गुरुवार, दिसंबर 14, 2017

किसे पेश करूँ : जब साहिर ने मदन मोहन के लिए लिखे एक ही रदीफ़ पर तीन नग्मे Kise Pesh Karoon ?

ग़ज़लों को संगीतबद्ध करने में अगर किसी संगीतकार को सबसे ज्यादा महारत हासिल थी तो वो थे मदन मोहन। ग़ज़लों के सानिध्य में वो कैसे आए इसके लिए आपको उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में एक बार झाँकना होगा। मदन मोहन के पिता इराक के पुलिस विभाग में मुनीम थे। बगदाद में ही मदन मोहन का जन्म हुआ। पर जब इराक अंग्रेजों के चंगुल से निकल आजाद हुआ, मदनमोहन का परिवार बगदाद से पहले लाहौर और फिर मुंबई आ कर बस गया। 

मदन मोहन के पिता तो उस वक्त बाम्बे टॉकीज़ में नौकरी करने लगे वहीं मदन मोहन ने पढ़ाई के बाद फौज में जाना मुनासिब समझा। पर संगीत के प्रति बचपन से रुझान रखने वाले मदन मोहन को लगा कि उन्होंने अपने व्यवसाय का गलत चुनाव कर लिया है। लिहाजा फौज की नौकरी से इस्तीफा दे कर उन्होंने संगीत से जुड़कर काम करने के लिए लखनऊ की राह पकड़ी। वो वहाँ आल इंडिया रेडियो  में सहायक संगीत संयोजक का काम करने लगे। यहीं उनकी मुलाकात ग़ज़ल गायिका बेगम अख्तर और उभरते हुए गायक तलत महमूद से हुई। यही वो समय था जब ग़ज़लों को करीब से सुनने व परखने का मौका मदन मोहन को नजदीक से मिला।


यूँ तो एक शाम मेरे नाम पर मदन मोहन की संगीतबद्ध कई ग़ज़लों का जिक्र हो चुका है पर आज आपसे मैं बात करना चाहूँगा 1964 में प्रदर्शित हुई एक ऐसी फिल्म की जिसका नाम ही "ग़ज़ल" था। आगरे की सरज़मी पर रची इस कहानी में गीतों को लिखने का जिम्मा मिला था साहिर लुधियानवी को। मिलता भी ना कैसे? कहानी का नायक ही शायर जो  था। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि एक जैसी बहर, रदीफ़ और काफिये के साथ साहिर ने इस फिल्म में दो ग़ज़लें और एक गीत लिखा। साहिर ने इन तीनों में रदीफ़ के तौर पर "किसे पेश करूँ" का इस्तेमाल किया। पर ये मदन मोहन साहब की कारीगिरी थी कि इन मिलते जुलते गीतों के लिए उन्होंने ऐसी धुन तैयार की वो सुनने में बिल्कुल अलग अलग लगते हैं।

सुनील दत्त और मीना कुमारी द्वारा अभिनीत इस प्रेम कहानी का खाका ये तीनों नग्मे खींचते से चलते हैं। जहाँ नायिका पहली ग़ज़ल में  हमदम की तलाश में अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रही हैं तो दूसरी ग़ज़ल में उनकी गायिकी से प्रभावित होकर शायर महोदय अपने दिल में पैदा हुई हलचल की कहानी पेश कर रहे हैं। वहीं अपनी प्रेमिका से ना मिल पाने की तड़प इसी फिल्म के अन्य गीत रंग और नूर की बारात किसे पैश करूँ..  में नज़र आती है। रंग और नूर की बारात .. तो इस फिल्म का सबसे लोकप्रिय नग्मा रहा पर उसी मीटर में साहिर ने जो दो ग़ज़लें लिखी वो कम खूबसूरत नहीं थीं। तो आइए सुनें इन दोनों ग़ज़लों को लता और रफ़ी की आवाज़ में

नग़्मा-ओ-शेर की सौगात किसे पेश करूँ
ये छलकते हुए जज़्बात किसे पेश करूँ

शोख़ आँखों के उजालों को लुटाऊँ किस पर
मस्त ज़ुल्फ़ों की स्याह रात किसे पेश करूँ

गर्म सांसों में छुपे राज़ बताऊँ किसको
नर्म होठों में दबी बात किसे पेश करूँ

कोइ हमराज़ तो पाऊँ कोई हमदम तो मिले
दिल की धड़कन के इशारात किसे पेश करूँ




साहिर के खूबसूरत बोलों से मुझे सबसे ज्यादा न्याय लता की आवाज़ करती है। वैसे भी लता दी ने मदन मोहन के लिए जो गीत गाए उनकी अदाएगी बेमिसाल रही।

 

इश्क़ की गर्मी-ए-जज़्बात किसे पेश करूँ
ये सुलग़ते हुए दिन-रात किसे पेश करूँ

हुस्न और हुस्न का हर नाज़ है पर्दे में अभी
अपनी नज़रों की शिकायात किसे पेश करूँ

तेरी आवाज़ के जादू ने जगाया है जिन्हें
वो तस्सव्वुर, वो ख़यालात किसे पेश करूँ

ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल, ऐ मेरी ईमान-ए-ग़ज़ल
अब सिवा तेरे ये नग़मात किसे पेश करूँ

कोई हमराज़ तो पाऊँ कोई हमदम तो मिले
दिल की धड़कन के इशारात किसे पेश करूँ

जहाँ तक रंग और नूर की बारात किसे पैश करूँ. का ताल्लुक है तो उस गीत का दर्द रफ़ी की आवाज़ में पूरी ईमानदारी से झलका था।  वैसे इन तीनों में आपको कौन सी ग़ज़ल/ गीत प्यारा लगता है?

बुधवार, नवंबर 22, 2017

रिश्तों के सारे मंज़र चुपचाप देखता हूँ Rishton ke Sare Manzar...

जगजीत सिंह के जाने के बाद ग़ज़ल के एलबमों का अकाल सा हो गया है। संगीत कंपनियों को लगता है कि लोगों को ख़ालिस ग़ज़ल की समझ नहीं है इसलिए ग़ज़लों के जो इक्का दुक्का एलबम रिलीज़ होते हैं उनमें सम्मिलित ग़ज़लों के बोल इतने छिछले होते हैं कि वो ग़ज़ल कम हल्के फुल्के गीत ज्यादा लगते हैं।  यही वज़ह रही है कि पिछले सालों में नामी कलाकारों की फेरहिस्त होने के बावज़ूद ऐसे एलबम अपनी कोई विशेष छाप नहीं छोड़ पाए। दरअसल ग़ज़लों की रुह उनके शब्दों में बसती है। दो पंक्तियों के मिसरे में गहरे से गहरे भाव को कह देने की सलाहियत ही ग़ज़ल को विशिष्ट बनाती है। ग़जल में अरबी फारसी शब्दों का ज्यादा समावेश ना हो पर उसके भाव गहरे हों, इन दो बातों में संतुलन बिठाने में जगजीत सिंह को महारत हासिल थी। खूबसूरत कविता और उसपर उनकी आवाज़ सोने पे सुहागा का काम करती थी।

आवाज़ें तो आज भी हमारे पास हैं पर गायकों और निर्माताओं द्वारा एलबम में सही ग़ज़लों का चुनाव इस युग की सबसे बड़ी समस्या है। संगीत निर्माताओं को समझना चाहिए कि ग़ज़लों को सुनने समझने वाला एक अपेक्षाकृत  छोटा ही सही पर एक प्रबुद्ध वर्ग है जो आज यू ट्यूब के ज़माने में भी अच्छी ग़ज़लों को हाथों हाथ वायरल बना सकता है। ग़ज़लों के सरलीकरण से ऐसा ना हो कि वे ना तो आम श्रोता तक पहुँच पाएँ ना खास तक।

कुछ दिनों पहलें ग़ज़लों की तलाश मुझे एक ऐसे एलबम तक ले गई जो आज से चार साल पहले एक नई कंपनी रेड रिबन ने रिलीज़ की थी। नए पुराने कलाकारों का एक अच्छा संगम था इस एलबम में। एक ओर राशिद खाँ, अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन, अनूप जलोटा जैसे उस्ताद ग़ज़ल गायक थे तो दूसरी ओर सोनू निगम, कविता कृष्णामूर्ति, जावेद अली और अरिजीत सिंह जैसे मशहूर पार्श्व गायकों की आवाज़ें भी। एलबम का नाम था कुछ दिल ने कहा। पूरे एलबम में कुल ग्यारह ग़ज़लें थी जिन्हें लिखा था गुजराती ग़ज़लकार हर्ष ब्रह्मभट्ट ने।


आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हर्ष ब्रह्मभट्ट गुजरात सरकार में अतिरिक्त सचिव के पद से रिटायर हुए। प्रशासनिक सेवा में योगदान करते हुए पिछले दो दशकों में उनके कई ग़ज़ल संग्रह जैसे कंदील, सरगोशी, मेरा अपना आसमान, ख़ामोशी है इबादत आदि प्रकाशित हुए। जहाँ तक इस एलबम की बात है मैं ये तो नहीं कहूँगा कि मुझे सारी ग़ज़लें पसंद आयीं पर कुछ तो निश्चय ही दिल को छू गयीं। उनमें से एक थी...आसमां की परी सी लगती हो जिसे सुनकर दिल खुश हो गया और मैंने इसे रिकार्ड कर लिया। आप भी सुनिए

आसमां की परी सी लगती हो
तुम मुझे ज़िंदगी सी लगती हो

फूल भी सज़दे करते हों जिसको
ऐसी दिलकश कली सी लगती हो

खुशबू दिल की ज़मीं से आती है
तुम इस पर चली सी लगती हो


सादगी का सरापा हो पैकर
और फिर भी सजी सी लगती हो


यानि सिर से पैर तक तुम सादगी की प्रतिमूर्ति पर तुम्हारा लावण्य कुछ ऐसा है कि तुम फिर भी सजी सी लगती हो।


इस ग़ज़ल को एलबम में हुसैन बंधुओं ने अपने चिरपरिचित अंदाज़ में गाया है। वो ग़ज़ल आप यहाँ सुन सकते हैं।

वैसे पूरे एलबम में इतने नामचीन गायकों में सबसे ज्यादा मन को सुकून दे गए अरिजीत सिंह। आपको याद होगा कि हैदर में अरिजीत ने मेहदी हसन की मशहूर ग़ज़ल गुलों में रंग भरे को निभाने की ईमानदार कोशिश की थी। फिर यू ट्यूब पर आज जाने की ज़िद ना करो को गाने का प्रयास सराहा गया था। पर ये दोनों अपने आप में मशहूर ग़ज़लें थीं। कुछ दिल ने कहा में उनकी गायिकी को इस रूप में सुनना एक ताज़ी हवा सा लगा। उन्हें सुनकर ये समझ आता है कि फिल्मी गीतों के साथ साथ ग़ज़ल गायिकी में भी वो नाम कमा सकते हैं बशर्ते उन्हें सही मौके मिलें।

ज़िंदगी के खट्टे मीठे अनुभवों से गुजरते हुए अंत में एक वक़्त ऐसा आता है जब हम माज़ी के उन लमहों को मन के तराजू में तौलते हैं। ये ग़ज़ल उन्हीं लमहों को फिर से जिंदा करती चलती है।  ग़ज़ल का संगीत संयोजन भी कर्णप्रिय और इसका श्रेय जाता है मशहूर भजन व ग़ज़ल गायक अनूप जलोटा को।

रिश्तों के सारे मंज़र चुपचाप देखता हूँ
हाथों में सबके खंजर चुपचाप देखता हूँ

जिसमें पला है मेरे बचपन का लम्हा लम्हा
उजड़ा हुआ सा वो घर चुपचाप देखता हूँ

धरता है कितने तोहमत मुझपे वजूद मेरा
जब भी मैं दिल के अंदर चुपचाप देखता हूँ

वो रहगुज़र कभी जो मंज़िल की इब्तिदा थी
उसको मैं अब पलटकर चुपचाप देखता हूँ

हाथों में सबके खंजर हाथों में सबके खंजर
रिश्तों के सारे मंज़र चुपचाप देखता हूँ


(इब्तिदा - आरंभ)

