शुक्रवार, दिसंबर 27, 2019

वार्षिक संगीतमाला 2019 Top 30 : इक मलाल है ऐसा Ek Malaal

वार्षिक संगीतमाला में चल रही है उन छः गीतों की बातें जो अंतिम 25 में स्थान बनाने में ज़रा सा के लिए रह गए। कल चिट्ठिये की चर्चा के बाद बारी है फिल्म मलाल के एक गीत की। संजय लीला भंसाली इस फिल्म के निर्माता होने के साथ साथ संगीत निर्देशक भी हैं।

संजय लीला भंसाली के संगीत के साथ  दिक्कत ये है कि कई बार उनके  गानों में संगीत का परिवेश एक सा होता है और उन्हें सुनते वक़्त Deja Vu का अहसास होता है पर दूसरा पक्ष ये भी है कि इसके बावज़ूद उनके गाने सुनने में अच्छे लगते हैं। ऐसे तो महाराष्ट्र की पृष्ठभूमि में रची बसी इस फिल्म के कई गीतों में मराठी तड़का है पर कत्थई कत्थई और इक मलाल विशुद्ध हिंदी गीत हैं। 

इसे गाया है शैल हाडा ने शैल संजय लीला भंसाली की फिल्मों से एक दशक से भी ज्यादा जुड़े हुए हैं। साँवरिया फिल्म का शीर्षक गीत हो या हाल फिलहाल में पद्मावत का खलबली शैल संजय की फिल्मों का अभिन्न हिस्सा रहें हैं। व्यक्तिगत तौर पर मुझे गुज़ारिश का उनका गीत तेरा जिक्र है सबसे पसंद है।





इक मलाल एक बेहद छोटा सा गीत है जिसे प्रशांत इंगोले की गहरे भाव ली हुई शब्द रचना और शैल हाडा की खूबसूरत गायिकी मन में बैठने को मजबूर कर देती है। ज़िंदगी में अचानक अपने प्रिय के चले जाने के बाद हमें अपनी गलतियाँ अपना दोष काटने दौड़ता है। साझी ख्वाहिशें का दुखंद अंत मन में कई सवाल खड़े कर देता है। शायद अगर मैंने ऐसा किया होता तो उसकी ये परिणिति नहीं हुई होती ऐसे ख्यालों या यूँ कहें मलाल बार बार मन को मथते हैं। प्रशांत इन्हीं भावों को गीत में कुछ यूँ प्रकट करते हैं।


इक मलाल है ऐसा

इक मलाल है

इक मलाल है ऐसा

इक मलाल है

बुन रहा है रंजिशों का

है ये जाल कैसा

इक मलाल है ऐसा

इक मलाल है

सोच की दीवारों पे
तारीख लिख के चला है
साँसों की मीनारों पे
ख़्वाहिश रख के चला है
रह गया है गर्दिशों में
ये सवाल कैसा
इक मलाल है ऐसा...




एक छोटी सी फिल्म का ये गाना आपमें से बहुतों के लिए अनसुना ही होगा। तो आइए सुनते हैं इस गीत कोमलाल का ये गीत नवोदित कलाकारों मीज़ान जाफरी और शरमिन पर फिल्माया गया है।


वार्षिक संगीतमाला 2019 
01. तेरी मिट्टी Teri Mitti
02. कलंक नहीं, इश्क़ है काजल पिया 
03. रुआँ रुआँ, रौशन हुआ Ruan Ruan
04. तेरा साथ हो   Tera Saath Ho
05. मर्द  मराठा Mard Maratha
06. मैं रहूँ या ना रहूँ भारत ये रहना चाहिए  Bharat 
07. आज जागे रहना, ये रात सोने को है  Aaj Jage Rahna
08. तेरा ना करता ज़िक्र.. तेरी ना होती फ़िक्र  Zikra
09. दिल रोई जाए, रोई जाए, रोई जाए  Dil Royi Jaye
10. कहते थे लोग जो, क़ाबिल नहीं है तू..देंगे वही सलामियाँ  Shaabaashiyaan
11 . छोटी छोटी गल दा बुरा न मनाया कर Choti Choti Gal
12. ओ राजा जी, नैना चुगलखोर राजा जी  Rajaji
13. मंज़र है ये नया Manzar Hai Ye Naya 
14. ओ रे चंदा बेईमान . बेईमान..बेईमान O Re Chanda
15.  मिर्ज़ा वे. सुन जा रे...वो जो कहना है कब से मुझे Mirza Ve
16. ऐरा गैरा नत्थू खैरा  Aira Gaira
17. ये आईना है या तू है Ye aaina
18. घर मोरे परदेसिया  Ghar More Pardesiya
19. बेईमानी  से.. 
20. तू इतना ज़रूरी कैसे हुआ? Kaise Hua
21. तेरा बन जाऊँगा Tera Ban Jaunga
22. ये जो हो रहा है Ye Jo Ho Raha Hai
23. चलूँ मैं वहाँ, जहाँ तू चला Jahaan Tu chala 
24.रूह का रिश्ता ये जुड़ गया... Rooh Ka Rishta 

गुरुवार, दिसंबर 26, 2019

वार्षिक संगीतमाला 2019 Top 30 : कितने बेचैन होते होंगे, छोटे छोटे नैन रोते होंगे Chitthiye

वार्षिक संगीतमाला की शुरुआत तो अगले साल पहली जनवरी से होगी पर उसके पहले जिक्र होगा बारी बारी से उन छः गानों का जो वार्षिक संगीतमाला के बेहद करीब आकर बाहर रह गए। भले ही ये संगीतमाला में नहीं हों पर इन्होंने मेरी गीतमाला में लगभग उतने ही अंक प्राप्त किए हैं जितने कि अंतिम के कुछ गीतों ने। अब तक आप सबने जो पसंद बताई है उसका कोई गीत इस छः गीतों में है तो आप उसे भी अपने स्कोर में शामिल कर सकते हैं।


आजकल हिंदी फिल्मी गीतों में पंजाबी बोलों का मिश्रण इस क़दर बढ़ गया है कि कई बार तो इन्हें सुनकर कोफ़्त सी होने लगती है। इसका एक कारण ये है कि जितने भी डांस या रैप नंबर हैं उनके मशहूर गायक पंजाब से आते हैं और आजकल की फिल्मों में इन्हीं गीतों की तूती बोल रही है। ऐसे गीतों में बेब्बी, सोणी, कुड़ी, रब्बा जैसे तमाम रटे रटाए पंजाबी शब्दों का इस तरह समावेश ऐसे होता है जैसे हर सब्जी में धनिया डलता हो।

इसके बावज़ूद कुछ गीत अपनी संवेदनशीलता से एक अलग पहचान छोड़ जाते हैं। ऐसा ही एक गीत संगीतमाला का हिस्सा भी है जबकि दूसरे को आज आपके सामने ले के आ रहा हूँ। इसे गाया है पंजाब के एक चर्चित सूफी गायक कँवर ग्रेवाल ने। कँवर ग्रेवाल संगीत के पुराने विद्यार्थी रहे हैं और उनकी गहरी आवाज़ इस गीत में पिता और बेटी के रिश्तों में आई खटास की पीड़ा सहज अभिव्यक्त कर देती है। रोचक कोहली का गिटार और तबला गीत में बहते दर्द में मरहम लगाने का काम करता है। गुरप्रीत सैनी के बोल तो सामान्य हैं पर गीत के एक अंतरे की ये पंक्तियाँ खास तौर पर असर डालती हैं।

कितने बेचैन होते होंगे, छोटे छोटे नैन रोते होंगे 
सहमे सहमे जागते अकेले, तन्हा सारी रात सोते होंगे 
काश कि तेरे नाल बह के, रो लैंदा तेरे दुख ले के
बोल तेरे ख्वाबाँ दी, डोर कित्थे टूटिए
जिंद मेरी रूठिये... चिट्ठिए नि चिट्ठिए

इस फिल्म में पिता और पुत्री का किरदार निभाया है वास्तविक पिता पुत्री अनिल कपूर और सोनम कपूर ने।

 

आपमें से बहुतों की पसंद में ये गीत था और मुझे भी कँवर की गायिकी भा गयी थी पर पच्चीस गीतों की बाध्यता की वज़ह से इसे अंतिम पच्चीस में स्थान नहीं मिल पाया। बहरहाल इस गीत के साथ आपमें से बहुतों का खाता खुल चुका होगा जो एक शाम मेरे नाम की इस प्रतियोगिता का हिस्सा बने हैं। अगर आपने ये गीत सुन लिया है तो इस गीतमाला की अगली पेशकश सुनना ना भूलें जिसे फिल्म मलाल से लिया गया है।

