बुधवार, नवंबर 16, 2022

क़िस्सा क़िस्सा लखनउवा Qissa Qissa Lucknowa

क़िस्सा क़िस्सा लखनउवा राजकमल द्वारा प्रकाशित एक ऐसी किताब हैं जो छोटे छोटे चुटीले क़िस्सों के माध्यम से से लखनऊ की तहज़ीब और संस्कृति के दर्शन कराती है। अगर आपका संबंध किसी भी तरह से लखनऊ शहर से रहा है या आप उर्दू जुबां की मुलायमियत के शैदाई हैं तो एक बार ये किताब जरूर पढ़नी चाहिए आपको। हिमांशु ने बड़ी मेहनत से लखनऊ के आवामी किस्से छांटें हैं इस किताब में। हिमांशु खुद भी एक बेहतरीन किस्सागो हैं और वो इन कथाओं को अपनी आवाज में जनता के सामने एक विशिष्ट अंदाज़ में अपने कार्यक्रमों में सुनाते भी रहे हैं। हालांकि मुझे अब तक उन्हें आमने-सामने सुनने का मौका नहीं मिल सका है। इस किताब की प्रस्तावना में हिमांशु लिखते हैं

ये क़िस्सागोई की किताब है। ये मेरे क़िस्से नहीं हैं, मेरे शहर के हैं। मैं फ़क़त क़िस्सागो हूँ। इन्हें सुनाने वाला। ज़बानी रिवायत में क़िस्सा सुनाने के अन्दाज़ को बड़ी अहमियत हासिल है। ये अन्दाज़ ही है जो पुराने क़िस्से को भी नई शान और दिलकशी अता करता है। क्योंकि ये अन्दाज़ हर सुनाने वाले का ‘अपना’ होता है। हो सकता है बहुत से लोगों ने ये क़िस्से पहले सुन रखे हों मगर मैं इन क़िस्सों को अपने अन्दाज़ में सुनाना चाहता था। अपने समय के लोगों को। ख़ासकर उन लोगों को, जिन्होंने ये क़िस्से पहले कभी नहीं सुने। ये उस लखनऊ के क़िस्से हैं जहाँ मैं पैदा हुआ, पला बढ़ा और रहता हूँ, और मैं इस लखनऊ को अपने अन्दाज़ में सबको दिखाना चाहता हूँ। क्योंकि ये मेरे लोगों के क़िस्से हैं। उन लोगों के, जिनके क़िस्से ‘लखनवी’ ब्रांड के क़िस्सों में अक्सर शामिल नहीं किए जाते। ये ‘लखनवी’ क़िस्से नहीं हैं, ये ‘लखनउवा’ क़िस्से हैं।




तकरीबन पौने दो सौ पन्नों की इस किताब के सारे किस्से एक जैसे नहीं हैं। कुछ तो बेहद दिलचस्प हैं, तो कुछ चलताऊ और कुछ थोड़े नीरस भी। इनमें वहां के लोगों की नफ़ासत, हाजिर जवाबी, फ़िक़राकशी, अन्दाज़ ए गुफ़्तगू और खुद्दारी की दास्तान बिखरी पड़ी हैं जो आपको रह रह कर गुदगुदाएंगी। पर इन सारे क़िस्सों में एक क़िस्सा मुझे अब हमेशा याद रहेगा। ये क़िस्सा कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से जुड़ा है। बात 1938 की है जब लखनऊ में ऑल इंडिया रेडियो का स्टेशन खुला था पर वहां के उर्दू माहौल की वजह से निराला रेडियो में अपना कविता पाठ करने से कतराते थे। उस समय के नामी साहित्यकार पढ़ीस के कहने पर वे रेडियो पर अपना काव्य पाठ करने को तैयार हुए आगे क्या हुआ यह लेखक की जुबान में पढ़िए

रेडियो में विशुद्ध उर्दू पृष्ठभूमि के लोगों की भरमार थी जिनमें से बहुत सारे लोग हिन्दी लिखना-पढ़ना तो दूर रहा ठीक से हिन्दी बोलना भी नहीं जानते थे। तब रेडियो में शहज़ादे ‘रामचन्दर’ जलवा-अफ़रोज़ होते थे और राजा ‘दुशियंत’ ‘परकट’ होते थे। ‘परदीप’ से ‘परकाश’ मुंतशिर होता था।

निराला जी स्टेशन पर आए। उन्हें काव्य-पाठ करवाने की ज़िम्मेदारी अयाज़ साहब को मिली। निराला जी और अयाज़ साहब स्टूडियो में गए। बाहर ड्यूटी रूम में ड्यूटी ऑफिसर के अलावा स्टेशन डायरेक्टर मो. हसीब साहब ख़ुद बैठे थे। सब रेडियो पर निराला के ऐतिहासिक काव्यपाठ के साक्षी बनना चाहते थे। मगर निराला जी को स्टेशन तक लाने वाले पढ़ीस जी इस एहतमाम से दूर अपने काम में लगे हुए थे। आख़िर अयाज़ साहब की आवाज़ के साथ लाइव प्रसारण शुरू हुआ—अब आप हिन्दी में कविता-पाठ समाअत फ़रमाइए। कवी हैं—इसके बाद कुछ लडख़ड़ाते हुए बोले—“सूरियाकान्ता तिरपाठा निराली” क़ायदे से इसके तुरन्त बाद निराला जी का काव्यपाठ सुनाई देना था पर उसकी जगह सुनाई दी कुछ ‘हुच्च-हुच्च’ की आवाज़ें। और फिर सन्नाटा हो गया। किसी को कुछ समझ नहीं आया। हसीब साहब चिल्लाए—वाट इज़ दिस। ड्यूटी ऑफिसर हड़बड़ाहट में स्टूडियो की तरफ़ भागा। उसने शीशे से झाँककर जो स्टूडियो के अन्दर देखा तो उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसने किसी तरह फिलर बजवाया और भाग के वापस पहुँचा हसीब साहब के पास। बोला—अयाज़ साहब! अयाज़ साहब! हसीब घबराकर स्टूडियो की तरफ़ भागे। झाँककर देखा तो भीमकाय निराला जी ने अयाज़ साहब की गर्दन अपने बाएँ हाथ के तिकोन में दबोच रखी थी। अयाज़ डर के मारे छटपटा भी नहीं पा रहे थे। निराला जी ग़ुस्से में तमतमा रहे थे, आँखें लाल-लाल थीं मगर जानते थे कि स्टूडियो में हैं इसलिए ख़ामोश थे। निराला जी के ग़ुस्से से सब वाक़िफ़ थे इसलिए किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि अयाज़ साहब को रेस्क्यू करवाए। आख़िर पढ़ीस को बुलवाया गया और उन्होंने अनुनय-विनय करके अयाज़ साहब को मुक्त करवाया। अब निराला जी का ग़ुस्सा पढ़ीस पर निकला। अवधी में बोले—तुमसे कहा रहय कि हमका रेडियो-फेडियो ना लयि चलउ। मुलु तुम न मान्यौ। ऊ गदहा हमका तिरपाठा निराली कहिस। पढ़ीस जी ने हाथ जोड़कर उनसे माफ़ी माँगी। निराला जी आख़िर शान्त हुए। पढ़ीस से बोले—अब हमका हियाँ से लइ चलौ...और इसके बाद बिना कुछ कहे वहाँ से चले आए।
इस किताब की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह नवाबी लखनऊ के ज़माने में आम लोगों के किस्सों को पाठक तक पहुंचाती है। किताब में प्रस्तुत किस्से इस बात की पुरज़ोर वकालत करते हैं कि लखनऊ की तहज़ीब के जो चर्चे किताबों में मिलते हैं उनका श्रेय सिर्फ लखनऊ के नवाबों को नहीं जाता बल्कि उसके सच्चे हक़दार वहां के हर वर्ग के लोग थे जिनके आचार व्यवहार ने लखनऊ को वह पहचान दिलाई। यही वजह है कि इस किताब में आप लखनऊ के रिक्शेवालों, नचनियों, गायकों, विक्रेताओं, खानसामों, फकीरों से लेकर नवाबों का जिक्र पाएंगे।
उस समय के माहौल को पढ़ने वाले के मन में बैठाने के लिए लेखक ने खालिस उर्दू का इस्तेमाल किया है जो वाज़िब भी है पर उर्दू के कठिन शब्दों का नीचे अर्थ न दिया जाना इस किताब की सबसे बड़ी कमजोरी है जो शायद आज के युवाओं को इसका पूरा लुत्फ़ उठाने में अवश्य बाधा उत्पन्न करेगी। आशा है कि किताब के अगले संस्करण इस बात पर ध्यान देंगे।


क़िस्सा क़िस्सा लखनउवा ***

रविवार, नवंबर 13, 2022

हमसे तो वो बेहतर हैं जो किसी के ना हुए Ghazals of new web series Mukhbir

हाल ही में ZEE5 पर आई एक वेब सीरीज का एक संगीत एलबम सुनने को मिला। खास बात ये कि इस एल्बम में दो ग़ज़लें भी थीं। वैसे तो आज के दौर में भी कम ही सही पर युवा कलाकार पुरानी ग़ज़लों को तो बखूबी निभा रहे हैं पर उनकी  गायी नई ग़ज़लों के मिसरों में वो गहराई नहीं दिखती जो ग़ज़ल को सही मायने  ग़ज़ल का रूतबा दिलाने के लिए बेहद जरूरी है।