शनिवार, नवंबर 04, 2017

तू जो मेरे सुर में, सुर मिला ले, संग गा ले... Tu jo Mere Sur Mein..Songs of Chitchor

बहुत कम ही ऐसी फिल्में होंगी जिसका हर एक इक नग्मा मकबूलियत की सीढ़ियाँ चढ़ने में कामयाब रहा हो। चितचोर ऐसे ही एक फिल्म थी जिसके चारों गाने बेहद मशहूर  हुए। येशुदास की शानदार आवाज़, हेमलता का सुरीला साथ और रवींद्र जैन के सहज व कोमल बोलों और अद्भुत संगीत की वज़ह से ही ये कमाल संभव हो पाया था। पिछले महीने आपसे बाते हुई थी चितचोर के दो गीतों जब दीप जले आना.. और गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा के बारे में। आज चर्चा करते हैं इसी फिल्म के अन्य दो गीतों की।
  
आज से पहले आज से ज्यादा इस फिल्म का सबसे  खुशनुमा गाना था जो  गाँव की जुबान पर वक़्त चढ़ गया था। गीत की लय, शब्दों की धनात्मक उर्जा और उस पर येशुदास की आवाज़ को सुनकर श्रोता इसे गुनगुनाने को मजबूर हो जाया करते थे।

आज से पहले आज से ज्यादा
खुशी आज तक नहीं मिली
इतनी सुहानी ऐसी मीठी
घड़ी आज तक नहीं मिली

इसी फिल्म का एक बेहद सुरीला गीत था तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले.....  जिसमें येशुदास का साथ दिया था हेमलता ने। राजश्री प्रोडक्शंस तमाम फिल्मों में रवींद्र जैन ने हेमलता से बड़े प्यारे नग्मे गवाए हैं। अक्सर लोग जानना चाहते हैं कि रवींद्र जैन हेमलता के संपर्क में कैसे आए और उन्होंने लता के बजाए हेमलता को इतना प्रश्रय क्यूँ दिया?  इस प्रश्न का जवाब देने के लिए आपको हेमलता के हिंदी फिल्म संगीत में बतौर पार्श्वगायिका स्थापित होने के पहले के सफ़र को जानना होगा। 


हेमलता के पिता पंडित जयचंद भट्ट लाहौर के किराना घराने से जुड़े प्रख्यात शास्त्रीय गायक व संगीतज्ञ थे। संगीत का माहौल बचपन से होने के बावज़ूद हेमलता के मारवाड़ी ब्राह्मण पिता रूढ़िवादी विचारों के थे और लड़कियों के सार्वजनिक रूप से गायन को अच्छा नहीं मानते थे। पर हेमलता को बचपन से ही गाने में रुचि थी। तब हेमलता का परिवार कोलकाता में रहा करता था। उनकी प्रतिभा को देखते हुए उनके पिता के एक शिष्य ने चुपके से दुर्गा पूजा के उपलक्ष्य में हो रहे संगीत समारोह में सात साल की हेमलता को गाने का मौका दे दिया। उस कार्यक्रम में रफ़ी, किशोर, हेमंत व लता जैसे मशहूर पार्श्व गायकों को बुलाया गया था। हेमलता ने जब लता जी का गाना गाया तो भीड़ अति उत्साहित हो उठी और उनसे और गाने की फर्माइश करने लगी। नतीजा ये हुआ कि उन्हें उस दिन  एक के बजाए एक दर्जन गीत गाने पड़े और आयोजकों ने उनकी इस उपलब्धि पर उन्हें बेबी लता का नाम देकर एक गोल्ड मेडल भी दे डाला। इस कार्यक्रम में उनके पिता को भी बुलाया गया था। उनकी गायिकी को सुन पिता का भी दिल पसीज़ा और वो उन्हें मुंबई भेजने को राजी हो गए।

हेमलता

हेमलता के मुंबई जाने के कुछ साल पूर्व रवींद्र जैन संगीत प्रभाकर बनने के बाद उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता आए थे। उन्होंने इस दौरान पंडित जयचंद भट्ट से भी शिक्षा ली। यहीं उनकी मुलाकात बेबी लता यानि हेमलता से हुई। गुरु से सीखने के बाद वो अपनी कुछ रचनाएँ हेमलता से भी गवाते। हेमलता को हिंदी फिल्मों में पहला मौका रवींद्र जैन ने नहीं दिया। हेमलता कुछ दिनों तक संगीतकार नौशाद की शागिर्द रहीं पर उन्होंने अपने पहले कुछ गीत उषा खन्ना और कल्याणजी आनंदजी के लिए गाए।

सत्तर के दशक में जब रवींद्र जैन अपने को स्थापित कर रहे थे तब हेमलता सौ से ज्यादा गीत गा चुकी थीं पर ये भी सच है कि हेमलता के ढीले ढाले चलते कैरियर में पंख रवींद्र जी ने ही लगाए। फकीरा का उनका खूब लोकप्रिय हुआ गीत फकीरा चल चला  चल रवींद्र जैन का ही संगीतबद्ध था।

लता जी रवींद्र जैन की पसंदीदा गायिका थीं पर एक तो उन्हें नया संगीतकार होने की वज़ह से लता जी का समय नहीं मिल पाता था और दूसरी ओर लता भी उनकी नई नई आवाजों को ज्यादा बढ़ावा देने के रवैये से खुश नहीं रहती थीं। यही वज़ह रही कि हेमलता का नाम रवींद्र जैन के रचे संगीत में बारहा आता रहा।

लौटते हैं चितचोर के इस गीत की तरफ़। रवींद्र जैन अपनी फिल्मों में पार्श्व संगीत  यानि Background Music से लेकर अपने गाने के संगीत संयोजन को खुद ही देखते थे। उनका मानना था कि हर गीत में एक आत्मा होती है जो उसके राग और रचना से मिल कर निकलती है। इसीलिए गीतों के अंदर वाद्य यंत्रों का संयोजन इस तरह से होना चाहिए कि संगीत गीत की आत्मा के अनुरूप बहे। तू जो मेरे सुर में.. को उन्होंने राग पीलू पर संगीतबद्ध किया था। इस गीत के इंटरल्यूड्स में बाँसुरी, सितार और तबले की संगत देखते ही बनती है। उनका कमाल इस बात में था कि वो सरगम को भी इन इंटल्यूड्स में खूबसूरती से पिरोते थे। 

मुझे ये बड़ा ही सच्चा सहज और अपना सा गीत लगता है। वक़्त के साथ प्रेम को व्यक्त करने के तौर तरीके बदल भले गए हों पर मुझे तो अभी भी प्रेम की परिभाषा का एक रूप रवींद्र जैन के इन बोलों में उतर आया दिखता है जब वो कहते हैं...चाँदनी रातों में, हाथ लिए हाथों में....डूबे रहें एक दूसरे की, रस भरी बातों में...तू जो मेरे संग में, मुस्कुरा ले, गुनगुना ले....तो ज़िंदगी हो जाए सफ़ल..तू जो मेरे मन को..

हेमलता को इस गीत के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायिका का फिल्मफेयर एवार्ड मिला था जबकि गोरी तेरा गाँव के लिए येशुदास राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने में सफल रहे थे। तो आइए एक बार फिर सुनें इस गीत को


तू जो मेरे सुर में, सुर मिला ले, संग गा ले
तो ज़िंदगी हो जाए सफ़ल
तू जो मेरे मन को, घर बना ले, मन लगा ले
तो बंदगी हो जाए सफ़ल...तू जो मेरे सुर में

चाँदनी रातों में, हाथ लिए हाथों में
डूबे रहें एक दूसरे की, रस भरी बातों में
तू जो मेरे संग में, मुस्कुरा ले, गुनगुना ले
तो ज़िंदगी हो जाए सफ़ल..तू जो मेरे मन को..

क्यूँ हम बहारों से, खुशियाँ उधार लें
क्यूँ ना मिलके हम खुद ही अपना जीवन सँवार लें
तू जो मेरे पथ में, दीप उगा ले हों उजाले
तो बंदगी हो जाए सफ़ल..तू जो मेरे सुर में..


गुरुवार, अक्तूबर 19, 2017

जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना..अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए Jalao Diye Par Rahe Dhyan Itna

दीपावली एक ऐसा पर्व है जिसे अकेले मनाने का मन नहीं होता। दीपावली के पहले की सफाई से लेकर उस दिन एक साथ पूजा करना, बड़ों से आशीर्वाद लेना ,बच्चों की खुशियों में साझेदार बनना मुझे हमेशा से बेहद पसंद रहा है।  खुशकिस्मत हूँ की मेरा कार्य मुझे ऐसे दीपावली मना पाने की सहूलियत देता है। पर सेना, पुलिस , अस्पताल और अन्य जरुरी सेवाओं में लगे लोगों को देखता हूँ तो मन में यही ख्याल आता है कि  काश  जंग ही नहीं होती, अपराध नहीं होते , लोग आपस में खून खराबा नहीं करते तो इन आकस्मिक और जरुरी सेवाओं की फेरहिस्त भी छोटी हो जाती। दरअसल एक साथ जुटने , खुशियों को बांटने के अलावा ये प्रकाशोत्सव  हमें मौका देता है की हम अपनी उन आंतरिक त्रुटियों को दूर करें ताकि घृणा , वैमनस्य, हिंसा जैसी भावनाएँ हमारे पास भी न भटकें।

आख़िर दीपावली में हम अपने घर भर में उजाला क्यों करते हैं? इसीलिए ना कि बाहर फैली रौशनी की तरह हमारा अंतर्मन भी प्रकाशित हो। हम सब के अंदर का कलुष रूपी तमस दीये की लौ के साथ जलकर  सदविचार में तब्दील हो सके। हिंदी के प्रखर कवि  गोपाल दास नीरज की एक कविता याद आ रही है जिसमें उन्होंने इसी विचार को अपने ओजपूर्ण शब्दों से संवारा था ।




जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,
उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए।

जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए।

जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधेरे घिरे अब
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए

जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

इस कविता के माध्यम से कवि ये कहना चाहते हैं कि दीपावली में दीपक जलाकर रोशनी करना तो उत्सव का एक रूप है जो कि रात तक सिमट जाता है। पर वास्तव हमें ये पर्व ये संदेश देता है कि असली दीवाली तब मनेगी जब इस संपूर्ण संसार के लोगों के हृदय अंदर से जगमग हो जाएँ। ये तभी संभव हो पाएगा हर मानव के अंदर सदाचार, ईमानदारी व कर्मठता का दीप जल उठेगा।


दीपावली का ये मंगल पर्व एक शाम मेरे नाम के पाठकों के लिए खुशिया लाए  और हम  सब को एक बेहतर मानव बनने को प्रेरित कर सके इन्हीं आशाओं  और शुभकामनाओं के साथ!