वार्षिक संगीतमाला 2019 
01. तेरी मिट्टी Teri Mitti
02. कलंक नहीं, इश्क़ है काजल पिया 
03. रुआँ रुआँ, रौशन हुआ Ruan Ruan
04. तेरा साथ हो   Tera Saath Ho
05. मर्द  मराठा Mard Maratha
06. मैं रहूँ या ना रहूँ भारत ये रहना चाहिए  Bharat 
07. आज जागे रहना, ये रात सोने को है  Aaj Jage Rahna
08. तेरा ना करता ज़िक्र.. तेरी ना होती फ़िक्र  Zikra
09. दिल रोई जाए, रोई जाए, रोई जाए  Dil Royi Jaye
10. कहते थे लोग जो, क़ाबिल नहीं है तू..देंगे वही सलामियाँ  Shaabaashiyaan
11 . छोटी छोटी गल दा बुरा न मनाया कर Choti Choti Gal
12. ओ राजा जी, नैना चुगलखोर राजा जी  Rajaji
13. मंज़र है ये नया Manzar Hai Ye Naya 
14. ओ रे चंदा बेईमान . बेईमान..बेईमान O Re Chanda
15.  मिर्ज़ा वे. सुन जा रे...वो जो कहना है कब से मुझे Mirza Ve
16. ऐरा गैरा नत्थू खैरा  Aira Gaira
17. ये आईना है या तू है Ye aaina
18. घर मोरे परदेसिया  Ghar More Pardesiya
19. बेईमानी  से.. 
20. तू इतना ज़रूरी कैसे हुआ? Kaise Hua
21. तेरा बन जाऊँगा Tera Ban Jaunga
22. ये जो हो रहा है Ye Jo Ho Raha Hai
23. चलूँ मैं वहाँ, जहाँ तू चला Jahaan Tu chala 
24.रूह का रिश्ता ये जुड़ गया... Rooh Ka Rishta 

बुधवार, दिसंबर 11, 2019

वार्षिक संगीतमाला 2019 : हिंदी फिल्मी गीतों में क्या रही आपकी इस साल की पसंद ? Top 25 Bollywood Songs of 2019

एक  शाम मेरे नाम पर वक़्त आ गया है इस साल की वार्षिक संगीतमाला का जिसमें चुने जाएँगे हर साल की तरह इस साल रिलीज़ हुई फिल्मों के मेरे पच्चीस पसंदीदा गीत। सोलह साल से चल रही इस संगीतमाला की शुरुआत के बारे में पिछले कई दिनों से श्रोताओं के सवाल आने शुरु हो गए हैं कि इस बार की संगीतमाला कब शुरु होगी। संगीतमाला तो हर नए साल में एक जनवरी से शुरु होती है और इस साल भी होगी।

इस साल रिलीज़ हुई सारी फिल्मों के गीतों को सुन चुकने के बाद मैंने तो लगभग अपनी राय कायम कर ली है और उसे यहाँ हर साल की तरह से सिलसिलेवार ढंग से प्रस्तुत भी करूँगा पिछले साल की तरह इस बार भी मुझे उत्सुकता है ये जानने की कि इस साल आपने किन गीतों को पसंद किया?

तो बताइए मुझे इस साल के फिल्मी गीतों में अपनी पसंद । आप अधिकतम पच्चीस गीतों की पसंद बता सकते हैं। जिस किसी की पसंद मुझसे सबसे ज्यादा मिलेगी उसे मिलेगा एक शाम मेरे नाम की तरफ से एक छोटा सा तोहफा...। अभी से लेकर 25 दिसंबर तक आप अपनी पसंद मुझे बता सकते हैं इस पोस्ट के कमेंट सेक्शन में। हर एक गीत के बारे में बताते हुए उसका मुखड़ा और फिल्म का नाम अवश्य लिखें। याद रहे गीत 2019  में रिलीज़ हुई फिल्मों से ही होने चाहिए। :)

इस साल यानी  2019  में करीब एक सौ के करीब  फिल्में रिलीज हुई जिनकी पूरी सूची आप यहाँ देख सकते हैं। 



वर्ष 2018 की संगीतमाला के सितारों की चर्चा अलग से यहाँ पर हुई थी। नए पाठकों को जिन्हें एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमालाओं के बारे में जानकारी नहीं है वो पिछली संगीतमालाओं से यहाँ गुजर सकते हैं..

रविवार, नवंबर 17, 2019

नाजिया हसन : जिसने अपनी छोटी सी ज़िदगी में कमाया बड़ा सा नाम Nazia Hassan (1965-2000)

अस्सी के दशक में एक फिल्म आई थी कुर्बानी। फिरोज खान की ये फिल्म जितनी चली थी उससे भी ज्यादा इसके गाने मशहूर हुए थे। एक ओर तो लैला ओ लैला में अमजद खान की चुलबुली कुबुक कुबुक ने पर्दे पर लोगों का मन मोह लिया था तो दूसरी ओर हम तुम्हें चाहते हैं ऐसे..मरने वाला कोई ज़िंदगी चाहता हो जैसे की संजीदगी भी श्रोताओं को रास आई थी।


इसी फिल्म में एक गाना था आप जैसा कोई मेरी ज़िंदगी में आए तो बात बन जाए था.. जिसे गाकर किशोर गायिका नाजिया हसन शोहरत की बुलंदियों में जा पहुँची थी। नाजिया की सफलता ने भारत में इंडी पॉप के नए रास्ते भी खोल दिए थे। जानते हैं उस वक़्त नाजिया की उम्र क्या थी? मात्र पन्द्रह साल। उसी साल उन्होंने फिल्मफेयर एवार्ड भी जीता।  इतनी कम उम्र में किसी गायिका का ये एवार्ड जीतना एक रिकार्ड ही रहा होगा। 

नाजिया तब कितनी मासूम थीं उसका अंदाजा आप तबस्सुम के साथ उनके इस प्यारे से साक्षात्कार से लगा सकते हैं। दरअसल उनकी इस मासूमियत और साफगोई को देख कर ही आज उन पर लिखने की इच्छा हुई।




अब नाजिया पन्द्रह की थीं तो हमारी पीढ़ी तो और भी छोटी थी। अगले कुछ सालों में उनके कई और कैसेट और फिल्मी एलबम मेरे घर में दाखिल हुए और पहली बार मैंने उन्हीं के ज़रिए डिस्को पॉप संगीत क्या होता है ये जाना। वो संगीत अच्छा था या बुरा इस पर तो टिप्पणी नहीं करूँगा पर इतना जरूर कहूँगा कि वो हमारे लिए नया जरूर था। स्कूल से आकर कई दिन मैं भी उनके आप जैसा कोई, बूम बूम और बोलो बोलो क्या है मेरा नाम स्टार जैसे गानों पर थिरका जरूर था। अपने भाई जोहेब हसन के साथ किया उनका पॉप एल्बम डिस्को दीवाने उस दशक के सबसे ज्यादा बिकने वाले एलबमों में एक रहा।



अस्सी के दशक में जिस तेजी से वो चमकीं, नब्बे के दशक में इतनी ही तेजी से ही संगीत परिदृश्य से गायब भी हो गयीं और उनकी जगह ऐलीशा चिनॉय और शेरोन प्रभाकर जैसी गायिकाओं ने ले लीं।

उस युग में इंटरनेट भी नहीं था और मैंने कभी जानने की कोशिश भी नही की कि नब्बे के दशक में उनके साथ क्या हुआ। सच तो ये है कि उनकी आवाज़ और उनके कुछ गीतों के आलावा मेरी यादों में कुछ भी नहीं था। यहाँ तक की उनकी तस्वीर भी नहीं। सालों बाद जब उनके छोटे से जीवन की पूरी दास्तान सुनने को मिली तो मन दुखी हो गया। बताइए भगवान ने जिससे इतनी कम उम्र में लोकप्रियता के सिंहासन पर बिठाया उसे मात्र 35 साल की उम्र में हमसे छीन भी लिया।

जीवन के अंतिम कुछ साल उनके बेहद तकलीफ़ में बीते। नब्बे के आस पास उन्हें कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी ने अपनी गिरफ्त में ले लिया।  1995 में माँ बाप के कहने से उन्होंने शादी की जो उनकी ज़िंदगी का एक गलत निर्णय साबित हुआ। कितना कष्टकर था उनका दाम्पत्य जीवन इसका इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मरने के ठीक दस दिन पहले उन्होंने अपने शौहर को तलाक दिया।

