सोमवार, जुलाई 20, 2009

बेचारा दिल क्या करे... और घर जायेगी तर जायेगी.. .खुशबू फिल्म में आशा जी के गाए दो बेहतरीन नग्मे

गुलजार, पंचम और किशोर की तिकड़ी ने सत्तर के दशक में तो कई बेमिसाल नग्मे दिए जो भुलाए नहीं भूलते। पर आज मुझे याद आ रही है १९७५ में प्रदर्शित फिल्म खुशबू की जिसमें ओ माझी रे जैसे.... किशोर के सदाबहार नग्मे तो थे ही पर आशा जी के गाए कुछ नग्मे भी बेहद लोकप्रिय हुए थे। आज इसी फिल्म के उन दो गीतों की बात जिसमें गुलज़ार और पंचम के आलावा, जादूगरी थी आशा जी की बेहतरीन गायिकी की।

पहला तो बेचारा दिल क्या करे... जिसे सुनने और गुनगुनाने भर से ही मन मस्ती की एक नई तरंग में डूब जाता है। इस गीत की प्रकृति हिंदी फिल्म जगत में इन अर्थों में भिन्न है कि यहाँ अपने दिल की बात नायिका खुद नहीं कह रही है बल्कि उसके मन के हालातों को उसकी मित्र अपना स्वर दे रही है। वैसे जीवन में ये तो आप सब ने महसूस किया होगा कि जब हमारे मन में चलती भावनाओं को हमारा करीबी मित्र पढ़ लेता है तो हमें मन ही मन खुशी ही होती है। इसलिए गीत में इस खुशी की तरंग सर्वत्र व्याप्त है।

इस गीत का फिल्मांकन फरीदा जलाल पर हुआ था। नायिका थीं हेमा मालिनी और नायक थे जीतेंद्र जिन्होंने इस फिल्म गाँव के डॉक्टर की भूमिका अदा की थी। अगर फिल्म ना भी देखी हो तो गीत क बोलों से आप काफी कुछ समझ गए होंगे।


वैसे गुलज़ार ने पंचम के एक एलबम में गीतों का जिक्र किया तो ये भी बात बाँटी कि आशा जी बेहद सफाईपसंद हैं। और जब भी वो सामने दिखती पंचम ये कहना नहीं चूकते कि लो अब ये मुझसे काम कराएँगी। पंचम ने तो आशा की इस सफाई पसंदी को ध्यान में रखकर उन्हें जन्मदिन के अवसर पर चाँदी के वर्क में लपेट कर एक झाड़ू भी दिया था और जवाब में आशा जी के होठों पर यही गीत था


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बेचारा दिल क्या करे, सावन जले भादो जले
दो पल की राह नहीं, इक पल रुके इक पल चले

गाँव गाँव में, घूमे रे जोगी, रोगी चंगे करे,
मेरे ही मन का, ताप ना जाने, हाथ ना धरे
बेचारा दिल क्या करे, सावन जले भादो जले..

तेरे वास्ते, लाखों रास्ते, तू जहाँ भी चले,
मेरे लिये हैं, तेरी ही राहें, तू जो साथ ले
बेचारा दिल क्या करे, सावन जले भादो जले..



इसी फिल्म के लिए गुलज़ार साहब ने एक और बेहतरीन गीत रचा था जो कि पहले गीत की तरह ही मुझे बेहद प्रिय है।

अब आप ही भला बताइए यौवन की दहलीज़ पर कदम रखती किस लड़की को दुल्हन बनने की इच्छा नहीं होती? और सजना सँवरना तो उनके स्वाभाविक चरित्र का अहम हिस्सा है। पर इस उमंग के साथ एक तरह की बेचैनी भी तो रहती है। एक अनजान से घर में जाने का डर और नए जीवनसाथी के बारे में उठती तरह तरह की हजारों कल्पनाएँ ! इन भावनाओं को गुलज़ार बड़े ही प्यारे अंदाज में समेटा है इस गीत में। और आशा जी की मीठी आवाज़ में इस गीत को सुनने का अपना अलग ही आनंद है।

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घर जायेगी तर जायेगी हो डोलियां चढ़ जायेगी
हो ओ ओ ओ मेहेंदी लगायके रे काजल सजायके रे
दुल्हनिया मर जायेगी
ओ ओ ओ दुल्हनिया मर जायेगी

धीरे धीरे ले के चलना आँगन से निकलना
कोई देखे ना दुल्हन को गली में
हो अँखियां झुकाये हुए घुंघटा गिराये हुए
मुखड़ा छुपाये हुए चली मैं
जायेगी घर जायेगी तर जायेगी
हो घर जायेगी ...

मेहंदी मेहंदी खेली थी मैं तेरी ही सहेली थी मैं
तूने तो कुसुम को चुना था
हो तूने मेरा नाम कभी आँखों से बुलाया नहीं
मैंने जाने कैसे सुना था
जायेगी घर जायेगी ला ला ला
हो घर जायेगी ...


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7 टिप्पणियाँ:

विनोद कुमार पांडेय on जुलाई 20, 2009 ने कहा…

badhiya manish ji,

gulzaar ji ki lekhani ekdam nirali hoti hai..
aap ne hame yah purane galiyaron ka jo shair karaya usake liye aapko
bahut dhanywaad..

aaj kal ke naye naye dhum dhamake se bahut hi alag the tab ke bhavpurn geet..

bahut dhanywaad..

Udan Tashtari on जुलाई 20, 2009 ने कहा…

बहुत आभार इस प्रस्तुति का. आनन्द आया.

दिगम्बर नासवा on जुलाई 20, 2009 ने कहा…

जोरदार गीतों के लिए शुक्रिया.............

Ashish Khandelwal on जुलाई 20, 2009 ने कहा…

इतने बेहतरीन नग़मे ढूंढ़कर लाने और इस अंदाज में पेश करने का आभार..

समयचक्र on जुलाई 20, 2009 ने कहा…

रोचक प्रस्तुति. आनंद आ गया .

कंचन सिंह चौहान on जुलाई 21, 2009 ने कहा…

dono geet karnapriya....! pahala Vividh Bharati aur dusara chitrahaar ka hissa.

hempandey2000@yahoo.com on जुलाई 23, 2009 ने कहा…

पुराने गाने मन को सुकून देते हैं.

 

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