रविवार, अक्तूबर 15, 2017

जब दीप जले आना, जब शाम ढले आना Songs of Chitchor : Jab Deep Jale Aana ...Part- I

रवींद्र जैन को गुजरे दो साल हो गए हैं। नौ अक्टूबर 2015 को उन्होंने हमसे विदा ली थी।  यूँ तो करीब चार दशकों के सक्रिय कैरियर में उन्होंने दर्जनों फिल्में की पर सत्तर के दशक में राजश्री प्रोडक्शन के लिए उन्होंने जो काम किया वो उनका सर्वश्रेष्ठ रहा। कल उनके उसी दौर के संगीतबद्ध गीत सुन रहा था और चितचोर पर आकर मेरी सुई जो अटकी तो अटकी ही रह गयी। ग्रामीण परिवेश में बनाई हुई एक रोमांटिक और संगीतमय फिल्म थी चितचोर। अमोल पालेकर और जरीना वहाब द्वारा अभिनीत इस फिल्म के हिट होने का एक बड़ा कारण इसका संगीत था। यूँ तो सिर्फ चार गीत थे फिल्म में पर रवींद्र जैन ने अपने बोलों और संगीत से श्रोताओं के मन में जो जादू जगाया था वो आज चार दशकों तक क़ायम है।

 
चितचोर 1976 में आई थी। तब तो मेरी संगीत सुनने की उम्र नहीं थी। पर इस फिल्म के गीतों की लोकप्रियता इतनी थी कि अस्सी के दशक में रेडियो पर कोई महीना नहीं गुजरता था जब चितचोर के गीत ना सुनाई पड़ते हों। इनमें जो गीत सबसे ज्यादा बजता था वो था गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा..। राग पलासी और लोकसंगीत को जोड़ता हुआ ये गीत येशुदास की  हिंदीभाषी जनमानस में लोकप्रियता का बड़ा बीज बो गया। गीत की धुन तो कमाल थी ही कुछ रूपक भी बेमिसाल थे मसलन रूप तेरा सादा चंद्रमा ज्यूँ आधा आधा जवाँ रे। रवींद्र जी देख तो सकते नहीं थे फिर भी अपने आस पास की प्रकृति को उन्होंने हृदय के कितना करीब से महसूस किया था वो इन पंक्तियों से सहज व्यक्त होता है

जी करता है मोर के पाँवों में पायलिया पहना दूँ
कुहू कुहू गाती कोयलिया को, फूलों का गहना दूँ
यहीं घर अपना बनाने को, पंछी करे देखो
तिनके जमा रे, तिनके जमा रे


बहरहाल ये गीत रेडियो ने मुझे इतना सुनाया कि वक़्त के साथ इस गीत से मेरा लगाव घटता चला गया। वैसे भी शहरी जीवन में ना तो गाँव के नज़ारे थे और ना ही गोरी की नज़ाकत। हाँ फिल्म के बाकी गीत जरूर दिल के ज्यादा करीब रहे। जिन दो गीतों को आज भी मैं उतने ही चाव से सुनता हूँ उनमें से एक है राग यमन पर आधारित जब दीप जले आना, जब शाम ढले आना..।



यूँ तो हिंदी फिल्मों में येशुदास की आवाज़ को लाने का श्रेय रवींद्र जैन को दिया जाता है पर  रिलीज़ के हिसाब से देखें तो फिल्म छोटी सी बात जो चितचोर के पहले उसी साल जनवरी में प्रदर्शित हुई थी के गीत जानेमन जानेमन तेरे दो नयन.... से येशुदास के हिंदी फिल्म कैरियर की शुरुआत हुई थी। पर अगर आप येशुदास के सबसे लोकप्रिय गीतों का चुनाव करेंगे तो पाएँगे कि उनमें से लगभग आधे रवींद्र जैन के संगीतबद्ध किए हुए होंगे। इन दो कलाकारों के बीच बड़ा प्यारा सा रिश्ता था जिसे इसी बात से समझा जा सकता है कि रवींद्र जैन ने एक बार ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी कि अगर उन्हें कभी देखने का अवसर मिला  तो वो सबसे पहले येशुदास को ही देखना चाहेंगे।

ये उनका प्रेम ही था कि उन्होंने अपनी सबसे अच्छी रचनाएँ येशुदास से गवायीं। वो उन्हें भारत की आवाज़ कहते थे। रवींद्र जी के लिखे संगीतबद्ध गीतों को येशुदास की आवाज़ ने एक आत्मा दी। गोरी तेरा गाँव.. में अपने गायन के लिए तो उन्होंने राष्ट्रीय पुरस्कार तक जीता।

ये उस माहौल की बात है जब सांझ आते ही गाँव के हर घर में दीपक जल जाया करते थे।  कुछ तो है इस शाम के DNA में ।आख़िर यही तो वो वेला होती है जिसमें प्रेमी एक दूसरे को बड़ी विकलता से याद किया करते हैं। रवींद्र जी ने ऍसा ही कुछ सोचकर इस गीत का मुखड़ा दिया होगा। बाँसुरी के साथ समायोजित उनके इंटरल्यूड्स भी बेहद मधुर हैं। गीत के बोलों में वो अंतरा मुझे बेहद प्यारा लगता है जिसमें रवींद्र बड़ी रूमानियत से लिखते हैं कि मैं पलकन डगर बुहारूँगा, तेरी राह निहारूँगा..मेरी प्रीत का काजल तुम अपने नैनों में मले आना, उफ्फ दिल में कितनी मुलायमियत सँजोये था ये संगीतकार।

जब दीप जले आना, जब शाम ढले आना
संकेत मिलन का भूल न जाना मेरा प्यार ना बिसराना
जब दीप जले आना ...

मैं पलकन डगर बुहारूँगा, तेरी राह निहारूँगा
मेरी प्रीत का काजल तुम अपने नैनों में मले आना
जब दीप जले आना ...


जहाँ पहली बार मिले थे हम, जिस जगह से संग चले थे हम
नदिया के किनारे आज उसी, अमवा के तले आना
जब दीप जले आना ...

नित साँझ सवेरे मिलते हैं, उन्हें देख के तारे खिलते हैं
लेते हैं विदा एक दूजे से कहते हैं चले आना
जब दीप जले आना ...


चितचोर के बाकी दो गीतों में मुझे कौन पसंद हैं वो तो आप जानेंगे इस लेख की अगली कड़ी में। फिलहाल तो ये गीत सुनिए येशुदास और हेमलता जी की आवाज़ों में...

शनिवार, अक्तूबर 07, 2017

मैंने इक किताब लिखी है... सज्जाद अली Tera Naam by Sajjad Ali

सज्जाद अली की आवाज़ से पहली बार मैं फिल्म बोल के गीत दिल परेशां है रात भारी है से परिचित हुआ था और तबसे मैं उनकी आवाज़ का शैदाई हूँ। यूँ तो उन्होंने हर तरह के गीत लिखे हैं पर उदासी भरे गीतों में उनकी गायिकी का कमाल देखते ही बनता है। कुछ ही महीने पहले मैंने आपको उनकी आवाज़ में आफ़ताब मुज़्तर की लिखी ग़ज़ल हर जुल्म येरा याद है भूला तो नहीं हूँ सुनवाई थी। ये उनकी आवाज़ का ही असर है कि संगीतप्रेमियों को तो इसका हर  शेर दिल में नासूर सा बन कर रह रह कर टीसता है। तुम नाराज हो में मामूली से शब्द को भी अपनी गायकी से वे श्रोताओं  के दिल के करीब ले आते हैं। यही वज़ह है कि संगीतकार ए आर रहमान तक उनकी प्रतिभा का लोहा मानते हैं।


ऍसा ही जादू वो एक बार फिर जगाने में सफल रहे हैं कोक स्टूडियो के नए सीजन 10 में। फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार उनके लफ़्ज़ रूमानियत की चाशनी में घुले हैं और उदासी की बजाए गीत की मधुरता और संगीत का रिदम मन को खुश कर देता है। अपने इस गीत के बारे में वो कहते हैं
"बहुत साल पहले मैंने एक रोमांटिक गाना बनाया था जिसके बोल थे मैंने इक किताब लिखी है, उस किताब के पहले सफ़े पे तेरा नाम लिखा है। बस इतना ही लिखा था। कुछ महीने पहले  कोक स्टूडियो के लिए इस गाने को पूरा लिखना था। पर जब मैं लिखने बैठा तो ये गाना काग़ज़ पर इस तरह उतरता गया कि ये एक हम्द (भगवान की स्तुति में गाया जाने वाला गीत) बन गयी।"
बहरहाल मुझे तो ये गीत अभी भी प्रेम में डूबे हुए आशिक़ का ही नज़र आता है जिसके दिलो दिमाग पर बस एक ही चेहरा है, एक ही आवाज़ है, एक ही अस्तित्व है और वो है अपनी माशूका का। सज्जाद की आवाज़ की चंचलता मन को लुभाती है वहीं गीत की धुन झूमने पर मजबूर कर देती है।

पर अगर आप सज्जाद का नज़रिया देखें तो किताब के पन्ने ज़िंदगी के अलग अलग मोड़ पर परवरदिगार को खोजने परखने और अपने उत्तरों को पाने की कोशिश का पर्याय बन जाते हैं।

सज्जाद इस गीत के संगीतकार भी हैं। इस गीत को उन्होंने जब पहली बार लिखा था तभी एक धुन उनके दिमाग में थी। उनकी कोशिश यही थी कि जो रिदम उन्होंने गीत के लिए सोची थी उसी में चीजें आती जाएँ और अपनी जगह उसी रिदम में बनाती जाएँ। गीत में गिटार, वायलिन और ताल वाद्यों की धनक के साथ बाँसुरी का अच्छा मिश्रण है। तो सुनिए एक बार ये गीत feel good का अहसास देर तक तारी रहेगा...

मैंने इक किताब लिखी है
उस किताब के पहले सफ़े पर 
तेरा नाम तेरा नाम तेरा नाम लिखा है तेरा नाम

दूसरे सफ़े पे  मैंने
सीधी साधी बातें लिखीं
लिखी हुई बातों से भी आती है आवाज़
मैंने जो आवाज़ सुनी है
उस आवाज़ के पहले सुरों में
तेरा नाम तेरा नाम तेरा नाम सुना है तेरा नाम

तीसरा सफ़ा क्या लिखा
कहकशाएँ खुलने लगीं
सदियों पुराने सभी राज खुल गए
मुझ पे क़ायनात खुली है
क़ायनात के पहले सिरे पर 
तेरा नाम तेरा नाम तेरा नाम खुला है तेरा नाम


वैसे आपको बता दूँ कि सज्जाद पचास की उम्र पार कर चुके हैं फिर भी उनकी आवाज़ की शोखी जस की तस है। कोक स्टूडियो में इस बार उन्होंने अपनी बेटी ज़ाव अली के साथ भी एक नज़्म गाई है। ख़ैर उसकी बात तो फिर कभी फिलहाल अपने "उस" के नाम की मदहोशी में मेरी तरह आप भी डूबिए...

रविवार, सितंबर 24, 2017

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास...

एक दशक पहले की बात है। वो ब्लॉगिंग के शुरुआती दिन थे और तभी अमित कुलश्रेष्ठ से आभासी जान पहचान हुई थी। टिप्पणियों के आलावा कभी कभी चैट पर भी बातें हो जाया करती थीं, जिनका मुख्य विषय अक़्सर कविता व शायरी ही हुआ करता था। फिर अमित अध्ययन से अध्यापन में जुट गए और हमारे बीच संवाद लगभग खत्म ही हो गया। अपनी किसी टिप्पणी के साथ गाहे बगाहे वो कभी प्रकट हो जाते थे और फिर अंतर्ध्यान भी हो जाया करते थे। इतना मुझे आभास था कि गणित से जुड़ा शोध और प्रेम उन्हें सोशल मीडिया व ब्लॉग पर विचरने का कम ही मौका देता है।



सालों बाद धर्मवीर भारती की एक कविता का जिक्र उन्हें  मेरे ब्लॉग पर फिर ले आया। फिर दो तीन महीने पहले उन्होंने एक ख़त लिखा कि सितंबर में मोहाली से राँची आना है। राँची विश्वविद्यालय में गणित से जुड़ी एक कार्यशाला है।  कार्यशाला में आने के साथ मुझसे मिलना भी एक प्रयोजन है। ज़ाहिर है मुझे खुशी हुई कि इतने दिनों बाद भी उन्होंने मुझे याद रखा था। मिलना शनिवार को था। छुट्टी भी थी पर कार्यालय से ऐसा आकस्मिक कार्य आ गया कि मुझे आसनसोल रवाना होना पड़ा।

फिर भी शुक्रवार को संध्या में हमने दो घंटे निकाल ही लिए। इडली और सांभर बड़े के बीच बातचीत का दौर शुरु हुआ। अमित गणित के विद्वान तो हैं ही साथ ही एक साहित्य प्रेमी भी है। भगवान ने उन्हें कविताओं के मामले में स्मरण शक्ति भी अच्छी दे रखी है। मेरी मित्र मंडली में ऍसे कुछ लोग हैं जिन्हें बस कहने की देर है और पुरानी से पुरानी कविता उनकी जिह्वा पर आ जाती है। सच बड़ा रश्क़ होता है ऐसे लोगों को देखकर। अमित भी इसी बिरादरी के हैं। हमलोग अलग अलग विषयों पर बात करते रहे और वो उन बातों का भाव लिए कविताओं की पंक्तियाँ सुना कर मन आनंदित करते रहे।

लिहाज़ा शिवमंगल सिंह सुमन, पंत, भवानी प्रसाद मिश्र, बाबा नागार्जुन, दुष्यंत कुमार से होती हुई बात अदम गोंडवी तक पहुँच गयी। किसी लेखक के लेखन से उसके व्यक्तित्व का कितना सही आकलन कर पाते हैं उस पर चर्चा हुई। अमित ने उन दिनों के ब्लॉगरों को भी याद किया जब वे ब्लागिंग में सक्रिय थे। स्कूलों में भाषा का गिरता स्तर चाहे वो हिंदी हो या अंग्रेजी हम दोनों के लिए चिंता का विषय था। एक मुद्दा ये भी रहा कि जिनके लिए हिंदी रोज़ी रोटी का विषय है वे ही इसकी साख में बट्टा लगाने की कोई कसर नहीं छोड़ रहे। मैं था तो संगीत और मेरी यात्राओं से जुड़ी बातें होनी ही थीं सो हुईं भी।

बहुत अच्छा लगा अमित आप आए और आपसे कविता सुनने का मौका मिला और समय रहता तो मैं कुछ अपने उन पसंदीदा गीतों को आपके सामने जरूर गुनगुनाता जिनमें अंदर की कविता मेरे हृदय को हर मूड में प्रफुल्लित कर देती है। चलते चलते बाबा नागार्जुन की जिस कविता का ये कहते हुए उल्लेख किया था कि बताइए बाबा ने एक कानी कुतिया में भी कितना सटीक बिंब ढूँढ लिया..