दरअसल कविता तो ग़ज़ल की आत्मा है जिसके मूड को समझते हुए संगीतकार उसमें अपनी धुन का रंग भरता है और गायक उसके शब्दों के वज़न को समझते हुए अपनी अदाएगी के ज़रिए हर मिसरे के भावों को श्रोताओं के दिल में बैठा देता है। मुझे मुखबिर में शामिल ग़ज़लों को सुनते हुए ये लगा कि शायरी, धुन और गायिकी तीनों को इस तरह से पिरोया गया है कि उनका सम्मिलित प्रभाव एक समां बाँध देता है।

जब आप हमसे तो वो बेहतर हैं  सुनेंगे तो आपको लगेगा कि आप एकदम से साठ सत्तर के दशक में पहुँच गए हैं जब बेगम अख्तर, मेहदी हसन और गुलाम अली जैसे गायकों की तूती बोलती थी और ग़ज़लें  एक परम्परागत तरीके से  गायी जाती थीं। ये ग़ज़ल भी उसी माहौल में रची बसी है क्यूँकि कहानी का काल खंड भी वही है। क्या निभाया है ग़ज़ल गायिकी के उस तौर तरीके को रोंकिनी ने और वैभव ने उन्हें मौका दिया है हर मिसरे में तंज़ की शक्ल में छुपी पीड़ा को अपनी शास्त्रीय अदाकारी से उभारने का। 

ज़िंदगी में हमारा हुनर, हमारा व्यवहार कौशल अपने से दूर खड़े लोगों में भले ही खूबसूरत छवि गढ़ दे पर उसका क्या फायदा जब हम अपनी मिट्टी, अपने शहर और अपने करीबियों के मन को ही ना जीत पाएँ। ऐसे ही व्यक्तित्व के विरोधाभास को उभारा है वैभव मोदी ने अपने शब्दों में।

अभिषेक नेलवाल के संगीत निर्देशन में ग़ज़ल के मिसरों के बीच अभिनय रवांडे का बजाया हारमोनियम मन को लुभाता है। तो आइए सुनिए इस ग़जल को

हमसे तो वो बेहतर हैं जो किसी के ना हुए
इक आप हैं जिसके हैं उसी के ना हुए

परवाज़ को जिनके मिली आसमां की ये रज़ा
कुछ लोग 
हैं ऐसे जो ज़मीं के ना हुए

इक उम्र लग गयी कि कहें वो भी वाह वाह
वो हो गए कायल मगर खुशी से ना हुए

लेते हमारा नाम ये गलियाँ ये रास्ते
पर हम थे जिस शहर के वहीं के ना हुए


एल्बम की दूसरी ग़ज़ल का मिज़ाज थोड़ा नर्म और रूमानियत से भरा है। ज़ाहिर है यहाँ वाद्य यंत्रों का चुनाव भारतीय और पश्चिमी का मिश्रण है। मुखड़े के पहले गिटार की कानों में मिश्री भरती टुनटुनाहट है तो मिसरों के बीच ताली की थपथपाहट के साथ कभी बाँसुरी तो कभी तार वाद्यों की झंकार रोंकिनी का गाना है तो फिर सरगम का सुरीला तड़का तो बीच बीच में रहेगा ही।

अभिषेक की मधुर धुन जहाँ मन को सहलाती  है वहीं वैभव के मिसरे वास्तव में दिल को तसल्ली देते हुए एक उम्मीद सी जगाते हैं।  तेरे सीने पे हर इक रात की सहर हो बस वाला शेर तो कमाल सा करता हुआ निकल जाता है रोंकिनी की आवाज़ इस ग़ज़ल की जान है। क्या निभाया है उन्होंने दोनों ग़ज़लों के अलग अलग मूड को। इस बात को आप तब और महसूस करेंगे जब इसी ग़ज़ल को अभिषेक की आवाज़ में सुनेंगे।


क्या पता फिर से ये सँभल जाए
तेरे आने से दिल बहल जाए

सर्द आहों से बुझ गयी थी कभी
कुछ ऐसा कर ये शमा जल जाए

ये आरजू ये शिकस्त ये तेरे इश्क़ की बाजी
ख़ुदा करे कि तेरा कोई दाँव चल जाए

तेरे सीने पे हर इक रात की सहर हो बस
तेरी बाहों में मेरा दम यूँ ही निकल जाए

गंभीर भावनात्मक गीतों में रोंकिनी अपनी काबिलियत पहले ही साबित कर चुकी हैं पर इन ग़ज़लों में जो रंग उनकी आवाज़ ने भरा उससे उनकी बहुमुखी प्रतिभा की नयी झलक देखने को मिली।


तो बताइए कैसी लगीं आप सबको ये दोनों ग़ज़लें।

गुरुवार, सितंबर 15, 2022

नदी के द्वीप : अज्ञेय Nadi Ke Dweep

पिछले दो महीनों में मैंने पाँच किताबें पढ़ीं और उनमें सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ नदी के द्वीप से जिसे लिखा था अज्ञेय ने। निर्मल वर्मा की तरह अज्ञेय अपने क्लिष्ट लेखन के लिए जाने जाते हैं। इन लेखकों की किताबों को सरसरी निगाह से पढ़ जाने की हिमाकत आप नहीं कर सकते। उनके लिखे को मन में उतारने के लिए समय और मानसिक श्रम की जरूरत होती है। कई बार आप वैसी मनःस्थिति में नहीं रहते इसलिए उनसे कतराने की कोशिश करते हैं। शायद यही वज़ह है कि सैकड़ों पुस्तक पढ़ने के बाद मैं ये साहस कर पाया।

अज्ञेय का वास्तविक नाम सच्चिदानंद हीरालाल वात्सायन था। यूँ तो उन्होंने गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में काफी लेखन किया पर उनके लिखे दो उपन्यास शेखर एक जीवनी और नदी के द्वीप उनके गद्य लेखन की पहचान रहे। उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में जन्मे अज्ञेय भारत के विभिन्न प्रान्तों में रहे उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया और जीवन के कई साल जेल में बिताए। ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अज्ञेय अपने लेखन में अपनी भाषा शैली और अपने पात्रों के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण के लिए जाने जाते हैं।

नदी के द्वीप कमाल का उपन्यास है खासकर अपनी संरचना की दृष्टि से। ले दे के चार मुख्य पात्र जिनमें 3 तो एक प्रेम त्रिकोण का हिस्सा हैं और चौथा अपने कृत्यों से प्रेमी कम खलनायक ज्यादा महसूस होता है। उपन्यास के चारों मुख्य किरदार मध्यम वर्गीय पढ़े लिखे परिवेश से आते हैंखास बात ये है कि इन चारों के बीच का संवाद ज्यादातर पत्रों के माध्यम से चलता है। ज़ाहिर है इनके लिखे पत्र विद्वतापूर्ण है और कई बार दिल के तारों को छू लेते हैं। मसलन भुवन से जब गौरा अपने भविष्य के बारे में मार्गदर्शन चाहती है तो भुवन कितनी सुंदर बात लिख जाता है

"गौरा कोई किसी के जीवन का निर्देशन करे यह मैं शुरू से गलत मानता आया हूं, तुम जानती हो। दिशा-निर्देशन भीतर का आलोक ही कर सकता है; वही स्वाधीन नैतिक जीवन है, बाकी सब गुलामी है। दूसरे यही कर सकते हैं कि उस आलोक को अधिक द्युतिमान बनाने में भरसक सहायता दें। वही मैंने जब-तब करना चाहा है, और उस प्रयत्न में स्वयं भी आलोक पा सका हूं, यह मैं कही ही चुका। तुम्हारे भीतर स्वयं तीव्र संवेदना के साथ मानो एक बोध भी रहा है जो नीति का मूल है; तुम्हें मैं क्या निर्देश देता?"



कभी-कभी ये किरदार प्रत्यक्ष रूप से भी मिल लेते हैं। आपस में बौद्धिक बहसें करते हैं और इन बहसों के बीच अचानक ही गहरा कुछ निकल कर ऐसा आता है जिससे पाठक अज्ञेय की लेखनी से अभिभूत हो जाता है।

"फिर थोड़ा मौन रहा, दोनों सूनी रात को देखते रहे। लोग एक ही आकाश को, एक ही बादल को, एक ही टिमकते तारे को देखते हैं और उनके विचार बिल्कुल अलग-अलग लीकों पर चलते जाते हैं, पर ऐसा भी होता है कि वे लीकें समानांतर हों और कभी ऐसा भी होता है कि थोड़ी देर के लिए वे मिलकर एक हो जाएं; एक विचार, एक स्पंदन जिसमें सांझेपन की अनुभूति भी मिली हो। असंभव यह नहीं है, और यह भी आवश्यक नहीं है कि जब ऐसा हो तो उसे अचरज मानकर स्पष्ट किया ही जाए, प्रचारित किया ही जाए - यह भी हो सकता है कि वह स्पंदन फिर विभाजित हो जाए, विचार फिर समानांतर लीकें पकड़ लें।"

 

हम सब नदी के द्वीप हैं, द्वीप से द्वीप तक सेतु हैं। सेतु दोनों ओर से पैरों के नीचे रौंदा जाता है, फिर भी वह दोनों को मिलाता है एक करता है....!

