सोमवार, मई 06, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 Top10 : पल ये सुलझे सुलझे उलझे हैं क्यूँ ?

जावेद अख़्तर साहब की इस बात से हमेशा से इत्तेफाक़ रखता हूँ कि किसी भी गीत की धुन उसका बाहरी रूप होता है जो हमें पहले अपनी ओर आकर्षित करता है। पर गीत के बोल गीत की आत्मा होते हैं। मेरी समझ से अगर गीत की धुन अच्छी नहीं होगी तो उसकी तरफ आप उन्मुख ही नहीं होंगे पर अगर आप उससे आकर्षित हो गए हैं तो ये साथ तभी हमेशा हमेशा के लिए बना रहेगा अगर गीत के बोल आपके दिल को छू लें। अब जब 2023 के बेहतरीन गीतों को इस शृंखला में बस चार गीत ही बचे हैं तो मैं ये कह सकता हूँ कि इन गीतों की धुन तो आकर्षक है ही पर इनके बोल भी पिछले साल से अभी तक मेरे दिल में घर बना चुके हैं।
 

वार्षिक संगीतमाला में शामिल होने वाले इस गीत को आपमें से ज्यादातर लोगों ने नहीं सुना होगा। ये गीत है फिल्म तरला का जो कि मशहूर पाककला विशेषज्ञ तरला दलाल के जीवन से प्रेरित है। 

संसार में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसमें कोई ना कोई प्रतिभा ना हो। हाँ ये अलग बात है कि हममें से बहुत कम उस प्रतिभा को लगातार माँजते हुए समाज के सामने ले जाने का साहस कर पाते हों। घर व बच्चों की जिम्मेदारी में फँसी बहुत सारी गृहणियों के लिए तो ये आज  भी मुश्किल है कि वे घर के बाहर अपनी पहचान बना पाएँ। तरला दलाल ने ये किया और क्या खूब किया लेकिन अपना मुकाम बनाने के इस संघर्ष में वो कितनी बार अपनी प्रतिभा और परिवार को एक साथ ना ले चल पाने की ग्लानि से त्रस्त रहीं।

छोटे बच्चों की देखभाल, पति और सगे संबंधियों की अपेक्षाएँ और अपना एक अलग मुकाम बनाने की ललक इन सबके बीच क्या करें क्या छोड़ें की उधेड़बुन के बीच फँसी तरला के मनोभावों को गीतकार मनोज यादव ने बेहतरीन अंदाज़ में उभारा है। मिसाल के लिए गीत का ये मुखड़ा देखिए

पल ये सुलझे सुलझे उलझे हैं क्यूँ ?
ऐसे रूठे रूठे सिरे हैं क्यूँ ?
जो बनाने चले तो बिगड़ क्यूँ गया ?
आँख खोली ही थी आँसू गड़ क्यूँ गया ?
है जो खोया खोया मिले ना क्यूँ ?
हम थे जैसे वैसे रहे ना क्यूँ ?

मनोज ने स्कूल में कविता लिखना ही गुलज़ार से प्रभावित हो कर किया था और इसीलिए तो वो ऐसी पंक्तियाँ लिख पाए हैं कि नींद को देखकर ख़्वाब डर क्यूँ गया ?.... रात होने को थी चाँद झर क्यूँ गया ? ..पल जो आया नहीं वो गुजर क्यूँ गया ?... फेर करके नज़र घर किधर को गया ?


सुहित अभ्यंकर

मैं थी पन्ना तुम कहानी, एक माँगी ज़िंदगानी
एक छींटा लिपटा ऐसे, शब्द भींगे नम है किस्से
नींद को देखकर ख़्वाब डर क्यूँ गया ?
रात होने को थी चाँद झर क्यूँ गया ?
हम तो हम थे क्यूँ हैं मैं और तुम ?
रुहदारी दर्मियाँ क्यूँ है गुम ?
है जो खोया खोया मिले ना क्यूँ ?
हम थे जैसे वैसे रहे ना क्यूँ ?

इस गीत के संगीतकार हैं सुहित अभ्यंकर। पुणे से ताल्लुक रखने वाले 33 वर्षीय सुहित मराठी फिल्मों में नवोदित संगीतकार और गायक के रूप में जाने जाते हैं। इस गीत के धीर गंभीर मूड को बारीकी से पकड़ने के लिए उन्होंने गिटार के साथ इसराज का प्रयोग किया है। क्या खूब बजाया है इसराज अरशद खान ने। अरशद बंगाल से आए इस वाद्य यंत्र के अग्रणी वादकों में अपना स्थान रखते हैं। दिलरुबा के नाम से भी जाना जाने वाला ये वाद्य यंत्र ऊपर से सितार और नीचे से सारंगी जैसा दिखता है। इस गीत के दो वर्जन हैं जिसमें एक तो रेखा भारद्वाज ने गाया है और दूसरा सुहित ने।

रेखा जी की गायिकी के तो हम सभी कायल हैं। उनकी आवाज़ में एक ठसक के साथ ठहराव भी है जिसकी इस गीत को जरूरत थी। 

 

सुहित की आवाज़ में इस गीत का एक और अंतरा जिसका प्रयोग फिल्म में तो नहीं हुआ पर वो इस एल्बम का हिस्सा है।

सारी समझें नासमझ थीं, गलतियों ने गलती कर दी
फिक्रें मेरी बेवज़ह थीं, मैं ही मैं था तुम कहाँ थी ?
पल जो आया नहीं वो गुजर क्यूँ गया ?
फेर करके नज़र घर किधर को गया ?
जख्म ढूँढे मरहम मिले ना क्यूँ ?
है जो खोया खोया मिले ना क्यूँ ?
हम थे जैसे वैसे रहे ना क्यूँ ?

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4 टिप्पणियाँ:

Tripti Goenka on मई 08, 2024 ने कहा…

बिलकुल ठीक कहा आपने। यदि धुन ना भा पाये तो बहुत बार अनजाने ही गीत के बोलों तक हम नहीं पहुंच पाते।

वाक़ई बहुत जगह गुलज़ार जी की छाप नज़र आती है। कितना अलग सा व्यक्तित्व होता होगा ऐसे गहरे भावों को यो हल्के से अभिव्यक्त करने में और फिर भी उनकी गहराइयों में कोई कमी नहीं रह जाती। कितनी रोचक और आंतरिक कल्पना ।

Manish Kumar on मई 08, 2024 ने कहा…

गीत और उसके बोल आपको पसंद आए जान कर खुशी हुई।🙂👍

Swati Gupta on मई 08, 2024 ने कहा…

कितने प्यारे बोल हैं गीत के.. बहुत सुंदर और भावपूर्ण!! वैसे तो गाने के दोनों ही वर्जन अच्छे हैं पर रेखा जी‌ वाला ज्यादा अच्छा है उनकी आवाज जिस भी गाने को मिल जाए उसकी खूबसूरती और भी बढ़ जाती है

Manish Kumar on मई 08, 2024 ने कहा…

Swati Gupta बिल्कुल, रेखा जी की आवाज़ को अगर अच्छे शब्दों का सहारा मिल जाए तो सोने पर सुहागा वाली बात है।

 

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