तो तय है कि मेरी तरह आपने इस मौके के लिए कॉलेज जाने तक इंतजार नहीं किया होगा। :)

बुधवार, अप्रैल 01, 2009

सुनें.. हमारे आज के सराकोरों से जुड़ी दुष्यन्त कुमार की एक ग़ज़ल : "मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा..."

जैसा कि कुछ दिनों पहले आपको बताया था कि आजकल जिन किताबों को पढ़ रहा हूँ उनमें दुष्यन्त कुमार की 'साये में धूप' भी है। इस किताब की तारीफ बहुत सुनी थी और राधाकृष्ण प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस किताब को जितना सुना था, उससे बेहतर ही पाया। 
 आज लोग बड़ी संख्या में ग़ज़ल़ को सामाजिक राजनीतिक हालातों से जोड़ कर अपनी बात को कह रहे हैं। पर वहीं दुष्यन्त जी ने तो आज से ३५ वर्ष पहले ही (साये में धूप का पहला संस्करण १९७५ में छपा था) अपनी मारक लेखनी के द्वारा अपने आस पास की गरीबी, भ्रष्टाचार और समाज में बढ़ती संवेदनहीनता को बखूबी चित्रित किया था। दुख की बात ये है कि तीन चार दशक पहले लिखे इन अशआरों को देखने से ये लगता है कि ये आज की स्थिति के लिए लिखे गए हों। ऐसी ही एक ग़ज़ल को आज र पहुँचा रहा हूँ । इसका हर एक शेर मेरे दिल के आर पार निकल गया। 

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा 
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा 

और नीचे के शेर को पढ़ते समय क्या आपको हमारे अफसरशाहों और राजनीतिज्ञों की याद नहीं आती जिनकी योजनाओं के लिए स्वीकृत धन नदी के पानी की तरह उनकी जेब में ठहर जाता है। 

यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ 
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा 

और अगले अशआर हमारे समाज पर ऍसी तीख चोट करते हैं कि कहीं ना कहीं हम आप भी उसकी मार से अपने को लहुलुहान पाते हैं 

ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते 
वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा 

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है 
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा 

कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में 
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं ,ऐसा हुआ होगा 

यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं 
ख़ुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा 

 चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें 
कम-अज़-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा

६० रुपये की ये किताब अगर आप के संग्रह में नहीं है तो इसे जरूर खरीदें।
 

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