 

" नीति से अलग विज्ञान बिना सवार का घोड़ा है, बिना चालक का इंजिन : वह विनाश ही कर सकता है। और संस्कृति से अलग विज्ञान केवल सुविधाओं और सहूलियतों का संचय है, और वह संचय भी एक को वंचित कर के दूसरे के हक में; और इस अम्बार के नीचे मानव की आत्मा कुचली जाती है, उसकी नैतिकता भी कुचली जाती है, वह एक सुविधावादी पशु हो जाता है…और यह केवल युद्ध की बात नहीं है, सुविधा पर आश्रित जो वाद आजकल चलते हैं वे भी वैज्ञानिक इसी अर्थ में हैं कि वे नीति-निरपेक्ष हैं : मानव का नहीं, मानव पशु का संगठन ही उन का इष्ट है। "

पर ये भी है कि पुस्तक के कुछ हिस्सों में किरदारों के व्याख्यान इतने गहरे और बोझिल हो जाते हैं कि उनकी एक एक पंक्ति पर दिमाग खपाने का दिल नहीं करता और उन हिस्सों को सरसरी निगाह से पढ़कर निकल जाना होता है बिना गहरे डूबे हुए। अज्ञेय पर पश्चिमी साहित्यकारों का अच्छा खासा प्रभाव रहा है। यही वज़ह है कि डी एच लारेंस व इलियट जैसे प्रख्यात अंग्रेजी कवियों की रचनाओं से पात्रों के माध्यम से पाठक रूबरू होता रहता है।

है तो यह एक प्रेम कथा ही और वो भी बिना किसी ज्यादा घुमाव या तेजी से बदलती घटनाओं के। कथा का कालखंड 80-90 साल पुराना है पर पर जिन व्यक्तित्वों को अज्ञेय ने गढ़ा है वह आज के चरित्रों से बहुत पुराने नहीं हैं। ऐसा इसलिए है कि अज्ञेय की दृष्टि तत्कालीन घटनाओं से ज्यादा व्यक्ति की आंतरिक चिंतन धारा और मानसिक उथल-पुथल पर ज्यादा है और आदमी तो अंदर से एक सदी में भी कहां बदला है?



इसलिए किताब के प्राक्कथन में कहा गया है कि उपन्यास में लेखक ने व्यक्ति के विकसित आत्म को निरूपित करने की सफल कोशिश की है। वह व्यक्ति जो विराट समाज का अंग होते हुए भी उसी समाज की तीव्रगामी धाराओं, भावनाओं और तरंगों के बीच अपने भीतर एक द्वीप की तरह लगातार बनता, बिगड़ता और फिर बनता रहता है। वेदना जिसे मांजती है, पीड़ा जिसे व्यस्क बनाती है और धीरे-धीरे द्रष्टा।

जो विशुद्ध हिंदी भाषा के प्रेमी हैं उन्हें अज्ञेय की लेखनी से सीखने को बहुत कुछ मिलेगा। मैंने तो इस किताब को पढ़ते हुए हिंदी के दर्जन भर ऐसे शब्द जाने जिनका इस्तेमाल मैं तो अब तक नहीं करता था। जो लोग आोशो के दर्शन से प्रभावित हैं उन्हें जानकर अच्छा लगेगा कि हिंदी की प्रिय पुस्तकों में उन्होंने सिर्फ नदी के द्वीप का नाम शामिल किया था।

क्योंकि इस 310 पन्नों के इस उपन्यास को हिंदी की एक क्लासिक किताब का दर्जा प्राप्त है इसलिए आप में से कईयों ने इसे पढ़ा होगा। मैं जानना चाहूंगा कि आपको भुवन, रेखा, गौरा और चंद्र माधव में किस किरदार ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया और क्यूं ?
मुझसे पूछेंगे तो गौरा का सहज व्यक्तित्व मेरे दिल के सबसे करीब रहा। शायद इसलिए कि प्रेम जिस स्वरुप में उसे मिला या नहीं मिला वह उसी में संतोष करती हुई अपने ध्येय को साध्य करने के लिए पूरी मेहनत से जुटी रही। प्रेम में आहत होने के बावजूद उसके प्रेमी के व्यक्तित्व को मलिन करने की चेष्टाएं, उसके विश्वास पर जरा भी असर नहीं करतीं और फिर उसका सहज हास्य बोध मन को तरंगित भी करता रहता है।



नदी के द्वीप : *** 
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रविवार, अगस्त 21, 2022

जो समर में हो गए अमर मैं उनकी याद में Jo Samar Mein Ho Gaye Amar

वैसे तो हर गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस के दिन शायद ही ऐ मेरे वतन के लोगों, मेरा रंग दे बसंती चोला, बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की, मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती जैसे लोकप्रिय गीत न बजते हों। पर कुछ गैर फिल्मी देशभक्ति गीत ऐसे भी हुए जो अपेक्षाकृत कम बजे पर उनके भाव और संगीत ने करोड़ों भारतवासियों के मन में अमिट छाप छोड़ी । आजादी की 75 वीं वर्षगांठ पर आपको अपनी पसंद का एक ऐसा ही देशभक्ति गीत आज सुनवा रहा हूँ । 

लता संगीतकार जयदेव के साथ 

आपको याद होगा कि  सन 62 में भारत चीन युद्ध के बाद ऐ मेरे वतन के लोगों गीत बना था और उसे भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के अनुरोध पर लता जी ने सबके सामने गाया भी था। कहते हैं कि जब मंच से लता जी ने वो गीत गाया था तो पंडित नेहरू की आँखों में आँसू आ गए थे।

उसके बाद 1971 में जब बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिए भारत और पाकिस्तान में युद्ध छेड़ा तो युद्ध के बाद देश के अमर शहीदों के नाम  एक और प्यारा सा गीत लता जी ने गाया था। यह गैर फिल्मी गीत संगीतकार जयदेव ने संगीतबद्ध किया था और इसके बोल लिखे थे पंडित नरेंद्र शर्मा ने। क्या धुन बनाई थी जय देव साहब ने ! कमाल के बोल थे पंडित जी के और इस कठिन गीत को लता जी ने जिस तरह निभाया था शायद ही कोई और वैसा निभा सके। 

लता पंडित नरेंद्र शर्मा को पिता के रूप में  मानती थीं। जब भी वो किसी बात से परेशान होतीं तो वो पंडित जी के पास सलाह मांगने जाती थीं। वही संगीतकार जयदेव के लिए भी उनके मन में बहुत आदर था। नसरीन मुन्नी कबीर को दिए एक साक्षात्कार में लता जी ने बताया था कि
जयदेव वास्तव में जानते थे कि कौन से वाद्य यंत्र गाने में उपयोगी होंगे। वह कभी बहुतायत में वाद्य यंत्रों का उपयोग नहीं करते थे। वह बेहतरीन सरोद बजाते थे और ध्यान रखते थे कि गीत के बोल उत्कृष्ट रहें। जयदेव जी धाराप्रवाह उर्दू और हिंदी बोलते थे। उनका विश्वास था कि गीत के बोल के मायने होने चाहिए और महत्त्व भी।
शायद यही वज़ह थी कि जयदेव जी ने इस गीत के लिए पंडित नरेंद्र शर्मा जैसे मंजे हुए कवि को चुना। पंडित जी विविध भारती के जनक के रूप में मशहूर तो हैं ही, साथ ही वो अपनी लिखी हिंदी कविताओं के लिए भी जाने जाते थे। सत्यम शिवम सुंदरम, प्रेम रोग, सवेरा, भाभी की चूड़ियां जैसी फिल्मों के लिए उनके लिखे गीत आज भी उतने ही चाव से सुने जाते हैं।

लता जी  पंडित नरेंद्र शर्मा के साथ 

जयदेव ने हिंदी की कई छायावादी कविताएं संगीतबद्ध की हैं। उन कविताओं में आशा भोसले का गाया हुआ मैं हृदय की बात रे मन जिसे जयशंकर प्रसाद ने लिखा था और महादेवी वर्मा कृत कैसे तुमको पाऊं आली मुझे बेहद पसंद है।

ऐ मेरे वतन के लोगों की तुलना में इस गीत का मूड भिन्न था। जहां वह गीत युद्ध में हारने के बाद लिखा गया था वहीं ये गीत भारत की जीत के उपलक्ष्य में बनाया गया था। नरेंद्र जी ने यहां उन शहीदों को याद किया है जिनके बलिदान की वजह से भारत युद्ध में विजयी हुआ था और बांग्लादेश अपनी मुक्ति के पथ पर आगे बढ़ पाया था। इसीलिए नरेंद्र जी ने गीत में लिखा .. वो गए कि रह सके, स्वतंत्रता स्वदेश की....विश्व भर में मान्यता हो मुक्ति के संदेश की। लता जी ने इसे भी एक सार्वजनिक सभा में इंदिरा गांधी के की उपस्थिति में लोगों को सुनाया था।

आप जब भी इस गीत को सुनेंगे, जयदेव की सहज पर तबले और बाँसुरी से सजी मधुर धुन आपका चित्त शांत कर देगी। पंडित नरेंद्र शर्मा के शब्द जहाँ अपने वीर सैनिकों के पराक्रम की याद दिलाते हुए मन में गर्व का भाव भरते हैं, वहीं वे परम बलिदान से मिली विजय के उत्सव में उनकी अनुपस्थिति का जिक्र कर आपके मन को गीला भी कर जाते हैं। भावों के साथ जिस तरह गीत के उतार चढ़ाव को लता जी ने अपनी मीठी आवाज़ में समेटा है वो देशभक्ति गीतों की सूची में इस गीत को अव्वल दर्जे की श्रेणी में ला खड़ा करती है।

जो समर में हो गए अमर, मैं उनकी याद में 
गा रही हूँ आज श्रद्धागीत, धन्यवाद में 
जो समर में हो गए अमर... 