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।


ये छोटी सी कविता बाबा नागार्जुन ने अकाल के संदर्भ में पचास के दशक में लिखी थी। कविता का शीर्षक था अकाल और उसके बाद। बाबा ने कविता के पहले अंतरे में उस अकाल पीड़ित खेतिहर के घर के बारे में लिखा है जहाँ हफ्तों से चूल्हा नहीं जला । अब जब भोजन ही नहीं पकना तो चूल्हे के पास कुत्ते को फटकने से कौन रोके। रसोई मे जब आग ही ना जलेगी तो कीट पतंग कहाँ से आकर्षित हो पाएँगे। अब ये भला छिपकलियाँ कहाँ जानती थीं वो तो दीवारों पर लगाती रहीं गश्त। अब भोजन नहीं तो जूठन भी नहीं तो चूहों को भी खाने के लाले पड़ गए। दूसरे अंतरे में अकाल से जूझने के बाद रसोई में फिर से चूल्हा जलने की खुशी का जिक्र है जिससे घर के लोगों के साथ साथ मुंडेर पर मँडराते कौवे को भी आशा का नई किरण दिख चुकी है।

एक रोचक तथ्य ये भी है कि इसे फिल्म लुटेरा में सोनाक्षी और रणवीर ने मिलकर इस कविता को पढ़ा था। 😊

रविवार, सितंबर 17, 2017

रस घोलता रवींद्र संगीत : तुमी रोबे नीरोबे Tomi Robe Nirobe

रवींद्र नाथ टैगोर एक कवि, उपन्यासकार, चिंतक तो थे ही, साथ ही एक गीतकार और संगीतकार भी थे। दो हजार से ज्यादा गीतों को लिखना और उनकी धुन तैयार करना इस बहुमुखी प्रतिभा वाले व्यक्तित्व का कमाल ही लगता है। उनके समस्त संगीत को रवींद्र संगीत के नाम से जाना जाता रहा है।  यूँ तो रवींद्र संगीत की जड़े बंगाल में रहीं पर बंगाल के लोगों ने इस गायन शैली को बिहार, झारखंड और ओड़ीसा तक पहुँचाने में मदद की। मुझे याद है कि बचपन में पटना का रवींद्र भवन सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था। रवींद्र संगीत को पहली बार सुनने का अवसर मुझे वहीं मिला।

रवींद्र संगीत की खासियत रही है कि इन गीतों में वाद्य यंत्रों का कम से कम इस्तेमाल रहा और ज्यादा महत्त्व बोलों और गायिकी को मिला। गुरुवर टैगोर नहीं चाहते थे कि उनकी धुन, उनके नोटेशेन्स के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ की जाए। यही वजह थी कि उनका गीत भले ही तमाम कलाकारों द्वारा क्यूँ ना गाया गया हो सब का गाने का अंदाज एक सा रहता है। पर हाल ही में मेरे एक बंगाली मित्र ने बताया कि विगत कुछ वर्षों से कॉपीराइट अवधि खत्म होने के बाद लोग उनके गीतों को अलग धुनों में पेश कर रहे हैं।



पिछले महीने मुझे टैगोर का रचा ऐसा ही एक गीत सुनने को मिला जिसे मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ नई पीढ़ी के दो उदीयमान गायकों की आवाज़ में जिसमें एक ने तो हाल ही में गायिकी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीता है तो दूसरा आज के युवाओं का चहेता है और पुराने से लेकर नए गानों को अपनी आवाज़ में ढालने में माहिर है।

इस गाने में जो बांग्ला प्रयुक्त हुई है वो बिल्कुल कठिन नहीं हैं क्यूँकि उसमें ज्यादा संस्कृत से आए शब्द हैं जो हिंदी में उतने ही प्रचलित हैं । फिर भी आप इस संवेदनशील गीत का लुत्फ उठा सकें इसलिए इसका अनुवाद करने की कोशिश की है मैंने।

तुमी रोबे नीरोबे हृदय ममो
निबिरो निभृतो पूर्णिमा निशीथीनी समो

ममो जीबनो जौबनों ममो अखिलो भुबनो
तुमी भोरिबे गौरबे निशीथीनी समो
तुमी रोबे नीरोबे हृदय ममो

जागिबे एकाकी तबो करूणो आखी
तबो अंचोल छाया मोरे रोहिबे ढाकी
ममो दुखो बेदनो ममो सफल स्वपनो
तुमी भोरिबे सौरभे निशीथीनी समो

तुम मेरे हृदय में चुपचाप यूँ ही प्रकाशमान रहोगी जैसे कि पूर्णिमा का चाँद अकेली गहरी रातों में चमकता है। मेरे इस जीवन,इस यौवन और मेरे संसार को तुम अपने गौरव से भर दोगी जैसे कोई रात रोशनी को पाकर चमक उठती है। उन एकाकी रातों में तुम्हारी उन करुणमयी आँखें का स्पर्श मुझे पुलकित करेगा। तुम्हारे आँचल की छाया मेरे सारे दुख, मेरी सारी वेदना को ढक लेगी। मेरे सपनों को तुम वैसे ही सुरभित करोगी जैसे कि कोई महकती हुई रात ।

जीवन में जरूरी नहीं कि हम उन्हीं से संबल प्राप्त करें जो हमारे साथ हों। दूर रहकर भी कुछ व्यक्तित्व मन में ऐसी छाप छोड़ देते हैं कि लगता ही नहीं कि वो हमसे कभी अलग हुए। ये गीत ऐसी ही कुछ भावनाएँ मन में छोड़ जाता है।

तो आइए सुनते हैं सबसे पहले इस गीत को इमोन चक्रवर्ती की आवाज़ में। 29 वर्षीय इस गायिका का नाम सुर्ख्रियों में तब गूँजा जब अपनी पहली ही फिल्म के लिए इन्हें सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायिका का वर्ष 2017 का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। हावड़ा जिले के छोटे से कस्बे में जन्मी इमोन इससे पहले टैगोर के लिखे गीतों को गाती रही हैं। उनकी आवाज़ में एक ठसक है, एक गहराई है जो इस गीत के हर शब्द और उसमें छुपे प्रेम और वेदना को एक साथ उभारती है।


यूँ तो इस गीत को हेमंत कुमार से लेकर शान तक ने आपनी आवाज़ दी है। पर ये सारे गायक बंगाल से ताल्लुक रखते हैं। पर इस फेरहिस्त में जब मैंने सनम पुरी का नाम देखा तो मैं अचंभित रह गया।  हँसी तो फँसी, गोरी तेरे प्यार में, हमशक्ल जैसी फिल्मों में कुछ गीत गुनगुनाने वाले सनम मुख्यतः अपने बैंड के लिए जाने जाते हैं जो नए पुराने गानों को एक अलग अंदाज़ में पिछले कुछ सालों से पेश करता रहा है। यू ट्यूब में सनम का चैनल लाखों लोगों द्वारा सुना जाता है। उन्होंने इस बांग्ला गीत को जिस तरह डूब कर गाया है, बांग्ला उच्चारण को हू बहू पकड़ा है वो निश्चय ही काबिलेतारीफ़ है।

रविवार, सितंबर 03, 2017

हसरत की वो 'हसरत' जो कभी पूरी नहीं हुई : तेरी ज़ुल्फ़ों से जुदाई तो नहीं माँगी थी Teri Zulfon se Judai to...

सितंबर का महीना हसरत जयपुरी साहब की रुखसती का महीना है। करीब दो दशक गुजर गए उन्हें हमारा साथ छोड़े हुए। फिर भी रेडियो पर आज भी उनके गीतों की फ़रमाइशें  ख़त्म होने का नाम नहीं लेतीं। उनके गीतों को जब देखता हूँ तो मुझे लगता है कि वो आम आदमी के शायर थे जो दिल की बात बड़ी सीधी सी जुबान में कह देते थे। अब बरसात का मौसम है। नायिका को उनके आने का तकाज़ा है और हसरत की कलम चल उठती है कि जिया बेकरार है, आई बहार है आ जा मोरे साजना तेरा इंतजार है।  


इकबाल हुसैन के नाम से जन्मे हसरत, जयपुर के बाशिंदे थे। किशोरावस्था में अपने पहले प्रेम का शिकार हुए और यहीं से शायरी का कीड़ा उनके मन में कुलबुलाने लगा। उनकी पहली प्रेयसी राधा थीं जो बाजू वाले मकान के झरोखों से ताक झाँक करते हुए उनका दिल चुरा ले गयीं। उसी राधा की शान में हसरत साहब ने अपना पहला शेर कहा..

तू झरोखे से जो झांके तो मैं इतना पूछूँ
मेरे महबूब कि तुझे प्यार करूँ या ना करूँ

सन चालीस में जब वे मुंबई आए तो नौकरी की तलाश में बस कंडक्टर बन गए। पर इस उबाऊ सी नौकरी में भी उन्होंने रस ढूँढ ही लिया। ग्यारह रुपये माहवार की नौकरी में भी जब खूबसूरत नाज़नीनें उनकी बस में चढ़तीं तो वे उनके हुस्न से इतने प्रभावित हो जाते कि उनसे टिकट के पैसे माँगना भी उन्हें गवारा ना होता था। वो कहा करते कि वे सारी कन्याएँ उनके लिए प्रेरणा का काम करती थीं जिनकी शान में वो मुशायरों में अपने अशआर गढ़ते थे। ऐसी ही किसी मुशायरे में पृथ्वीराज कपूर ने उन्हें देखा और फिर उनकी सिफारिश राज कपूर तक पहुँच गई। एक बार जब वो शंकर, जयकिशन, शैलेंद्र की चौकड़ी का हिस्सा बने तो उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।



अब प्यार तो हसरत ने किया पर उसके मुकम्मल होने की 'हसरत' रह ही गयी। पर राधा को वो कभी भूले नहीं। उनका सदाबहार गीत ये मेरा प्रेमपत्र पढ़ कर के कि तुम नाराज ना होना कि तुम मेरी ज़िंदगी हो.. भी राधा को ही समर्पित था। उनका इस गीत के अंतरे में चाँद में दाग और सूरज में आग का हवाला देते हुए अपने महबूब को उनसे भी खूबसूरत बताने का अंदाज़ निराला था।