उनके रिश्तेदार बताते हैं कि वो अपना ग़म अपने तक सीमित रखने वालों में थीं। बीमारी और पारिवारिक कलह के बीच अपने सफल एलबमों से मिलने वाली रायल्टी का बड़ा हिस्सा उन्होंने सामाजिक कार्यों के लिए दान किया। उनके गानों में एक मस्ती एक उमंग थी जिसे देख कर शायद ही कोई उनके निजी जीवन की इस उदासी को पढ़ पाता।

आइए आज आपको सुनाते हैं उनके फिल्म स्टार के लिए गाया उनका ये गीत जिसे सुन कर आज भी लोग झूम उठते हैं।

बुधवार, अक्टूबर 23, 2019

एक सुरीली शाम स्निति के नाम ! Musical evening with Sniti Mishra

नौ साल पहले ओडिशा के छोटे से शहर बलांगिर से आई स्निति को मैंने Sa Re Ga Ma Singing Superstars में सुना था तो सूफी के रंगों में रँगी उस अलग सी आवाज़ को सुनकर प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका था। उसी वक्त एक शाम मेरे नाम पर उनके बारे में यहाँ लिखा भी था।


क्या पता था कि नौ साल बाद ऊपरवाला मुझे मौका देगा अपने शहर राँची में उसी प्रतिभाशाली गायिका की मेजबानी करने का। मौका था एक तकनीकी सेमिनार के साथ होने वाले संगीत के कार्यक्रम का, जिसमें मैंने उन्हें इस साल आमंत्रित किया था।

ऐसे सजी थी राँची में स्निति की महफिल
दो दिन हमारे साथ स्निति रहीं और उन दो दिनों में प्रैक्टिस से लेकर शो तक स्निति ने नए पुराने गीतों और ग़ज़लों का जो गुलदस्ता हमें सुनाया उसकी मिठास अब तक कानों में गूँज रही है। स्निति की आवाज़ को मंच पर श्रोताओं से रूबरू कराने के पहले मैंने कहा कि अगर आप पूछें कि उनकी आवाज़ में मुझे क्या विशिष्ट लगता है तो मैं यही कहूँगा कि उनकी आवाज़ में सूफ़ी संगीत सा ठहराव है, ग़ज़लों सी नजाकत है, पुराने हिंदी फिल्मी गानों सी मिठास है और आज के फ्यूजन सा नयापन है।

रिहर्सल में स्निति के साथ बैठना संगीत की वैतरणी में डुबकी लगाने जैसा था।

उनकी आवाज़ की इसी विशिष्टता को श्रोताओं तक पहुंचाने के लिए हमने ऐसे गीतों को चुना जिसमें उनके हुनर का हर रंग छलके।  अभी मुझ में कहीं.., मोरा सैयाँ मोसे बोले ना.., सजदा.., मितवा.. इन आंखों की मस्ती के.., जो तुम याद आए बहुत याद आए.., ज़रा सी आहट होती है.., निगाहें मिलाने को जी चाहता है..., घूमर.., लागा चुनरी में दाग..., यारा सिली सिली..., फूलगेंदवा ना मार..., आज जाने की ज़िद ना करो के माध्यम से उन्होंने संगीत के हर मूड को अपनी गायिकी से छुआ और ऐसा छुआ कि सारे संगीतप्रेमी झूम उठे।

कार्यक्रम शुरु होने के ठीक पहले मैं स्निति के साथ मंच पर
स्निति की कोशिश रहती है कि वो हर गीत में कुछ improvisation करें ताकि सुनने वाले के लिए वो अनुभव विशिष्ट हो जाए और यही हुआ भी। अधिकांश लोगों का ये मानना था कि इन कार्यक्रमों में गाने तो पहले भी सुनते थे पर विशुद्ध संगीत क्या होता है उसका स्वाद इस बार ही चखा।

प्रैक्टिस और शो के बीच के समय में उनसे सारेगामापा के पहले और बाद की उनकी सांगीतिक यात्रा पर ढेर सारी बातें हुईं। तो चलिए जानते हैं स्निति के इस सफ़र के बारे में.. 
राँची के कार्यक्रम में अपनी गायिकी में मगन स्निति
स्निति के माता पिता शास्त्रीय संगीत के प्रेमी रहे हैं। घर में शास्त्रीय संगीत खूब सुना जाता और बच्चों को सुनाया जाता। नब्बे के उस दशक में अनु कपूर की मेरी आवाज़ सुनो और सोनू निगम के सारेगामा जैसे कार्यक्रम के तैयार गायकों को देख पिता भी आश्वस्त हो चले थे कि बिना अच्छे प्रशिक्षण के वहाँ स्थान बना पाना मुश्किल है। स्निति का बालमन  किशोर सुनिधि चौहान और सोनू निगम की गायिकी से बहुत प्रभावित हो चुका था पर उनके पिताजी चाहते थे कि उनकी शिक्षा किसी काबिल शिक्षक से शुरु की जाए ताकि शास्त्रीय संगीत की जो आरंभिक नींव पड़े वो पुख्ता हो। अब बलांगिर में ऐसे शिक्षक कहाँ मिलते? वो तो स्निति का सौभाग्य था कि भुवनेश्वर से तभी स्थानांतरित हो कर शास्त्रीय संगीत के शिक्षक रघुनाथ साहू बलांगिर पधारे और स्निति ने उनसे सीखना शुरु किया। तब बारह साल की स्निति सातवीं कक्षा की छात्रा थीं।


स्निति की पढ़ाई और शास्त्रीय संगीत की शिक्षा चलती रही। इसी बीच उन्होंने सारेगामापा के ऑडिशन में भाग लेना भी शुरु कर दिया। स्निति के गुरु उन्हें शास्त्रीय संगीत के इतर गीत सुनने तक के लिए मना करते जबकि सारेगामापा के मेंटर्स को हर प्रकृति के गीत गाने वाले  हरफनमौला गायकों की तलाश रहती। स्निति अपने गुरु के बताए मार्ग पर चलती रहीं। नतीजा ये हुआ कि वो सारेगामापा की आखिरी बाधा पार करने के पहले ही दो बार छँट गयीं।


स्निति थोड़ी निराश तो हुईं पर उन्होंने उससे उबरने के लिए अपनी MBA की पढ़ाई पर ध्यान देना शुरु किया जिसमें 2010 में उन्होंने दाखिला लिया था। उसी साल सारेगामापा ने अपने पैटर्न में बदलाव किया। सिंगिंग सुपरस्टार्स वाली शृंखला में नए पुराने गीतों के आलावा शास्त्रीय संगीत और ग़ज़लों के लिए अलग राउंड रखे गए थे। इसलिए मेंटर्स का ध्यान इस बार ऐसे गायकों पर था जो ऐसी विधाओं में भी पारंगत हों। अपनी माँ के उत्साहित करने पर उन्होंने फिर ऑडिशन में अपनी किस्मत आजमाई। स्निति की गायिकी इस बार के कार्यक्रम के बिल्कुल अनुकूल थी। सारेगामापाा में स्निति की आवाज़ का जादू सर चढ़कर बोला। वहाँ से लौट कर  उन्होंने अपना MBA पूरा किया और फिर  मुंबई में शिफ्ट हो गयीं।



सारेगामापा या इसके जैसे अन्य रियालिटी शो भले ही आपको कुछ समय की प्रसिद्धि दिला देते हों पर अपने पाँव ज़माने के लिए असली मेहनत उसके बाद शुरु होती है। जहाँ तक स्निति का सवाल है तो मुंबई जाने से पहले ही उनके मन में ये स्पष्टता थी कि उन्हें शास्त्रीय संगीत के इर्द गिर्द ही अपनी गायिकी को आगे बढ़ाना है


स्निति बताती हैं कि वो एक बेहद वरीय शास्त्रीय वादक से अपने मार्गदर्शन के लिए मिलीं। उन्होंने स्निति से कहा कि देखो मेरा दौर कुछ और था। अगर आज तुम्हें इस विधा में बढ़ना है तो शास्त्रीय संगीत के साथ साथ फ्यूजन का भी सहारा लेना पड़ेगा। दरअसल खालिस शास्त्रीय गायिकी में अपना मुकाम बनाने के लिए आज भी किसी घराने की विरासत बहुत काम करती है। जिसके ऊपर घरानों की छत्रछाया नहीं है उसके लिए अपने को शास्त्रीय गायिकी में स्थापित करना आसान नहीं। 

पिछले कुछ सालों में स्निति ने सूफी संगीत व सुगम शास्त्रीय संगीत के आलावा नए पुराने हिंदी फिल्मी गानों और चुनिंदा ग़ज़लों को भी अपने अलग अंदाज़ में आवाज़ें दी हैं। उन्होंने तमिल व कश्मीरी गीतों को भी बखूबी निभाया है और भविष्य में आप उनके गाए बांग्ला गीत को भी सुन पाएँगे।