लौट कर ना आएंगे विजय दिलाने वाले वीर 
मेरे गीत अंजुलि  में उनके लिये नयन-नीर 

संग फूल-पान के 
रंग हैं निशान के 
शूर-वीर आन के 
जो समर में हो गए अमर...

विजय के फूल खिल रहें हैं, फूल अध-खिले झरे 
उनके खून से हमारे खेत-बाग-बन हरे 

ध्रुव  हैं क्रांति-गान के 
सूर्य  नव-विहान के 
शूर-वीर आन के 
जो समर में हो गए अमर...

वो गए कि रह सके, स्वतंत्रता स्वदेश की 
विश्व भर में मान्यता हो मुक्ति के संदेश की 

प्राण देश-प्राण के 
मूर्ति स्वाभिमान के 
शूर-वीर आन के 
जो समर में हो गए अमर, मैं उनकी याद में 
गा रही हूँ आज श्रृद्धागीत, धन्यवाद में


तो कैसा लगा आपको ये देशभक्ति गीत?

मंगलवार, जुलाई 05, 2022

An Actor's Actor : संजीव कुमार की अधिकृत आत्मकथा

संजीव कुमार हमेशा से हिंदी फिल्म जगत के मेरे पसंदीदा अभिनेता रहे हैं। पत्रिकाओं में उन पर छपे आलेखों से उनके जीवन की थोड़ी बहुत झलकियाँ मिलती रहीं पर ऐसे शानदार अभिनेता पर किसी किताब का ना होना अखरता था। अभी हाल ही में मुझे पता चला कि हनीफ झावेरी और सुमंत बात्रा द्वारा पिछले साल ही ये किताब पेंगुइन द्वारा प्रकाशित की गयी है। हनीफ फिल्म पत्रकार तो हैं ही नाटककारों की संस्था IPTA से भी जुड़े रहे और उसी के माध्यम से संजीव कुमार से उनकी पहली मुलाकात भी हुई। किताब में उनके सहलेखक सुमंत बात्रा वैसे तो वित्तीय सलाहकार और वकील हैं पर संजीव कुमार के बहुत बड़े प्रशंसक भी।

संजीव कुमार को गुजरे दशकों हो गए इसलिए लेखक द्वय के लिए उनसे जुड़ी जानकारियाँ जुटाने का काम ज़रा मुश्किल था। इस काम में ज़रीवाला परिवार और संजीव के संगी साथियों ने हनीफ झावेरी की बड़ी मदद की। सुमंत किताब लिखने के दौरान बाद में जुड़े और उन्होंने बतौर फैन संजीव से जुड़ी जो जानकारियाँ सहेजी थीं वो किताब को अंतिम रूप देने में सहायक हुईं।


करीब दो सौ पन्नों की इस पूरी किताब को चार पाँच हिस्सों में बाँटा जा सकता है। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, स्कूल में अभिनय से उनके लगाव और फिर नाटकों में उनकी हिस्सेदारी से लेकर बी ग्रेड फिल्मों तक उनका सफ़र आरंभिक अध्यायों में समेटा गया है। जानकीदास को अपना सचिव बनाने के बाद हिंदी फिल्मों में किस तरह उन्होंने एक के बाद एक झंडे गाड़े इसकी तो गाथा है ही, साथ ही उन फिल्मों के बनने के दौरान हुए मनोरंजक वाकयों का भी जिक्र है। किताब उनकी फिल्मों के बाहर की ज़िदगी से रूबरू कराती हुई, बीमारी से लड़ते हुए उनके अंतिम दिनों तक ले जाती है।

संजीव का बचपन बड़े उतार-चढ़ाव के बीच बीता। गुजरात से ताल्लुक रखने वाले जरीवाला परिवार ने शुरुआत में व्यापार में अच्छी सफलता हासिल की पर पिता के असमय निधन से और अर्जित संपत्ति पर परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा हथियाने के प्रयास की वजह से उनकी मां शांताबेन को परिवार चलाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा।

इन्हीं संघर्षों के बीच उन्होंने नाटकों की दुनिया में कदम रखा। साथ ही फिल्मालय से अभिनय का प्रशिक्षण भी लिया। नाटकों में कमाल का अभिनय दिखाने के बावज़ूद उन्हें ढंग की फिल्में मिलने में पूरा दशक लग गया। 

गुलज़ार के साथ संजीव कुमार ने अपनी फिल्मी सफ़र के सबसे अहम किरदार निभाए

जो भी संजीव कुमार की अदाकारी को पसंद करता है वह निश्चय ही उनकी आवाज़ और संवाद को अपनी विशिष्ट शैली से बोलने का कायल होगा। क्या आप यकीन कर सकते हैं कि संजीव फिल्म उद्योग में आने के पहले खुद ही अपनी कमजोर आवाज़ के प्रति सशंकित थे? वे निरंतर अपनी संवाद अदायगी का अभ्यास करते। एक ही पंक्ति को तरह तरह से बोलते हुए आवाज़ को तीव्रता से मुलायमियत की ओर ले जाते और उसमें अलग-अलग भावनाओं का पुट भरते हुए बदलाव करते थे। उनकी फिल्मों में इस मेहनत का नतीजा स्पष्ट दिखता है।



किताब में असली आनंद तब आता है जब फिल्मों के इतर आप उनके व्यक्तित्व के उन पहलुओं को पढ़ते हैं जिनके बारे में आप उनके अभिनीत किरदारों से शायद ही अंदाज़ा लगा पाएँ। अपने सहकलाकारों की मदद और उनके आपसी झगड़े सुलझाने की उनकी प्रवृति, उनकी सादगी, सेट पर की उनकी भयंकर लेट लतीफी, सामिष भोजन से उनका अतिशय प्रेम, एक दो पेग ले लेने के बाद उनके चेहरे पर चिपकी प्यारी मुस्कुराहट.. कितना कुछ है इस किताब में जो बतौर व्यक्ति संजीव कुमार के और करीब ले जाता है।

संजीव कुमार के बारे में कहा जाता है कि वह हंसमुख इंसान थे। सेट पर हमेशा कई कई घंटे विलंब से आते पर आने के बाद इस तरह का व्यवहार करते जैसे कुछ हुआ ही ना हो सह कलाकारों के चेहरे पर चढ़ी त्योरियाँ उनकी प्यारी मुस्कुराहट से कुछ पल में ही गायब हो जाती थीं। किताब में उनके ज़िदादिल व्यक्तित्व के कई प्रसंग हैं।
शतरंज के खिलाड़ी में शबाना आज़मी से काम करने के दौरान पूछा गया कि उन्हें  कितने पैसे मिल रहे हैं? शबाना ने पलटकर कहा कि सत्यजीत रे की  फिल्म में काम करने के लिए अगर उन्हें अपने हाथ भी कटवाने पड़े तो वो कटवा लेंगी। पास खड़े संजीव कुमार ने झट से चुटकी ली कि उनके हाथ तो सिप्पी साहब ने शोले में पहले ही कटवा दिए थे इसलिए वह ऐसा नहीं कर पाएंगे।😀
त्रिशूल की शूटिंग में शशि कपूर को एक दिन जल्दी  निकलना था शशि की हड़बड़ी देख संजीव कुमार शर्ट और टाई के साथ लुंगी पहनकर बाहर निकले और कैमरामैन से कहा कि तुम ऊपर से हाफ शॉट लो ताकि लुंगी ना दिखे। वह अलग बात है कि शशि कपूर का हंसते-हंसते इतना बुरा हाल हो गया कि शॉट काफी देर के बाद पूरा हो पाया।😁
किताब का प्राक्कथन शत्रुघ्न सिन्हा द्वारा लिखा गया है जो उनके पारिवारिक मित्र थे।  संजीव कुमार की तरह सेट पर लेट आने में उनका नाम भी हिंदी फिल्म उद्योग मे् स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता है। वे लिखते हैं कि खिलौना की शूटिंग के दौरान जब संजीव जी की इस आदत से निर्माता एल वी प्रसाद परेशान हो गए तो उन्होंने शत्रुघ्न सिन्हा से कहा कि तुम तो उसके दोस्त हो, तुम उसके घर जाकर उसे साथ लेते आया करो। शत्रु जब उनके घर पहुँचते तो शूटिंग के वक्त उन्हें चाय सिगरेट के साथ आराम करता हुआ पाते। शत्रु तब फिल्मों में नए नए थे। उनको तो मानो अपना गुरु ही मिल गया। नतीजन दोनों संग संग विलंब से आने लगे।

प्रसाद जब उन दोनों से सवाल करते तो वे कहते आज माहिम चर्च के पास दो टैक्सी टकरा गयीं तो कभी ये कि माहिम चर्च के पास बस दुर्घटना हो गयी। तंग आकर एल वी प्रसाद ने दोनों से कहा कि तुम लोग परिस्थिति नहीं बदल सकते कम से कम घटना का स्थान तो बदल दिया करो। 😂