रोज़मर्रा के जीवन से गीत का मुखड़ा बना लेने  का हुनर भगवान ने उन्हें खूब बख्शा था। कहते हैं कि एक बार शंकर जयकिशन के साथ विदेश में उन्होंने एक महिला को बेहद चमकीली सी ड्रेस में देखा और उनके मुख से बेसाख़्ता  ये जुमला निकला कि बदन पे सितारे लपेटे  हुए ओ जाने तमन्ना किधर जा रही हो.. और फिर तो वो  गीत बना और इतना लोकप्रिय भी हुआ। ऐसे ही उनके बेटे के जन्म पर खुशी खुशी वो कह पड़े कि तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नज़र ना लगे चश्मेबद्दूर..। बाद में ये पंक्तियाँ  भी एक मशहूर गीत का मुखड़ा  बनीं।

आज उन्हीं हसरत जयपुरी साहब का एक गाना मुझे याद आ रहा है फिल्म जब प्यार किसी से होता है से जो 1961 में रिलीज़ हुई थी। निर्माता निर्देशक नासिर हुसैन ने अपनी इस पहली फिल्म के सारे गाने रफ़ी और लता से गवाए  थे। फिल्म तो हिट हुई ही थी पर साथ ही इसके गाने जिया हो जिया हो जिया कुछ बोल दो, सौ साल पहले मुझसे तुमसे प्यार था और तेरी जुल्फों से ....... खासे लोकप्रिय हुए थे। 

इन गीतों में मुझे जो सबसे पसंद रहा वो था  तेरी ज़ुल्फ़ों से जुदाई तो नहीं माँगी थी क़ैद माँगी थी, रिहाई तो नहीं माँगी थी..। बड़ा प्यारा लगता था इसे गुनगुनाना। क़ैद के साथ रिहाई का जिक्र होते ही दिल में दर्द वाला तार ख़ुद ब खुद झंकृत हो जाता था और आँखो की छलकती मय वाले  शेर के तो क्या कहने! वैसे तो आपने इस गीत के तीन अशआर सुने होंगे पर एक चौथा भी शेर लिखा था हसरत साहब ने जो फिल्माया नहीं गया।

उन दिनों देव आनंद साहब काफी सजीले नौजवान हुआ करते थे। आशा पारिख जी के साथ उन पर ये गीत फिल्माया गया था। गीत की परिस्थिति कुछ यूँ थी कि एक महफिल सजी है जिसमें अपने साथ हुए धोखे को आशा पारिख एक छोटी सी नज़्म के सहारे नायक के दोहरे चरित्र पर तंज़ कसती हैं और फिर जवाब में देव साहब ये गीत गा उठते हैं। 

तो आइए शंकर जयकिशन की धुन और हसरत साहब की लेखनी के इस गठजोड़ को रफ़ी की आवाज़ में फिर याद कर लेते  हैं आज की इस शाम को...



इस हिरसो-हवस की दुनिया में
अरमान बदलते देखे हैं
धोख़ा है यहाँ, लालच है यहाँ
ईमान बदलते देखे हैं
दौलत के सुनहरे जादू से
ऐ दिल ये तड़पना अच्छा है
चाँदी के खनकते सिक्कों पर
इंसान बदलते देखे  हैं ....



तेरी ज़ुल्फ़ों से जुदाई तो नहीं माँगी थी
क़ैद माँगी थी, रिहाई तो नहीं माँगी थी

मैंने क्या ज़ुल्म किया, आप खफ़ा हो बैठे
प्यार माँगा था, खुदाई तो नहीं माँगी थी
क़ैद माँगी थी...

मेरा हक़ था तेरी आँखों की छलकती मय पर
चीज़ अपनी थी, पराई तो नहीं माँगी थी

क़ैद माँगी थी...

अपने बीमार पे, इतना भी सितम ठीक नहीं
तेरी उल्फ़त में, बुराई तो नहीं माँगी थी
क़ैद माँगी थी...

चाहने वालों को कभी, तूने सितम भी ना दिया
तेरी महफ़िल से, रुसवाई तो नहीं माँगी थी
क़ैद माँगी थी...

गुरुवार, अगस्त 10, 2017

चल चल सखि पिया के पास.. Chal Chal Sakhi

शंकर टकर मेरे पसंदीदा संगीतज्ञ हैं। अमेरिका से भारत आ कर बसने वाले इस क्लारिनेट वादक ने जिस तरह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को आत्मसात किया है उसकी विस्तृत चर्चा मैंने उनके एलबम श्रुति बॉक्स के रिलीज़ होते समय की थी। इंटरनेट पर अपने पहले एलबम की सफलता के बाद शंकर तीन साल अपने दूसरे एलबम के लिए काम करते रहे। 2015 में आख़िरकार उनका दूसरा एलबम निकला जिसे उन्होंने Filament के नाम से रिलीज़ किया।

Filament को The Shruti Box की तरह श्रोताओं का प्यार तो नहीं मिला पर इसकी कुछ रचनाएँ जैसे चल चल सखि.... और दिल है नमाज़ी.... काफी सराही गयीं। इस एलबम की मेरा पसंदीदा गीत भी चल चल सखि ही है। शंकर टकर की विशेषता है कि वो अपनी संगीतबद्ध रचनाओं में मँजे हुए कलाकारों के साथ नए उभरते गायकों को भी मौका देते हैं और इस शास्त्रीय बंदिश को निभाने के लिए उन्होंने पंडित जसराज की शिष्या रही अंकिता जोशी को चुना। अंकिता जसराज जी की शिष्या कैसे बनी ये जानना कम दिलचस्प नहीं है।


महाराष्ट्र के नांदेड़ से ताल्लुक रखने वाली अंकिता के परिवार में भक्ति संगीत गाने वालों का अच्छा खासा जमावड़ा था। संगीत की आरंभिक शिक्षा उन्होंने अपने मामा लक्ष्मीकांत रामदेव से ली। इसी दौरान उन्होंने पंडित जी को सुना और उनकी गायिकी से वे इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने ये निश्चय कर लिया कि अब उनकी ही शरण में जाकर अपनी सांगीतिक प्रतिभा को निखारना है। 

आपको जानकर ताज्जुब होगा कि दस साल से भी छोटी उम्र में पंडित जसराज के कार्यक्रम को देखते हुए वे लोगों से बचते बचाते स्टेज तक पहुँची और उनसे सीधे जाकर कहा कि मुझे आपसे संगीत सीखना है। पंडित जी ने अंकिता से पूछा कि क्या तुम्हें गाना आता है? अंकिता ने तुरंत जवाब दिया कि उनका गायन सुन सुन कर ही उन्होंने संगीत सीखा है। पंडित जसराज जी ने फिर अंकिता को गवाया और उनकी प्रतिभा और सीखने के इस जज़्बे को देखते हुए अपना शिष्य बना ही लिया। आज अंकिता की गणना देश के उभरते हुए शास्त्रीय गायक के रूप में हो रही है। हालांकि अपनी इस संगीत यात्रा में उन्होंने शास्त्रीय संगीत के आलावा भक्ति संगीत, ग़ज़ल और फ्यूजन से भी परहेज़ नहीं किया है।

शंकर टकर की खासियत है कि शास्त्रीय संगीत के साथ उनका किया गया फ्यूजन उसकी आत्मा के साथ कोई खिलवाड़ नहीं करता। इसलिए उनके रचे एलबम्स को सुनना एक अलग अनुभव ही है। इन गीतों में क्लारिनेट से सँजोए उनके टुकड़ों को सुनना एक अतिरिक्त आनंद दे जाता है। छः मिनट के इस गीत में जब अंकिता अपनी लय में होती हैं तो संगीत मद्धम मद्धम बजता हुआ उनकी सधी हुई गायिकी को पूर्णता प्रदान करता है। तबले के साथ अंकिता की सरगम मन मोहती है।

निराली कार्तिक और पंडित लघुलाल की लिखी इस बंदिश को छोड़ता हुआ गीत ढाई मिनट के बाद एक अलग ही रंग में रँगता है जब अंकिता और शंकर अपने आलाप और वादन से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। संगत में तबले पर अमित मिश्रा  का कमाल भी सुनते ही बनता है ।

राधा कृष्ण के प्रेम को उभारती इस बंदिश में राधा के मन में अपने पिया को देखने की विकलता भी है और साथ बिताए पलों की मधुर यादें भी। तो आइए सुनते हैं शास्त्रीय संगीत के साथ क्लारिनेट के इस निराले फ्यूजन को . .


चल चल सखि पिया के पास
मोरे मन में जल रही दरस की आस

जाओ चुनरी छोड़ो, मोरे नाजुक सी कलियाँ
काहे मटकी फोड़ो, जाओ जी बृज के बसियाँ

चल चल सखि पिया के पास.....दरस की आस

उन बिन मोहे कल नहीं आए
नटवर नटखट निपट निठुर तुम
नाच रयो री रास रचो री

बस मेरे अंग अंग रंग मेरे रंग रंग
नटवर नट खल निपट निठुर तुम
नाच रयो री रास रचो री




रविवार, जुलाई 23, 2017

कहाँ से आए बदरा..रोए मन है पगला Kahan Se Aaye Badra ...

मौसम सावन का  है। वर्षा की हल्की हल्की फुहारें बंद होने का नाम नहीं ले रहीं और काले बादल मेरे शहर में यूँ खूँटा डाले हैं जैसे कह रहे हों कि कभी तो घर से निकलोगे? आज तो तर कर के ही छोड़ेंगे। इसी रिमझिम के बीच टहलते हुए रेडियो से एक सदाबहार नग्मा सुनाई दिया जिसे आख़िर तक सुनते हुए मन ग़मगीन सा हो गया। मैं सोचने लगा। इंसान की फितरत भी अजीब है। अपने आस पास के वातावरण को मूड के हिसाब से कुछ यूँ ढाल लेता है कि सावन, बदरा... जैसे बिंब जो कभी मन को उमंग से भर देते हैं वही हृदय में दर्द का सैलाब भी ले आते हैं।

मैं जिस गीत की बात आपसे कर रहा हूँ वो है अपने ज़माने की बेहद चर्चित फिल्म चश्मे बद्दूर का जो 1981 में बनी थी और खासी सफल भी हुई थी। । मैंने जब छुटपन में ये फिल्म देखी थी तो मिस चमको और तीन दोस्तों की आपरी तकरार के दृश्य ही बहुत दिनों तक मन में जमे रहे थे। इस फिल्म की पटकथा, निर्देशन व अभिनय को जितनी तवज़्जह मिली पर लोगों का उतना ध्यान इसके गीत संगीत रचनेवालों पर नहीं गया। अब संगीतकार राजकमल, गीतकार इंदु जैन और येशुदास का इस गीत में साथ निभाने वाली गायिका हेमंती शुक्ला के नाम तो आज की पीढ़ी के लिए अनसुने ही होंगे।

बतौर संगीतकार राजकमल ने फिल्म सावन को आने दो में अपने दो दशक तक फैले फिल्मी कैरियर का सबसे शानदार काम किया। तबले में प्रवीण राजकमल शास्त्रीय और लोक दोनों तरह के संगीत में समान रूप से पकड़ रखने के लिए जाने जाते थे। चश्मे बद्दूर में उन्होंने दो शास्त्रीय गीतों की रचना की। काली घोड़ी द्वार खड़ी.. और कहाँ से आए बदरा। कहाँ से आए बदरा.. राग मेघ पर आधारित गीत है जिसके लिए येशुदास के साथ राजकमल ने बंगाल की शास्त्रीय गायिका हेमंती शुक्ला की आवाज़ का इस्तेमाल किया।

येशुदास के साथ राजकमल ने जब जब काम किया परिणाम शानदार रहे। येसूदास ने उनके संगीतबद्ध हर नग्मे में आवाज़ की गहराई और खनक से गीत में प्राण फूँक दिए । ये गीत यूँ तो फिल्म में नायिका के अन्तरमन का द्वार खोल रहा है पर येशुदास की उपस्थिति ने इस गीत को लोकप्रियता की बुलंदियों तक पहुँचाया।

येशुदास, इंदु जैन, हेमंती शुक्ला व राजकमल
ये युगल गीत एक मनमोहक आलाप से शुरु होता है और फिर आती है मुखड़े के साथ घुँघरुओं और तबले की सुरीली संगत। गीत में प्रयुक्त इंटरल्यूड्स हों या अंतरे में बोलों के पीछे चलती हल्की बाँसुरी राजकमल के संगीत का जादू हर तरफ दिखाई देता है। रही बात शब्दों की तो इंदु जैन के लिखे शब्द इस गीत की जान हैं। 

आकाश में उमड़ते घुमड़ते काले बादल नायिका के व्यथित हृदय की पीड़ा को किस तरह अश्रुओं के सावन में तब्दील कर देते हैं इसी का संवेदनशील चित्रण किया है इंदु जी ने इस गीत में। उनके गीत में ठेठ हिंदी शब्दों को समावेश है जो कि एक कविता के रूप में बहते चले जाते हैं। इस गीत का उनका आखिरी अंतरा मुझे सर्वाधिक प्रिय हैं जिसमें वो कहती हैं..उतरे मेघ हिया पर छाये ...निर्दय झोंके अगन बढ़ाये...बरसे है अँखियों से सावन...रोए मन है पगला...कहाँ से आये बदरा..