स्निति की आवाज़ में एक ठुमरी
हिंदी फिल्मी गीतों को गाने से उन्हें परहेज़ नहीं बशर्ते कि उन्हें जो मौके मिलें वो उनकी प्रतिभा से न्याय कर सकें। स्निति ने अपने लिए एक उसूल बना रखा है कि वो डमी गीत नहीं गाएँगी। यही सोच उनकी आइटम नंबर्स के लिए भी है। उन्होंने अब तक जो भी प्रोजेक्ट लिए हैं उसमें इस बात का ध्यान रखा है कि वो उनकी आवाज़ के अनुरूप हों।

स्निति मानती हैं कि किसी भी गायक को  आगे बढ़ने के लिए  गीतों के कवर वर्सन के साथ साथ अपना  रचा हुए मूल संगीत भी बनाना जरूरी है जिसे आज दुनिया Independent Music  के नाम से जानती है।


जां निसार लोन के साथ स्निति का गाया एक कश्मीरी गीत

स्निति ऐसा सोचती हैं कि जिस तेजी से डिजिटल काटेंट आजकल बनाया और इंटरनेट पर उपभोग किया जा रहा है वो कुछ दिनों में इसे फिल्मों और टीवी के समकक्ष या उससे भी सशक्त माध्यम बना देगा। इसलिए अभी उनका ध्यान इसी माध्यम पर अपनी नई प्रस्तुतियाँ देने का है। आने वाले सालों के लिए उनकी योजना है कि ना केवल वो गाएँ बल्कि अपने गीतों को कंपोज भी करें। एक सपना उन्होंने और भी पाल रखा है और वो है एक प्रोडक्शन हाउस बनाने का जिसमें वे नए कलाकारों को ऐसा मंच प्रदान कर सकें जिस पर वो अपनी प्रतिभा दिखला सकें।

स्निति जितनी प्रतिभाशाली गायिका हैं उतने ही सहज और विनम्र व्यक्तित्व की स्वामिनी भी हैं। अपने कार्य के प्रति उनका समर्पण देखते ही बनता है। मुझे पूरा विश्वास है कि उन्होंने अपने लिए जो संगीत की राह तय की है उस पर उनकी ये सुरीली यात्रा चलती रहेगी।

शुक्रवार, अक्टूबर 04, 2019

देखो आलोय आलो आकाश....अरिजीत सिंह Dekho Aaloy Alo Akash

नए गायकों में अरिजीत सिंह युवाओं के सबसे चहेते हैं। जब भी किसी नई हिंदी फिल्म का संगीत रिलीज़ होता है तो अक्सर मैंने देखा है कि लोग बाग उसमें अरिजीत का गाया हुआ गाना ढूँढते हैं। उनकी लोकप्रियता का आलम ये है कि संगीतकार भी उनके लिए फिल्म की सबसे अच्छी कम्पोजीशन सुरक्षित रखते हैं। ये भी सच है कि अरिजीत ने पिछले एक दशक से अपनी गायिकी पर काफी मेहनत की है। भले ही वो अपने रूमानी गीतों के लिए जाने जाते हैं पर उन्होंने शास्त्रीय गीतों और ग़ज़लों को भी उतनी ही रवानी से गाया है और इसीलिए वो हम सबके प्रिय गायक हैं।


हिंदी फिल्मों के लिए उनके गाए गीतों को तो आप सब इस ब्लॉग की वार्षिक संगीतमाला में सुनते ही रहे हैं। आपमें से शायद बहुतों को ना पता हो कि अरिजीत मूलतः पश्चिम बंगाल के मुर्शीदाबाद से ताल्लुक रखते हैं यानी उनकी मातृभाषा बंगाली है। चलिए आज मैं आपको उनका बेहद नर्म संज़ीदा सा एक बंगाली गीत सुनवाता हूँ उसके अनुवाद के साथ। ये गीत है फिल्म खाद (Khad) का जो 2014 में रिलीज़ हुई थी।। हिंदी में इस बंगाली शब्द का अर्थ है खाई । 

बड़ी अलग सी कहानी थी इस फिल्म की। कुछ अनजाने लोग एक साथ सफ़र पर हैं और उनकी बस दुर्घटनाग्रस्त हो कर एक खाई में गिर जाती है। सबको हल्की चोट आती है। ऊपर जाने के लिए इतना समय नहीं बचता तो वे लोग एक रात एक साथ इकठ्ठा बिताते हैं। उनमें से कोई ये सुझाव देता है कि एक खेल खेला जाए जिसमें सब अपनी ज़िदगी के ऐसे रहस्यों का खुलासा करें जिसे कहने से वो झिझकते हों। शायद ऐसा करने से उनके मन की ग्लानि उस अंतहीन खाई में समा जाएँ और वो अगली सुबह एक नई ज़िदगी जीने के लिए निकलें। सब एक एक कर अपनी दिल में ज़मीं काली परतों को उधेड़ते हैं और ऐसा करते करते सुबह हो जाती है और तब आता है कहानी का झकझोर देने वाला मोड़।

हालांकि मैं बताना तो नहीं चाहता था फिर भी इस गीत के संदर्भ के लिए बताना पड़ेगा मुझे कि दरअसल ये सारे लोग मर चुके थे और उनकी आत्माएँ उनके शरीर से निकलने के पहले ग्लानिबोध से मुक्त होने के लिए ये खेल खेल रही थीं। 
इन्द्रदीप दासगुप्ता व श्रीजतो बंदोपाध्याय

कौन जानता है कि मरने के पहले मनुष्य के मन में कैसी भावनाएँ पैदा होती हैं। बंगाली फिल्मों के लोकप्रिय गीतकार श्रीजतो बंदोपाध्याय उपनिषद के मंत्र के साथ इस गीत में आती हुई मृत्यु के ठीक पहले की मानसिक अवस्था को टटोलने की कोशिश करते हैं। पर आशा के विपरीत उनका ये चित्रण डरावना नहीं बल्कि खुशी और निश्चिंतता से भरा है। आत्मा जब ग्लानि मुक्त होकर उड़ चले तो शायद उसमें ऐसे ही भाव उमड़ते हों।

असतो मा सद्गमय। 
तमसो मा ज्योतिर्गमय। 
मृत्योर मां अमृतम गमय ॥ 
शान्ति शान्ति ओम
शान्ति ओम शान्ति ओम हरि ओम तत्सत


देखो आलोय  आलो आकाश, देखो आकाश ताराए भोरा
देखो जावार पोथेर पाशे, छूटे हवा पागोल परा
ऐतो आनंदो आयोजोन, शोबी  बृथा आमाय छाड़ा
धोरे थाकुक आमार मूठो, दुई चोखे थाकुक धारा
एलो समोय राजार मोतो, होलो काजेर हीसेब सारा
बोले आए रे छूटे, आए रे तोरा
हेथा नाइको मृत्तू नाइको जोरा

असतो मा सद्गमय...

देखो तारों से भरा हुआ कितना चमकीला आकाश है ये !
रास्ते के साथ साथ ये कैसी मस्ती में बहकी हुई  हवा बह रही है
प्रकृति में ये जो उत्सव सा माहौल है वो सब निरर्थक है मेरे बिना
मेरा हाथ अच्छी तरह पकड़े रखना
ये तुम्हारी आँखों से जो आँसू बहने वाले हैं उन्हें रोक कर रखना
ये समय तो राजा जैसा है
जिंदगी के कामों का जो हिसाब था वो पूरा हो गया
दौड़ के आओ कि अब मरने का कोई डर नहीं।

मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।

अरिजीत की आवाज़ में श्रीजतो के शब्द और इन्द्रदीप दासगुप्ता की प्यारी धुन चित्त को बिल्कुल शांत कर देती है। संगीत की पहुँच भाषा से कहीं आगे है और मुझे यकीन है कि इस अगर इस गीत का अर्थ आप नहीं भी जानते तो भी इससे प्रेम करने लगते।

गुरुवार, सितंबर 19, 2019

ज़िंदगी को न बना लें वो सज़ा मेरे बाद.. मेहदी हसन / हिमानी कपूर Zindagi Ko Na Bana Lein