संजीव कुमार खाने पीने के बेहद शौकीन थे। अक्सर रात बिरात दोस्तों के घर पहुंच जाते थे। उनके भोजन प्रेम के कई किस्से इस किताब में आपको मिल जाएँगे। एक तो ये रहा :)
एक बार मौसमी चटर्जी अपने पति के साथ घर से निकल ही रही थीं कि संजीव कुमार आ गए। उन्हें जाते देख बस इतना कहा निकल रही हो तो निकलो। बस अपनी कामवाली को कह दो कि कुछ नॉनवेज  बना दे। फिर वह बैठे, फिल्म के वीडियो देखे, खाए पिए और चलते बने। एक बार तो इतनी रात में आ गए कि मौसमी चटर्जी को कहना पड़ा कि आप सिर्फ खाने के लिए यहां आते हैं? अगर ऐसा है तो ड्राइवर को भेज दीजिए हम डिब्बा भिजवा देंगे। 😡
आज भी अंगूर की यादें होठों पर हँसी ले ही आती हैं।

जिन हसीनाओं को संजीव जी से निकटता बनानी होती थी वो उनको डिब्बे भिजवाया करती थीं। संजीव कुमार ने शादी क्यों नहीं की ये प्रश्न भी उनके चाहने वालों के मन में उठता रहा है। किताब में लेखकों ने इस प्रश्न का उत्तर देने की कोशिश की है। प्रेम तो संजीव कुमार ने कई तारिकाओं से किया पर बात कभी बन नहीं पाई। नूतन तो पहले से शादीशुदा थीं और हेमा संजीव व उनके परिवार की शादी के बाद काम ना करने वाली शर्त को मान नहीं पायीं। सुलक्षणा पंडित वाले प्रसंग को एकतरफा बता कर किताब में ज्यादा विस्तार नहीं दिया गया है जो थोड़ा अजीब लगता है क्यूँकि सत्तर के दशक में संजीव कुमार से जुड़ी ख़बरों में सबसे ज्यादा चर्चे उन दोनों के ही होते थे।। 

खानपान पर उनका कोई कंट्रोल नहीं था।  हृदय की बीमारी उनका खानदानी रोग था। यही वज़ह थी कि अपने पिता व भाईयों की तरह ही वो उम्र में पचास का आँकड़ा छुए बिना ही चल बसे। उन्हें इस बात का आभास था
एक बार तबस्सुम ने संजीव कुमार से साक्षात्कार के दौरान पूछा कि वह अपनी उम्र से बड़े किरदार हमेशा क्यों निभाते हैं? संजीव का जवाब था  कि किसी भविष्यवक्ता ने कहा है कि मैं ज्यादा दिन नहीं जिऊंगा और इसीलिए मैं उस उम्र को पर्दे पर ही जी लेना चाहता हूं।

अगर आप संजीव कुमार के प्रशंसक हैं और उनके व्यक्तित्व, उनके शुरुआती संघर्ष और अपने सहकलाकारों के साथ उनके संबंध के बारे में जानना चाहते हैं तो ये किताब निश्चय ही पठनीय है। ए के हंगल, अंजू महेंद्रू, हेमा, राजेश खन्ना, नूतन, शत्रुघ्न सिन्हा, मौसमी चटर्जी, दिलीप कुमार, शर्मीला टैगोर, सारिका, शबाना आज़मी से जुड़े तमाम रोचक किस्से किताब मैं मौज़ूद हैं  जिनमें कुछ का जिक्र मैंने ऊपर किया।

बतौर लेखक हनीफ और बात्रा कहानी कहने की कला में औसत ही कहे जाएँगे, खासकर उन हिस्सों में जहाँ परिवार से जुड़े लोगों के कथ्य प्रस्तुत किए गए हैं। पर संजीव कुमार पर किया गया उनका शोध और उनके साथियों के संस्मरण इस किताब को बेहद रुचिकर बनाते हैं। वे बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने एक ऐसे अभिनेता के जीवन को उसके चाहने वालों के सामने प्रस्तुत किया है जिसके बारे में किताब की शक़्ल में पहले कुछ नहीं लिखा गया।

वैसे इस ब्लॉग पर मेरे द्वारा पढ़ी अन्य पुस्तकों का मेरी रेटिंग के साथ सिलेसिलेवार जिक्र यहाँ पर

An Actor's Actor : *** 

रविवार, जून 26, 2022

चन कित्थाँ गुज़ारी रात वे Chan Kithan Guzari by Ali Sethi

लोकगीतों की एक अलग ही मिठास होती है क्यूँकि उसके बोल जनमानस के बीच से निकलते हैं। उनमें अपने घर आँगन, रीति रिवाज़, आबो हवा की एक खुशबू होती है। उसके बोलों में आप उस इलाके के जीवन की झलक भी सहजता से महसूस कर पाते हैं। यही वज़ह है कि ऐसे गीत पीढ़ी दर पीढ़ी उत्सवों या बैठकी में गाए गुनगुनाते जाते  रहे हैं। ऐसा ही एक लोकगीत जिसे आज आपके सामने पेश कर रहा हूँ वो करीब सौ साल पहले रचा गया और देखिए आज इतने साल बाद भी इंस्टाग्राम पर धूम मचा रहा है। 



ऐसा कहते हैं कि इस गीत को मूलतः पाकिस्तान के ख़ैबर पख्तूनवा राज्य के डेरा इस्माइल खाँ कस्बे से किसी पोखरी बाई बात्रा ने लिखा था। डेरा इस्माइल खाँ में उस वक्त साराइकी भाषा बोली जाती थी जो पंजाबी से बहुत हद तक मिलती जुलती है। बाद में वहीं के प्रोफेसर दीनानाथ ने इसे पहली बार संगीतबद्ध किया। आज़ादी मिलने के बाद संगीतकार विनोद ने 1948 में फिल्म चमन में इसे पुष्पा हंस जी से गवाया। देश के बँटवारे के बाद तो दीनानाथ जी दिल्ली चले आए पर ये लोकगीत सरहद के दोनों ओर पंजाब के गाँव कस्बों में गूँजता रहा।। फिर तो सुरिंदर कौर, अताउल्लाह खान से होते हुए हाल फिलहाल में इसके बदले हुए रूपों को आयुष्मान खुराना और अली सेठी जैसे युवा गायकों ने आवाज़ दी है। 

पर इन सारे गायकों में जिस तरह से अली सेठी ने अपनी गायिकी और गीत की धुन में से गीत के मूड को पकड़ा है वैसा असर औरों को सुन कर नहीं आ पाता। इस लोकगीत को सुनते हुए आप शब्दों का अर्थ ना समझते हुए भी गीत में अंतर्निहित विरह के स्वरों को दिल में गूँजता पाते हैं। चाँद के माध्यम से अपने प्रेमी को उलाहना देते हुए इस लंबे  लोकगीत के सिर्फ दो अंतरे ही अली सेठी ने इस्तेमाल किए हैं पर वही काफी हैं आपका दिल जीतने के लिए

सराइकी में इस तरह के लोकगीत को दोहरा या दोडा कहा जाता है। इसकी दो पंक्तियों के अंतरों में जो पहली पंक्ति होती है वो सिर्फ रिदम बनाने का काम करती है और अर्थ के संदर्भ में उसका दूसरी से कोई संबंध नहीं होता। चलिए इस गीत के बोलों के साथ का अर्थ आपको बता दूँ ताकि सुनने वक्त भाव और स्पष्ट हो जाए। 

चन कित्थाँ गुज़ारी आयी रात वे?
मेंडा जी दलीलां दे वात वे 
चन कित्थाँ गुज़ारी आयी?
चाँद तुमने पिछली रात किसके साथ , कहाँ गुजारी? तुम मुझसे मिलने भी नहीं आए। सारी रात मेरे दिल मुझसे ये सवाल करता रहा और मैं तरह तरह की दलीलें दे कर उसे दिलासा देती रही।
कोठड़े उत्थे कोठड़ा माही 
कोठे सुखदियाँ तोरियाँ 
कोठड़े उत्थे कोठड़ा माही 
कोठे सुखदियाँ तोरियाँ 
कल्लियाँ रातां जाग के असां 
गिनियाँ तेरियां दूरियां 

छत के ऊपर जो छत है वहाँ कल सब्जियाँ सुखाई जा रही थीं वहीं रात में उसी छत पर मैं अकेले जागती हुई सोच रही थी कि तुम मुझसे कितनी दूर हो।
कोठड़े उत्थे कोठड़ा माही
कोठे बैठा कां भला
कोठड़े उत्थे कोठड़ा माही
कोठे बैठा कां बलां
मैं बन जावां माछली तू
बगला बन के आ भला वे
चन कित्थाँ गुज़ारी आयी रात वे.. 
छत के ऊपर जो छत है वहाँ एक कौआ बैठा था और मैं ये सोच रही थी कि काश मैं मछली बन जाती और तुम बगुला बन कर आते और मुझे उठा कर अपने देश में ले जाते।
पाकिस्तान से ताल्लुक रखने वाले 38 वर्षीय अली सेठी पहली बार सुर्खियों में 2009 में आए थे जब उन्होंने The Wish Maker  नाम की एक किताब लिखी थी। उनकी किताब को वो सफलता तो नहीं मिली जिसकी उन्हें  उम्मीद थी।  उसके बाद पिछले एक दशक से संगीत की ओर उनका गंभीरता से झुकाव हुआ। चन कित्थाँ गुज़ारी  रात वे  तो 2017 में लोकप्रिय हुआ पर फिलहाल कोक स्टूडियो में उनका गाया हुआ पसूरी इंटरनेट पर छाया हुआ है। 

इस गीत में भी साद सुल्तान के साथ मिलकर जो उन्होंने माहौल रचा है वो दिल को सुकून पहुँचाता है। गिटार और ढोलक के साथ बीच में बजती बीन खासतौर पर ध्यान खींचती है। अली सेठी की आवाज़ में इस लोक गीत में छुपा दर्द सजीव हो उठता है। तो कभी सुनिए इस गीत को अकेले छत पर बैठे हुए चाँद तारों के साथ और याद कीजिए अपने किसी करीबी को जिससे आप वर्षों से ना मिल पाए हों..
 