ये बड़े अफ़सोस की ही बात हे कि इतनी प्रतिभावान गीतकार होते हुए भी इंदु जैन का फिल्मी कैरियर सई परांजपे की फिल्मों कथा, स्पर्श और चश्मे बद्दूर में ही सिमट कर रह गया। हिंदी फिल्म संगीत में भले ही उन्होंने एक छोटी पारी खेली हो पर साहित्य के क्षेत्र में इंदु जी ने बतौर कवयित्री कुछ न कुछ टकराएगा जरूर, कितनी अवधि, आसपास राग, यहाँ कुछ हुआ तो था, चूमो एक लहर है कविता, हवा की मोहताज क्यों रहूँ जैसे कई कविता संग्रह के ज़रिए अपना महती योगदान दिया। दूरदर्शन और रेडियो से भी वो जीवन पर्यन्त जुड़ी रहीं। 72 वर्ष की आयु में सन 2008 में उन्होंने इस संसार को अलविदा कह दिया।

तो आइए सुनें येशुदास और हेमंती की आवाज़ में ये गीत..

कहाँ से आए बदरा हो..
घुलता जाए कजरा
कहाँ से आए बदरा ...

पलकों के सतरंगे दीपक
बन बैठे आँसू की झालर
मोती का अनमोलक हीरा
मिट्टी में जा फिसला

कहाँ से आए बदरा हो..घुलता जाए कजरा
कहाँ से आए बदरा ...

नींद पिया के संग सिधारी
सपनों की सूखी फुलवारी
अमृत होठों तक आते ही
जैसे विष में बदला

कहाँ से आए बदरा हो..
घुलता जाए कजरा
कहाँ से आए बदरा ...

उतरे मेघ हिया पर छाये
निर्दय झोंके अगन बढ़ाये
बरसे है अँखियों से सावन
रोए मन है पगला
कहाँ से आये बदरा..

शुक्रवार, जुलाई 07, 2017

शाम: दो मनःस्थितियाँ - धर्मवीर भारती Shaam : Do Manahsthitiyan by Dharamvir Bharati

धर्मवीर भारती को किशोरावस्था तक अपनी प्रिय पत्रिका धर्मयुग का संपादक भर जानता रहा। गुनाहों का देवता और सूरज का सातवाँ घोड़ा तो बहुत बाद में ही पढ़ा। सूरज का सातवाँ घोड़ा पढ़ते हुए ही उनकी एक खूबसूरत कविता से भी रूबरू हुआ जो इसी नाम की एक फिल्म में गीत बन कर भी उभरी। गीत के बोल थे ये शामें सब की सब शामें क्या इनका कोई अर्थ नहीं.. 

शाम का पहर बड़ा अजीब सा है। दोस्तों का साथ रहे तो कितना जीवंत हो उठता है और अकेले हों तो कब अनायास ही मन में उदासी के बादल एकदम से छितरा जाएँ पता ही नहीं चलता। फिर तो हवा के झोकों के साथ अतीत की स्मृतियाँ मन को गीला करती ही रहती हैं। धर्मवीर भारती को भी लगता है शाम से बड़ा लगाव था। पर जब जब उन्होंने दिन के सबसे खूबसूरत पहर पर कविताएँ लिखीं उनमें ज़िंदगी से खोए लोगों का ही पता मिला। उनके ना होने की तड़प मिली।


अब भारती जी की इसी कविता को लीजिए मायूसी के इस माहौल में डूबी शाम में वो उम्मीद कर रहे हैं एक ऐसे अजनबी की जो शायद जीवन को नई दिशा दे जाए। पर वक़्त के साथ उनकी ये आस भी आस ही रह जाती है। अजनबी तो नहीं आते पर किसी के साथ बिताए वे पल की यादें पीड़ा बन कर रह रह उभरती है। 

कविता की अंतिम पंक्तियों में भारती जी जीवन का अमिट सत्य बयान कर जाते हैं। जीवन में कई लोग आते हैं जिनसे हमारा मन का रिश्ता जुड़ जाता है। उनके साथ बीता वक़्त मन को तृप्त कर जाता है। पर यही लगाव, प्रेम उनके जुदा होने से दिल में नासूर की तरह उभरता है। हमें विचलित कर देता है। शायद शाम के समय जब हम अपने सबसे ज्यादा करीब होते हैं हमारा दिल अपने बंद किवाड़ खोलता है और भारती  जी जैसा कवि हृदय तब कुछ ऐसा महसूस करता है...

 (1)

शाम है, मैं उदास हूँ शायद
अजनबी लोग अभी कुछ आएँ
देखिए अनछुए हुए सम्पुट
कौन मोती सहेजकर लाएँ
कौन जाने कि लौटती बेला
कौन-से तार कहाँ छू जाए!

बात कुछ और छेड़िए तब तक
हो दवा ताकि बेकली की भी
द्वार कुछ बन्द, कुछ खुला रखिए
ताकि आहट मिले गली की भी!

देखिए आज कौन आता है
कौन-सी बात नयी कह जाए
या कि बाहर से लौट जाता है
देहरी पर निशान रह जाए
देखिए ये लहर डुबोये, या
सिर्फ़ तटरेख छू के बह जाए!

कूल पर कुछ प्रवाल छूट जाएँ
या लहर सिर्फ़ फेनवाली हो
अधखिले फूल-सी विनत अंजुली
कौन जाने कि सिर्फ़ खाली हो?




(2)

वक़्त अब बीत गया बादल भी
क्या उदास रंग ले आए
देखिए कुछ हुई है आहट-सी
कौन है? तुम? चलो भले आए!

अजनबी लौट चुके द्वारे से
दर्द फिर लौटकर चले आए
क्या अजब है पुकारिए जितना
अजनबी कौन भला आता है
एक है दर्द वही अपना है
लौट हर बार चला आता है!

अनखिले गीत सब उसी के हैं
अनकही बात भी उसी की है
अनउगे दिन सब उसी के हैं
अनहुई रात भी उसी की है
जीत पहले-पहल मिली थी जो
आखिरी मात भी उसी की है!

एक-सा स्वाद छोड़ जाती है
ज़िन्दगी तृप्त भी व प्यासी भी
लोग आए गए बराबर हैं
शाम गहरा गई, उदासी भी! 


सम्पुट : दोनों हथेलियों को मिलाने और टेढ़ा करने से बना हुआ गड्ढा जिसमें भरकर कुछ दिया या लिया जाता है, प्रवाल : कोरल, कूल : किनारा


तो आइए सुनिए इस कविता के भावों तक पहुँचने की मेरी एक कोशिश..
 

गुरुवार, जून 22, 2017

मैकदे बंद करे लाख ज़माने वाले.. शहर में कम नहीं आँखों से पिलाने वाले Maikade Band Kare

बाहर बारिश की झमाझम है और मन भी थोड़ा रिमझिम सा हो रहा है तो सोच रहा हूँ कि क्यूँ ना आज आपको हरिहरण साहब की गायी वो हल्की फुल्की पर बेहद मधुर ग़ज़ल सुनाऊँ जिसके कुछ अशआर कुछ दिनों से मन में तरलता सी घोल रहे हैं।


हरिहरण ने ये ग़ज़ल अपने एलबम काश में वर्ष 2000 में रिकार्ड की थी। 'काश' उस समय तक के हरिहरण के एलबमों से थोड़ी भिन्नता लिए जरूर था। सामान्यतः हरिहरण ग़ज़लों में हमेशा से अपनी शास्त्रीयता के लिए जाने जाते रहे हैं। ग़ज़ल में परंपरागत रूप से इस्तेमाल होने वाले वाद्य यंत्रों जैसे हारमोनियम, सारंगी और तबले के साथ हरिहरण का आलाप आपने भी कई ग़ज़लों में सुना होगा। पर जगजीत सिंह की तरह ही वक़्त के साथ उन्होंने भी कई एलबमों में नए नए प्रयोग करने की कोशिश की। जनवरी 1999 से इस एलबम की तैयारी शुरु हुई पर इसे बनने में पूरा एक साल लग गया। बकौल हरिहरण

"मुझे इस एलबम को पूरा रिकार्ड करने में इतना समय इसलिए लगा क्यूँकि इन ग़ज़लों को मैं उस आवाज़ व संगीत के साथ पेश करना चाहता था जो वर्षों से मेरे मन में रच बस रही थी। आप इसे आज के प्रचलित वाद्यों के साथ कविता और ठेठ गायिकी का मिश्रण मान सकते हैं।"

हरिहरण ने अपने इस प्रयोग को तब Urdu Blues की संज्ञा दी थी। अब ये एलबम उस वक़्त सराहा तो गया था पर इतना भी नहीं कि इसे हरिहरण के सर्वोत्तम एलबमों में आँका जा सके। इसका एक कारण हरिहरण की चुनी हुई कुछ ग़ज़लों में शब्दों की गहराई का ना होना भी था।

ख़ैर एलबम की कुछ पसंदीदा ग़ज़लों में एक थी मैकदे बंद करे लाख जमाने वाले. जिसे मैं आज आपको सुनवाने जा रहा  हूँ। गिटार और बांसुरी के साथ उस्ताद रईस खान का सितार मन को तब चंचल कर देता है जब  ग़ज़ल के मतले में हरिहरण की आवाज़ कुछ ये कहती सुनाई पड़ती है

मैकदे बंद करे लाख ज़माने  वाले
शहर में कम नहीं आँखों से पिलाने वाले

सच ही तो है , जिसने भी हुस्न और  शोखियों का स्वाद उनकी आँखों के पैमाने से पिया है उसे भला मयखाने जाने की क्या जरूरत?

मतले के बाद का शेर  सुनकर तो बस आह ही उभरती है, कोई पुरानी कसक याद दिला ही जाता है ये नामुराद शेर

काश मुझको भी लगा ले तू कभी सीने से
मेरी तस्वीर को सीने से लगाने वाले

ग़ज़ल का अगला शेर सुनने के पहले आप घटम और सितार की मधुर जुगलबंदी सुन सकते हैं। वैसे इस एलबम में ड्रम्स या घटम जैसे ताल वाद्यों को बजाया  था मशहूर ड्रमर शिवमणि ने ।

हम यकीं आप के वादे पे भला कैसे करें
आप हरगिज़ नहीं हैं वादा निभाने वाले

इस ग़ज़ल को किसने लिखा ये ठीक ठीक पता कर पाना मुश्किल है। कुछ लोग इसे ताज भोपाली की ग़ज़ल बताते हैं। पर हरिहरण साहब ने एक जगह जरूर ये कहा था कि मैंने इस एलबम में ताहिर फ़राज़, मुन्नवर मासूम, मुजफ्फर वारसी, वाली असी, कैफ़ भोपाली, शहरयार और क़ैसर उल जाफ़री की ग़ज़लें ली थीं। अब इनमें से जिन जनाब की भी ये ग़ज़ल हो आख़िरी शेर में सादी जुबां में ज़िदगी की एक हकीक़त ये कह कर बयाँ की है कि

अपने ऐबों पर नज़र जिनकी नहीं होती है
आईना उनको दिखाते हैं ज़माने वाले

तो आइए इस बरसाती मौसम में आप भी मेरे साथ इस ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाइए...