कई बार नए कलाकार कुछ ऐसी पुरानी ग़ज़लों की याद दिला देते हैं जिनसे सालों से राब्ता टूटा हुआ था। पिछले हफ्ते जनाब मेहदी हसन की गायी ऐसी ही एक नायाब ग़ज़ल सुनने को मिली। दरअसल गणेशोत्सव में हर साल संगीतकार व गायक शंकर महादेवन के यहाँ सुरों की महफिल जमती है। इस बार उस आयोजन में युवा गायिका हिमानी कपूर ने बड़े प्यार से हकीम नासिर की इस ग़ज़ल के कुछ शेर गुनगुनाए और सच में सुन के आनंद आ गया।
मेहदी हसन/ हिमानी कपूर
अब जब इस ग़ज़ल की बात हो रही है तो उसे रचने वाले हकीम नासिर साहब के बारे में भी कुछ जान लिया जाए। जनाब काबिल अजमेरी की तरह नासिर साहब की पैदाइश राजस्थान के अजमेर में हुई थी। विभाजन के बाद उनका परिवार कराची में बस गया। घर का पुश्तैनी काम ही हकीमी था सो नासिर साहब ने भी बाप दादा के बनाए कराची के निजामी दवाखाने में हकीमी की। कॉलेज के ज़माने में नासिर साहब ने नियमित रूप से क्रिकेट भी खेली। कराची के हमदर्द कॉलेज से हिकमत की पढ़ाई करने के दौरान ही उन्हें शायरी का चस्का लगा।

हकीम नासिर
हकीम मोहम्मद नासिर मोहब्बतों के ही शायर रहे। उनकी सबसे ज्यादा मकबूल ग़ज़ल "जब से तूने मुझे दीवाना बना ..  " है जिसे आबिदा  परवीन  ने अपनी रुहानी आवाज़ से कालजयी बना दिया। हकीम साहब से उनके हर मुशायरे में इस ग़ज़ल को पढ़ने की गुजारिश होती रहती थी। याद के लिए चंद अशआर इसी ग़ज़ल के आप सब की नज़र

जब से तूने मुझे दीवाना बना रक्खा है
संग हर शख़्स ने हाथों में उठा रक्खा है 

उस के दिल पर भी कड़ी इश्क़ में गुज़री होगी
नाम जिस ने भी मोहब्बत का सज़ा रक्खा है 

इश्क़ के सामने कौन नहीं बेबस हो जाता है और इसी बेबसी पर उनकी एक ग़ज़ल और याद आ रही है जिसमें उन्होंने लिखा था

इश्क़ कर के देख ली जो बेबसी देखी न थी
इस क़दर उलझन में पहले ज़िंदगी देखी न थी

आप से आँखें मिली थीं फिर न जाने क्या हुआ 
लोग कहते हैं कि ऐसी बे-ख़ुदी देखी न थी

हाकिम नासिर के इश्क़िया मिज़ाज की गवाही देते ये अशआर भी खूब थे..

ये दर्द है हमदम उसी ज़ालिम की निशानी
दे मुझ को दवा ऐसी कि आराम न आए

मैं बैठ के पीता रहूँ बस तेरी नज़र से
हाथों में कभी मेरे कोई जाम न आए 

तो आइए अब बात करें उस ग़ज़ल की जिससे आज की बात शुरु हुई थी। एक अजीब सी तड़प है इस ग़ज़ल मेंजिससे मोहब्बत थी उसका साथ छूट गया पर उसके बावज़ूद शायर को इस बात का यकीं है कि जिस शिद्दत से उसने मुझे प्यार किया था वो शिद्दत अपने मन  में वो और किसी के लिए नहीं ला पाएगी। 

अब अगर ये शायर की खुशफहमी है तब तो कोई बात ही नहीं पर अगर यही हक़ीक़त है तो फिर मन ये सवाल जरूर करता है कि इतने प्यारे रिश्ते को तोड़ने की जरूरत क्या थी? पर ये भी तो सच है ना कि रिश्तों की डोर कब पूरी तरह अपने हाथ में रही है?

ज़िंदगी को न बना लें वो सज़ा मेरे बाद
हौसला देना उन्हें मेरे ख़ुदा मेरे बाद


कौन घूँघट को उठाएगा सितम-गर कह के
और फिर किस से करेंगे वो हया मेरे बाद

हाथ उठते हुए उन के न कोई देखेगा
किस के आने की करेंगे वो दुआ मेरे बाद



फिर ज़माने में मोहब्बत की न पुर्सिश* होगी
रोएगी सिसकियाँ ले ले के वफ़ा मेरे बाद

किस क़दर ग़म है उन्हें मुझ से बिछड़ जाने का
हो गए वो भी ज़माने से जुदा मेरे बाद

वो जो कहता था कि ‘नासिर’ के लिए जीता हूँ
उस का क्या जानिए क्या हाल हुआ मेरे बाद

* पूछ 

बहरहाल मेहदी हसन साहब की ये ग़ज़ल आपने सुनी ही होगी। 


हिमानी ने भी इस ग़ज़ल के कुछ अशआरों को बड़े दिल से निभाया है। हिमानी की आवाज़ का मैं तब से प्रशंसक रहा हूँ जब वे 2005 के सा रे गा मा पा में पहली बार संगीत के मंच पर दिखाई पड़ी थीं। पहली बार जब उनकी आवाज़ में  जिया धड़क धड़क जिया धड़क धड़क जाये... सुना था तो रोंगटे खड़े हो गए थे।


हिमानी ने पिछले एक दशक में बैंड बाजा बारात और बचना ऐ हसीनों सहित सात आठ फिल्मों के लिए गाने गाए हैं पर एक दो गानों को छोड़कर उनके बाकी गाने उतने लोकप्रिय नहीं हुए। इंटरनेट के युग में उनके जैसे हुनरमंद कलाकार अब अपने सिंगल्स खुद ही निकाल रहे हैं। हिमानी का मानना है कि फिल्मों के बजाए Independent Music करने में सहूलियत ये होती है कि आप अपनी पसंद के गीत चुनते हैं और दर्शकों से सीधे मुखातिब होते हैं।

ये ग़ज़ल भी उन्होंने यू ट्यूब पर पहली बार ॠषिकेश में गंगा के किनारे यूँ ही रिकार्ड की थी पर जैसा मैंने आपको ऊपर बताया कि हाल ही में इसे उन्होंने शंकर महादेवन के घर में सुनाया। आप भी सुन लीजिए उनका ये प्यारा सा प्रयास...


आज तो ना हमारे बीच हकीम मोहम्मद नासिर हैं और ना ही मेहदी हसन साहब लेकिन जब तक उनकी गायिकी का परचम फहराने वाले ऐसे युवा कलाकार हमारे बीच रहेंगे उनकी याद हमेशा दिल में बनी रहेगी।

शनिवार, अगस्त 17, 2019

जिसे मिलना ही नहीं उससे मोहब्बत कैसी... सोचता जाऊँ मगर दिल में उतरता देखूँ (Tu jo aa jaye..)

सत्तर के दशक में जगजीत जी ने कई ग़ज़लें गायीं। कभी निजी महफिलों में तो कभी स्टेज शो में। वो वक़्त ग्रामोफोन का हुआ करता था। चुनिंदा ग़ज़लें ही रिकार्ड होती थीं। जब कैसेट का युग आया तो भी उस शुरुआती दौर में HMV का एकाधिकार रहा।  नतीजा ये हुआ कि जगजीत जी की बहुत सारी ग़ज़लें उनके उसे पहली बार गाने के कई दशकों बाद किसी एलबम का हिस्सा बनीं। आज इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिकी की लिखी जो ग़ज़ल आपको सुनाने जा रहा हूँ वो इसी कोटि की है।


इस ग़ज़ल को लिखने वाले सीमाब अकबराबादी के पोते इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिकी से आपकी मुलाकात मैंने फिल्म अर्थ के लिए लिखी उनकी चर्चित ग़ज़ल तू नहीं तो ज़िदगी में और क्या रह जाएगा के जिक्र के दौरान की थी। दादा की मौत के बाद उनका परिवार आगरा से मुंबई आया और विकट परिस्थितियों में शायर पत्रिका का सालों साल बिना रुके संपादन करता रहा। वे अपने किसी भी साक्षात्कार में फक्र से ये बताना नहीं भूलते कि एक समय वो भी था जब निदा फ़ाज़ली जैसा शायर उन्हें ख़त लिखता था कि उनकी शायरी पत्रिका में छाप दी जाए।