 इस गीत को पुष्पा हंस और उसके बाद सुरिंदर कौर ने एक अलग अंदाज़ में गाया था। सुरिंदर कौर को भी सुन लीजिए..

 

बुधवार, जून 08, 2022

निठल्ले की डायरी : हरिशंकर परसाई

पहले जब भी कोई नयी पुस्तक पढ़ता था इस ब्लॉग पर उसकी विस्तृत चर्चा किया करता था। विगत कुछ सालों में ये काम बड़ा श्रमसाध्य लगने लगा था। नतीजा ये हुआ इधर जितनी भी किताबें पढ़ीं, (जिनमें कुछ मित्रों की भी किताबें थीं) उनका जिक्र ना कर सका। कल जब निठल्ले की डायरी को खत्म किया तो लगा कि अगर इसके बारे में भी नहीं लिखा तो बंधु बांधव कहीं मुझे ही निठल्ला ना घोषित कर दें इसीलिए इस आदत को बनाए रखने की फिर से कोशिश कर रहा हूँ।


व्यंग्य की ज्यादा किताबें तो नहीं पढीं पर जब भी इस विधा की बात होती है तो मुझे उर्दू की आखिरी किताब की याद आ जाती है। इब्ने इंशा की लिखी इस किताब को पढ़कर मुझे बेहद आनंद आया था। उसके पहले परसाई जी की ही सदाचार का तावीज़ खरीद कर रखी थी पर थोड़ा पढ़ कर वह रखी ही रह गई।

इसीलिए जब हरिशंकर परसाई जी की बेहद चर्चित पुस्तक निठल्ले की डायरी को पढ़ा तो बहुत कुछ इंशा के व्यंग्य बाणों का तीखा अंदाज़ याद आ गया। वैसे भी भारत और पाकिस्तान के राजनेताओं का मिज़ाज जन जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार और दोनों देशों के आर्थिक और सामाजिक मसले मिलते जुलते ही हैं।

अब देखिए परसाई जी ने यह किताब 1968 में लिखी थी पर उस में उठाए गए मसले आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं और शायद आगे भी रहें क्योंकि वक्त के साथ ना तो नेताओं और नौकरशाहों का चाल चरित्र बदला है ना देश की जनता का। किताब को पढ़ने से ये लगता है कि दशकों से नेताओं को ये पता है कि जनता को कैसे भरमाना है और जनता तो मूर्ख बनने को तैयार ही बैठी है। नेताओं, धर्मात्माओं, नौकरशाहों, व्यापारियों, डॉक्टरों, शिक्षकों के साथ साथ परसाई आम जन के आचार व्यवहार को भी अपने व्यंग्य का निशाना बनाने से नहीं चूकते। 


राजकमल से प्रकाशित 140 पन्ने की इस किताब में अलग-अलग विषयों पर लिखे 25 चुटीले और धारदार व्यंग्यों का समावेश है। पूरी किताब पढ़ने के लिए दो या तीन सिटिंग पर्याप्त है। इसके दो कारण हैं। पहला ये कि लेखक की भाषा ऐसी है जो आम व्यक्ति के दिमाग पर बोझ नहीं बनती और दूसरा कि उनके द्वारा चुने गए रुचिकर प्रसंग पाठक को अपने आसपास की जिंदगी में सहज ही मिल जाते हैं और इसी  वजह से विषय वस्तु से तारतम्य बैठाना आसान हो जाता है।

मिसाल के तौर पर कुछ बानगी देखिए।  भारतीय विश्वविद्यालयों में शोध की स्थिति पर देखिए परसाई जी क्या तड़का लगा रहे हैं
डॉक्टर साहब बोले पहले रिसर्च का अर्थ समझ लो इसका अर्थ है फिर से खोजना यानी जो पहले ही खोजा जा चुका है उसे फिर से खोजना रिसर्च कहलाता है। जो हमारे ग्रंथों में है उसे तुम्हें फिर से खोजना है। भारत के विश्वविद्यालयों में जो प्रोफ़ेसर आज हमारे विरोधी हैं उनके ग्रंथों और निष्कर्षों को तुम्हें नहीं देखना है क्योंकि तब तुम्हारा काम रिसर्च ना होकर सर्च हो जाएगा। दूसरी बात यह है कि विश्वविद्यालय ज्ञान का विशाल कुंड है। इसमें जितना ज्ञान भर सकता है उतना भरा हुआ है। लबालब भरा है यह कुंड। इसमें अगर बाहर से और ज्ञान लाकर भरा जाएगा तो यह कुंड फूट जाएगा। तुम जानते हो घासा बांध टूटने से दिल्ली के आसपास कितना विनाश हुआ था। हर अध्यापक और हर छात्र का यह कर्तव्य है कि इस कुंड में बाहर से ज्ञान जल न जाने दे वरना बांध टूटेगा और विनाश फैले का ऐसे हर छेद पर उंगली रखे रहो जहां से ज्ञान भीतर घुस रहा हो।
आजकल रोज़ सच्चा देश प्रेम क्या है, इस पर बहस चलती रहती है। परसाई जी की एक कथा में जिक्र है कि कैसे एक व्यक्ति के मन में देश सेवा करने की ललक जागी और उसने अपने शहर के दो व्यापारियों के खिलाफ सुबूत के आधार पर कालाबाजारी करने का आरोप लगाया। नतीजा क्या हुआ। देख लीजिए
मैंने कहा जनाब यह बात झूठ है 500 वाले ने तो स्टॉक यहां वहां कर दिया है पर 5000 वाले का गोदाम भरा है। आप अभी चलकर जब्त कर सकते हैं। साहब ने कहा - "जब कुछ है ही नहीं तो जब्त क्या किया जाएगा"? मुझे तो राजधानी से भी खबर मिली है कि उसके पास कुछ नहीं है। यहां खबर जब राजधानी से आती है तब वही सच होती है। हमारी सब खबरें उससे कट जाती हैं। राजधानी की एक आंख हमारी लाख आंखों से तेज होती है। जब वह खुलती है हमारी चौंधियां जाती हैं।😁😁

अगले ही दिन मेरे पीछे सरकार की गुप्तचर विभाग का आदमी लग गया। मैं उसे पहचानता था। पूछा भाई मेरे पीछे क्यों वक्त बर्बाद कर रहे हो? उसने कहा आप पर नज़र रखने का हुक्म हुआ है। मैंने पूछा मगर मैंने ऐसा किया क्या ? उसने जवाब दिया सरकार को खबर मिली है कि आप राष्ट्र विरोधी काम करते हैं। मेरे मुंह से निकला राष्ट्र विरोधी! तो क्या वे लोग ही राष्ट्र हैं?
हम सबको अपनी प्राचीन संस्कृति पर गर्व है उसकी अपनी उपलब्धियों पर अभिमान है पर अगर हम उसी की दुहाई देकर नित्य हो रहे नए अनुसंधान पर आंखें मूंद लें तो क्या वह सही होगा? परसाई कुछ लोगों की ऐसी ही सोच पर व्यंग्य बाण चलाते हुए लिखते हैं

जो लोग टैंक भेदी तोपों की तारीफ करते हैं, वे भूल जाते हैं कि टैंक तो आज बने हैं, पर टैंक भेदी तोपें हमारे यहां त्रेता युग में बनती थीं। भाइयों, कल्पना कीजिए उस दृश्य की। राम सुग्रीव से कह रहे हैं कि मैं बालि को मारूंगा।  सुग्रीव संदेह प्रकट करता है। कहता है बालि महाबलशाली है मुझे विश्वास नहीं होता कि आप उसे मार सकेंगे। तब क्या होता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम धनुष उठाते हैं। बाण का संधान करते हैं और ताड़ के वृक्षों की एक कतार पर छोड़ देते हैं। बाण एक के बाद एक साथ ताड़ों को छेद कर निकल जाता है। सुग्रीव चकित है। वन के पशु-पक्षी खग-मृग और लता-वल्लरी चकित हैं। सज्जनों जो एक बाण से 7 ताड़ छेद डालते थे उनके पास मोटे से मोटे टैंक को छेड़ने की तोप क्या नहीं होगी? भूलिए मत हम विश्व के गुरु रहे और कोई हमें कुछ नहीं सिखा सकता।😀

जैसा कि व्यंग्य से जुड़ी किताबों में होता है परसाई जी के सारे आलेख एक जैसे मारक नहीं है। पर छः सात आलेखों को छोड़ दें तो बाकी में वे अपनी बात तरीके से कहने में सफल रहे हैं। कुल मिलाकर मैं तो यही कहूँगा कि ये किताब आप सबको पढ़नी चाहिए अगर ना पढ़ी हो। वैसे इस ब्लॉग पर मेरे द्वारा पढ़ी अन्य पुस्तकों का मेरी रेटिंग के साथ सिलेसिलेवार जिक्र यहाँ पर

निठल्ले की डायरी : *** 



बुधवार, मई 11, 2022

मैं कैसे कहूँ जानेमन, तेरा दिल सुने मेरी बात : जगजीत का गीत जननी कामाक्षी की आवाज़ में