रविवार, जून 11, 2017

अम्बर की एक पाक सुराही : आख़िर क्यूँ था कुफ्र चाँदनी का घूँट पीना? Amber Ki Ek Paak Surahi

कुछ गीत बेहद गूढ़ होते हैं। जल्दी समझ नहीं आते। फिर भी उनकी धुन, उनके शब्दों में कुछ ऐसा होता है कि वो बेहद अच्छे लगते हैं।  जब जब चाँद और चाँदनी को लेकर कुछ लिखने का मन हुआ मेरे ज़हन में अमृता प्रीतम की लिखी हुई ये पंक्तियाँ सबसे पहले आती रहीं अम्बर की एक पाक सुराही, बादल का एक जाम उठा कर, घूंट चाँदनी पी है हमने। सन 1975 में आई फिल्म कादंबरी  के इस गीत का मुखड़ा अपने लाजवाब रूपकों और मधुर धुन की वज़ह से हमेशा मेरा प्रिय रहा। पर इस गीत से मेरा नाता इन शब्दों के साथ साथ रुक सा जाता था क्यूँकि मुझे ये समझ नहीं आता था कि  आसमान की सुराही से मेंघों के प्याले में चाँदनी भर उसे चखने का इतना खूबसूरत ख़्याल आख़िर कुफ्र यानि पाप कैसे हो सकता है? तब मुझे ना इस बात की जानकारी थी कि कादम्बरी अमृता जी के उपन्यास धरती सागर और सीपियाँ पर आधारित है और ना ही मैंने कादम्बरी फिल्म देखी थी।

कुछ दिनों पहले इस किताब का अंश हाथ लगा तो पता चला कि किताब में ये गीत कविता की शक़्ल में था और कविता के शब्द कुछ यूँ थे..

अम्बर की एक पाक सुराही,
बादल का एक जाम उठा कर
घूँट चाँदनी पी है हमने

हमने आज यह दुनिया बेची
और एक दिन खरीद के लाए
बात कुफ़्र की की है हमने

सपनो का एक थान बुना था
गज एक कपडा फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी है हमने

कैसे इसका कर्ज़ चुकाएं
माँग के अपनी मौत के हाथों
यह जो ज़िन्दगी ली है हमने

कुफ्र की बात यहाँ भी थी। यानि ऐसा पाप जिसे ऊपरवाला करने की इजाज़त नहीं देता। कविता को गीत में पिरोते हुए अमृता ने काफी परिवर्तन किए थे पर मूल भाव वही था। गीतों के बोलों के इस रहस्य को समझने के लिए फिल्म देखी और तब अमृता के बोलों की गहराई तक पहुँचने का रास्ता मिल पाया...


फिल्म का मुख्य किरदार चेतना का है जो बालपन से अपने साथी अमित के प्रेम में गिरफ्तार हो जाती है। अमित भी चेतना को चाहता है पर उसके माथे पर नाजायज़ औलाद का एक तमगा लगा है। वो सोचता है कि उसकी माँ ने उसके लिए जो दुख सहे हैं उनकी भरपाई वो बिना पत्नी और माँ में अपना प्रेम विभाजित किए हुए ही कर सकता है। चेतना अमित के निर्णय को स्वीकार कर  लेती है पर उसे लगता है कि उसका अस्तित्व अमित की छाया के बिना अधूरा है। वो अमित के साथ नहीं रह सकती तो क्या हुआ वो उसके अंश के साथ तो जीवन जी ही सकती है। इसके लिए वो अपने मन के साथ ही अपना तन भी हिचकते नायक को न्योछावर कर देती है। चेतना के लिए ये अर्पण चाँदनी के घूँट को पी लेना जैसा निर्मल है पर समाज के संस्कारों के पैमाने में तो एक कुफ्र ही है ना। इसलिए अमृता गीत के मुखड़े में लिखती हैं..

अम्बर की एक पाक सुराही, बादल का एक जाम उठा कर
घूंट चाँदनी पी है हमने, बात कुफ़्र की, की है हमने

पर ये मिलन जिस नए बीज को जन्म देगा उसके लिए समाज के तंज़ तो चेतना को जीवन पर्यन्त सुनने को मिलेंगे। शायद यही कर्ज है या जीवन भर की फाँस जिसमें लटकते हुए अपने प्रेम की पवित्रता की गवाही देनी है उसे

कैसे इसका कर्ज़ चुकाएँ,
मांग के अपनी मौत के हाथों
उम्र की सूली सी है हमने,
बात कुफ़्र की, की है हमने
अम्बर की एक पाक सुराही, बादल का एक जाम उठा कर...

अमृता की नायिका दूसरे अंतरे मे दार्शनिकता का लबादा ओढ़ लेती हैं और कहती है कि प्यार तो जिससे होना है होकर ही रहता है। हम लाख चाहें हमारा वश कब चलता है अपने मन पर? जिस दिन से मैंने इस संसार में कदम रखा है उसी दिन से ये दिल उस की अमानत हो चुका था। फिर मैंने तो बस उसका सामान उसे सौंपा भर है। अगर चाँदनी जैसे शीतल व  स्निग्ध प्रेम का रसपान करना जुर्म है तो हुआ करे।

अपना इसमे कुछ भी नहीं है, कुछ भी नहीं है
रोज़-ए-अज़ल से उसकी अमानत,
उसको वही तो दी है हमने,
बात कुफ़्र की, की है हमने
अम्बर की एक पाक सुराही, बादल का एक जाम उठा कर..


इस प्यारे से गीत का संगीत संयोजन किया था मशहूर सितार वादक उस्ताद विलायत खाँ साहब ने। अपने पूरे जीवन में उन्होंने तीन बार ही फिल्मों में संगीत संयोजन किया। कादंबरी में दिया उनका संगीत हिन्दी फिल्मों के लिए पहला और आख़िरी था। इसके पहले वे सत्यजीत रे की फिल्म जलसा घर और अंग्रेजी फिल्म गुरु के लिए संगीत दे चुके थे।

गीत सुनते वक़्त विलायत खाँ साहब के मुखड़े के पहले के संगीत संयोजन पर जरूर ध्यान दीजिएगा। संतूर से गीत की शुरुआत होती है और फिर गिटार के साथ सितार के समावेश के बीच आशा जी की मधुर आवाज़ में आलाप उभरता है। इंटरल्यूड में गिटार का साथ बाँसुरी देती है।  इस गीत से जुड़े सारे वादक अपने अपने क्षेत्र के दिग्गज रहे हैं। संतूर बाँसुरी पर शिव हरि की जोड़ी तो गिटार पर खूद भूपेंद्र और इन सब के बीच आशा जी की खनकती बेमिसाल आवाज़ सोने में सुहागा का काम करती है।

वैसे चलते चलते आपको एक और रिकार्डिंग भी दिखा दी जाए जिसमें  यही गीत जी टीवी के सारेगामा कार्यक्रम में सोनू निगम जजों के समक्ष गाते हुए दिख जाएँगे।

बुधवार, मई 31, 2017

खुल के मुस्कुरा ले तू, दर्द को शर्माने दे...बूँदों को धरती पर साज एक बजाने दे Khul Ke Muskura Le Tu

कई बार आप सब ने गौर किया होगा। रोजमर्रा की जिंदगी भले ही कितने तनावों से गुज़र रही हो, किसी से हँसी खुशी दो बातें कर लेने से मन हल्का हो जाता है। थोड़ी सी मुस्कुराहट मन में छाए अवसाद को कुछ देर के लिए ही सही, दूर भगा तो डालती ही है। पर दिक्कत तब होती है जब ऐसे क्षणों में आप बिलकुल अकेले होते हैं। बात करें तो किससे , मुस्कुराहट लाएँ तो कैसे ?



पर सच मानिए अगर ऍसे हालात से आप सचमुच गुजरते हैं तो भी किसी का साथ हर वक़्त आपके साथ रहता है। बस अपनी दिल की अँधेरी कोठरी से बाहर झाँकने भर की जरूरत है। जी हाँ, मेरा इशारा आपके चारों ओर फैली उस प्रकृति की ओर है जिसमें विधाता ने जीवन के सारे रंग समाहित किए हैं।

चाहे वो फुदकती चिड़िया का आपके बगीचे में बड़े करीने से दाना चुनना हो...

या फिर बाग की वो तितली जो फूलों के आस पास इस तरह मँडरा रही हो मानो कह रही हो..अरे अब तो पूरी तरह खिलो, नया बसंत आने को है और अभी तक तुम अपनी पंखुड़ियां सिकोड़े बैठे हो ?


या वो सनसनाती हवा जिसका स्पर्श एक सिहरन के साथ मीठी गुदगुदी का अहसास आपके मन में भर रहा हो....


या फिर झील का स्थिर जल जो हृदय में गंभीरता ला रहा हो...


या उफनती नदी की शोखी जो मन में शरारत भर रही हो..


या बारिश की बूदें जो पुरानी यादों को फिर से गीला कर रहीं हों...

हम जितने तरह के भावों से अपनी जिंदगी में डूबते उतराते हैं, सब के सब तो हैं इस प्रकृति में किसी ना किसी रूप में...मतलब ये कि अपने आस पास की फ़िज़ा को जितना ही महसूस करेंगे, अपने दर्द, अपने अकेलेपन को उतना ही दूर छिटकता पाएँगे।



कुछ ऍसी ही बातें प्रसून जोशी ने अपने इस गीत में करनी चाही हैं  फिल्म फिर मिलेंगे से लिया गया है। ये एक ऐसे युवती की कहानी है जिसे अचानक पता चलता है कि वो AIDS वॉयरस से संक्रमित है। प्रसून की लेखनी इस गीत में उसके इर्द गिर्द की ढहती दुनिया के बीच उजाले की किरण तलाशने निकलती है। मुझे हमेशा जानने का मन करता था कि इस गीत को लिखते हुए प्रसून के मन में क्या भाव रहे होगे। मुझे अपनी जिज्ञासा का उत्तर उनकी किताब धूप के सिक्के पढ़ते वक़्त मिला जहाँ उन्होंने इस गीत के बारे में लिखा..
"दुख और दर्द तो प्रकट हैं, पर मैं उन्हें उम्मीद के समक्ष बौना दिखाना चाहता था। यह ऐसा नहीं था कि कोई निराशा के अँधेरों में हो और उसे बलपूर्वक सूरज की रोशनी के सामने खड़ा कर दिया जाए। यहाँ भाव था हौले से मनाने का। यह कहने का कि देखो वह झरोखे से आती धूप की किरणें कितनी सुंदर दिखती हैंन? यह वैसे ही था कि आप दर्द से गुजर रहे व्यक्ति के गले में हाथ डालकर, धीरे से पूरी संवेदनशीलता के साथ उन छोटी छोटी मगर खूबसूरत बातों की ओर उसका ध्यान ले चलें, जिसे देख उसके मन में उम्मीद को गले लगाने की चाह जागे।"

मुझे ये गीत बेहद बेहद पसंद है और  प्रसून के काव्यात्मक गीतों में ये मुझे सबसे बेहतरीन लगता है। इसे बड़ी संवेदनशीलता से गाया है बाम्बे जयश्री ने और इसकी धुन बनाई  है शंकर एहसान और लॉ॓ए ने जो कमाल की है।




खुल के मुस्कुरा ले तू, दर्द को शर्माने दे
बूँदों को धरती पर साज एक बजाने दे
हवाएँ कह रही हैं आजा झूमें ज़रा
गगन के गाल को चल, जा के छू लें ज़रा

झील एक आदत है तुझमें ही तो रहती है
और नदी शरारत है, तेरे संग बहती है
उतार ग़म के मोजे जमीं को गुनगुनाने दे
कंकरों को तलवों में, गुदगुदी मचाने दे
खुल के मुस्कुरा ले तू, दर्द को शर्माने दे...


बाँसुरी की खिड़कियों पे सुर ये  क्यूँ ठिठकते हैं
आँख के समंदर क्यूँ बेवजह छलकते हैं
तितलियाँ ये कहती हैं अब वसंत आने दे
जंगलों के मौसम को बस्तियों में छाने दे
खुल के मुस्कुरा ले तू, दर्द को शर्माने दे...