इमाम साहब की ज़िंदगी ने तब दुखद मोड़ लिया जब वर्ष 2002 में चलती ट्रेन पर चढ़ने की कोशिश में वो गिर पड़े और उस दुर्घटना के बाद उमका कमर से नीचे का हिस्सा बेकार हो गया। आज उनकी ज़िंदगी व्हीलचेयर के सहारे ही घिसटती है, फिर भी वो इसी हालत में 'शायर' के संपादन में जुटे रहते हैं। कुछ साल पहले भास्कर को दिए अपने साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि
"हमारी विरासत शायरी है। हम उसे आगे ले जाने के लिए हर सुबह आंखें खोलते हैं और रात में पलकें झपकाते हैं तो इस यकीन के साथ कि अगली सुबह फिर अदब को मज़बूती देने के लिए सांस लेते हुए उठेंगे। यही हमारी ज़िंदगी है। कई बार कुछ लोग कहते हैं कि जिस साहित्यिक समाज के लिए हमने सब कुछ दांव पर लगा दिया, उसने बेकद्री की है, लेकिन हमें ऐसा कतई नहीं लगता। तमाम संस्थाओं ने मान-सम्मान दिया है, हमारी ग़ज़लें पढ़ी-सुनी हैं, ‘शायर’ को अब तक हाथोहाथ लिया है तो चंद दुखों के आगे लोगों की मोहब्बत को हम कैसे नाकाफी कह दें।
जगजीत सिंह, चित्रा सिंह, पंकज उधास और सुधा मल्होत्रा जैसे गायक और गायिकाओं ने मेरे कलाम गाए, निदा फाज़ली और बशीर बद्र को फ़िल्म इंडस्ट्री से इंट्रोड्यूस कराने का मुझे मौका मिला, कृश्नचंदर, महेंदरनाथ, राजिंदर सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास से सोहबत रही- और बताइए, दौलत क्या होती है। "
इमाम साहब का ये जज़्बा यूँ ही बना रहे। उनकी मशहूर ग़ज़लों की तो रिकार्डिंग उपलब्ध नहीं पर उनको अगर आप तरन्नुम में गाते सुन लें तो यूँ महसूस होगा कि सफेद बालों के इस वृद्ध इंसान के भीतर रूमानियत से भरा एक युवा दिल आज भी धड़क रहा है।


वैसे तो मुझे उनकी ये पूरी ग़ज़ल ही प्यारी लगती है पर इसके दो शेर खासतौर पर दिल के करीब लगते हैं। पहला तो वो जिसमें इमाम साहब कहते हैं जिसे मिलना ही नहीं उससे मोहब्बत कैसी...सोचता जाऊँ मगर दिल में उतरता देखूँ और दूसरा वो चंद लम्हे जो तेरे कुर्ब के मिल जाते हैं...इन्ही लम्हों को मैं सदियों में बदलता देखूँ।

जिन्हें हम पसंद करते हैं उनके साथ ज़िदगी बीते ना बीते उनका स्थान दिल की गहराइयों में वैसे ही बना रहता है और जब कभी ऐसी शख्सियत से मुलाकात होती है तो उन बेशकीमती पलों को हम हृदय में तह लगाकर रख देते हैं और जब जब मन होता है उन यादों को ओढ़ते बिछाते रहते हैं।

तू जो आ जाए तो इस घर को सँवरता देखूँ
एक मुद्दत से जो वीरां है वो बसता देखूँ

ख़्वाब बनकर तू बरसता रहे शबनम शबनम
और बस मैं इसी मौसम को निख़रता देखूँ

जिसे मिलना ही नहीं उससे मोहब्बत कैसी
सोचता जाऊँ मगर दिल में उतरता देखूँ

चंद लम्हे जो तेरे कुर्ब के मिल जाते हैं
इन्ही लम्हों को मैं सदियों में बदलता देखूँ
(कुर्ब : निकटता )

जगजीत जी ने इसी बहर में पाकिस्तान के मशहूर शायर अहमद नदीम कासिमी का भी एक शेर गाया है जो कुछ यूँ है

दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता
मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ  😄            -


स्टेज शो में तब जगजीत बहुत कुछ मेहदी हसन वाली शैली अपनाते थे। यानी ग़ज़ल के अशआरों के बीच श्रोताओं को उनकी शास्त्रीय गायिको सुनने का लुत्फ मिल जाया करता था। जगजीत ने  इस ग़ज़ल में राग दुर्गा पर आधारित बंदिश का इस्तेमाल किया है।

जगजीत जी को ग़ज़लों के साथ कई नए तरह के वाद्य यंत्र जैसे वॉयलिन, पियानो, सरोद आदि इस्तेमाल करने का श्रेय दिया जाता है पर नब्बे के दशक के बाद उनके संगीत संयोजन में एक तरह का दोहराव आने लगा। अगर आप उस समय के एलबमों को सुनते हुए बड़े हुए हैं तो उनकी ये ग़ज़ल और उसका संगीत संयोजन आपको ग़ज़ल गायिकी की पारंपरिक शैली की ओर ले जाता मिलेगा। मुझे तो लुत्फ़ आ गया इसे सुन कर। आप भी सुनें।

रविवार, जुलाई 14, 2019

सूनी सूनी साँस के सितार पर ...नीरज की एक कविता जो बन गयी गीत Sooni Sooni Sanson Ke Sitar Par...

आधुनिक हिंदी कविता के प्रशंसकों में शायद ही कोई ऐसा हो जो गोपाल दास नीरज के गीतों, मुक्तक, दोहों और कविताओं से दो चार नहीं हुआ होगा। नीरज हिंदी फिल्मों में भी साठ और सत्तर के दशक में सक्रिय रहे और करीब पाँच दशकों बाद भी उनके गीत आज भी बड़े चाव से गाए व गुनगुनाए जाते हैं। नीरज जी के लिखे सबसे शानदार गीत सचिन देव बर्मन और शंकर जयकिशन जैसे संगीतकारों की झोली में गए। पर हिंदी फिल्म जगत में नीरज की पारी ज्यादा दिन नहीं चल सकी। सचिन दा और जयकिशन की मृत्यु और संगीत के बदलते परिवेश ने फिल्मी गीत लेखन से उनका मन विमुख कर दिया। 


उनके सफल दर्जन भर गीतों की बानगी लें तो उसमें हर रस के गीत मौज़ूद थे। प्रेम, (लिखे जो खत तुझे... रँगीला रे..., जीवन की बगिया महकेगी....) शोखी, (ओ मेरी ओ मेरी शर्मीली...., रेशमी उजाला है मखमली अँधेरा....) उदासी, (दिल आज शायर है, कैसे कहें हम..., खिलते हैं गुल यहाँ खिल के बिखरने को...., मेघा छाए आधी रात....) भक्ति, (राधा ने माला जपी श्याम की....) और हास्य (धीरे से जाना खटियन में खटमल...., ऐ भाई ज़रा देख के चलो...) जैसे सारे रंग मौज़ूद तो थे उनकी लेखनी में।

कवियों ने जब जब गीतकार की कमान सँभाली है तो अपनी कविताओं को गीतों में पिरोया है। धर्मवीर भारती की लिखी कविता  ये शामें सब की सब शामें क्या इनका कोई अर्थ नहीं.... याद आती है जिसका आांशिक प्रयोग सूरज का सातवाँ घोड़ा में हुआ था। नीरज ने कई बार अपनी कविताओं को गीत में ढाला। उनकी अमर रचना कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे को फिल्म "नए उमर की नई फ़सल " में हूबह लिया गया। नीरज की एक और कविता थी जिसका कुछ हिस्सा इस्तेमाल हुआ शंकर जयकिशन की  फिल्म लाल पत्थर के एक गीत सूनी सूनी साँस के  सितार ..  में गीत के अंतरे तो फिल्म के लिहाज से सहज बना दिए गए पर आज उनके उस गीत को सुनवाने से पहले वो कविता सुन लीजिए जो प्रेरणा थी उस गीत की।

नीरज की इस कविता में एक आध्यात्मिक सोच है जिस पर उदासी का मुलम्मा चढ़ा है। वे कहते हैं कि जीवन में कभी भी आपके चारों ओर सब कुछ धनात्मक उर्जा से भरा नहीं होता। जब एक ओर कुछ रिश्ते प्रगाढ़ होते रहते हैं तो वहीं किसी दूसरे संबंध में दरारें पड़ने लगती हैं। कहीं सृजन हो रहा होता है तो साथ ही कई विनाश गाथा रची जा रही होती है। कहीं प्रेम का ज्वार फूट रहा होता है तो कहीं उसी प्रेम को घृणा की दीवार तहस नहस करने को आतुर रहती है।  

वैसे भी इस संसार में कुछ भी शाश्वत नहीं है। सुख दुख के इन झोंकों के बीच हम जीवन की नैया खेते रहना ही शायद अमिट सत्य है जिसे जितनी जल्दी हम स्वीकार कर लें उतना ही बेहतर..। 