जगजीत सिंह यूं तो आधुनिक ग़ज़ल के बेताज बादशाह थे पर उन्होंने समय समय पर हिंदी फिल्मों के लिए भी बेहतरीन गीत गाए। अर्थ, साथ साथ, प्रेम गीत, सरफरोश जैसी फिल्मों में उनके गाए गीत तो आज तक बड़े चाव से सुने और गुनगुनाए जाते हैं। पर इन सब से हट कर उन्होंने कुछ ऐसी अनजानी फिल्मों के गीत भी निभाए जो बेहद कम बजट की थीं और ज्यादा नहीं चलीं या फिर ऐसी जो बनने के बाद रिलीज भी नहीं हो पाईं।


एक ऐसी ही फिल्म थी नर्गिस जिसमें राजकपूर की आखिरी फिल्म हिना से मशहूर होने वाली जेबा बख्तियार के साथ थे नसीर और हेमा जी। पर इतने नामचीन कलाकारों के होते हुए भी ये फिल्म रुपहले परदे का मुंह नहीं देख पाई। फिल्म का संगीत दिया था पंचम के मुख्य सहायक बासु चक्रवर्ती ने और बोल थे मजरूह सुल्तानपुरी साहब के।

हालांकि बाद में फिल्म का म्यूजिक एलबम जरूर रिलीज़ हुआ जिसमें जगजीत और लता जी का एक युगल गीत भी था। बासु ने पंचम के लिए तो काम किया ही साथ में वे कम बजट की ऐसी फिल्मों में भी बतौर संगीतकार संगीत देते रहे। मनोहारी सिंह के साथ मिलकर उनका काम सबसे बड़ा रुपैया में काफी सराहा गया था। किशोर लता के युगल स्वरों में दरिया किनारे एक बंगलो की मस्ती को कौन भूल सकता है।

जब मैं रुड़की में था तो मेरे एक मित्र जो कि जगजीत के बड़े प्रशंसक थे ने मुझे अपनी कलेक्शन से ये नग्मा सुनाया। जगजीत की आवाज़ के साथ मुखड़े में मजरूह की कविता मुझे इतनी प्यारी लगी थी कि मैं उनके कमरे से ये पंक्तियां गुनगुनाता हुआ निकला था
शफ़क़ हो, फूल हो, शबनम हो, माहताब हो तुम
नहीं जवाब तुम्हारा, कि लाजवाब हो तुम
मैं कैसे कहूँ जानेमन, तेरा दिल सुने मेरी बात
ये आँखों की सियाही, ये होंठों का उजाला
ये ही हैं मेरे दिन–रात...

शफ़क़ (सूर्य के निकलने और डूबने के समय क्षितिज पर दिखाई देनेवाली लाली), माहताब (चंद्रमा), शबनम (ओस)

जाहिर है कॉलेज के दिन थे तो ऐसी आशिकाना शायरी दिल को ज्यादा ही लुभाती थी
कुछ दिनों पहले जननी कामाक्षी की आवाज़ में ये मुखड़ा फिर सुना तो वे दिन फिर एक बार याद आ गए। मुंबई में बतौर Information System Auditor के रूप में कार्य कर रहीं जननी कामाक्षी कर्नाटक संगीत में तो प्रवीण हैं ही, फिल्मी गीतों, भक्ति संगीत और ग़ज़लों को भी गाहे बगाहे अपनी मधुर आवाज़ से तराशती रहती हैं। तो सुनिए उनके स्वर में जगजीत जी का ये गीत



काश तुझको पता हो, तेरे रुख–ए–रौशन से
तारे खिले हैं, दीये जले हैं, दिल में मेरे कैसे कैसे
महकने लगी हैं वहीं से मेरी रातें
जहाँ से हुआ तेरा साथ, मैं कैसे कहूँ जानेमन

रुख–ए–रौशन (चमकता हुआ चेहरा), गुल (फूल)

पास तेरे आया था मैं तो काँटों पे चलके
लेकिन यहाँ तो कदमों के नीचे फर्श बिछ गये गुल के
के अब ज़िन्दगानी, है फसलें बहाराँ
जो हाथों में रहे तेरा हाथ, मैं कैसे कहूँ जानेमन


 

बासु ने इस गीत को रचा भी क्या खूब कि बिना किसी संगीत के भी मन इस नग्मे के मीठे मीठे ख्यालातों को सुनकर हल्का हो जाता है। जगजीत की आवाज़ में ये रूमानियत सुनने वालों को एक ऐसे मूड में ले जाती थी जहाँ से निकलने में घंटों लग जाते थे। जननी ने तो इस गीत का सिर्फ मुखड़ा गाया पर वो भी इतने सुर में और अपनी खनकती मधुर आवाज़ के साथ कि जगजीत सुनते तो वे भी बेहद खुश होते।

गुरुवार, अप्रैल 07, 2022

वार्षिक संगीतमाला 2021 Top Songs of 2021 तेरी झलक अशर्फी श्रीवल्ली Srivalli

वार्षिक संगीतमाला में पिछले साल के शानदार पन्द्रह गीतों की कड़ी में आख़िरी गीत फिल्म पुष्पा से। ये गीत कौन सा है ये तो आप समझ ही गये होंगे क्यूँकि पिछले साल के अंतिम महीने से लेकर आज तक ये गीत लगातार बज रहा है वो भी अलग अलग भाषाओं में। देशी कलाकार तो एक तरफ, ये गीत विदेशी कलाकारों को भी अपने मोहपाश में बाँध चुका है। हाल ही में मुंबई पुलिस के बैंड द्वारा सामूहिक रूप इसकी धुन की प्रस्तुति चर्चा का विषय बनी हुई है। जी हाँ ये गीत है श्रीवल्ली जिसकी अद्भुत संगीत रचना करने वाले देवी श्री प्रसाद बताते हैं कि इस धुन की रूप रेखा उन्होंने पाँच मिनट में ही गिटार पर बजा कर बना डाली थी। इस गीत की धुन इतनी पसंद की जायेगी ये उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था🙂



उत्तर भारतीय संगीत प्रेमियों के लिए देवी श्री प्रसाद भले ही अनजान हों पर तेलुगू फिल्म उद्योग में वो जाना पहचाना नाम हैं। शायद ही आपको पता हो कि उन्हें उनके प्रशंसक प्यार से  DSP RockStar के नाम से बुलाते हैं। पच्चीस सालों के अपने लंबे कैरियर में नौ फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित DSP अपनी धमाकेदार धुनों के लिए जाने जाते हैं। इसी फिल्म के लिए उनका गीत उ अन्टवा मावा..उ उ अन्टवा मावा.. इस साल का सबसे जबरदस्त डांस नंबर साबित हुआ है पर जहां तक श्रीवल्ली का सवाल है तो वो एक ऐसे आशिक का प्रेम गीत है जिसे ये शिकायत है कि उसकी महबूबा उसके प्यार को अनदेखा कर रही है।

देवी श्री प्रसाद 

DSP ने इस फिल्म के हिंदी वर्जन को लिखने के लिए अपने पुराने मित्र रक़ीब आलम को चुना जो उनकी पहली फिल्म देवी में भी उनके साथ रहे थे। रक़ीब बहुभाषी गीतकार हैं। दक्षिण भारतीय भाषाओं में लिखने के आलावा वे स्लमडॉग मिलयनियर और गैंगस्टर जैसी फिल्मों के गीत लिख चुके हैं।

दक्षिण भारतीय फिल्में जब डब होकर हिंदी में आती हैं तो गीतकार के पास वो रचनात्मक आज़ादी नहीं होती क्यूँकि तब तक मूल भाषा में गीत बन चुका होता है और हिंदी में बस उसका भावानुवाद करना होता है। रक़ीब आलम को जब इसके मूल तेलुगू बोल मिले तो मुखड़े की एक पंक्ति का अर्थ कुछ यूँ था कि तुम्हारी झलक सोने की चमक सी बेशकीमती है। अब हिंदी में मुखड़े का मीटर जम नहीं पा रहा था तो रक़ीब  उर्दू जुबान की शरण में गए और नायिका के लिए जो विशेषण चुना वो था अशर्फी।

अशर्फी में सोना और चमक दोनों मायने निहित थे। उर्दू से अनजान लोग मुखड़े में इस्तेमाल किए जुमले "बातें करे दो हर्फी" को सुनकर असमंजस में पड़ जाते हैं। दरअसल फिल्म की नायिका नायक को ज़रा भी भाव नहीं देती और कुछ पूछने पर भी दो हर्फी जवाब देती है जैसे हाँ, ना, क्यूँ, अच्छा। यहाँ हर्फ का मतलब अक्षर से है। 

वहीं मदक बर्फी से गीतकार का अभिप्राय नायिका की नशीली मादक आँखों से हैं। गीत में हिंदी का वही मादक शब्द मीटर में लाने के लिए मदक में बदल दिया गया है। हालांकि आंखों की तुलना बर्फी से करना सोहता तो नहीं पर अशर्फी से तुक मिलान  के लिए शायद गीतकार को ये करना पड़ा। कई लोगों ने मुझसे मुखड़े की इस गुत्थी को सुलझाने के लिए कहा था। तो अब तो आप समझ गए होंगे मुखड़े के पीछे गीतकार की सोच

तेरी झलक अशर्फी श्रीवल्ली, नैना मदक बर्फी
तेरी झलक अशर्फी श्रीवल्ली, बातें करे दो हर्फी