खूबसूरत बोल और बेहतरीन संगीत के इस संगम को कभी फुर्सत के क्षणों में सुनें, आशा है ये गीत आपको भी पसंद आएगा।

सोमवार, मई 22, 2017

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में.. आइए सुनें नूर साहब की पूरी ग़ज़ल Aag Hai, Pani Hai, Mitti Hai, Hawa Hai Mujh Mein . by Krishna Bihari Noor

बहुत सारी पसंदीदा ग़ज़लें होती हैं जिनके तीन चार अशआर डॉयरी के पन्नों पर नोट कर हम उन्हें पूरा मान लेते हैं। बरसों वहीं अशआर हमारे ज़हन में रह रह कर उठते और पलते रहते हैं। ऐसे में जब उसी ग़ज़ल के चंद और अशआर अचानक से सामने आ जाते हैं तो लगता है कि बैठे बिठाए कोई सौगात मिल गयी हो। लखनऊ से ताल्लुक रखने वाले शायर  कृष्ण बिहारी नूर की इस मशहूर ग़ज़ल के पाँच शेर बरसों से मेरे पास थे पर कल उनसे जुड़ी एक किताब पढ़ते हुए ग़ज़ल के चंद शेर और हाथ लगे तो सोचा आप तक उनकी ये पूरी कृति पहुँचा दूँ।



इस ग़ज़ल से जुड़े एक किस्से का जिक्र कन्हैयालाल नंदन जी ने अपने एक आलेख में किया है। तब नंदन जी मुंबई में पत्र पत्रकारिता से जुड़े काम के सिलसिले में पदस्थापित थे। नूर साहब एक मुशायरे के सिलसिले में मुंबई आए हुए थे और नवी मुंबई के वासी में ठहरे थे जो कि मुख्य शहर से काफी दूर का इलाका है। उन्होंने नंदन जी को फोन कर कहा कि वो उनसे मिलना चाहते हैं। कन्हैयालाल नंदन को यही लगा कि इतनी दूर से ख़ुद फोन कर मिलने की बात कर रहा है तो जरूर इसे मुझसे कोई काम होगा। पर डेढ़ घंटे बाद जब नूर हाज़िर हुए तो उनसे उनके आने का उद्देश्य जान कर नंदन आश्चर्यचकित रह गए। नूर साहब का कहना था कि बस एक नई ग़ज़ल लिखी है वही आप जैसे संवेदनशील श्रोता को सुनाना चाहता था। वो ग़जल यही ग़ज़ल थी जिसका जिक्र मैंने आज आपसे छेड़ा है।

तो चलिए देखते हैं कि आख़िर क्या कहना चाहा था कृष्ण बिहारी नूर ने अपनी इस ग़ज़ल में...

हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि ये शरीर प्रकृति के पंच तत्वों से निर्मित है और भगवान का वास हर जगह है। यानि अपने अंदर भी अगर हम पवित्र मन से झांकें तो वहाँ परमात्मा जरूर दिखेंगे। कृष्ण बिहारी नूर ने इस सोच को अपने मतले में ढालते हुए लिखा कि

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में
और फिर मानना पड़ता है के ख़ुदा है मुझ में


नूर साहब की ये विशेषता थी कि वो अपनी शायरी में सूफ़ियत के साथ मोहब्बत का रंग बड़े सलीके  से घोला करते थे। अब अगले शेर में वो परमपिता या अपने महबूब से मुख़ातिब हैं इसका फैसला तो आप ही कीजिए। पर जो भी है इस मोहब्बत का आलम ये है कि इसने उन्हें  अपने आप से जुदा कर दिया है। अब तो उसका इख्तियार उनके ज़हन पर हो गया है 

अब तो ले-दे के वही शख़्स बचा है मुझ में
मुझको मुझसे अलग करके छुपा है मुझ में


ऐसे अगर आपको चाहने वाला आपकी हर छोटी छोटी बात को आत्मसात करते हुए आपके अंतर्मन को टटोलने की कोशिश करने लगे तो फिर अपने हाल के बारे में आप भी कह उठेंगे कि 

मेरा ये हाल उघड़ती हुई परतें जैसे,
वो बड़ी देर से कुछ ढूँढ रहा है मुझ में


ये तो मुझे पूरी ग़ज़ल में सबसे कमाल का शेर लगता है। कितनी तरह के अच्छे बुरे अहसासों, विराधाभासों से दिल जूझता रहता है। ठीक मौसम की बदलती रंगत की तरह। ये अहसास कभी सुकून के पल ले आते हैं तो कभी बेहिसाब बेचैनी। इन बदलती भावनाओं के बीच दिल की फ़िज़ा जो रंग बिखेरती है उन्हें शब्दों में बयाँ करना आसान है क्या?

जितने मौसम हैं वो सब जैसे कहीं मिल जाएँ
इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझ में


आप मेरे करीब भी नहीं आएँ, दूर से ही मेरे बारे में कोई राय बना लें तो इसमें मेरा क्या कुसूर? मेरे सच्चे दिल की पुकार और व्यक्तित्व की चमक को महसूस करने के लिए आपको मेरे संग कुछ वक़्त तो ज़ाया करना ही पड़ेगा।

वो ही महसूस करेगा जो मुख़ातिब होगा
ऐसे अनदेखे उजाले की सदा है मुझमें


मैंने तो सोचा था कि उनकी नज़दीकियाँ पूरे जिस्म में एक ख़ुमारी सी ले आती हैं। पर मैं नहीं जानता था कि उनके लिए मेरा प्रेम एक नशा नहीं जो चढ़ के उतर जाएगा। वो तो मेरे शरीर के हर कोने में दौड़ते लहू की भांति मेरी नस नस में है जो  मेरी साँस थमने से ही रुकेगा।

नशा-ए-मय की तरह समझा था क़ुरबत उसकी
वो तो मानिंद ए लहू दौड़ रहा है मुझमें


आईने की भी अपनी सीमाएँ हैं। वो बस आपका बाहरी रूप रंग ही दिखा पाता है। आपके अंदर का अक़्स उसकी पहुँच से कोसों दूर है।

आईना ये तो बताता है के मैं क्या हूँ लेकिन
आईना इस पे है ख़ामोश कि क्या है मुझ में

टोंक देता है, कदम जब भी ग़लत उठता है
ऐसा लगता है कोई मुझसे बड़ा है मुझमें

अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ 'नूर'
मैं कहाँ तक करूँ साबित के वफ़ा है मुझ में


ये तो थे ग़ज़ल के पूरे शेर। नूर साहब की आवाज़ में जब ये ग़ज़ल नहीं मिली तो मैंने सोचा क्यूँ ना इसे अपनी आवाज़ में ही रिकार्ड कर लूँ। तो ये रही नूर साहब की भावनाओं तक अपनी आवाज़ से पहुँचने की मेरी कोशिश।

रविवार, मई 07, 2017

मरीज़-ए-इश्क़ का क्या है, जिया जिया ना जिया .. है एक साँस का झगड़ा, लिया लिया ना लिया

नब्बे के दशक में हरिहरण फिल्म संगीत और ग़ज़ल गायिकी में एक सितारे की तरह चमके थे। इस दौरान उनकी ग़ज़लों के कई एलबम आए  जिनमें से एक था 1992 में रिलीज़ हुआ हाज़िर। इस एलबम की पहली ग़ज़ल (जो सबसे लोकप्रिय हुई थी) का मतला कुछ यूँ था मरीज़-ए-इश्क़ का क्या है, जिया जिया ना जिया ..है एक साँस का झगड़ा, लिया लिया ना लिया

ये उन दिनों की बात थी जब इंजीनियरिंग कॉलेज के चार साल पूरे होने आए थे और इश्क़ था कि हमारी ज़िदगानी से मुँह छुपाए घूम रहा था। ऐसे में इस ग़ज़ल के मतले को मन ही मन मैं कुछ यूँ गुनगुनाने को मज़बूर हो गया था।
मरीज़-ए-इश्क़ का क्या है, किया किया ना किया
है तो ये रोज़ का लफड़ा, लिया लिया ना लिया 😁


सच तो ये था कि उन दिनों भी कहकशाँ व गालिब जैसे जगजीत के एलबमों का जादू मेरे सिर चढ़ कर बोल रहा था। हरिहरण की गायिकी लुभाती तो थी पर जगजीत की आवाज़ का मैं कुछ ज्यादा ही मुरीद था। उस वक्त दूरदर्शन पर भी नियमित रूप से हरिहरण के कार्यक्रम आया करते थे। मुझे याद है कि ऐसे ही एक महफिल में उन्होंने एक प्यारे से गीत को अपनी आवाज़ दी थी जिसके बोल थे मेरी साँसों में बसी है, तेरे दामन की महक, जैसे फूलों में उतर आई हो उपवन की महक। कभी इस गीत की रिकार्डिंग हाँ लगी तो जरूर आपसे साझा करूँगा।

प्रियंका बार्वे
तो फिर अचानक ही इतने सालों बाद मुझे हरिहरण की याद कहाँ से आ गयी। हुआ यूँ कि कुछ दिनों पहले मराठी फिल्मों की प्रतिभावान गायिका प्रियंका बार्वे की आवाज़ में ये ग़ज़ल सुनने को मिल गयी। प्रियंका ने बिना किसी संगीत के शुरुआत के तीन अशआर गा कर मन में मिठास सी घोल दी। सच तो ये है कि कुछ ग़ज़लें बिना संगीत के आभूषण के सुनी जाएँ तो ज्यादा आनंद देती हैं और मेरे ख़्याल से ये एक ऐसी ही ग़ज़ल है।


पुणे के संगीतज्ञों के परिवार से ताल्लुक रखने वाली प्रियंका ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा अपनी दादी मालती पांडे बार्वे से ली। फिलहाल प्रियंका का इरादा गायिकी के साथ साथ अभिनय के क्षेत्र में उतरने का भी है। पिछले साल वे फिरोज़ खान द्वारा निर्देशित नाटक मुगल ए आज़म में अनारकली के रूप में नज़र आयीं। प्रियंका की इस प्रस्तुति को सुन कर ऐसा लगा कि उन्हें मराठी के आलावा हिंदी फिल्मों और ग़ज़लों में अपनी आवाज़ का जादू बिखेरना चाहिए।

इस ग़ज़ल को लिखा है ब्रिटेन में रहने वाले उर्दू के नामचीन शायर डा. सफ़ी हसन ने। आपको जान कर अचरज होगा कि पाकिस्तान से ताल्लुक रखने वाले और फिलहाल बर्मिंघम में बसे सफ़ी साहब पेशे से एक वैज्ञानिक हैं। कितना खूबसूरत मतला लिखा था सफ़ी साहब ने। जिसे इश्क़ का रोग लग गया उसकी तो हर साँस ही गिरवी हो जाती है। फिर उसका जीना क्या और मरना क्या?

मरीज़-ए-इश्क़ का क्या है, जिया जिया ना जिया
है एक साँस का झगड़ा, लिया लिया ना लिया 

सफ़ी साहब आगे फर्माते हैं कि अगर दर्द से पूरा शरीर ही छलनी हो तो दिल को रफ़ू कर के कौन सी ठंडक मिलने वाली है?

बदन ही आज अगर तार-तार है मेरा
तो एक चाक-ए-ग़रेबाँ, सिया सिया ना सिया

और इसकी तो बात ही क्या ! पसंदीदा शेर है मेरा इस ग़ज़ल का। जनाब सफ़ी हसन यहाँ कहते हैं की भले ही उनका नाम मेरे होठों पर नहीं आया पर क्या कभी उन्हें अपने ख्यालों से दूर  कर पाया हूँ?

ये और बात के तू हर रह-ए-ख़याल मे है
कि तेरा नाम जुबाँ से, लिया लिया ना लिया

मेरे ही नाम पे आया है जाम महफ़िल मे
ये और बात के मै ने, पिया पिया ना पिया

ये हाल-ए-दिल है 'सफ़ी' मैं तो सोचता ही नही
कि क्यों किसी ने सहारा, दिया दिया ना दिया

वैसे चलते चलते हरिहरण की आवाज़ में पूरी ग़ज़ल भी सुनते जाइए। तबले पे हरिहरण जी का साथ दे रहे हैं मशहूर वादक ज़ाकिर हुसैन ।

 

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