सूनी-सूनी साँस के सितार पर
गीले-गीले आँसुओं के तार पर
एक गीत सुन रही है ज़िन्दगी
एक गीत गा रही है ज़िन्दगी।
चढ़ रहा है सूर्य उधर, चाँद इधर ढल रहा
झर रही है रात यहाँ, प्रात वहाँ खिल रहा
जी रही है एक साँस, एक साँस मर रही
इसलिए मिलन-विरह-विहान में
इक दिया जला रही है ज़िन्दगी
इक दिया बुझा रही है ज़िन्दगी।
रोज फ़ूल कर रहा है धूल के लिए श्रंगार
और डालती है रोज धूल फ़ूल पर अंगार
कूल के लिए लहर-लहर विकल मचल रही
किन्तु कर रहा है कूल बूंद-बूंद पर प्रहार
इसलिए घृणा-विदग्ध-प्रीति को
एक क्षण हँसा रही है ज़िन्दगी
एक क्षण रूला रही है ज़िन्दगी।
एक दीप के लिए पतंग कोटि मिट रहे
एक मीत के लिए असंख्य मीत छुट रहे
एक बूंद के लिए गले-ढले हजार मेघ
एक अश्रु से सजीव सौ सपन लिपट रहे
इसलिए सृजन-विनाश-सन्धि पर
एक घर बसा रही है ज़िन्दगी
एक घर मिटा रही है ज़िन्दगी।
सो रहा है आसमान, रात हो रही खड़ी
जल रही बहार, कली नींद में जड़ी पड़ी
धर रही है उम्र की उमंग कामना शरीर
टूट कर बिखर रही है साँस की लड़ी-लड़ी
इसलिए चिता की धूप-छाँह में
एक पल सुला रही है ज़िन्दगी
एक पल जगा रही है ज़िन्दगी।
जा रही बहार, आ रही खिजां लिए हुए
जल रही सुबह बुझी हुई शमा लिए
रो रहा है अश्क, आ रही है आँख को हँसी
राह चल रही है गर्दे-कारवां लिए हुए
इसलिए मज़ार की पुकार पर
एक बार आ रही है ज़िन्दगी
एक बार जा रही है ज़िन्दगी।

उनकी कविता में  कहीं आशा का चढ़ता सूरज है कहीं निराशा की ढलती साँझ है। कहीं फूल धूल पर बिछने को तैयार बैठा है और वही धूल उस फूल की सुंदरता नष्ट करने पर तुली है। लहरें किनारों से मिलने के लिए उतावली हैं और किनारा पास आती लहरों पर प्रहार करने से भी नहीं सकुचा रहा। करोड़ों पतंगे एक दीप की चाह में अपने जीवन की कुर्बानियाँ दे रहे हैं। इष्ट मीत के प्रेम को पाने के लिए हम कितनों के प्रणय निवेदन को अनदेखा कर रहे हैं। इन सोते जागते पलों और बदलते जीवन में कहीं हँसी की खिलखिलाहट है तो कहीं रुदन का विलाप



नीरज ने फिल्म में अपनी कविता का मूल भाव और मुखड़ा वही रखते हुए अंतरों का सरलीकरण कर दिया। शंकर जयकिशन के साझा सांगीतिक सफ़र का वो आखिरी साल था। दिसंबर 1971 में इस फिल्म के प्रदर्शित होने के तीन महीने पहले जयकिशन लिवर की बीमारी की वजह से दुनिया छोड़ चुके थे। शास्त्रीय रचनाओं में प्रवीण ये संगीत रचना भी संभवतः शंकर की ही होगी। उन्होंने इस गीत को राग जयजयवंती पर आधारित किया था। 

शुरुआत और अंत में आशा जी के आलाप गीत को चार चाँद लगाते हैं। उनकी शानदार गायिकी की वज़ह से उस साल के फिल्मफेयर में ये गीत नामित हुआ था। गीत के इंटरल्यूड्स में सितार का बेहतरीन प्रयोग मन को सोहता है।

इस गीत को फिल्माया गया था राखी पर। दृश्य था कि राखी मंच पर अपना गायन प्रस्तुत कर रही हैं और उनके पीछे विभिन्न वाद्य यंत्र लिए वादक मंच पर बैठे हैं। मजे की बात ये कि गीत में पीछे दिखते वाद्यों में शायद ही किसी का प्रयोग हुआ है। बज तबला और सितार रहा है पर वो दिखता नहीं है। अपने पुराने प्रेम को भूलते हुए ज़िदगी में नायिका का नए सिरे से रमना कितना कठिन है। इसलिए नीरज गीत में कहते हैं कि एक सुर मिला रही है ज़िंदगी...एक सुर भुला रही है ज़िंदगी

सूनी सूनी साँस के सितार पर
भीगे भीगे आँसुओं के तार पर
एक गीत सुन रही है ज़िंदगी
एक गीत गा रही है ज़िंदगी
सूनी सूनी साँस के सितार पर ...

प्यार जिसे कहते हैं
खेल है खिलौना है
आज इसे पाना है कल इसे खोना है
सूनी सूनी ...... तार पर
एक सुर मिला रही है ज़िंदगी
एक सुर भुला रही है ज़िंदगी
सूनी सूनी साँस के सितार पर ...

कोई कली गाती है
कोई कली रोती है
कोई आँसू पानी है
कोई आँसू मोती है
सूनी सूनी ....... तार पर
किसी को हँसा रही है ज़िंदगी
किसी को रुला रही है ज़िंदगी
सूनी सूनी साँस के सितार पर .

   

राखी के आलावा इस फिल्म में थे राज कुमार और विनोद मेहरा और साथ ही थीं हेमा मालिनी एक विलेन के किरदार में

रविवार, जून 30, 2019

ओ घटा साँवरी, थोड़ी-थोड़ी बावरी O Ghata Sanwari

बरसात की फुहारें रुक रुक कर ही सही मेरे शहर को भिंगो रही हैं। पिछले कुछ दिनों से दिन चढ़ते ही गहरे काले बादल आसमान को घेर लेते हैं। गर्जन तर्जन भी खूब करते हैं। बरसते हैं तो लगता है कि कहर बरपा ही के छोड़ेंगे पर फिर अचानक ही उनका नामालूम कहाँ से कॉल आ जाता है और वे चुपके से खिसक लेते हैं। गनीमत ये है कि वो ठंडी हवाओं को छोड़ जाते हैं जिनके झोंको का सुखद स्पर्श मन को खुशनुमा कर देता है।

ऍसे ही खुशनुमा मौसम में टहलते हुए परसों 1970 की फिल्म अभिनेत्री का ये गीत कानों से टकराया और बारिश से तरंगित नायिका के चंचल मन की आपबीती का ये सुरीला किस्सा सुन मन आनंद से भर उठा। क्या गीत लिखा था मजरूह ने! भला बताइए तो क्या आप विश्वास करेंगे कि एक कम्युनिस्ट विचारधारा वाला शायर जो अपनी इंकलाबी रचनाओ की वज़ह से साल भर जेल की हवा खा चुका हो इतने रूमानी गीत भी लिख सकता है? पर ये भी तो सच है ना कि हर व्यक्ति की शख्सियत के कई पहलू होते हैं।


मजरूह के बोलों को संगीत से सजाया था लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की जोड़ी ने। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल कभी भी मेरे पसंदीदा संगीतकार नहीं रहे। इसकी एक बड़ी वजह थी अस्सी और नब्बे के दशक में उनका संगीत जो औसत दर्जे का होने के बावजूद भी कम प्रतिस्पर्धा के चलते लोकप्रिय होता रहा था। फिल्म संगीत की गुणवत्ता में निरंतर ह्रास के उस दौर में उनके इलू इलू से लेकर चोली के पीछे तक सुन सुन के हमारी पीढ़ी बड़ी हुई थी। लक्ष्मी प्यारे के संगीत की मेरे मन में कुछ ऐसी छवि बन गयी थी कि मैंने उनके साठ व सत्तर के दशक में संगीतबद्ध गीतों पर कम ही ध्यान दिया। बाद में मुझे इन दशकों में उनके बनाए हुए कई नायाब गीत सुनने को मिले जो मेरे मन में उनकी छवि को कुछ हद तक बदल पाने में सफल रहे।

लक्ष्मीकांत बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखते थे। जीवकोपार्जन के लिए उन्होंने संगीत सीखा। मेंडोलिन अच्छा बजा लेते थे। एक कार्यक्रम में उनकी स्थिति के बारे में लता जी को बताया गया। फिर लता जी के ही कहने पर उन्हें कुछ संगीतकारों के यहाँ काम मिलने लगा। इसी क्रम में उनकी मुलाकात प्यारेलाल से हुई जिन्हें वॉयलिन में महारत हासिल थी। कुछ दिनों तक दोनों ने साथ साथ कई जगह वादक का काम किया और फिर उनकी जोड़ी बन गयी जो उनकी पहली ही फिल्म पारसमणि में जो चमकी कि फिर चमकती ही चली गयी़। कहते हैं कि उस ज़माने में उनकी कड़की का ये हाल था कि उनके गीत कितने हिट हुए ये जानने के लिए वे गली के नुक्कड़ पर पान दुकानों पर बजते बिनाका गीत माला के गीतों पर कान लगा कर रखते थे।

लक्ष्मी प्यारे को अगर आरंभिक सफलता मिली तो उसमें उनकी मधुर धुनों के साथ लता जी की आवाज़ का भी जबरदस्त हाथ रहा। ऐसा शायद ही होता था कि लता उनकी फिल्मों में गाने के लिए कभी ना कर दें। फिल्म जगत को ये बात पता थी और ये उनका कैरियर ज़माने में सहायक रही।

ओ घटा साँवरी, थोड़ी-थोड़ी बावरी
हो गयी है बरसात क्या
हर साँस है बहकी हुई
अबकी बरस है ये बात क्या
हर बात है बहकी हुई
अबकी बरस है ये बात क्या
ओ घटा साँवरी...