भगवान जो कि छुपा हुआ है उस के लिए तो नायिका पूजा अर्चना में लीन है पर नायक की आँखों में बसा प्रेम उसे नज़र नहीं आता। इसी भाव को गीत में उतारते हुए रक़ीब ने लिखा

नज़रें मिलते ही नज़रों से, नज़रों को चुराये
कैसी ये हया तेरी, जो तू पलकों को झुकाये
रब जो पोशीदा है, उसको निहारे तू
और जो गरवीदा है, उसको टाले तू

बाकी गीत की भाषा रकीब ने ऐसी रखी है जो नायक के किरदार के परिवेश के अनुरूप है। जावेद अली ने इस गीत में अपनी आवाज़ की बनावट में जगह जगह परिवर्तन किया है। वो कहते हैं आवाज़ में बदलाव का ऐसा प्रयोग उन्होंने इस गीत के लिए पहली बार किया और ऐसा करते समय उन्होंने  किरदार के थोड़े रूखे आक्रामक व्यक्तित्व का भी ध्यान रखा। 

जावेद अली और रक़ीब आलम के साथ देवी श्री प्रसाद

पर इस गीत के असली हीरो देवी श्री प्रसाद ही हैं। ये उनकी इस मधुर धुन की ही ताकत है कि भाषा की दीवार लाँघता हुआ ये गीत देश विदेश में इतना लोकप्रिय हो रहा है। गीत की शुरुआत वो गिटार और ताल वाद्यों की संगत में सारंगी पर बजाई गीत की सिग्नेचर ट्यून से करते हैं। गीत में जो सवा दो मिनट के बाद से बैंजो पर मधुर टुकड़ा बजता है उसे स्वयम् देवी प्रसाद ने बजाया है जबकि सारंगी पर मनोनमणि की उँगलियाँ थिरकी हैं।

इस गीत में अभिनेता अल्लू अर्जुन का चप्पल निकलने वाला स्टेप आम लोगों से लेकर बड़े बड़े कलाकारों और खिलाड़ियों को इतना पसंद आया कि उस पर सबने हजारों छोटे छोटे वीडियो  बना डाले। गीत की बढ़ती लोकप्रियता में उनके स्टाइल का भी असर जबरदस्त है।



वैसे तो श्रीवल्ली को इतने लोगों ने गाया है कि उसका कोई एक कवर वर्सन चुन कर सुनाना एक मुश्किल काम है पर जिस तरह जुड़वाँ बहनों किरण और निवि साईशंकर ने ये इस गाने का टुकड़ा गाया है उससे मुझे गीत के  तेलुगू शब्द भी भाने लगे। गीत के मुखड़े और अंतरे के अंत में लिया उनका आलाप इस गीत को अलग ही ऊँचाइयों पर ले जाता है।

वार्षिक संगीतमाला 2021 

इस संगीतमाला के सारे गीतों की चर्चा तो हो चुकी। अब इन पन्द्रह गीतों को अपनी पसंद के क्रम में सजाइए और मुझे भेज दीजिए मेरे फेसबुक पेज मेल या यहाँ कमेंट में। जिसकी पसंद का क्रम मेरे से सबसे ज्यादा मिलेगा वो होगा हर साल की तरह एक छोटे से इनाम का हक़दार।

गुरुवार, मार्च 24, 2022

वार्षिक संगीतमाला Top Songs of 2021 : तेरे रंग रंगा मन महकेगा तन दहकेगा Tere Rang

वार्षिक संगीतमाला के आखिरी मोड़ तक पहुँचने में बस दो गीतों का सफ़र तय करना रह गया है। अब आज के गीत के बारे में बस इतना ही कहना चाहूँगा कि जिन्हें भी भारतीय शास्त्रीय संगीत से थोड़ा भी प्रेम होगा उन्हें संगीतमाला में शामिल इस अनूठे गीत के मोहपाश में बँधने में ज़रा भी देर नहीं लगेगी। ये गीत है ए आर रहमान के संगीत निर्देशन में बनी फिल्म अतरंगी रे का। मुझे पूरा यकीन है कि ये गीत आपमें से बहुतों ने नहीं सुना होगा पर गुणवत्ता की दृष्टि से मुझे तो ये फिल्म अंतरंगी रे ही नहीं बल्कि पिछले साल के सर्वश्रेष्ठ गीतों में एक लगा।


यूँ तो पूरी फिल्म में रहमान साहब का संगीत सराहने योग्य है पर इस गीत को जिस तरह से उन्होंने विकसित किया है तमाम उतार चढ़ावों के साथ, वो ढेर सी तारीफ़ के काबिल है। इतनी बढ़िया धुन को अगर अच्छे बोल नहीं मिलते तो सोने पे सुहागा होते होते रह जाता। लेकिर इरशाद कामिल ने प्रेम के रंगों में रँगे इस अर्ध शास्त्रीय गीत को बड़े प्यारे बोलों से सजाया है। गीत में बात है वैसे प्रेम की जैसा राधा से कृष्ण ने किया हो। गीत का आग़ाज़ द्रुत गति के बोलों से  इरशाद कामिल कुछ यूँ करते हैं

तक तड़क भड़क, दिल धड़क धड़क गया, अटक अटक ना माना
लट गयी रे उलझ गयी, कैसे कोई हट गया, मन से लिपट अनजाना
वो नील अंग सा रूप रंग, लिए सघन समाधि प्रेम भंग
चढ़े अंग अंग फिर मन मृदंग, और तन पतंग, मैं संग संग..और कान्हा

गीत को गाया है कर्नाटक संगीत के सिद्धस्त गायक हरिचरण शेषाद्री ने नये ज़माने की स्वर कोकिला श्रेया घोषाल के साथ। चेन्नई के एक सांगीतिक पृष्ठभूमि से आने वाले हरिचरण दक्षिण भारतीय फिल्मों के लिए नया नाम नहीं हैं पर हिंदी फिल्मों में संभवतः ये उनका पहला गीत है। 

हरिचरण शेषाद्री श्रेया घोषाल के साथ

रहमान साहब ने हिंदी फिल्मों में ना जाने कितने हुनरमंद कलाकारों को मौका देकर उनके कैरियर को उभारा है। साधना सरगम, नरेश अय्यर, बेनी दयाल, चित्रा, श्रीनिवास, विजय प्रकाश, अभय जोधपुरकार, चिन्मयी श्रीपदा, शाशा तिरुपति... ये फेरहिस्त दिनोंदिन लंबी होती ही जाती है। इसीलिए सारे नवोदित गायकों का एक सपना होता है कि वो रहमान के संगीत निर्देशन में कभी गा सकें। हरिचरण इसी जमात के एक और सदस्य बन गए हैं।

हरिचरण भी रहमान के कन्सर्ट में बराबर शिरकत करते रहे हैं। जिस आसानी से इस बहते हुए गीत को उन्होंने श्रेया घोषाल के साथ निभाया है वो मन को सहज ही आनंद से भर देता है।

मुरली की ये धुन सुन राधिके, मुरली की ये धुन सुन राधिके, मुरली की ये धुन सुन राधिके

धुन साँस साँस में बुन के, धुन सांस सांस में बुन के
कर दे प्रेम का, प्रीत का, , मोह का शगुन

मुरली की ये धुन सुन राधिके...

हो आना जो आके कभी, फिर जाना जाना नहीं
जाना हो तूने अगर, तो आना आना नहीं
तेरे रंग रंगा, तेरे रंग रंगा
मन महकेगा तन दहकेगा

तुमसे तुमको पाना, तन मन तुम..तन मन तुम
तन से मन को जाना..उलझन गुम...उलझन गुम
तुमसे तुमको पाना तन मन तुम
जिया रे नैना, चुपके चुपके हारे
मन गुमसुम, मन गुमसुम

डोरी टूटे ना ना ना, बांधी नैनो ने जो संग तेरे
देखे मैंने तो, सब रंग तेरे सब रंग तेरे
फीके ना हो छूटे ना ये रंग

तेरे रंग रंगा.. शगुन

इस अर्ध शास्त्रीय गीत में क्या नहीं है तानें, आलाप, कोरस, मन को सहलाते शब्द, कमाल का गायन, ताल वाद्यों की थाप के बीच चलते गीत के अंत में बाँसुरी की स्वरलहरी और इन सब के ऊपर रहमान की इठलाती धुन जो तेरे रंग रंगा, तेरे रंग रंगा मन महकेगा तन दहकेगा.. तक आते आते दिल को प्रेम रस से सराबोर कर डालती है। 


निर्देशक आनंद राय रहमान के इस जादुई संगीत से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इस म्यूजिकल के अंत में A film by A R Rahman का कैप्शन दे डाला। आनंद तो यहाँ तक कहते हैं कि मेरा बस चले तो मैं रहमान के सारे गानों को सिर्फ अपनी फिल्मों के लिए रख दूँ। वहीं श्रेया कहती हैं कि ऊपरवाला रहमान के हाथों संगीत का सृजन करता है। स्वयम् ए आर रहमान इस फिल्म की संगीत की सफलता का श्रेय इसकी पटकथा को देते हुए कहते हैं कि 

जिस फिल्म की कथा देश के एक कोने से दूसरे कोने तक जा पहुँचती है तो बदलती जगहों और किरदारों के अनुसार संगीत को भी अलग अलग करवट लेनी पड़ती है। मैं शुक्रगुजार हूँ ऐसी कहानियों को जो संगीत में कुछ नया करने का अवसर हमें दे पाती हैं।

वार्षिक संगीतमाला 2021 में अब तक

 

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