बुधवार, जनवरी 31, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 : ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते

वार्षिक संगीतमाला में अब तक आपने कुछ रूमानी और कुछ थिरकते गीतों का आनंद उठाया पर आज जिस गीत का चुनाव मैंने किया है उसका मिज़ाज मन को धीर गंभीर करने वाला है और मेरा विश्वास है कि उसमें निहित संदेश आपको अपने समाज का आईना जरूर दिखाएगा। 

हिंदी फिल्मों में फ़ैज़ की नज़्मों और ग़ज़लों का बारहा इस्तेमाल किया गया है। कभी किरदारों द्वारा उनकी कविता पढ़ी गयी तो कभी उनके शब्द गीतों की शक़्ल में रुपहले पर्दे पर आए। फ़ैज़ की शायरी की एक खासियत थी कि उन्होने रूमानी शायरी के साथ साथ तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक हालातों पर भी लगातार अपनी लेखनी चलाई और इसीलिए जनमानस ने उन्हें बतौर शायर एक ऊँचे ओहदे से नवाज़ा। लोगों ने जितने प्रेम से मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग को पसंद किया उतने ही जोश से सत्ता के प्रति प्रतिकार को व्यक्त करती उनकी नज़्म हम देखेंगे को भी हाथों हाथ लिया।



फ़ैज़ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। सर्वहारा वर्ग के शासन के लिए वो हमेशा अपनी नज़्मों से आवाज उठाते रहे। बोल की लब आजाद हैं तेरे....उनकी एक ऐसी नज़्म है जो आज भी जुल्म से लड़ने के लिए आम जनमानस को प्रेरित करने की ताकत रखती है। पिछले कुछ वर्षों में उनकी नज़्म के इस रंग को हिंदी फिल्मों में लगातार जगह मिली हो। कुछ साल पहले पल्लवी जोशी ने Buddha In A Traffic Jam'.फ़क़त चंद रोज़ मेरी जान को आवाज़ दी थी। नसीरुद्दीन शाह एक फिल्म में ये दाग दाग उजाला को अपनी आवाज़ दे चुके हैं। हैदर में उनकी ग़ज़ल का इस्तेमाल करने वाले विशाल भारद्वाज ने इस बार पिछले साल की शुरुआत में कुत्ते फिल्म के शीर्षक गीत के तौर पर फ़ैज़ की इसी नाम की नज़्म का इस्तेमाल किया।

अपने समाज के दबे कुचले, बेघर, बेरोजगार, आवारा फिरती आवाम में जागृति जलाने के उद्देश्य से फैज ने प्रतीकात्मक लहजे में उनकी तुलना गलियों में विचरते आवारा कुत्तों से की। किस तरह आम जनता नेताओं, रसूखदारों, नौकरशाहों के खुद के फायदे के लिए उनकी चालों में मुहरा बन कर भी अपना दर्द चुपचाप सहती रहती है, ये नज़्म उसी ओर इशारा करती है।

ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बख्शा गया जिनको ज़ौक़ ए गदाई*
ज़माने की फटकार सरमाया** इनका
जहां भर की दुत्कार इनकी कमाई

ना आराम शब को ना राहत सवेरे
ग़लाज़त*** में घर , नालियों में बसेरे
जो बिगड़ें तो एक दूसरे से लड़ा दो
जरा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फ़ाक़ों से उकता के मर जाने वाले
ये मज़लूम मख़्लूक़^ गर सर उठाये
तो इंसान सब सरकशीं^^ भूल जाए
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आकाओं की हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इनको एहसासे ज़िल्लत^^^ दिला ले
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे

*भीख मांगने की रुचि **संचित धन ***गंदगी ^ आम जनता ^^घमंड ^^^ अपमान की अनुभुति

फैज को विश्वास था कि गर आम जनता को अपनी ताकत का गुमान हो जाए तो वो बहुत कुछ कर सकती है।रेखा भारद्वाज की आवाज़ में ये नज़्म हमारे हालातों पर करारी चोट करती हुई दिल तक पहुँचती है। विशाल कोरस में भौं भौं का अनूठा प्रयोग करते हैं। इस भूल जाने वाले एल्बम में ये नज़्म एकमात्र ऐसा नगीना है जिसे लोग कई दशकों बाद तक याद रखेंगे।
  
 


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4 टिप्पणियाँ:

Munish Sharma on फ़रवरी 01, 2024 ने कहा…

नाम से फुकरे या कमीने सरीखी कॉमेडी लगी , हालांकि वो भी देखी नहीं हैं लेकिन ये तो अब एक गंभीर मूवी मालूम देती है जैसी कि भारद्वाज से अपेक्षा होती है ।

Manish Kumar on फ़रवरी 01, 2024 ने कहा…

@ Munish फुकरे और कमीने देखी थी। विशाल की फिल्मों के चरित्र थोड़ा डार्क ह्यूमर लिए होते हैं। हिंसा व गालियों का भी अच्छा डोज है इस फिल्म में ऐसा सुना है। ये गीत फिल्म की शुरुआत में इस्तेमाल हुआ है। फिल्म ज्यादा पसंद नहीं की गई।

Sonal Singh ने कहा…

Faiz ke shabd aur Rekha ji ki awaz ❤️

Manish Kumar on फ़रवरी 11, 2024 ने कहा…

सोने पर सुहागा🙂

 

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