पा के अकेली मुझे, मेरा आँचल मेरे साथ उलझे
छू ले अचानक कोई, लट में ऐसे मेरा हाथ उलझे
क्यूँ रे बादल तूने.. ए ..ए.. ए.. आह उई ! तूने छुआ मेरा हाथ क्या
ओ घटा साँवरी...

आवाज़ थी कल यही, फिर भी ऐसे लहकती ना देखी
पग में थी पायल मगर, फिर भी ऐसे छनकती ना देखी
चंचल हो गये घुँघरू रू.. मे..रे..,  घुँघरू मेरे रातों-रात क्या
ओ घटा साँवरी...

मस्ती से बोझल पवन, जैसे छाया कोई मन पे डोले
बरखा की हर बूँद पर, थरथरी सी मेरे तन पे डोले
पागल मौसम जारे जा जाजा जा.. जा तू लगा मेरे साथ क्या!
ओ घटा साँवरी...

तो लौटें आज के इस चुहल भरे सुरीले गीत पर। लक्ष्मी प्यारे ने इस गीत की धुन राग कलावती पर आधारित की थी। बारिश के आते ही नायिका का तन मन कैसे एक मीठी अगन से सराबोर हो जाता है मजरूह ने इसी भाव को इस गीत में बेहद प्यारे तरीके से विस्तार दिया है। लक्ष्मी प्यारे ने लता जी से हर अंतरे की आखिरी पंक्ति में शब्दों के दोहराव से जो प्रभाव उत्पन्न किया है वो लता जी की आवाज़ में और मादक हो उठा है। तो चलिए हाथ भर के फासले पर मँडराते बादल और मस्त पवन के झोंको के बीच सुनें लता जी की लहकती आवाज़ और छनकती पायल को ...


जितना प्यारा ये गीत है उतना ही बेसिरपैर का इसका फिल्मांकन है। हेमा मालिनी पर फिल्माए इस गीत की शुरुआत तो बारिश से होती है पर गीत खत्म होते होते ऐसा लगता है कि योग की कक्षा से लौटे हों। बहरहाल एक रोचक तथ्य ये भी है कि इस फिल्म के प्रीमियर पर धरम पा जी ने पहली बार अपनी चंगी कुड़ी हेमा को देखा था।

एक शाम मेरे नाम पर मानसूनी गीतों की बहार  

शनिवार, जून 15, 2019

यादें इब्ने इंशा की : फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों ! Farz Karo..

इब्ने इंशा का आज यानी 15 जून को जन्मदिन है। अगर वो आज हमारे साथ रहते तो उनकी उम्र 92 की होती। इब्ने इंशा मेरे पसंदीदा साहित्यकारों में से एक रहे हैं। शायर इसलिए नहीं कह रहा कि मुझे उनके लिखे व्यंग्य भी बेहद उम्दा लगते हैं। उर्दू की आखिरी किताब पढ़ते वक़्त जितना मैं हँसते हँसते लोटपोट हुआ था उसके बाद वैसी कोई मजेदार किताब पढ़ने को नहीं मिली। उनके यात्रानामों का अभी तक हिंदी में अनुवाद नहीं आया है। जिस दिन आएगा उस दिन चीन जापान से लेकर मध्य पूर्व के उनके यात्रानामों को पढ़ने की तमन्ना है।



जो लोग कविता को पढ़ पढ़ कर रस लेते हैं उनके लिए इब्ने इंशा जैसा कोई शायर नहीं है। इंशा जी की शायरी में जहाँ एक ओर शोखी है, शरारत है तो वहीं दूसरी ओर एक बेकली, तड़प और एक किस्म की फकीरी भी है। अपने दुख के साथ साथ समाज के प्रति अपने दायित्व को उनकी नज़्में बारहा उभारती हैं। ये बच्चा किसका बच्चा है और बगदाद की एक रात उनकी ऍसी ही श्रेणी की लंबी नज़्में हैं। 

आजकल के शायरों में अगर चाँद किसी की नज़्मों और गीतों मे बार बार दिखता है तो वो गुलज़ार साहब हैं पर जिनलोगों ने इब्ने इंशा को पढ़ा है वो जानते हैं कि चाँद के तमन्नाइयों में इंशा सबसे ऊपर हैं। बचपन में उनकी शायरी से मेरा परिचय जगजीत सिंह की गाई ग़ज़ल कल चौदहवीं की रात थी, से ही हुआ था। इंशा ने अपनी पहली किताब का भी नाम चाँदनगर रखा। इंशा ने इस बात का जिक्र भी किया है कि उनका घर एक रेलवे स्टेशन के पास था जिसके ऊपर बने पुल पर वो घंटों चर्च के घंटा घर की आवाज़ें सुनते और चाँद को निहारा करते थे। चाहे वो एकांत में रहें या शहर की भीड़ भाड़ में, चाँद से उनकी प्रीति बनी रही। चाँदनगर की प्रस्तावना में अपनी शायरी के बारे में इंशा लिखते हैं...   
मैं शुरु से स्वाभाव का रूमानी था पर मैं ऍसे संसार का वासी हूँ जहाँ सब कुछ प्रेममय नहीं है। मेरी लंबी नज़्में मेरे आस पास की घटनाओं का कटु सत्य उजागर करती हैं। हालांकि कई बार ऐसा लेखन मेरी रूमानियत के आड़े आता रहा। फिर भी मैंने कोशिश की चाहे प्रेम हो या जगत की विपदा जब भी लिखूँ मन की भावनाओं को सच्चे और सशक्त रूप में उभारूँ।
अब फर्ज करो को ही लीजिए। कैसी शरारत भरी नज़्म है कि एक ओर तो उनके दिल में दबा प्रेम इस रचना के हर टुकड़े से कुलाँचे मार कर बाहर निकलना चाहता है तो दूसरी ओर अपनी ही भावनाओं को हर दूसरी पंक्ति में वो विपरीत मोड़ पर भी ले जाते हैं ताकि सामने वाले के मन में संशय बना रहे। ये जो इंसानी फितरत है वो थोड़ी बहुत हम सबमें हैं। प्रेम से लबालब भरे पड़े हैं पर जब सीधे पूछ दिया जाए तो कह दें नहीं जी ऐसा भी कुछ नहीं हैं। आपने आखिर क्या सोच लिया और फिर बात को ही घुमा दें? अपनी बात कहते हुए जिस तरह इंशा ने हम सब की मनोभावनाओं पर चुपके से सेंध मारी है,वो उनकी इस रचना को इतनी मकबूलियत दिलाने में सफल रहा।


इब्ने इंशा को उनके जन्मदिन पर याद करने के लिए उनकी बेहद लोकप्रिय नज़्म पढ़ने की कोशिश की है। यूँ तो इब्ने इंशा की इस नज़्म को छाया गाँगुली और हाल फिलहाल में जेब बंगेश ने अपनी आवाज़ से सँवारा है पर जो आनंद इसे बोलते हुए पढ़ने में आता है वो संगीत के साथ सुनने में मुझे तो नहीं आता। आशा है आप भी पूरे भावों के साथ साथ ही में पढ़ेंगे इसको

फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों

फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई हो
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो

फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के ढूंढे हमने बहाने हों
फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सचमुच के मयख़ाने हों

फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूठा, झूठी पीत हमारी हो
फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में सांस भी हम पर भारी हो

फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सब कुछ माया हो




एक शाम मेरे नाम पर इब्ने इंशा
 

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